Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवर्द्धमानाय नमः । जैनहितैषी । जनवरी, फरवरी १९१७ । विषय सूची । पहला अंक । १ ऐसी मति हो जाय ( कविता ) २ सप्तभङ्गीनय-ले, लाला कन्नोमल एम. ए. ३ विचित्रव्याह ( खण्डकाव्य ) - ले०, पं० रामचरित उपाध्याय ४ हिन्दी - जैन साहित्यका इतिहास ५ भाग्यचक्र ( गल्प ) - ले०, पं० व्रजनन्दन प्रसाद पं. रघुनन्दन प्रसाद मिश्र ६ काम करनेवालों के लिए - ले०, बाबू दयाचन्द गोयलीय बी. ए. ७ नवयुवकोंको उपदेश - व्या०, प्रो० बालकृष्ण एम. ए. ८ हमारी भक्ति ( कविता ) - ले०, पं० सुखराम चौबे ६ पतितों की पुकार । ७ पुस्तक परिचय | ८ विविध प्रसंग | ... दूसरा अंक | ... ... १ भद्रबाहु -संहिता । ... २ मेरठकी जैन पाठशाला और प्रो. सेठीका वक्तव्य । ३ स्नान । ४ अनुरोध ( कविता ) ले० पं. रामचरित उपाध्याय । ५ जैन भारतकी गति । शि श्री. केटासागर श्री महावीर जैन आराधना - संपादक - नाथूराम प्रेमी । मुंबईवैभव प्रेस. F For Personal & Private Use Only B ८९ ७१ ७४ ७६ ७८ ७९ अंक १-२ । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्थनायें। भारतविख्यात ! हजारों प्रंशसापत्रमाप्त ! १. जैनहितैषी किसी स्वार्थबुद्धिसे प्रेरित होकर निजी अस्सी प्रकारके बात रोगोंकी एकमात्र औषधि लाभके लिए नहीं निकाला जाता है। इसमें जो समय और शक्तिका व्यय किया जाता है वह केवल अच्छे महानारायण तैल। विचारोंके प्रचारले लिए। अत: इसकी उन्नतिमें हमारा महानारायण तैल सब प्रकारकी यु हमारे प्रत्येक पाठकको सहायता देनी चाहिए। की पीड़ा, पक्षाघात, (लकवा, फालिज ) गठिया २. जिन महाशयों को इसका कोई लेख अच्छा मालूम सुन्नवात, कंपवात, हाथ पांव आदि उगोंका हो उन्हें चाहिए कि उस लेखको जितने मित्रोंको जकड़ जाना, कमर और पीठकी भयानक पीड़ा, वे पढ़कर सुना सकें अवश्य सुना दिया करें। पुरानीसे पुरानी सूजन, चोट, हड्डी या रस्का ३. यदि कोई लेख अच्छा न मालूम हो अथवा विरुद्ध दुबजाना, पिचजाना या टेढ़ी तिरछी होजना मालूम हो तो केवल उसीके, कारण, लेखक या आर सब प्रकारकी अंगोंकी दुर्बलता आहिमें सम्पादकसे द्वेष भाव न धारण करने के लिए सवि. बहुत बार उपयोगी साबित होचुका है। नय निवेदन है। ___ मूल्य २० तोलेकी शीशीका दो रुपया ।... ४. लेख भेजनेके लिए सभी सम्प्रदायके लेखकोंको डा० म० ॥) आना। . आमंत्रण है। -सम्पादक। * वैद्य* __ नियमावली। .. सर्वोपयोगी मासिक पत्र । १. वार्षिक मूल्य उपहारसहित ३) तीन रुपया पेशगी । है। वी. पी. तीन रुपया एक आनेका भेजा जाता है। यह पत्र प्रतिमास प्रत्येक घरमें उपस्थित होकर एक वैद्य या डाक्टरका काम करता है। इसमें स्वास्थ्य२. उपहारके बिना भी तीन रुपया मूल्य है। ३. प्राहक