________________ ध्यान-द्वात्रिंशिका रौद्र-ध्यान के निरूपण में ग्रन्थकार ने बौद्ध-परम्परा में बहुचचित तृष्णा, भव एवं उपादान का कुशलतापूर्वक समावेश किया है (श्लोक 7), मिथ्यात्व एवं कषाय रूपी प्रास्रवों के संवर को ग्रन्थकार ने धर्मध्यान का मुख्य उद्देश्य बताया है (श्लोक 27), परम्परागत आज्ञा, अपाय, विपाक एवं संस्थान-विचय के स्थान पर चित्त, विषय एवं शरीर के स्वभाव-दर्शन पर जो बल दिया है (श्लोक 25), वह सिद्धसेन दिवाकर की अपनी मौलिक उद्भावना है, जिसका प्रेरणा-स्रोत बौद्धों की विपश्यना-भावना प्रतीत होती है। किन्तु मेरा ऐसा अभिमत है कि वस्तुतः प्राचीन जैन-परम्परा का धर्म-ध्यान ही भगवान् बुद्ध के विपश्यना निरूपण का प्रभवस्थान रहा है, यह प्राचीन जैन परम्परा कैसे लुप्त हो गई ? यह अवश्य विचारणीय प्रश्न है / आत्मवाद एवं कारणवाद की चर्चा के प्रसंग में प्राचार्य सिद्धसेन ने बौद्धनैरात्म्यवाद एवं प्रतीत्यसमुत्पाद की गम्भीर समीक्षा की है (श्लोक 11, 12), जो उनके तलस्पर्शी बौद्ध दर्शन एवं जैन दर्शन के तुलनात्मक अध्ययन का एक असाधारण निदर्शन है। किसी अन्य दर्शन के मर्म तक पहुंचकर उसका यथावत् मूल्यांकन करते हुए अपने पक्ष को उसी गहनता से प्रस्तुत करना एक अत्यन्त दुष्कर कार्य है, जिसका सम्पादन सिद्धसेन ने अत्यन्त सहज और सरल रूप से किया है। प्रस्तुत अनुवाद विद्वत्समाज की समीक्षा के लिए प्रकाशित किया जा रहा है / सिद्धसेन दिवाकर की द्वानिशिकाएं जैन दर्शन एवं अन्य भारतीय दर्शनों के कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर सर्वथा नया प्रकाश डालती हैं। इस शृंखला में ध्यान-द्वात्रिशिका प्रकरण भी अपना विशेष स्थान रखता है। आशा है इस क्षेत्र में जन विद्या के जिज्ञासु आगे आयेंगे और अन्य द्वात्रिंशिकाओं के अध्ययन में अपना योगदान देंगे। प्रस्तुत अनुवाद एवं सम्पादन में हमने डॉ० ए० एन० उपाध्ये द्वारा संपादित Siddhasena's Nyayavatara And Other Works (जैन साहित्य विकास मंडल, बंबई 1971) में मुद्रित दसवीं द्वात्रिंशिका का उपयोग किया है। कुछ श्लोकों में हमने अर्थ की संगति को ध्यान में रखकर किञ्चित् पाठ-संशोधन भी किया है, जिसका औचित्य पाठक सहज ही समझ सकेंगे। इन संशोधनों का निर्देश हम नीचे कर रहे मुद्रित पाठ मपरः प्रत्ययात्मकम् विदुषा पश्याना नाना चिन्तादि . संशोधित पाठ (श्लोक 1) अपरप्रत्ययात्मकम् ( , 3) विदुषां (, 5) पश्यानामना (, 8) चित्तादि