Book Title: Jaina Meditation Citta Samadhi Jaina Yoga
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 72
________________ जैन परम्परा में योग 15 अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार के ध्यानों की चर्चा इसमें की गई है / पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यान का वर्णन हम सर्वप्रथम शायद इसी में पाते हैं / प्राणायाम की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए शुभचन्द्र कहते हैं स्थिरीभवन्ति चेतांसि प्राणायामावलम्बिनाम् / जगद्वृत्तं च निःशेषं प्रत्यक्षमिव जायते // प्राणायाम का आश्रय लेने वाले योगियों के मन स्थिर हो जाते हैं तथा उन्हें संसार का सारा वृत्त प्रत्यक्ष जैसा हो जाता है / शुभचन्द्र के इस कथन की तुलना हम पातञ्जल योगदर्शन के “ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्" (प्राणायाम के अभ्यास से योगी के विवेकज्ञानावरणीय कर्म का क्षय हो जाता है) 68__-- इस सूत्र से कर सकते हैं। प्राणायाम के इस महत्त्व को बतलाते हुए भी आध्यात्मिक साधना में उसकी विघ्नकारिता का निर्देश उन्होंने इस प्रकार किया है वायोः संचारचातुर्यमणिमाद्यङ्गसाधनम् / प्रायः प्रत्यूहबीजं स्यान्मुनेर्मुक्तिमभीप्सतः // वायु की संचार विषयक प्रवीणता शरीर को अणु (सूक्ष्म) एवं महान् (बृहत्) आदि बनाने में कारणभूत है। अतः वह मुक्ति की इच्छा करने वाले मुनि की अभीष्ट सिद्धि में प्रायः बाधा पहुंचाने वाली सिद्ध होती है / ___ इस प्रसंग में प्राणायाम की अपेक्षा प्रत्याहार को योग-साधना में अधिक उपयोगी बताते हुए शुभचन्द्र कहते हैं-- सम्यक्समाधिसिद्धयर्थं प्रत्याहारः प्रशस्यते / प्राणायामेन विक्षिप्तं मन: स्वास्थ्यं न विन्दति // प्रत्याहृतं पुनः स्वस्थं सर्वोपाधिविजितम् / चेतः समत्वमापन्नं स्वस्मिन्नेव लयं व्रजेत् / / समाधि को भली-भांति सिद्ध करने के लिए प्रत्याहार की अनुशंसा की जाती है। प्राणायाम से क्षोभ को प्राप्त हुआ मन स्वस्थता को प्राप्त नहीं होता / परन्तु प्रत्याहार को प्राप्त हुअा मन स्वस्थ और समस्त उपाधियों (संकल्प-विकल्पों) से रहित होकर समताभाव को प्राप्त होता हुआ अपने आत्म-स्वरूप में लीन होता है / प्रत्याहार निरूपण के अनन्तर ध्यान का विवेचन करते हुए वे कहते हैंप्रबलध्यानवज्रेण दुरितद्रुमसंक्षयम् / तथा कुर्मो यथा दत्ते न पुनर्भवसंभवम् // 1 हम प्रबल ध्यान रूप वज्र के द्वारा पाप रूप वृक्ष का क्षय इस प्रकार कर देते हैं कि जिस प्रकार से वह फिर से संसार-परिभ्रमणजन्य दुःख को न दे सके।

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