________________ जैन योग : चित्त-समाधि 64. घ्राणेन्द्रिय-निग्रह, 65. जिह्वन्द्रिय-निग्रह, 66. स्पर्शेन्द्रिय-निग्रह। (16) कषाय-विजय-गुच्छक-६७. क्रोध-विजय, 68. मान-विजय, 66. माया विजय, 70. लोभ-विजय / (17) मिथ्यात्व-विजय-गुच्छक-७१. प्रेयो-द्वेष-मिथ्या-दर्शन-विजय / (18) शैलेशी-गुच्छक-७२. शैलेशी। (16) अकर्मता-गुच्छक-७३. अकर्मता। उपर्युक्त 73 पदों में प्रथम पद संवेग एवं अन्तिम पद अकर्मता है। संवेग शब्द का अर्थ है-संसार से भय एवं अकर्मता का तात्पर्य है सर्वथा कर्ममुक्त होना / अध्यात्म मार्ग की यात्रा (दुःख तत्त्व के साक्षात्कार एवं तज्जन्य) भय से प्रारम्भ होती है, जिसकी परिसमाप्ति कर्मों की सम्पूर्ण निर्जरा होने पर होती है / इस प्रसंग में संवेग एवं निर्वेद तथा शैलेशी एवं अकर्मता सम्बन्धी निम्नोक्त पाठ मनन योग्य हैं : "भन्ते ! संवेग (संसार से भय) के कारण जीव क्या प्राप्त करता है ?" "संवेग से वह अनुत्तर धर्म-श्रद्धा को प्राप्त होता है। अनुत्तर धर्म-श्रद्धा से शीघ्र ही (और अधिक) संवेग को प्राप्त करता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, और लोभ का क्षय करता है। नये कर्मों का संग्रह नहीं करता। उसके फलस्वरूप मिथ्यात्वविशुद्धि कर दर्शन (सम्यक् श्रद्धान) का आराधक होता है। दर्शन-विशोधि के विशुद्ध होने पर कई एक जीव उसी जन्म में सिद्ध हो जाते हैं और कई उसके विशुद्ध होने पर तीसरे जन्म का अतिक्रमण नहीं करते (अर्थात् उस अवधि में अवश्य ही सिद्ध-मुक्त हो जाते हैं)।" "भन्ते ! निर्वेद (भव-वैराग्य) से जीव क्या प्राप्त करता है ?" “निर्वेद से वह देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी काम-भोगों में ग्लानि को प्राप्त होता है / सब विषयों से विरक्त हो जाता है। सब विषयों से विरक्त होता हुआ वह प्रारम्भ और परिग्रह का परित्याग करता है। प्रारम्भ और परिग्रह का परित्याग करता हुआ संसार-मार्ग का विच्छेद करता है और सिद्धि-मार्ग को प्राप्त होता है।"20 "भन्ते ! शैलशी में जीव क्या प्राप्त करता है ?" "अकर्मता प्राप्त करता है। अकर्मता से जीव सिद्धि, बोधि, मुक्ति, परिनिति एवं सर्व दु:खों के अन्त को प्राप्त करता है / "21 ___ संवेग एवं निर्वेद को बौद्ध-साहित्य में भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। सुत्तनिपात के अत्तदण्ड-सुत्त में बुद्ध स्वयं कहते हैं "आत्म-दण्ड से भय उत्पन्न होता है। कलहकारी मनुष्यों को देखो। जिस प्रकार मैंने स्वयं अनुभव किया है, वैसा संवेग का वर्णन करूंगा। अल्पजल में रहने वाली मछलियों की तरह स्पन्दमान एवं एक दूसरे के विरोधी लोगों को देखकर मेरे मन में भय उत्पन्न हुआ / ..... सब प्रकार के कामों से निर्वेद प्राप्त कर अपने निर्वाण के लिए शिक्षा प्राप्त करें।"