Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 8
________________ (ii) कारण यह है कि लोकजीवन की ऐसी कोई विधा नहीं जिस पर अपभ्रंश भाषा में नहीं लिखा गया हो । साधारण से साधारण घटनाओं तथा लोकोपयोगी विषयों यथा-दर्शन, इतिहास, पुराण, संस्कृति आदि पर अपभ्रंश साहित्य की रचना हुई है । सातवीं-आठवीं शताब्दी तक का अपभ्रंश साहित्य विशेषकर लोकनाट्यों में प्राप्त होता है । पूर्व मध्यकाल में अनेक प्रबन्धकाव्य, पौराणिक महाकाव्य, चरितकाव्य, कथाकाव्य, खण्डकाव्य, प्रेमाख्यानकाव्य, गीतिकाव्य आदि सभी प्रकार का साहित्य अपभ्रंश में लिखा गया है। संस्कृत में कथाएँ प्रायः गद्य में लिखी जाती थीं जबकि प्राकृत और अपभ्रंश में प्राय: काव्यनिबद्ध हैं। अधिकांश अपभ्रंश साहित्य की रचना जैन विद्वानों, कवियों व मुनियों द्वारा हुई है इसी कारण यह साहित्य जैन ग्रंथागारों-भण्डारों में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है । अपभ्रंश में अधिकांश सिद्ध साहित्य आठवीं शताब्दी से मिलने लगता है जबकि भक्ति साहित्य स्तुति-पूजा, गीतियों, चर्चरी, रास, फागु, चुनड़ी आदि लोकधर्मी विधाओं में उत्तर मध्यकाल ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी से रचा गया है। लिखकर या मौखिक रूप में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ को समझाने के लिए दृष्टान्त रूप में कथा कहने की प्रवृत्ति श्रमण जैन साधुओं व विद्वानों में अत्यन्त व्यापक थी इसमें उनका मूल उद्देश्य उत्तमचरित्र निर्माण का ही होता था। अपभ्रंश भाषा में आध्यात्मिक विषयों में रचे गए साहित्य में 'परमात्म-प्रकाश' (परमप्पपयासु) एवं 'योगसार' ग्रंथों का स्थान अति उच्च है जो प्राचार्य योगीन्दु (जोइन्दु) देव द्वारा विरचित हैं। 'परमात्म-प्रकाश' साक्षात् मोक्षमार्ग का प्रतिपादक है । जिस तरह श्री कंदकंदाचार्य के समयसार, प्रवचनसार व नियमसार ये तीन ग्रंथ आध्यात्मिक विषय की परम सीमा है उसी प्रकार श्री योगीन्दुदेव द्वारा विरचित 'परमात्म-प्रकाश' व 'योगसार' भी प्राध्यात्मिक विषय की परम सीमा है । जो व्यक्ति ऐसे ग्रंथों का निष्ठापूर्वक शुद्ध मन से अध्ययन, स्वाध्याय, मनन व अभ्यास करता है वह निश्चय ही मोक्षमार्ग पर चलकर अपने अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। श्री योगीन्दुदेव का काल अभी निश्चित ज्ञात नहीं हो पाया है परन्तु अधिकांश इतिहासकारों का मत है कि श्री योगीन्दु विक्रम सं. 700 के पास-पास हुए हैं । परम्परा से निम्नलिखित ग्रंथ योगीन्दु विरचित कहे जाते हैं परन्तु इनमें से संख्या 4 से 9 तक के रचनाकारों के बारे में अभी मतभेद है 1. परमात्म-प्रकाश (अपभ्रंश) 2. योगसार (अपभ्रंश) 3. नौकार श्रावकाचार (अपभ्रंश) 4. अध्यात्म सन्दोह (संस्कृत) 5. सुभाषितम् (संस्कृत) 6. तत्वार्थ टीका (संस्कृत) 7. दोहापाहुड (अपभ्रंश) 8. अमृताशीति (संस्कृत) 9. निजात्माष्टक (प्राकृत)। परमात्म-प्रकाश ग्रंथ तो इतना उपयोगी एवं प्रसिद्ध हुआ है कि इसकी संस्कृत, हिन्दी, कन्नड़ आदि भाषाओं में कई टीकाएं उपलब्ध हैं। ब्रह्मदेव की संस्कृत टीका, बालचन्द्र की कन्नड टीका व पं. दौलतराम की हिन्दी टीका काफी प्रसिद्ध है। 'परमात्म-प्रकाश' के दो मुख्य अधिकार हैं-एक विक्षिात्माधिकार व दूसरा मोक्षाधिकार । प्रथम अधिकार में

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