Book Title: Jain Yug 1960
Author(s): Sohanlal M Kothari, Jayantilal R Shah
Publisher: Jain Shwetambar Conference

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Page 137
________________ श्राविका इंद्राणी लिखापित एकादश अंग प्रशस्ति श्री अगरचंद नाहटा, श्री भंवरलाल नाहाटा जैन इतिहास के साधन जितने प्रचुर रूपमें उपलब्ध हैं, अन्य किसी भी धर्म व समाज के नहीं मिलते। हजारो प्रतिमाओं पर उत्कीर्णित लेख मन्दिर निर्माताओं की प्रशस्तियां समकालीन लिखित प्रमाण होने के कारण महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक साधन माने जाते हैं उसी तरह ग्रंथलिखित प्रशस्तियां भी महत्त्वपूर्ण साधन हैं। इन दोनों में अंतर केवल यही है कि शिलालेख प्रस्तर एवं धातुपर खुदे जाते हैं एवं ग्रन्थ प्रशस्तियां-पुष्पिकाएं ताडपत्र व कागज पत्र लिखी हुई हैं। मध्यकालमें जैन विद्वानों एवं श्रावकों ने अपने इतिहासकी सुरक्षा का बहुत अच्छा ध्यान रखा । जैन विद्वानों ने प्रबन्धों, पट्टावलियों, ऐतिहासिक काव्य, राग, गीत आदि के रूप में जैन इतिहास के साथ भारतीय इतिहास के अनमोल साधन प्रस्तुत किये। श्रावक समाजनें भी अपने जाति-गोत्र-वंश का इतिहास • सुरक्षित रखने के लिये कुलगुरुओं और भाटों को लाखों रुपये देकर वंशवालियां आदि लिखवायी। स्थानों, ग्राम, नगरों के इतिहास के जैन साधन भी प्रचुररूप में प्राप्त हैं। तीर्थमाला, चैत्यपरिपाटी, आदेशपत्र और वंशावलियों द्वारा भारतके अनेक छोटे बडे ग्राम नगरों और तीर्थों के इतिहास की कडियां जोडते हैं। साधनों की प्रचुरता होते हुए भी उनके संग्रह प्रकाशन एवं उनके आधारसे सुव्य. स्थित इतिहासलेखन का प्रयत्न बहुत कम हुआ है। इन साधनों के महत्त्वकी अनभिज्ञता के कारण हजारों फुटकर पत्र कूड़े करकट में नष्ट हो गये । और जो भी बच पाये हैं उनके महत्त्व की और भी इनेगिने व्यक्तियों का ही ध्यान रहता है । आचार्यों यतियों एवं श्रावकों के पारस्परिक समाचार प्रेषणके पत्रों को यदि सुरक्षित रखा जाता तो न मालूम भारतीय इतिवृत्त के कितनीही अन्धकारपूर्ण दिशाएं आलोकित हो उठतीं। ग्रन्थों की रचना प्रशस्तियां तो महत्त्वपूर्ण है ही, पर उनको लिखानेवालोंकी प्रशस्तियां भी बहुत बार उनसे भी अधिक महत्त्व की सिद्ध होती हैं। जैन ग्रन्थों की रचना श्वेताम्बर समाज में तो अधिकांश विद्वान श्रमण वर्ग की ही है। दिगम्बर समाज में मुनियों की कमी होने पर श्रावकों ने धर्मप्रचार एवं स्वाध्याय की भावना से बहुत बड़े साहित्य का निर्माण किया उनमें अपभ्रंश और हिन्दी ग्रन्थों की प्रशस्तियां विशेष महत्त्व की हैं । श्वेताम्बर ग्रन्थप्रशस्तियों में गच्छों व आचार्यों की परम्परा का विशेष विवरण रहता है जब कि लेखन प्रशस्तियों में उन प्रतियों को लिखवाने में अपना द्रव्यभोग देने वाले श्रावकों की जातिवंश परम्परा व उनके किये हुए धर्मकार्यों का महत्त्वपूर्ण वर्णन पाया जाता है । इस तरह ग्रंथ रचना एवं लेखन की प्रशस्तियां एक दूसरे की पूरक हैं । एक एक ग्रंथ की अनेक प्रतिलिपियां हुई। उनमें रचना प्रशस्ति तो एक ही मिलेगी पर लिखने वाले मुनियों व लिखाने वाले श्रावकों की प्रशस्तियां अनेक मिलेगी। इसलिए रचना प्रशस्तियों की अपेक्षा लेखन प्रशस्तियों की संख्या बहुत अधिक है। पाश्चात्य विद्वानों ने जब जैन ग्रन्थों के विवरण संग्रहीत करने का प्रयत्न किया तो उन्होने इन दोनों प्रकार की प्रशस्तियों के महत्त्व को भली भांति पहचाना। इसके बाद जैन विद्वानों ने भी इन प्रशस्तियों के संग्रह एवं प्रकाशन का प्रयत्न किया । ग्रंथ लेखन प्रशस्तियां गद्य और पद्य, छोटी और बडी हजारों की संख्या में प्राप्त हैं। उनमें से कई पद्यबद्ध प्रशस्तियां तो शताधिक श्लोकों की अर्थात् एक लघुकाव्य जैसी हैं । गद्य प्रशस्तियों में भी कई कई बहुत विस्तृत और मूल्यवान हैं । विशेषतः दिगम्बर ग्रंथ भंडारों में मैने हजारों हस्तलिखित प्रशस्तियां देखी हैं उन में ग्रंथलेखन की गद्य प्रशस्तियां काफी विस्तृत और प्रचुर परिमाण में मिलती हैं। पद्यबद्ध ग्रंथ लेखन प्रशस्तियां श्वेताम्बर प्रतियों में अधिक मिलती हैं। मुनि जिनविजयजी ने ताड़पत्रीय ग्रंथ लेखन प्रशस्तियों का एक महत्त्वपूर्ण संग्रह प्रकाशित किया है और कागज पर लिखी हुई पद्यबद्ध प्रशस्तियों का संग्रह भी शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है। इस से

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