________________ ध्यान-द्वात्रिंशिका विषय एवं शरीर के अवलोकन द्वारा हिंसा, द्वेष आदि चित्तवृत्तियों का विशुद्धीकरण किया जा सकता है, जिसकी तुलना विपश्यना भावना के अन्तर्गत काय, वेदना, चित्त एवं धर्मों के विचय से की जा सकती है (अभिधर्मकोश VI. 14) / नित्यत्व-अनित्यत्व आदि द्वन्द्वात्मक दृष्टियों का समाधान अनेकान्त रूपी मध्यस्थभाव के अनुशीलन द्वारा किया जा सकता है। कषाय एवं मिथ्यादृष्टियों का प्रास्रव के रूप में निरूपण कर उनके निरोध को धर्म-ध्यान का मर्म बताया गया है। धर्म-ध्यान का ऐसा युक्तियुक्त निरूपण किसी अन्य जैनाचार्य ने शायद ही किया हो। बौद्ध परम्परागत विपश्यना भावना का भी समावेश ग्रन्थकार ने धर्म-ध्यान में कुशलता से किया है। वस्तुतः धर्म-ध्यान और विपश्यना-इन दोनों की विचयात्मकता एक दूसरे को किसी बिन्दु पर एक कर देती है। अभिधर्मकोश अध्याय 2 की कारिका 3 में धर्म-प्रविचय स्वरूप होने के कारण बुद्धकृत अभिधर्म देशना को सार्थक बताया गया है। वह मननीय है। कारिका इस प्रकार है धर्माणां प्रविचयमन्तरेण नास्ति क्लेशानां यत उपशान्तयेऽभ्युपायः / क्लेशश्च भ्रमति भवार्णवेऽत्र लोक _ स्तद्धेतोरत उदितः किलैषशास्त्रा॥ नेहारम्भणचारोऽस्ति केवलोदीरणव्ययौ / अनन्तश्वर्य सामर्थ्य स्वयं योगी प्रपद्यते // 28 // तत्क्षीयमाणं क्षीणं तु चरमाभ्युदयक्षणे। कैवल्यकारणं पंककललाम्बुप्रसादवत् // 26 // (युग्मम्) __ यहां (शुक्ल-ध्यान के द्वितीय चरण में) पालम्बनों में संचरण नहीं होता है / (अतः इस ध्यान को एकत्व-वितर्क-अविचार संज्ञा दी गई है।) केवलमात्र उदीरण एवं क्षय होता है। यह (ज्ञानावरणीय एवं चारित्र-मोहनीय कर्म की) क्षीयमाण अवस्था है। (जो 10 वें गुणस्थान में होती है। इसके अनन्तर कषायों के संपूर्ण) क्षय से योगी चरम अभ्युदय अवस्था में पहुंचता है। (यहां दसवें एवं बारहवें गुणस्थान का वर्णन है / दसवें गणस्थान में चारित्र-मोहनीय का संज्वलन अंश क्षीयमाण की अवस्था में रहता है। बारहवें गुणस्थान में) कैवल्य उदय के पूर्व क्षण में यह कषाय क्षीण पर्याय में आता हुआ कैवल्य का कारण बनता है। इस कैवल्य की तुलना संपूर्ण रूप से पंक-रहित निर्मल जल से की गई है। चक्षुर्वद्विषयख्यातिरवधिज्ञानकेवले / शेषवृत्तिविशेषात्तु ते मते ज्ञान दर्शने // 30 // अवधिज्ञान तथा केवलज्ञान में विषयों का साक्षात्कार उसी प्रकार होता है, जिस प्रकार चक्षु द्वारा अपने विषयों का साक्षात्कार किया जाता है। (यद्यपि चक्षुर्ज्ञान वास्तव में परोक्षज्ञान है तथापि पारमार्थिक प्रत्यक्षज्ञान-अवधि और केवलज्ञान की