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किरण १] प्रमाणनयतत्वालोकालंकारःकी समीक्षा प्रन्यकार ने सूत्र नं. ३२ में "न दृष्टान्तादि वचनम्" इस में कहे हुए आदि शब्द से उपनय
और निगमन का ग्रहण किया है, इसलिये जब सूत्र नं० ३३ से ही उपनय और निगमन की परप्रतिपत्ति में कारणता का निषेध हो जाता है। तो सूत्र नं०४० की निष्प्रयोजनता स्पष्ट ही है। वास्तव में जब सूत्रों में ऐसे लाघव का ध्यान रखा जाता है तभी वे सूत्रों की कक्षा को प्राप्त कर सकते हैं नहीं तो वे वाक्य ही कहे जा सकते हैं। ___ यदि कहा जाय, कि आगे इस ग्रन्थ में उपनय और निगमन का लक्षण किया गया है इसलिये उसके पहले इनका उद्देश करना आवश्यक होने से उपनय और निगमन का उद्देश करने के लिये सूत्र नं० ४० आवश्यक हो जाता है। तो इसका उत्तर इस प्रकार है कि फिर तो "न दृष्टान्तादि वचनम्" इसके स्थान में "न दृष्टान्तोपनयनिगमनवचनम्” ऐसा पाठ करना हो योग्य था अन्यथा कहा जा सकता है कि जब सूत्र नं० ३२ के पहिले किसी भी सूत्र में उपनय, निगमन का कथन नहीं है तो सूत्र नं० ३२ में आदि शब्द से उनका ग्रहण अन्यकर्ता ने कैसे कर लिया है। यदि कहा जाय कि अन्य दर्शनकारों ने इनका प्रयोग किया है इसलिय प्रसिद्धि के कारण आदि शब्द से ही उनका बोध हो जाता है तो फिर प्रसिद्ध होने के कारण उनके लक्षण करने के लिये भी उद्देश की आवश्यकता नहीं रह जाती है । वास्तव में तो ग्रन्थकार को अपने प्रन्थ में उनका उद्देशात्मक कथन करना चाहिये
और वह "न दृष्टान्तादि वचनम्" के स्थान में "नदृष्टान्तोपनयनिगमनवचनम्" ऐसा पाठ करने से ही उपयुक्त होता है, इसके लिये सूत्र नं० ४० की आवश्यकता नहीं है। इस स्थान पर परीक्षामुख का सूत्रक्रम अत्यन्त गंभीर भाव को हृदयस्थ करके लिखा गया है। पाठकों की जानकारी कालिये उसका यहां पर निर्देश कर देना आवश्यक समझता हूँ।
एतद्वयमेवानुमानाङ्ग नादाहरणम् ॥ ३७-३॥ नाह तत्साध्यप्रातपत्यङ्ग तत्र यथोक्तहेतोरेव व्यापारात् ॥३८-३॥ तदविनाभावनिश्चयार्थ वा, विपक्षे बाधकादेव तत्सिद्धः ॥ ३६-३॥
व्यक्तिरूपं च निदर्शनं सामान्येन तु व्याप्तिस्तत्रापि ताद्वप्रातपत्तावनवस्थानं स्याद् दृष्टान्तान्तरापेक्षणात् ॥४०-३॥
नाप व्याप्तिस्मरणार्थ तथाविधहेतुप्रयोगादेव तत्स्मृतेः ॥ ४१.३॥ तत्परममभिधीयमानम् साध्यधर्मािण साध्यसाधने संदेहयात ॥४२-३ ॥ कुतोऽन्यथोपनयनिगमने ॥ ४३-३॥ न च ते तदङ्ग साध्यधमिर्माण हेतुसाध्ययोर्वचनादेवासंशयात् ॥ ४४.३॥ परीक्षामुख ॥
(क्रमशः)