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अङ्क १ ]
नहीं कह सकते । यह ग्रन्थ स्वतंत्र है, किसी खास ग्रन्थका अनुवाद नहीं है । मूलकथानक पुराने ग्रन्थोंसे ले लिया गया है; पर प्रबन्धरचना कविने स्वयं की है। इसमें तत्त्वोंका और स्वर्ग, नरक, लोक गुणस्थान, आदिका जो विस्तृत वर्णन है, वह काव्यदृष्टिसे अच्छा नहीं मालूम होता है, मामूली से बहुत अधिक हो गया है, पर फिर भी रचना में सौन्दर्य तथा प्रसाद गुण है। थोड़े देखिए:
हिन्दी - जैनसाहित्यका इतिहास ।
उपजे एकहि गर्भसौं, सज्जन दुर्जन येह | लोह कवच रक्षा करै, खांड़ो खंडै देह ॥ पिता नीर परसै नहीं, दूर रहै रवि यार । ताअम्बुजमैं मूढ़ अलि, उरझि मरै अविचार ॥ पोखत तो दुख दोख करै सब, सोखत सुख उपजावै । दुर्जन- दह- स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावै ॥ चनजोग स्वरूप न याकौ, विरचनजोग सही है । यह तन पाय महा तप कीजै, या सार यही है यथा हंसके वंसकौं,
॥
चाल न सिखवै कोइ । त्यौं कुलीन नरनारिकै,
सहज नमन गुण होइ ॥ जिन-जननी रोमांच तन,
जगी मुदित मन जान । किधौं सकंटक कमलिनी,
विकसी निसि - अवसान ॥ पहरे सुभ आभरन तन,
सुन्दर वसन सुरंग । कलपबेल जंगम किधौं, चली सखीजन संग ॥
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रागादिक जलसौं भरचौ तन तलाब बहु भाय । पारस - रवि दरसत सुखै,
अघ सारस उड़ जाय ॥ सुलभ काज गरुवो गनै, अलप बुद्धिकी रीत । ज्यों कीड़ी कन ले चलै, किधौं चली गढ़ जीत ॥ तीसरा ग्रन्थ ' पदसंग्रह ' है । इसमें सब मिलाकर ८० पद और वीनती आदि हैं। नमूने के तौरपर एक पद सुन लीजिए:
राग कालिंगड़ा ।
चरखा चलता नाहीं,
चरखा हुआ पुराना ॥ टेक ॥ पग खूँटे द्वय हालन लागे,
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उर मदरा खखराना ।
छीदी हुईं पांखड़ी पसलीं,
फिरै नहीं मनमाना ॥ १ ॥ रसना तकलीने बल खाया, सो अब कैसें खटै ।
सबद सूत सुधा नहिं निकले, घड़ी घड़ी पल टूटै ॥ २ ॥ आयु मालका नहीं भरोसा,
अंग चलाचल सारे । रोज इलाज मरम्मत चाहै,
वैद बाढ़ई हारे ॥ ३॥ नया चरखला रंगा चंगा,
सबका चित्त चुरावै । पलटा वरन गये गुन अगले,
अब देखें नहिं भावैं ॥ ४ ॥ मौटा महीं कातकर भाई,
कर अपना सुरझेरा । अंत आगमें ईंधन होगी,
"
भूधर '
समझ सबेरा ॥ ५ ॥ ३ द्यानतराय । ये आगरे के रहनेवाले थे । इनकी जाति अग्रवाल और गोत्र गोयल पिताका नाम श्यामदास और दादा वारदास
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