Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास नैयायिक तथा वैशेषिक मिथ्याज्ञान को कर्मबन्ध का कारण मानते हैं । योग एवं सांख्य दर्शन में प्रकृति-पुरुष के अभेदज्ञान को कर्मबन्ध का कारण माना गया है। वेदान्त आदि दर्शनों में अविद्या अथवा अज्ञान को कर्मबन्ध का कारण बताया गया है । बौद्धों ने वासना अथवा संस्कार को कर्मोपार्जन का कारण माना है । जैन परम्परा में संक्षेप में मिथ्यात्व कर्मबन्ध का कारण माना गया है । जो कुछ हो, यह निश्चित है कि कर्मोपार्जन का कोई भी कारण क्यों न माना जाए, राग-द्वेषजनित प्रवृत्ति ही कर्मबन्ध का प्रधान कारण है। राग-द्वेष को न्यूनता अथवा अभाव से अज्ञान, वासना अथवा मिथ्यात्व कम हो जाता अथवा नष्ट हो जाता है। राग-द्वेषरहित प्राणी कर्मोपार्जन के योग्य विकारों से सदैव दूर रहता है। उसका मन हमेशा अपने नियन्त्रण में रहता है । कर्मबन्ध की प्रक्रिया :
जैन कर्मग्रन्थों में कर्मबन्ध की प्रक्रिया का सुव्यवस्थित वर्णन किया गया है । सम्पूर्ण लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ कर्मयोग्य पुद्गल-परमाणु विद्यमान न हों । जब प्राणी अपने मन, वचन अथवा तन से किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करता है तब चारों ओर से कर्मयोग्य पुद्गल-परमाणुओं का आकर्षण होता है । जितने क्षेत्र अर्थात् प्रदेश में उसकी आत्मा विद्यमान रहती है उतने ही प्रदेश में विद्यमान परमाणु उसके द्वारा उस समय ग्रहण किये जाते हैं, अन्य नहीं । प्रवृत्ति की तरतमता के अनुसार परमाणुओं की संख्या में भी तारतम्य होता है । प्रवृत्ति की मात्रा में अधिकता होने पर परमाणुओं की संख्या में भी अधिकता होती है एवं प्रवृत्ति की मात्रा में न्यूनता होने पर परमाणुओं की संख्या में भी न्यूनता होती है । गृहीत पुद्गल-परमाणुओं के समूह का कर्मरूप से आत्मा के साथ बद्ध होना जैन कर्मवाद की परिभाषा में प्रदेश-बन्ध कहलाता है। इन्हीं परमाणुओं की ज्ञानावरण ( जिन कर्मों से आत्मा की ज्ञान-शक्ति आवृत होती है ) आदि अनेक रूपों में परिणति होना प्रकृति-बन्ध कहलाता है। प्रदेश-बन्ध में कर्म-परमाणुओं का परिमाण अभिप्रेत है जबकि प्रकृति-बन्ध में कर्म-परमाणुओं की प्रकृति अर्थात् स्वभाव का विचार किया जाता है। भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले कर्मों की भिन्न-भिन्न परमाणु-संख्या होती है । दूसरे शब्दों में विभिन्न कर्मप्रकृतियों के विभिन्न कर्मप्रदेश होते हैं । जैन कर्मशास्त्रों में इस प्रश्न पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया
१. जैनदर्शन की मान्यता है कि आत्मा शरीरव्यापी है। देह से बाहर
आत्मतत्त्व विद्यमान नहीं होता।
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