Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 9
________________ अङ्क] सप्तभङ्गी मय। ५ शंका-परस्पर विषयगमनको व्यतिकर क हैं। तीनों गुणोंका समूह ही प्रधान है, तथापि कहते हैं । जैसे जिस रूपसे सत्त्व है उस रूपसे एक वस्तु अनेकात्मक स्वीकार करना अखअसत्त्व भी रहेगा न कि सत्त्व, और जिस रूपसे ण्डित है। असल है उसी रूपसे सत्त्व रहेगा न कि असत्त्व. नैयायिक इसलिए व्यतिकर दोष है। द्रव्यादि पदार्थोको सामान्य विशेषरूप उत्तर-स्वरूपसे सत्त्व और पररूपसे असत्त्व स्वीकार करते हैं। अनेकमें एक व्यापक नियम अनुभवसिद्ध होनेसे संकर तथा व्यतिकर होनेसे सामान्य और जो अन्य पदार्थोंसे एकको दोष नहीं है। पृथक् करे वह विशेष है। जैसे गुण द्रव्य नहीं है, शंका ६-एक ही वस्तु सत्त्व असत्त्व उभय कर्म द्रव्य नहीं है । एकहीको सामान्य विशेष रूप होनेसे यह निश्चय करना अशक्य है कि यह : माना है । ऐसे ही गुणत्व कर्मत्व भी सामान्य - विशेष रूप हैं। क्या है । इस लिए संशय है। उत्तर-संशयका निवारण पहले ही कर आये हैं। मेचक मणिके ज्ञानको एक और अनेक मानते शंका ७-संशय होनेसे बोधका अभाव है, ९ हैं । पाँच रंगरूप रत्नको मेचक कहते हैं। इसलिए अप्रतिपत्ति दोष है। ' इसका ज्ञान एक प्रतिभासरूप नहीं है। एक उत्तर-जब संशय.नहीं है तो वस्तुके बोध- । ज्ञान भी नहीं है और अनेक भी नहीं बल्कि एक का अभाव कैसा ? इस लिए अप्रतिपत्ति दोष पदार्थके नानाधर्म हैं जिनसे अनेकान्त और नहीं है। एकान्त दोनों मिलवाँ ( मिश्र) ज्ञान होता है। चार्वाकादि। शंका ८-अप्रतिपत्ति होनेसे सत्त्व असत्त्व पृथिवी जल तेज वायु चार तत्त्वोंसे चैतन्यस्वरूप वस्तुका ही अभाव भान होता है, इस बना मानते हैं। जैसे कोद्रव आदिसे मादक लिए अभाव दोष है। उत्तर-जब अप्रतिपत्ति दोष ही नहीं है तो शक्ति । उनका सिद्धान्त है कि पृथिवी आदि • अभाव कैसा । क्यों कि अप्रतिपत्ति होनेसे ही सत्त्व " अनेक स्वरूप एक ही चैतन्य है । इसलिए यह भी अंसत्त्व स्वरूप वस्तुका अभाव मान होता है। एकान्त अनेकान्तवाद हुआ । अब यह दिखाते हैं कि दूसरे शास्त्रोंके भी मीमांसक मत वास्तवमें अनेकान्तवाद ही हैं, एकान्तवाद प्रमाता प्रमिति प्रमेयाकार एक ही ज्ञान होता नहीं, जैसा कि वे मानते हैं। है। घटको मैं जानता हूँ-इसमें अनेकपदार्थसाय विषयतासहित एक ही ज्ञान स्वीकार किया है। - सत्व-रजस्-तमोगुणोंकी साम्यावस्थाको प्र- यह भी अनेकान्तवाद ही हुआ। धान ( प्रकृति ) कहते हैं । लाघव-शोष-ताप इस छोटेसे लेखमें इस गम्भीर नयका विवरण वाराण भिन्न भिन्न स्वभाववाले अनेक स्वरूप पदा- करेनेकी चेष्टा की है; परन्तु यह विषय तो स्पष्टतासे का एक प्रधान स्वरूप स्वीकार करनेहीसे एक एक बृहदाकार पुस्तकमें ही वर्णन हो सकता अनेक स्वरूप पदार्थ स्वीकृत हो चुका । एक है । इसलिए यदि यह लेख स्पष्ट नहीं है तो पाठक पदार्थ है (कृति), लेकिन स्वरूप उसके अने- क्षमा करें । विषय बहुत गम्भीर है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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