________________ जैन योग : चित्त-समाधि मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा—इन चार भावनाओं की अनुशंसा के प्रसंग में कहा गया है योगनिद्रा स्थिति धत्ते मोहनिद्रापसर्पति / प्रासु सम्यक्प्रणीतासु स्यान्मुनेस्तत्वनिश्चयः // 2 इन भावनाओं का भली-भांति आचरण (चिन्तन) करने पर मुनि की योगनिद्रा (समाधि) स्थिरता को धारण करती है, मोहरूप नींद नष्ट हो जाती है तथा उसे तत्त्व का निश्चय हो जाता है। इन चार भावनात्रों के अन्तर्गत करुणा-भावना के निरूपण में शुभचन्द्र एक विशिष्ट चिन्तनधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके द्वारा निरूपित करुणा-भावना का स्वरूप इस प्रकार है दैन्यशोकसमुत्त्रासरोगपीडादितात्मसु / वधबन्धनरुद्धेषु याचमानेषु जीवितम् // क्षुत्तृश्रमाभिभूतेषु शीताद्यैर्व्यथितेषु च / अवरुद्धषु निस्त्रिंशैर्घात्यमानेषु निर्दयः॥ मरणार्तेषु भूतेषु यत्प्रतीकार-वाञ्छया / अनुग्रहमतिः सेयं करुणेति प्रकीर्तिता // दीनता, शोक, त्रास व रोग की वेदना से पीड़ित; वध व बन्धन से रोके गये; जीवित की याचना करने वाले: भूख प्यास व परिश्रम से पराजित: शीत आदि की बाधा से व्यथित; दुष्ट जीवों के द्वारा रोककर निर्दयता से पीड़ित किये जाने वाले; तथा मरण की वेदना से आर्त प्राणियों के विषय में उनकी पीड़ा के प्रतिकार की इच्छा से जो अनुग्रह रूप बुद्धि हुआ करती है, वह करुणा कही जाती है / ज्ञानार्णव के पदस्थ ध्यान नामक ३५वें प्रकरण में मंत्रों का विस्तृत वर्णन है, जिसकी तुलना आचार्य हेमचन्द्र-विरचित योगशास्त्र के आठवें प्रकाश से की जा सकती है। इन दो स्थलों के तुलनात्मक अध्ययन से इन दोनों प्राचार्यों के पारस्परिक प्रभाव पर विशेष प्रकाश डाला जा सकता है। VII हेमचन्द्रकृत योगशास्त्र में योग योग शब्द की व्याख्या करते हुए प्राचार्य हेमचन्द्र कहते हैं चतुर्वर्गेऽग्रणीर्मोक्षो योगस्तस्य च कारणम् / ज्ञान-श्रद्धान-चारित्ररूपं रत्नत्रयं च सः // 4 धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूप चार पुरुषार्थों में मोक्ष सर्वश्रेष्ठ है। योग मोक्ष का कारण है, जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप रत्नत्रय कहलाता है। रत्नत्रय की व्याख्या करते हुए हेमचन्द्र कहते हैंप्रात्मानमात्मना वेत्ति मोहत्यागाद् य प्रात्मनि / तदेव तस्य चारित्रं तज्ज्ञानं तच्च दर्शनम् // मोह या मिथ्यात्व को त्यागकर आत्मा द्वारा आत्मा को देखना ही चारित्र है, वही ज्ञान है, वही दर्शन है।