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कॉन्फरन्स सर्व प्रि य कैसे बने ?
श्री. कस्तूरमल शाह
अखिल भारतीय जैन श्वेतांबर कॉन्फरन्स का अधिवेशन कुछ दिनों बाद ही लुधीयाना (पंजाब) में हो जा रहा है। इस अवसर पर यदि हम में थोड़ी भी समाजोत्कर्ष की भावना है तो कुछ विचारणीय प्रश्नों पर गहराई से मनन करना होगा। किसी भी संस्था को जीवित बनाये रखने के लिये सबसे पहले उसे अधिक से अधिक लोकप्रिय और जनग्राही बनाने के लिये प्रयत्नशील रहना होगा। ___ हमारी यह संस्था वैसे तो जल्दी ही अपने जीवन की तीन बीसियां पूर्ण करेगी। किसी संस्था की यह आयु कम नहीं-वास्तव में तो शैशव व युवाकाल के बाद यह उम्न तो अनुभव की परिपकवता और गम्भीरता की पूर्ण परिचायक हो जाती है । यद्यपि हमारी इस संस्था में भी इस काल में अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये है, पर जो कुछ समाज से संस्था को मिलना चाहिये था न तो वह दिया ही जा सका है और न समाज को संस्था से जितना लाभ मिलना चाहिये था वह ही मिल सका है।
पर अब तक जैसा भी बना समाजसेवीयों को तो भूतकाल के अनुभवो से शिक्षा लेकर वर्तमान में सुआयोजित ढंग से कामकर भविष्य को सुन्दर बनाना ही अपना मूल ध्येय बनाना चाहिये । और यही मानकर हम भूतकाल के लिये तो संक्षेप में यही कह सकते हैं कि कॉन्फरन्सने अपने जीवन के इतने लम्बे काल में अनेक विघ्न बाधाओं और संकटों के बीच से गुजर कर भी समाज की अनुपम सेवा की है और इसका सबसे जीता जागता प्रमाण यही है कि आज भी समाज में उसकी प्रति- स्पर्धा वाली कोई दुसरी प्रतिनिधि संस्था नहीं है और उसका समाज पर एक छत्र शासन है। ___ अब प्रश्न वर्तमान का है। इस अधिवेशन में हमें इसी ओर विशेष ध्यान देना है। किसी भी संस्था के उन्नत बनाने में एक ही चीज कारगर होगी कि अधिक लोगों का सहयोग प्राप्त करना और अधिक से अधिक
लोगों के लाभ के लिये कल्याणकारी काया का आयोजन करना जिससे जन का विश्वास संस्था में कायम हो जावे । अतः सर्व प्रथम हमें इसे लोकप्रिय बनाने के लिये प्रयत्न करना होगा। भारत में कोई शहर व गांव जहां हमारी आबादी हो ऐसा न रहे कि जहां कॉन्फरन्स का संदेशा न पहुंचा हो। हर जगह उसकी शाखायें हों। वे शाखायें अपना प्रमुखतम ध्येय यही रखे कि उस गांव या शहर में अपने समाज के किसी भी तरह की आवश्यकता चाहने वाले भाई बहन के कार्य में हम कुछ भी योग दान करे सकें ताकि वह यह महसूस करता रहे कि में अकेला नहीं हूंसमाज का एक अंग हूं मेरे दुख में अनेक दुखी है मेरे प्रति ओरों की सहानुभूति है । यदि कमजोर भाई मैं यह भावना रही तो वह भी समाज के लिये, उसकी संस्थाओंके लिये जान देगा-और सच समझिये तो आपके समाज और संस्था की वास्तविक ताकत ये ही वर्ग है ।
समाज में धार्मिक विचारधारा की और जो उपेक्षा भावना दृष्टिगोचर हो रही है उस और भी कॉन्फरन्स के कार्यकर्ताओं को ध्यान देना होगा। आज जो दिखाव व व्यर्थ के खर्चाल आयोजन होते है, तथा ऐसे कारण बनते हैं जिनसे धर्म का वास्तविक रूप दबता जाता है उनके प्रति जागरूक रहना पडेगा। नई पीढी में धार्मिक संस्कार यदि हम पनपा सके तब ही वे अपने को जैन मानने का गौरव समझ सकेंगे। और धार्मिक विचार धारा के पनपने से ही समाज सेवा की वृत्ति भी आ सकेगी।
संस्था के कार्यकर्ताओं को सामाजिक रिवाजों के प्रति भी जागरूक रहना पडेगा-समाज को गहरे अन्धकार में ढकेलने वाले अनेक कृतियों व कुरिवाजों के प्रति विद्रोह भी करना पडेगा और नई पिढी को मार्गदर्शन भी देना पडेगा । जैसा कि आज दिख रहा है कि १०-२० वर्ष बाद आज की परिस्थिति मुजब शायद सामाजिक कार्यकर्ता उपलब्ध भी न हो सकेगें ऐसी स्थिति से बचाव करने के लिये अभी से तत्पर होने से समाज टीका रह सकेगा।
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