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प्रकाशकीय
मानव इस चराचर विश्व का एक अद्वितीय प्राणी है। उसकी चेतना, चिन्तन, मनन एवं अनुभवन शक्ति विश्व के अन्य प्राणियों से उसे पृथक् चिह्नित करती है । वह जो कुछ इस लौकिक जीवन में अनुभव करता है उससे उसके हृदय में स्पन्दन होकर भावों की उत्पत्ति होती है । ये भाव प्रच्छन्न रूप से मानवहृदय में प्रसुप्त रहते हैं । साहित्य इन भावों को जाग्रत करने का कार्य करता है । ये भाव ही मानव को मानवता से ऊंचा उठाकर महामानव और नीचे गिराकर दानव बना देते हैं ।
साहित्य भी दो प्रकार का होता है। एक वह जो मानव के सद्भावों को दीप्त करता है । ऐसा साहित्य ही वास्तव में साहित्य नाम से अभिहित किये जाने योग्य होता है । असद्भावों को उद्दीप्त करने वाला साहित्य साहित्य न होकर साहित्याभास होता है। ऐसा साहित्य मानव को पतन के ऐसे गहन गर्त में गिरा देता है कि वहाँ से उबरना, निकलना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य होता है।
भावों की अभिव्यक्ति और साहित्य का निर्माण भाषा से होता है । भाषा सतत् परिवर्तनशील होती है। उसके कुछ तत्त्व नष्ट होते हैं, कुछ नये आते हैं और कुछ स्थायी होते हैं । वह सच्चे अर्थों में सत् अर्थात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है । परिवर्तन की यह गति इतनी धीमी, इतनी मन्द होती है कि पता ही नहीं चलता कब यह परिवर्तन हो गया । भाषा की यह परिवर्तनशीलता ही अनेक भाषाओं के उद्भव और विकास का कारण बनती है।
जब संस्कृत और प्राकृत का क्षेत्र संकुचित होता जा रहा था, उनका जनाधार समाप्त हो रहा था ऐसे समय में अपभ्रंश उनका स्थान ग्रहण करने को आगे आई । वह जन-भाषा के रूप में उदित हुई और शीघ्र ही साहित्यिक भाषा का स्वरूप ग्रहण कर विदर्भ, गुजरात, राजस्थान, मध्य-प्रदेश, मिथिला एवं मगध प्रादि भारतीय क्षेत्र में फैल गई । इन प्रदेशों में भाषा के विपुल साहित्य का निर्माण हुआ।
यह निर्विवाद सत्य है कि अपभ्रंश भाषा के साहित्य का सर्वाधिक अंश जैन रचनाकारों द्वारा निर्मित है और उसमें से अधिकांश का वर्ण्यविषय तीर्थंकरों एवं अन्य जैन महापुरुषों के जीवन से संबंधित है।