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જૈન યુગ
માર્ચ-એપ્રિલ ૧૯૬૦
पूर्व देशविरती धर्मागधक समाज, अहमदाबाद की ओर से प्रशस्ति संग्रह निकला था। जैसलमेर और पाटण भंडार की सूचियां तथा पीटर्सन आदि की रिपोर्टों व जैन सत्य प्रकाश आदि पत्रों में सैंकड़ों प्रशस्तियां प्रकाशित हो चुकी हैं पर अभी तक अप्रकाशित की संख्या उनसे बहुत अधिक दिगम्बर भंडारों की प्रशस्तियां ऐलक पत्रावलि सरस्वती भवन, बम्बई की रिपोर्टो, जैन सिद्धान्त भवन आराका प्रशस्ति संग्रह, महावीर तीर्थ अनुसंधान समिति जयपुरसे प्रकाशित प्रशस्ति संग्रह और वीर सेवा मंदिर दिल्ली से प्रशस्ति संग्रह नामक ग्रंथ प्रकाशित हो चुका हैं ।
श्वेताम्बर ग्रंथ लेखन प्रशस्तियों में सब से अधिक और महत्त्वपूर्ण प्रशस्तियां ताड़पत्रीय ग्रंथों की और उसके बाद कल्पसूत्र की प्रशस्तियां हैं। स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र प्रशस्तियां हमने कई प्रकाशित की हैं । स्वर्गीय नाहर जी के संग्रह की स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र प्रशस्ति खरतर गच्छीय मांडवगढ के श्रावक जावड़ साह संबन्धी प्रशस्ति तो ९६ श्लोकों की है । उसका ऐतिहासिक सार उज्जैन से प्रकाशित विक्रम पत्र में प्रकाशित किया जा चुका है। कुछ श्रावकों ने समस्त आगमों की प्रतियां लिखवा कर ज्ञानभंडार स्थापित किये थे । महागजा कुमारपाल, वस्तुपाल-तेजपाल आदिके स्थापित ज्ञान भंडारों का तो अब पता नहीं है पर भणशाली गोत्रीय संघपति थाहरूशाह का भंडार आज भी जैसलमेर में विद्यमान है। मांडवगढ के आदि के अनेक श्रावकों ने जो ज्ञान भंडार स्थापित किये थे उनकी प्रतियां अनेक स्थानों में बिखर गयीं हैं। कुछ श्रावक-श्राविकाओने समस्त आगमों की तो नहीं पर एकादश अंग सूत्रों आदि प्रधान ग्रंथों की प्रतिलिपियां करवा के आचार्यों, मुनियों को बहराई या ज्ञानभंडार स्थापित किये वे प्रतियां भी एक स्थान में न रह कर अनेक स्थानों व हाथों में चली गई। कुछ प्रशस्तियों में उनके एकादशांगादि लिखाने का उल्लेख मिलता है ऐसी ही एक प्रशस्ति इस लेख में प्रकाशित की जा रही है।
रिक्त उनके उपदेश से श्रावक-श्राविकाओं द्वारा लिखाई हुई हजारों प्रतियां जैन ज्ञान भंडारों में प्राप्त है। मध्यकालमें प्रतिलिपियां करके आजीविका करनेवालों का एक वर्ग 'लहिया' नाम से प्रसिद्ध हुआ, हजारों लहियों को जैन श्रावकोने श्रुतभक्ति के कारण आजीविका दी। जैन समाज के सिवा किसी भी अन्य समाज द्वारा इस प्रकार लाखों रुपये खर्च कर लेखनकला का उत्कर्ष करने व लेखकों को आजीविका देने का पुण्य कार्य नहीं किया गया। आज भी जैन भंडार भारत के प्रायः सभी प्रान्तो में संस्थापित हैं वह जैन मुनियों व श्रावकों की श्रुतभक्ति का उज्ज्वल दृष्टान्त है।
पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में धार्मिक भावना प्रायः अधिक होती है। जैन श्राविकाओं में धार्मिक कार्यो में सब से विशेष उत्साह प्रगट किया व योग दिया है। प्रस्तुत एकादशांग को लिखाने वाली श्राविका इन्द्राणी की श्रुत भक्ति भी उल्लेखनीय है। ज्ञातासूत्रकी प्रशस्ति इस प्रकार है।
॥ प्रशस्ति ॥
एकोपि श्रीकारः सुप्रापो नेह भाग्यहीनानां, तद् द्वय युक्ता ज्ञातिः कथं प्रशंसास्पदं न स्यात् १ पुं रत्न रत्न खातो, तस्यां ज्ञातौ प्रशस्तगुणजाल: श्री आचवाटिकाभिध गोत्रे मंत्रीश मूंजालः २ तत्सन्तान विताने, धर्मा मज मंत्रिराज शिवराज : तजाया जनि वरणू, नाम्नी तत्पुत्र रत्न युगं ३ अभ्युदित भागधेयं, धणपति हर्षाभिधं सुधीरम्य तत्र मंत्रीशहर्षादयिता कीकी तदुद्भूतः ४ श्रीज्ञाति संघ मुख्य : सप्त क्षेत्री स्व वापने दक्षः मंत्री श्री महिपाल : समजनि संबंधि सुरसाल ५ शीलालंकृत गात्रा, पोषित पात्रा च विहितवर यात्रा श्री देवगुरुषु भक्ता, इन्द्राणी तत्प्रिया युक्ता ६ तत्पुत्र चांपसिंहो दानी मानी धनी च धर्मात्मा, तद् धन्नाकर ठाकुर पुत्रौ पुत्री च धर्माइ ७ इति पुत्र पौत्र सन्तति सधर्म परिवार परिवृता सततं नैकाश्च धर्मकार्या नार्या सा विदधती जयति ८ श्रीमत् खरतर गच्छे श्रीमजिनदत्तसूरि सैताने श्री जिनभद्र महेन्द्रा : श्री जिनचंद्राश्च तत्पट्टे । ९
श्रुतज्ञान की भक्ति का जैन ग्रंथों में बड़ा भारी महत्त्व बतलाया है। भगवान महावीर के ९८० वर्ष तक तो जैनागम प्रधानतया मौखिक रूप से पढे व लिखाये जाते थे पर जब वीर सं. ९८० में देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने आगमोंको लिपिबद्ध करवाया उसके बाद जैनाचार्यों ने ग्रन्थों को लिखाने व उनके संरक्षण का महत्त्व खूब प्रचारित किया फलतः जैन मुनियों की लिखी हुई लाखों प्रतियों के अति