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जैन युग,
हिन्दी विभाग.
पीर संवत् २४५७.
ऐक्यता के लिये वीर सन्तानोंसे अपील,
सज्जनो ! विश्वके विज्ञानशास्त्र के नियमानुसार प्रत्येक भौतिक पदार्थमें ( Magnetism ) आकर्षण शक्ति रही हुई है, उसी तरह (Spiritual Science ) अध्यात्म तत्वज्ञान भी करना है कि हरएक आत्मायें एक प्रकारका ( Magnetism ) भरा हुआ है और इसीलिये एक अध्याय तत्ववेत्ता जगत के सर्वोपरी तरण तारण पदको प्राप्त करनेकी प्रवृत्ति करता है तब प्रथम वह अपने आकर्षण शक्ति द्वारा अपने आत्माको विश्वात्मरूप बनाता है, फिर सफलताको प्राप्त करता है। जब तक वह प्रत्येक आत्माको अपने से भिन्न समझता है तब तक अपने ध्येय बिन्दुको प्राप्त करना उसके लिये असम्भव रहता है, इसलिये विश्व के महान विज्ञाननेचा वीर प्रभूने विश्वके कल्याण हेतु यह सत्य संदेश afer किया था कि " Regard all creatures as thyself and harm no one " आत्मने प्रति कूलानि परेषां न समाचरेत् । अर्थात प्रत्येक आत्मामें सेराही स्वरूप है, इसलिये सबके साथ प्रेम भाव रखे। इस लिये जैसे चुम्बक आपने में अकर्षण शक्ति होते हुए भी जब तक मोड़े के पास जाकर खड़ा नहीं होता तब तक अपने शक्तिको कार्यरूपमें नहीं ला सकता, उसी तरह जो समान ज्ञाति या देश अपने avities या आध्यात्मिक मार्गमें उन्नति करना चाहता है तो वह जब तक एकात्मरुप (Atmosphere) भाव न बना देता तब तक अपने (Progressive Stage) उन्नत दशाफी प्राप्त नहीं कर सकता ।
कई एकफी प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा इस सिद्धांत को निर्विवादित स्वीकार करना पडता है कि जापान, जरमन, अमेरिका आदिदेशों के उमति मांगने आगे पहनेका केवल कारण देशका एकात्मभाव (one atmosphere.) था। उन देशके नेताओंने एकही
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ता. १-२-३१.
नाद से और एकही नाम से देशोक्षति के वाजिवको
बजाया था, न कि प्रत्येक नेताने अपने २ अलग २ प्रवृत्ति की थी। सर्वत्र एक समान देशाभिमान छाया हुआ उन देशोंमें नजर आता है। यही उनके उन्नतिका मूल कारण है। देशाभिमानका एक वर्जन है के जपानसे आनेवाली स्टोर में खाने कुछ नहि मिलने से आनेवाले भारतवासीयांने "जापानकी स्टीमरे कितनी खराब है कि जिनमे खानेको भी कुछ नहीं मिल सका। ऐसा कहा सो जापान के एक फल बेचनेवाले व्यापारीने सुन लिया, जिसपर उसने उन भारत वासीयोंको खुब फल खिलाकर उनकि क वृझाई और फलेोके बील बदले में उस व्यापारीने आखर यह मांगा " भविष्यमें आप किसीभी देशमें पधारे तो आप ये शब्दही न निकाले कि जापानकी स्टोरे मानेको कुछ नहीं मिलता। देखिये उस देशाभिमानको के पर लुटाकर भी देशका गौरव रखा।
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उक्त उदाहरण से अब हमे सोचना चाहिए कि हम विश्ववन्धु वीरके पुत्र होनेपर भी हमे आधुनिक संसार के एक कोने बैठनेका सम क्यों प्राप्त हुआ। अरे हमारे पूर्वजनीने तो जगतके जन समुदायमे " महाजन " जैसे उचपद को प्राप्त किया था, उन वीर सन्तानोकी आज ऐसी अवनत् दशा पये? परंतु खेदपूर्वक कहना पड़ता है कि वीरके उस एकात्मभावरूप सत्य संदेशको भूल गये, और समाजमे क्लेश और देशने भयंकर रूप पकड़ लिया. यही हमारे अधःपातका मुख्य कारण है ।
हम यही नहीं कहते कि समाजको परम कृपाळु महावीर पत्ये और उनके पवित्र सेवामे अभाव आ गया है। कदापि नहीं ! परन्तु खास कारण यह
( अनुसंधान पृष्ट २३ ५२ भो ) Printed by Mansukhlal Hiralal at Jain Bhaskaroday P. Press, Dhunji Street, Bombay and published by Harilal N. Mankar for Shri Jain Swetamber Conference at 20
Pythoni, Bombay S