________________ 30 जैन योग : चित्त-समाधि प्रत्यय मुत्थानां (श्लोक 6) मुत्थाना नैक्यं कर्ताये (, 11) नैक्यकर्ताद्ये प्रतीत्य संविद्भावस्तु (, 12) प्रतीत्यसंविद्भावस्तु (, 14) प्रत्यक्ष घृणानुकम्पा पारुष्यं (, 18) घृणानुकम्पे पारुष्य-कार्पण्य-परिशुद्धये कार्पण्यं परिशुद्धये चित्रशेषाशय (, 19) चित्रः शेषाशय मुपाचरत् (, 22) ०मुपाचरेत् चित्र ( , 24) चित्त वितर्कात्मा निमित्ता- ( , 25) विर्तकात्म-निमित्तामयकण्टकान् मयकण्टकात् गति (, 25) मति संज्ञाज्ञाना ( , 26) संज्ञाऽज्ञाना केवलोदीरणव्यये (, 28) केवलोदीरणव्ययौ सामार्थ्यात् (, 28) सामर्थ्य विषयाख्याति (, 30) विषयख्याति वेद्यादपि (, 31) वेद्याद्यपि नन्त्यपरायणः परायणः प्रज्ञप्ति निरुपाख्योऽथ ( , 32) प्रज्ञप्तिनिरुपाख्योऽथ प्रदीपध्यान (, 33) प्रदीपध्मान ध्यान-द्वात्रिंशिका अविग्रहमनाशंसमपरप्रत्ययात्मकम् / यः प्रोवाचामृतं तस्मै वीराय मुनये नमः // 1 // राग एवं द्वेष से सर्वथा मुक्त एवं ज्ञानान्तर निरपेक्ष ज्ञान से युक्त अमृतमय देशना देने वाले उस महामुनि वीर को नमस्कार हो / स्वशरीरमनोऽवस्थाः पश्यतः स्वेन चक्षुषा। यथैवायं भवस्तद्वदतीतामागतावपि // 2 // (साधक) अन्तश्चक्षु से अपने मन और शरीर की अवस्थानों की प्रेक्षा करता है एवं यह अनुभव करता है कि वर्तमान भव के अनुरूप ही अतीत और अनामत भव भी