Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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कर्मवाद
पुरुषवाद-पुरुषवादियों के मतानुसार इस संसार का रचयिता, पालनकर्ता एवं हर्ता पुरुषविशेष अर्थात् ईश्वर है। प्रलयावस्था में भी उसकी ज्ञानादि शक्तियाँ विद्यमान रहती हैं । पुरुषवाद में सामान्यतः दो मतों का समावेश है : ब्रह्मवाद और ईश्वरवाद । ब्रह्मवाद को मान्यता है कि जिस प्रकार मकड़ी जाले के लिए, चन्द्रकान्तमणि जल के लिए तथा वटवृक्ष प्ररोह अर्थात् जटाओं के लिए हेतुभूत है उसी प्रकार पुरुष अर्थात् ब्रह्म समस्त जगत् के प्राणियों की सृष्टि, स्थिति एवं संहार के प्रति निमित्तभूत है। इस प्रकार ब्रह्म ही संसार के समस्त पदार्थों का उपादानकारण है । ईश्वरवाद की मान्यता के अनुसार स्वयंसिद्ध जड़
और चेतन द्रव्यों के पारस्परिक संयोजन में ईश्वर निमित्तकारण है। ईश्वर की इच्छा के बिना जगत् का कोई भी कार्य नहीं हो सकता । वह विश्व का नियन्त्रक एवं नियामक है। कर्मवाद का मन्तव्य :
कर्मवाद के समर्थक उपर्युक्त मान्यताओं का समन्वय करते हुए इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं कि जिस प्रकार किसी कार्य की उत्पत्ति केवल एक ही कारण पर नहीं अपितु कारणसाकल्य पर अवलम्बित है उसी प्रकार कर्म के साथसाथ कालादि भी विश्व-वैचित्र्य के कारणों के अन्तर्गत समाविष्ट हैं । कर्म वैचित्र्य का प्रधान कारण है जबकि कालादि उसके सहकारी कारण हैं। कर्म को प्रधान कारण मानने से पुरुषार्थ का पोषण होता है तथा प्राणियों में आत्मविश्वास व आत्मबल उत्पन्न होता। अपने सुख-दुःख का प्रधान कारण अन्यत्र ढूँढ़ने की अपेक्षा अपने में ही ढूंढ़ना अधिक युक्तियुक्त है। आचार्य हरिभद्र आदि की मान्यता है कि काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृतकर्म और पुरुषार्थ इन पाँच कारणों में से किसी एक को ही कार्यनिष्पत्ति का कारण मानना और शेष कारणों की अवहेलना करना मिथ्या धारणा है। सम्यग् धारणा यह है कि कार्यनिष्पत्ति में उक्त सभी कारणों का यथोचित समन्वय किया जाये। दैव-कर्म-भाग्य और पुरुषार्थ के विषय में अनेकान्त दृष्टि रखनी चाहिए। बुद्धिपूर्वक कर्म न करने पर भी इष्ट अथवा अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति होना दैवाधीन है। बुद्धिपूर्वक प्रयत्न से इष्टानिष्ट की प्राप्ति होना पुरुषार्थ के अधीन है। कहीं दैव प्रधान होता है तो कहीं पुरुषार्थ । दैव और पुरुषार्थ के सम्यक् समन्वय से हो अर्थसिद्धि होती है । १. प्रमेयकमलमार्तण्ड (पं० महेन्द्रकुमार जैन द्वारा सम्पादित), पृ० ६५. २. शास्त्रवार्तासमुच्चय, २, ७९-८०. ३. आप्तमीमांसा, का० ८८-९१.
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