________________ जैन योग : चित्त-समाधि मीमांसा करने के उपरान्त अन्य दर्शन और जैन दर्शन का मिलान किया है। इसके सिवाय इन्होंने हरिभद्रसूरिकृत योगविशिका तथा षोडशक पर टीका लिखकर प्राचीन गूढ़ तत्त्वों का स्पष्ट उद्घाटन भी किया है "84 उन्होंने संस्कृत न जानने वालों के हितार्थ हरिभद्र के योगदृष्टिसमुच्चय ग्रन्थ में प्रतिपादित आठ दृष्टियों की सज्झाय भी गुजराती भाषा में बनाई है। उपाध्याय यशोविजय की दसवीं से छब्बीसवीं द्वात्रिंशिकायों में जैनयोग का प्रतिपादन है / इन में कई द्वात्रिंशिकायें हरिभद्र के योगबिन्दु एवं योगदृष्टिसमुच्चय से सम्बन्धित हैं / पातञ्जल योग-लक्षण नामक ग्यारहवीं द्वात्रिंशिका में यशोविजय ने पतञ्जलि के मन्तव्यों की समीक्षा की है। उनकी तुलनात्मक दृष्टि अतीव गंभीर थी। योगदर्शन के कई पारभाषिक शब्दों की तुलना उन्होंने जैन-साधना की परिभाषाओं से मार्मिक रूप से की है। प्राचार्य हरिभद्र एवं उपाध्याय यशोविजय द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चल कर आज हम बौद्ध, जैन एवं अन्य भारतीय योग-परम्पराओं का और भी अधिक तलस्पर्शी समीक्षात्मक अध्ययन कर सकते हैं / x आचार्यश्री तुलसीकृत मनोनुशासन में योग मनोनुशासन ग्रन्थ के प्रामुख में इसके उद्देश्य के बारे में युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने लिखा है-"आज सर्वाधिक अपेक्षा मन को अनुशासित करने की है। उसकी पूर्ति के लिए आचार्यश्री ने 'मनोनुशासन' का प्रणयन किया है। इस ग्रन्थ की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए आगे वे कहते हैं- “यह आकार में लघु है पर प्रकार में गुरु / इस में योगशास्त्र की सर्वसाधारण द्वारा अग्राह्य सूक्ष्मताएं नहीं हैं / किन्तु जो है, वह अनुभव योग्य और बहुजनसाध्य है।" इस ग्रन्थ के निर्माण में योग-साधना की सार्वभौमता को सर्वत्र ध्यान में रखा गया है। विभिन्न योग-परम्परागों के उपादेय तत्त्वों का आज की आवश्यकताओं के परिप्रेक्ष्य में संकलन किया गया है। आचार्य हरिभद्र एवं उपाध्याय यशोविजय ने जिस प्रकार तत्कालीन आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर जैन-साधना को समृद्व बनाया था, उसी प्रकार आचार्यश्री तुलसी ने आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक तथ्यों को समन्वित रूप प्रदान कर मनोनुशासन की रचना द्वारा वर्तमान युग की योग-साधना संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति की है। इसी धारा का सर्वाङ्गीण विकास प्राज युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ प्रेक्षा-ध्यान के माध्यम से कर रहे हैं। XI उपसंहार जैनयोग-परम्परा अत्यंत विशाल है। ऐसे लघु लेख में उसका सर्वेक्षण संभव नहीं है। यहां तो मात्र कथंचित् दिग्दर्शन का प्रयत्न किया गया है / लेख के परिशिष्ट में जैनयोग-साहित्य की एक सूची दी गई है, जिससे पाठक को एद्विषयक साहित्यसंभार की एक झांकी मिल सकेगी। संदर्भ 1 पाणिनीय धातुपाठ, 4.68 2 वही, 7.7 3 उत्तराध्ययन, 26.8; तत्त्वार्थ भाष्य, 6.1 4 अंगुत्तरनिकाय, 2.12; अभिधर्मकोशभाष्य, 5-40