________________ सिद्धसेनदिवाकर-प्रणीत ध्यान-द्वात्रिंशिका [विश्लेषणात्मक अनुवाद ... - संपादन एवं अनुवाद-डॉ० नथमल टाटिया* प्रस्तावना सिद्धसेन-प्रणीत द्वात्रिंशिकाओं में ध्यान-द्वात्रिशिका का दसवां स्थान है / ____ यद्यपि इसमें चौंतीस श्लोक हैं, तथापि इसे रूढिवशात् द्वात्रिशिका कहा जाता है। इसकी ओर मेरा ध्यान अकस्मात् गया। संयोगवश मुनिश्री किशनलालजी का सहयोग मिला। हिन्दी अनुवाद का प्रयत्न किया गया। मुनिजी सतत श्रम करते रहे। दुरूह स्थलों पर युवाचार्यश्री महाप्रज्ञजी का निर्देशन एवं प्रेरणा प्राप्त होती रही। प्राथमिक अनुवाद सम्पन्न हुआ, किन्तु फिर भी कई स्थान अस्पष्ट रह गये, जो विशेष चर्चा की अपेक्षा रखते थे। अनुवाद को कुछ टिप्पणों सहित प्रकाशन योग्य बनाने का मेरा प्रयत्न अविच्छिन्न चल रहा था। इस बीच साध्वी निर्वाणश्री एवं उनकी सहयोगिनी समणी चिन्मयप्रज्ञा का पालम्बन मिला। साध्वी निर्वाणश्री के समालोचनात्मक प्रश्नों से अनुवाद अधिक संश्लिष्ट हो सका एवं यत्र तत्र संक्षिप्त टिप्पण लिखे गये। फलस्वरूप यह अनुवाद इस रूप में प्रस्तुत हो पाया। प्रस्तुत द्वात्रिंशिका की कुछ विशेषताएं हैं। उस समय इस विषय का जो भी महत्त्वपूर्ण साहित्य उपलब्ध था, उसका जैन चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक विवेचन के साथ अपने पक्ष को जिस गहराई से इसमें रखा गया है, वह अन्यत्र देखने में नहीं आता। वैसे तो जिनभद्रगणि, हरिभद्र, शुभचन्द्र, हेमचन्द्र आदि जैनाचार्यों ने जैनध्यान एवं योग के क्षेत्र में अनेक समन्वयात्मक अध्ययन प्रस्तुत किये हैं, परन्तु प्राचीन जैन ध्यान मार्ग की अपनी विशेषताओं का जैसा तुलनात्मक स्पष्टीकरण सिद्धसेन दिवाकर ने किया, वैसा और किसी ने शायद ही किया हो। उदाहरणार्थ, आर्त एवं *निदेशक, अनेकान्त शोधपीठ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) /