Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 11
________________ अङ्क] विचित्र ब्याह। एक देहको छोड़ दूसरी देह जीव पाता है। शिक्षितसे रक्षित होते हैं देश-धर्म घरवाले, इसी भाँति वह भटक भटक कर रोता है गाता है॥१७॥ शिक्षित मनुज नहीं पड़ते हैं कभी दुःखके पाले। . धन्य पुरुष वे कभी नहीं जो मरनेसे डरते है . इसी लिए तुम उसे दिलाना जैसे तैसे शिक्षा, बच करके जो बुरे कर्मसे जग-सेवा करते हैं। - उसका लालन पालन करना स्वयं माँगकर भिक्षा ॥२३ . उनको ही सच्चे संन्यासी सदा चाहिए कहना, आँख भर तब तुरत सुशीला बोली महा विकल हो, कभी स्वपमें जिन्हें न आता जगमें डरकर रहना ॥१८॥ नाथ ! आपके विना कभी क्यों मेरा जन्म सफल हो। धैर्य धारिए, क्या बिगड़ा है, वैद्य बुला लेती हूँ, हरिसेवक जो सुखद रहा वह आज दुखद होता है, उनसे लेकर रामबाणके सम ओषधि देती हूँ॥ २४ ॥ किसी वस्तुके लिए साम्हने जब मेरे होता है। होंगे आप निरोग शीघ्र ही, चिन्ता तनिक न करिए, यदि बीमार न होता मैं तो उसको देता लाकर, दृढता-नौका पर चढ़कर प्रभु ! रोग-नदीको तरिए। इस करके वह उसे खेलता बातेंविविध बनाकर ॥१९॥ जिसके मनमें स्थान नहीं पावेगी कभी निराशा, वित्त सुतादिक साथ न जाते उनके जो मरते हैं, वही मनुज देखेगा जगका अद्भुत अखिल तमाशा॥२५॥ और उन्हींके लिए मनुज क्या क्या न पाप करते हैं। रामदेव तब सिसक सिसक कर बोले धीमे स्वरसे, स्थार्थ-विवश हो सभी यहाँ पर मिलते हैं अपनेमें, एक बार जल और पिलादो मुझको अपने करसे । पर परत्रमें काम न आवेगा कोई सपने में ॥ २०॥ हरिसेवक है कहाँ दिखा दो देर न करो सुशीले, किसी वस्तु पर कभी न ज्ञानी दिखलाते हैं ममता, शरचन्द्रसे उसके मुखसे सुन लूँ वचन रसीले॥ २६ ॥ सदा सभीके साथ शान्त हो रखते हैं वे समता । वैद्य, दवाका नाम न लो, अब मैं परत्र जाऊँगा। अहंकार-युत ममता ही है जग-बन्धनका कारण, जननी जन्म-भूमिपर सोकर अनुपम सुख पाऊँगा, जीवनमुक्त जीव है वह जो उसका करे निवारण ॥२१॥ स्मरण सुशीले करो उसे अब जो जगका कर्ता है, भर्ता है सबका, सुखदाता, जो दुखका हर्ता है ॥२७॥ पर तो भी तुम हरिसेवकको शिक्षा खूब दिलाना, जितने मैंने कर्म किये हैं भलेबुरे इस जगमें, स्वयं भूखको सहलेना पर उसको खब खिलाना। देख रहा हूँ अड़े खड़े हैं वे सब मेरे मगमें । जिस माताने और पिताने बालक नहीं पढ़ाया, वे ही मेरे साथ चलेंगे और न कुछ जावेगा, मनो उन्होंने निज सुतको बलि अपने हाथ चढ़ाया२२॥ चिर सञ्चित यह ठाट हमारा काम न कुछ आवेगा ॥२८॥ शान्त चित्त हो रामदेव फिर और नहीं कुछ बोले, नेत्र बन्द कर लिए सदाके लिए, नहीं फिर खोले। प्राण पखेरू गये कहाँ पर देखा नहीं किसीने, मृत्यु-वज्रसे नहीं बचाया निजको कहीं किसीने ॥ २९ ॥ . देख सुशीला पतिकी गतिको मनमें अति घबराई, काष्ठ-मूर्तिसी हुई, वदनसे कुछ भी बात न आई। फिर हा नाथ! नाथ! कह कर वह गिरी भूमि पर नारी, पति-वियोग-विद्युत्की उसको लगी चोट अतिभारी ॥३०॥ (क्रमशः।) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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