Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ईश्वर अथवा पुरुष-ब्रह्म को जगत की उत्पत्ति,स्थिति एवं संहार का कारण अथवा नियामक मानना निरर्थक है। कर्म आदि अन्य कारणों से ही प्राणियों के जन्म, जरा, मरण आदि की सिद्धि की जा सकती है। केवल भूतों से भी ज्ञान, सुख, दुःख, भावना आदि चैतन्यमूलक धर्मों की सिद्धि नहीं की जा सकती। जड़भूतों के अतिरिक्त चेतन तत्त्व की सत्ता स्वीकार करना अनिवार्य है क्योंकि मूर्त जड़ अमूर्त चंतन्य को कदापि उत्पन्न नहीं कर सकता। जिसमें जिस गुण का सर्वथा अभाव होता है उससे वह गुण कदापि उत्पन्न नहीं हो सकता। ऐसा न मानने पर कार्यकारणभाव को व्यवस्था व्यर्थ हो जाएगी । परिणामतः हम भूतों को भी किसी कार्य का कारण मानने के लिए बाध्य न होंगे । ऐसी अवस्था में किसी कार्य का कारण ढूंढना ही निरर्थक होगा। अतः जड़ और चेतन इन दो प्रकार के तत्त्वों की सत्ता स्वीकार करते हुए कर्ममूलक विश्व-व्यवस्था मानना ही युक्तिसंगत प्रतीत होता है। प्राणी का कर्मविशेष अपने नैसर्गिक स्वभाव के अनुसार स्वतः फल प्रदान करने में समर्थ होता है। इस कार्य के लिए किसी अन्य नियन्त्रक, नियामक अथवा न्यायदाता की आवश्यकता नहीं होती। कर्म का अर्थ :
साधारणतया 'कर्म' शब्द का अर्थ कार्य, प्रवृत्ति अथवा क्रिया किया जाता है । कर्मकाण्ड में यज्ञ आदि क्रियाएँ कर्म के रूप में प्रचलित हैं । पौराणिक परम्परा में व्रत-नियम आदि धार्मिक क्रियाएँ कर्मरूप मानी जाती हैं । व्याकरणशास्त्र में कर्ता जिसे अपनी क्रिया के द्वारा प्राप्त करना चाहता है अर्थात् जिसपर कर्ता के व्यापार का फल गिरता है उसे कर्म कहा जाता है। न्यायशास्त्र में उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण और गमनरूप पांच सांकेतिक कर्मों में कर्म शब्द का व्यवहार किया जाता है । जैन परम्परा में कर्म दो प्रकार का माना गया है : भावकर्म और द्रव्यकर्म । राग-द्वेषात्मक परिणाम अर्थात् कषाय भावकर्म कहलाता है। कार्मण जाति का पुद्गल-जडतत्त्वविशेष जो कि कषाय के कारण आत्माचेतनतत्त्व के साथ मिलजुल जाता है, द्रव्यकर्म कहलाता है।
जैन-परम्परा में जिस अर्थ में कर्म शब्द प्रयुक्त हुआ है उस अर्थ में अथवा उससे मिलते-जुलते अर्थ में अन्य दर्शनों में निम्न शब्दों का प्रयोग किया गया है : माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, दैव, भाग्य आदि । माया, अविद्या और प्रकृति शब्द वेदान्त दर्शन में उपलब्ध हैं। अपूर्व शब्द मीमांशा दर्शन में प्रयुक्त हुआ है। वासना शब्द दर्शन से विशेष
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