Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 97
________________ अङ्क २] विविध-प्रसङ्ग। ७ कमजोरीकी हद ! लाभ पहुंच सकता है उतना लाभ आपकी वर्तयह कहनेमें हमें कोई इन्कार नहीं है कि ब्रह्म . मान दुरंगी पालिसीसे कभी नहीं पहुंच सकता। चारी शीतलप्रसादजी निःस्वार्थ भावसे समा . बल्कि लोगोंको एक तरहका सन्देह होने लगता हैं; जकी मौलिक सेवा करते आ रहे हैं । बल्कि यों और फिर वे कुछ भी स्थिर नहीं कर पाते । कहना चाहिए कि समाजसेवा ही आपके जीवनका अच्छा, अब आप ही देखिए कि जनहितेच्छुके महावत होगया है । और आपकी इस सेवाका दिसम्बरके अंकमें जो शिखरजीके मामलेका आपहमारे हृदयमें अत्यधिक आदर भी है; पर साथ का पत्र प्रकाशित हुआ है, उसमें तो आपने साफ ही यह देखकर बड़ा ही विस्मय होता है कि आप शब्दोंमें यह कहा है कि इस मुकद्दमेबाजीसे मैं जैसे निस्वार्थ सेवकोंके हृदय इतने दुर्बल-इतने जैनसमाज की बरबादी समझता हूँ; और इधर कमजोर क्यों हैं ! जिसके कारण कि न आप आप दिगम्बरियोंको कितने ही सज्जनोंकी अपील कोई बात स्पष्ट कह सकते हैं और न स्पष्ट लिख करनेकी राय न होने पर भी अपील करही सकते हैं। हमने बीसियों बार देखा है कि नेकी सलाह देते हैं-नहीं आग्रह करते हैं । जब जब आपको लिखने या कहनेका मौका यहाँ यह सवाल नहीं है कि आप अपने आया है तब ही तब आप लिखने और बोलनेमें हकोंकी रक्षा न करें; किन्तु कहना है आपकी अपनी कलम और जबानको दबा गये हैं ।या कुछ दुरंगी पालिसीके बाबत । यदि आप अपने हकोंकी लिखा अथवा कहा है तो वह बड़े ही दबे भावोंसे। रक्षा करनेके लिए मुकद्दमेबाजीको ही सत्य और ब्रह्मचारीजीमें अनेक गुणोंको होते हुए भी हम अच्छा समझते हैं तो फिर आपको श्रीयुत उनकी इस नीतिको पसन्द नहीं करते । समाजके बाडीलालजीको उस पत्रके लिखनेकी क्या अवआप निस्वार्थ सेवक हैं-आपको उससे कुछ श्यकता थी ? क्यों आपने बाड़ीलालजीको पत्र लेना देना नहीं-तब फिर आप अपने विचारोंके- लिख कर उनके और-मुकद्दमेबाजीकी सलाह देकर जिनसे आप समाजका हित समझते हैं-कहनेमें दिगम्बरियोंके प्रशंसा-प्रात्र बननेकी महात्वाकांया लिखनेमें क्यों हिचकिचाते हैं ? क्यों क्षा की ? आप समाजके निस्वार्थ सेवक हैं फिर उन्हें साफ साफ नहीं लिखा करते ? यह दुरंगी आपको इस ऐसी गंगा-जमनी बातोंसे मतलब ! पालिसी आप जैसे निस्वार्थ सेवियोंके पदके परन्तु नहीं; इन सब बातोंसे यही निष्कर्ष निकलता योग्य नहीं है। जो विचार आपके पवित्र और है कि आपका मन बहुत ही कमजोर है, बहुत ही निस्वार्थ हृदयकी प्रेरणासे निकलते हैं-फिर वे निःसत्व है, बहुत ही दुर्बल है ! और इसी कारण कैसे ही हों, चाहे उनसे लोग नाराज हों या आपकी हिम्मत नहीं पड़ती कि आप जनताके प्रसन्न-उन्हें निडर और निःसंकोच होकर ही सामने अपने पवित्र हृदयकी प्रेरणासे उत्पन्न हुए आपको लिखना या कहना चाहिए। कारण विचारोंको निर्भय होकर प्रगट कर सकें ! आश्चर्य हमारा विश्वास है कि आपके स्पष्ट और निर्भय- है, नहीं; महा आश्चर्य है कि आत्माकी अनन्त बलताके साथ कहे हुए विचारोंसे समाजको जितना शाली शक्ति पर आप सैकड़ों ही व्याख्यान दे चुके, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116