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वीर संवत् २४५७.
जैन युग.
हिन्दी विभाग.
• सप्तभंगी. ●
( गतांक पृष्ट ११२ से चाह . )
अगर हम यह समझ जांय कि एक मनुष्यके लिये जो हितकर है दुसरेको यही अहितकर हो सकता है। एक मनुष्यको मूर्ति देखकर भक्ति नहीं पैदा होती एकको एक तरहकी मूर्तिमें भक्ति पैदा होती है, दूसरेको दूसरी तरह की मूर्तिमति पैदा होती है, किसीको पूजा आता है, किसीको स्वाध्यायमें, किसीको अन्य तपस्यादिक में। जिस मनुष्यको जिस कार्यमें लाभ है, वह उसी कार्यको करता है। उस मनुष्यको उसका धर्म' और दूसरे कार्यमें धर्म ‘नास्ति’ है। इस तरह जुदे जुदै द्रव्यकी अपेक्षा धर्मर्मे अस्ति और नास्ति है । जुदे जुदे क्षेत्रकी अपेक्षा धर्म अस्ति भी है और मारित भी है, इसी तरह कालकी अपेक्षा धर्म भी अरित है और कहीं नास्ति है। भावकी अपेक्षाभी कॉपर धर्म है और अस्तिरूप कहाँपर नास्तिरूप है।
ख़ुदी ख़ुदी अपेक्षा धर्म कुछ जुदा नहीं हो जाता । धर्म तो एक है- सार्वत्रिक और सार्वकालिक है, परन्तु उसका कोनसा रुप, किस समय के लिये किस जगह के लिये भकारी है यही बात विचारणीय है। धर्मके अनेक रूपोंमे धर्मको अनेक मान लेना केसी भयंकर भूल है।
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एक वैध एक रोगीको जो दवाई देता है क्या यही दबाई सभी रोगीयोंके लिये काम आ सकती है। जो
एक ऋतु काम करती है वहीं दूसरी कतु काम नहीं करतो यात प्रकृतिवालेको जो औषधि साभदायक है यह पित्त तिवाले को हानिकारक भी हो सकती है। इस तरह अनेक तरहकी औषधियोंके होनेपरभी वैद्यक शास्त्र अनेक नहीं हो जाते।
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मानव शरीरमे जितने तरह मिलाएं है आत्माके परिणाम उससे अधिक मिलताए है। जब शारिरीक चिकित्सा अनेक तरहको हो करके भी वैशाख मे नहीं हो जाता तब आध्यात्मिक चिकित्सा अनेक तरहकी हो तो धर्म मे क्यों मानना चाहिये जिस मनुष्यको
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ता. १-८-३१.
जो चिकित्सा प्रकृति के अनुकूल है उसके लिये वही ठीक है । अगर हम अपेक्षाको न समझकर चिकित्साका विचार न
करेंगे तो संसारकी सभी चिकित्सा निंदनीय ठहरेंगी।
हमें धर्माधर्म और कर्तव्या कर्तव्य के विचार स्पाहादसे काम लेना चाहिये। अच्छेसे अच्छा कार्य अपाके लिये अकार्य है। जो जिस कार्यके योग्य है उसे वही धर्म है। एक आदमी मुनिजीवन के अनुसार नहीं रह सकता उसे दीक्षा देना और उसका दीक्षा लेना धर्म विरुद्ध है ।
अगर हम स्याद्वादको समझ जांय तो आस्तिक और नास्तिक, बेताम्बर और दिसम्बर मूर्ति और पूजक, हिन्दू और मुसलमान, सुधारक और रुढीचूस्तको लडने झगडनेकी क्या आवश्यक्ता रहे । खासकर जो लोग बिल्कुल स्यादके मानने वाले हैं उन्हें तो साम्प्रदायिकता दूर रहना चाहिये । वे अपना व्यवहार भले ही ओर दूसरेके हृदयमें विचार के लिये उनके हृदय आदर ही होना चाहिये। जब 'अस्ति भंग' भी स्याद्वादका एक अंग है और नास्ति भंगभी स्याद्वादका एक अंग है तब आस्तिक और नास्तिकका झगडा क्यो ?
असली बात यह है कि जिस दिन हमने सप्तभंगीका त्याग किया उस दिन मोक्षमार्गको सफाई होना बन्द हो गया। यहां तक कि रास्ता, कचरेसे इतना भरगया है कि मात्रमही नहीं होता कि पथ कौन है और कुपध कौन है ! अगर सप्तभंगीसे काम लेना हम शुरू करदें तो कल्याणका मार्ग हमें साफ साफ नजर आने लगे। उस समय हमारी सारी शक्ति साथियों से लड़ने नहीं मार्ग तय करनेमे आगे बढनेमे ही लगे।
साहित्यकन दरबारीवास व्यायतीर्थ आत्मानंद जैन गुरुकुल गुजरानवालां.
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कीर्तिप्रसाद जैन, मानद अध
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