Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ में, जन्मकल्याणक प्रातःकाल दीक्षाकल्याणक और ज्ञानकल्याणक दोपहर में एवं मोक्षकल्याणक सूर्योदय के समय करना चाहिए। गर्भकल्याणक की क्रिया को छोड़कर पञ्चकल्याणक की सभी क्रियायें दिन में ही सम्पन्न करना चाहिए। पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा में यन्त्र और भक्तियों के प्रभाव से ही तीर्थङ्कर के पूर्ण जीवनवृत्त को पाँच दिन में पूर्ण कर लिया जाता है। प्रतिष्ठा कार्यों में मुहूर्त की सिद्धि के लिए तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण की शुद्धि कर लेना चाहिए। इसमें लग्न शुद्धि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जिनमन्दिर, जिनबिम्ब, पञ्चकल्याणक का मण्डप, हवनकुण्ड, ध्वज, ध्वजदण्ड, पाण्डुकशिला कलश, दीपक आदि सभी वास्तु शास्त्रानुसार होना चाहिए। प्रतिष्ठा महोत्सव का समाज के धर्म विमुख लोगों पर भी प्रभाव पड़ता है- अर्थ, काम, भाव और भव सभी धर्ममय हो जाता है, ये महोत्सव मनोरंजन के प्रतीक नहीं अपितु जन-मन के प्रेरणास्रोत एवं धर्मनीति के पोषक होते हैं। ऐसे समय में अनेक लोग व्रतनियम धारण कर लेते हैं। पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव अनादिकाल से होते आये हैं। मूर्ति निर्माण और उसकी प्रतिष्ठा के आधार को छोड़कर और कोई दूसरा आधार ऐसा नहीं है जिसके द्वारा धर्म की परम्परा चल सके। पं. आशाधर जी ने इस पञ्चमकाल के लिए स्पष्ट लिखा है कि इस पञ्चमकाल में धर्म की परम्परा धर्म के आधार पर ही चलेगी। ऐसा वर्तमान में देखा भी जा रहा है। अत: सब जगह चैत्यालय पाये जाते हैं। पूर्व में प्रतिष्ठाएं, संस्कृत पूजा पद्धति से सम्पन्न होती थी, परन्तु वर्तमान में वैज्ञानिक साधनों एवं आधुनिकता के कारण प्रतिष्ठा कार्य हिन्दी पद्य एवं संगीतमय शैली में करायी जाने लगी हैं। संगीत की अधिकता के कारण भक्ति, आराधना, मन्त्र, जाप एवं प्रतिष्ठा की मूल क्रियाएं छूट या दब जाती हैं। आज पञ्चकल्याणक सुविधानुसार जैसा समाज चाहती है वैसा प्रतिष्ठाचार्य करवाने को तैयार रहता है। धार्मिक अनुष्ठान का मंच राजनैतिक मंच बन जाता है। पात्रों का चयन योग्य-अयोग्य के आधार पर नहीं, वरन् धन के आधार से होने लगा है जिससे प्रतिष्ठा निदोष नहीं पाती है। प्रतिष्ठाकार्य गुरु शुक्र के अस्त एवं दक्षिणायन में करना प्रारम्भ हो गया एवं कार्यक्रम को रोचक बनाने के लिए आगम का आधार छोड़कर मनमानी क्रियाएं जोड़ते जा रहे हैं, जो चिन्ता का विषय है। आज व्यक्ति बाह्य प्रदर्शन के लिए प्रतिष्ठा कार्यों में भाग लेता है उसे कैसेट बनवाने, फोटो खिचवाने एवं हाथी की सवारी में ज्यादा रुचि रहती है। मुख्य पात्रों की भूमिका निभाने वाले भी प्रतिष्ठा के स्वरूप, विज्ञान को नहीं समझ पाते हैं। पञ्चकल्याणक की बहुलता के कारण प्रतिष्ठा महोत्सवों की प्रभावना से लोगों की श्रद्धा कम होती जा रही है। नगरों की आवास-व्यवस्था के कारण मन्दिरों के निर्माण की आवश्यकता बढ़ रही है जो उचित है; किन्तु प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा के अनुपात में पुजारियों का निर्माण नहीं हो पा रहा है फिर भी मन्दिरों में भीड़ देखकर धर्म के उत्थान एवं विकास का आभास होने लगा है। पञ्चकल्याणक के स्वरूप में आने वाली विकृतियों में सुधार की सम्भावनाओं से हमें निरन्तर महोत्सवों को आगम का आधार देकर उनके उद्देश्य एवं उपयोगिता को समझना चाहिए।