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न या जीवन
श्री. सिद्धराज ढहा
मानवता के आज के रोग की जड़ हमें आर्थिक शोषण की भूमि में पनपती हुई मिलेगी। मूल में तो वह और भी गहरी जाकर हमारी वैश्य वृत्ति हमारे मन के लोभ और वासना में से निकली है पर उसे खाद्य और पुष्टि, अर्थिक शोषण की भूमि में से ही मिलते हैं। आज एक देश दूसरे देश को, एक जाति और वर्ग दूसरे जाति
और वग को तथा एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को चूमकर उमकी मेहनत पर खुद विलास करना चाहता है, और केन्द्रीभूत उत्पादन के साधनों ने लोभ की इस आग को बढ़ाने में घी का काम किया है। और ज्यों ज्यों उत्पादन के केन्द्रीभूत साधनों के द्वाग शक्ति (Power) केन्द्रित होती गई त्यो त्यो इस शक्ति का उपयोग इस प्रकार के शोषण को शोषकों के लिये अधिक आसान, ज्यादा स्वाभाविक बनाने में और उसे चिरस्थायी करने में हुआ। आज समाज का सारा ढाँचा, सामाजिक जीवन का प्रत्येक पहलू इसी आधार पर दाला जा रहा है। आज का व्यापार ही नहीं बल्कि शिक्षा, धर्म, सामाजिक रीति-रिवाज, इतिहाम, साहित्य, कला, मनोविनोद के साधन, सभी में शोषण चल रहा है और सभी इसी आधार पर खड़े किये गये हैं कि शंषक जातियों की, देशों की या व्यक्तियों की शक्ति बढ़ती रहे और शोषित जातियां देश और व्यक्ति केवल अधिकाधिक हीन और निर्माल्य ही नहीं बनें वन्न् वे अपनी उस दशा को स्वाभाविक और अनिवार्य भी समझने लगे और उसमें से निकल ही न सकें।
आज की सारी समाज व्यवस्था इस प्रकार हिंसा के आधार पर खड़ी की गई है और आज जो प्रलय हम यूरोप में देख रहे हैं वह इसी हिंसा का बाहरी और स्थूल
रूप है। इस हिंसा से मानवसमाज को विमुख करने को काम अगर कंई कर सकता है तो वह भारतवर्ष ! इस देश के पास ही विचारों और आचारों की ऐसी सम्पत्ति है जो आज भी अहिंसा का पदार्थपाठ संसारको पढ़ा सके। अहिंसा की नींव पर जीवन की रचना कसे हो यह हमारे सामने आज सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न है और हमें इसके हल करने में सहयोग देना है। यह हमारा सौभाग्य है जो हम आज के युग में जी रहे हैं और संसार की भावी रचना में महत्व का भाग ले सकते हैं। अहिंसा की परम्पग को मानने वाले जैन समाज, और इसमें भी खासकर त्रियों पर यह सुखप्रद जिम्मेदारी और भी अधिक है।
हम कम से कम हमारे जीवन में इस तरह के परिवर्तन कर लें जो अहिंसात्मक जीवन से अधिक मेल खाते हों। अहिंसामें यही खूबी है कि अल्प से अल्प शक्ति और साधनों वाला आदमी भी दूसरे का मार्गदर्शक इन सकता है-अपने जीवन में अहिंसाको उतारकर हम देख चुके हैं कि केन्द्रीभूत उत्पादन के साधन आज की सामाजिक विषमता और हिंसा का एक बहुत बड़ा और सीधा कारण है। इस लिये अहिंसा की ओर बढ़ने वालेको आसपास की फिक्र किये बिना सबसे पहिले अपने जीवन में जहाँ तक हो सके इस प्रकार की आवश्यक्त एं कम कर लेनी चाहिये जिनकी पूर्ति कई बड़े केन्द्रीभूत उद्योगो के द्वारा ही हैती हो या दूसरे शब्दों में हमें इस प्रकार की चीजो का जो बड़े बड़े कल-कारखानों और मिलों में बनी है-त्याग कर ग्रामोद्योगों की चीजों को अपनाना चाहिये। यह आनेवाले नये जीवन की सब से सीधी और सब से असरकारक (Effective) तैयारी है।