________________ जैन परम्परा में योग कर सकते हैं। पूज्यपाद का योग सम्बन्धी दूसरा ग्रन्थ है इष्टोपदेश। उसमें उन्होने योग से परमानन्द की उत्पत्ति का निर्देश करते हुए कहा है प्रात्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारबहिःस्थितेः / जायते परमानन्द: कश्चिद् योगेन योगिनः // 2 __लोकव्यवहार से निवृत्त होकर अपने प्रात्मा में स्थित रहने वाले योगी के हृदय में योग द्वारा एक अनिर्वचनीय परमानन्द उत्पन्न होता है। IV समन्तभद्र-साहित्य में योग आचार्य समन्तभद्र ने बाह्य एवं प्राभ्यन्तर तप की मार्मिक समीक्षा की है, जो उनके स्वयंभस्तोत्र के निम्न पद्य से प्रतिफलित होती है बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरस्त्वमाध्यात्मिक य तपसः परिबृहणार्थम् / ध्यानं निरस्य कलुषद्वयमुत्तरस्मिन् ध्यानद्वये ववृतिषेऽतिशयोपपन्ने // 3 हे भगवन् ! आपने आध्यात्मिक तप की वृद्धि के लिए अत्यन्त कठिन बाह्य तप का आचरण किया। (आर्त एवं रौद्र संज्ञक) कलुषित ध्यानद्वय को छोड़कर आप अतिशयों से युक्त अन्तिम दो (धर्म एवं शुक्ल) ध्यानों में स्थिर हुए। v हरिभद्र-साहित्य में योग __ आचार्य हरिभद्र के योग विषयक कई ग्रन्थ हैं, जिनमें योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगशतक एवं योगविशिका उल्लेखनीय हैं। लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद से मुनिश्री पुण्यविजयजी द्वारा संपादित ब्रह्मसिद्धांतसमुच्चय नामक कृति भी हरिभद्राचार्य की ही मानी जा सकती है। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त ध्यानशतक-वृत्ति भी ध्यान विषयक उन्ही की एक उत्कृष्ट कृति है। प्रस्तुत प्रसंग में योग से संबंधित हरिभद्रीय कृतियों पर कुछ प्रकाश डाला जा रहा है। अपनी ध्यानशतक-वृत्ति में आचार्य हरिभद्र जैन-साधना की प्राचीन ध्यान-पद्धति का वर्णन करते हैं, परन्तु अन्य योग विषयक ग्रन्थों में उन्होंने तत्कालीन कई अन्य योग संबंधी परम्पराओं के पारिभाषिक शब्दों के माध्यम से मौलिक जैन-परम्परा का प्ररूपण किया है। इन सभी ग्रंथों में जैन-परम्परा के गुणस्थानों को मुख्यतया लक्ष्य में रखा गया है। उदाहरणार्थ, योगबिन्दु में योग को अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता एवं वृत्तिसंक्षय-इन पांच उत्तरोत्तर श्रेष्ठ विभागों में विभाजित किया गया है। तथा उनके तात्त्विक-प्रतात्त्विक सानुबन्ध-अननूबन्ध एवं सास्रव-अनास्रव रूप में निरूपण5 के प्रसंग में अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि एवं चारित्री— इन तीन विभागों में योगियों का विभाजन गुणस्थानों से संबंधित चरम-पुद्गल-परावर्त7, यथाप्रवृत्त, अपूर्व एवं अनिवृत्तिकरण38 प्रन्थिभेद, श्रेणिभेद, शैलशी-अवस्था1 आदि के माध्यम से किया गया है। साथ ही पातंजल-योग सम्मत सम्प्रज्ञात-समाधि, असम्प्रज्ञात-समाधि, धर्ममेघ-समाधि मादि का