वर्षके आरंभसे किये जाते हैं और बीचसे र र रक्षाके सुलभ उपाय, आरोग्य शास्त्रके नियम, प्राचीन और अर्वाचीन वैद्यकके सिद्धान्त, भारतीय अर्थात् ७ वें अंकसे । बीचसे ग्राहक होनेवालोंको वनौषधियोंका अन्वेषण, स्त्र और बालकोंके कठिन उपहार नहीं दिया जाता। आधे वषका मूल्य ११) रोगोंका इलाज आदि अरछे २ लेख प्रकाशित हात ४. प्रत्येक अंकका मूल्य पाँच आने है।। हैं। इसकी वार्षिक फीस केवल १) रु. मात्र है। ५. सब तरहका पत्रव्यवहार इस पतेसे करना चाहिए। नमूना मुफ्त मंगाकर देखिये। मैनेजर-जैनग्रन्धाकर कार्यालय. पता-वैद्य शङ्करलाल हरिशङ्कर हीराबाग पा. गिरगांव-बंबई। आयुर्वेदोद्धारक-औषधालय, मुरादाबाद। श्रीभगवान् वर्धमान (महातीर ) स्वामीजी महाराज का ____ एक बार जरूर आजमाइए। जीवन बरित्र। शिराजन वाम । लेखक-उपाध्याय ॐनरामजी महाराजके शिष्य । ___ शररिके हर तरहके दर्द, जैसे सिरदर्द, जोलोका स्वर्गवासी जैन मुनि पं. ज्ञानचन्द्रजी महाराज। दर्द, संधिवाय. हाथ पैर आदिमें मोच आजाना, प्रत्येक जैनीको लागत दाम पर दिया जावेगा। इस आदिके लिए यह बहत ही आश्चर्यजनक और राम-. जीवन चरित्रमें जन्मसे अन्ततक सूत्रों के प्रमाणों बाण उपाय है। कोई भी दर्द हो, उस पर यह अपना सहित सर्व विषयोंका विस्तार सहित वर्णन किया असर करता है। कीमत एक डब्बीका छह आना गया है। यह पुस्तक बम्बईके सप्रसिद्ध निर्णयसागर दाद, फुन्सी, फोड़ा, खुजली आदिकी आश्वय. छापखानेमें बहुत उत्तम विलायती कागजपर सुन्दर जनक दवाका मूल्य एक डिब्बीका चार आना।। मोटे अक्षरों में छप रही है। कागजकी तेजीके कारण सब जगह एजेंटोंकी जरूरत है । हर कोई चीज प्रति बहुत थोड़ी छपी हैं जो भाई प्रथम ग्राहक होंगे मँगाना चाहो तो लिखोउन्हींको दिया जावेगा। चे लिखे पतेपर नाम दर्ज . मेसर्स जोली सीन्ड्रेला एण्ड कं० कराना चाहिये। पता है जनरल केमिस्ट एण्ड कमिशन एजेंट प्रिंसेस स्ट्रीट. बम्बई नं०२ लाला मेहरचन्द्र लक्ष्मणदास जैन एजेण्ट-मेसर्स टी. आर चन्द्रावाला सेद मिटा बाजार लाहौर। एण्ड कं० बम्बई नं० २। For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः । CHATAR HETAUNator तेरहवाँ भाग। अंक १ जैनहितैपी। माघ, २४४३ जनवरी, १९१७. न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विशेषी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी हितैषी ॥ ऐसी मति हो जाय। ( सोहनी ।) दयामय, ऐसी मति हो जाय। त्रिजगतकी कल्याण-कामना, दिन दिन बढ़ती जाय ॥१॥ औरोंके सुखको सुख समझू, सुखका करूँ उपाय। अपने दुख सब सहूँ किन्तु, परदुख नहिं देखा जाय ॥२॥ अधम अज्ञ अस्पृश्य अधर्मी, दुखी और असहाय। . सबके अवगाहनहित मम उर, सुरसरि सम बन जाय ॥३॥ भूला मटका उलटी मतिका, जो है जनसमुदाय। उसे सुझाऊँ सच्चा सत्पथ, निज सर्वस्व लगाय ॥४॥ सत्य धर्म हो, सत्य कर्म हो, सत्य ध्येय बन जाय। सत्यान्वेषणमें ही 'प्रेमी', जीवन यह लग जाय ॥५॥ सप्तभंगी नय। ले.-लाला कन्नोमल एम. ए.,सेशनजज, धौलपुर यह जैनशास्त्रोंका बड़ा प्रसिद्ध और गौ 'रवशाली नय है । जैनशास्त्रज्ञ इसीके द्वारा समस्त संसारकी चेतन और अचेतन वस्तुओंका निर्णय करते हैं । जैनधर्मके नवतत्त्वोंका अर्थात् जीव-अजीव-पाप-पुण्य-आस्रव-बन्ध-संवरनिर्जरा और मोक्षका अधिगम (ज्ञान). प्रमाण और नय द्वारा होता है। जिससे तत्त्वोंका सम्पूर्ण रूपसे ज्ञान हो, वह प्रमाणात्मक अधिगम है और जिसके द्वारा इनके केवल एक देशका ज्ञान हो, वह नयात्मक अधिगम है। ये दोनों भेद सप्तभङ्गीनयमें विधि और निषेधकी प्रधानतासे होते हैं । इस लिए यह 'नयप्रमाणसप्तभङ्गी । और 'नयसप्तभङ्गी' दोनों कहलाता है। सप्तभङ्गी नयका अर्थ ऐसा नय है जिसमें सात भङ्ग (वाक्य) हों, अर्थात् “सप्तानां भङ्गानां वाक्यानां समाहारः समूहः सप्तभङ्गी"। एक वस्तुमें अनेक धर्म रहते हैं। वे एक दूसरेके विरुद्ध नहीं होते हैं। इन अविरुद्ध नाना धर्मोंका निश्चयज्ञान For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - सप्तभङ्गीनयके सात वाक्यों द्वारा ही होता है। अतएव सप्तभङ्गी वह नय है जो सात वाक्यों द्वारा किसी वस्तुके परस्पर अविरुद्ध अनेक धर्मोका निश्चय ज्ञान उत्पन्न करे। यदि कोई कहे कि इस नयके सप्त वाक्य ही क्यों हैं, अधिक वा न्यून क्यों नहीं, तो उत्तर यह है कि जिज्ञासुको किसी वस्तुके निश्चय करने में सात संशयों से अधिक नहीं हो सकते हैं । इस लिए यह नय उन सब संशयोंका निवारक है । जैनशास्त्रोंके प्रसिद्ध अनेकान्तवादका आधार इसी नय पर है । इसके समझे बिना अनेकान्तवादके महत्त्वका पूर्ण ज्ञान नहीं हो सकता है। इस नयके सात भङ्ग ( वाक्य ) ये हैं: १ - स्यादस्ति घटः - शायद घट है । २–स्यान्नास्ति घटः—शायद घट नहीं है ३ - स्यादस्ति नास्ति च घटः- - शायद घट है और नहीं भी है । । घटः - शायद ४–स्यादवक्तव्यो घट अवक्तव्य है, अर्थात् ऐसा है जिसके विषयमें कुछ कह ही नहीं सकते हैं । ६ - स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च घटःशायद घट नहीं है और अवक्तव्य भी है । ७- स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यश्च घटःशायद घट है, नहीं भी है और अवक्तव्य भी है । १ काल । घटमें जिस कालमें ' अस्तित्वधर्म ' है उसी C ५- स्यादस्ति चावक्तव्यश्च घटः - शायद कालमें उसमें ' पट-नास्तित्व' अथवा अवक्तघट है और अवक्तव्य भी है । व्यत्वादि ' भी धर्म हैं । इसलिए घटमें इन सब अस्तियों की एक समय ही स्थिति है, अर्थात् कालद्वारा अभेद स्थिति है । दूसरे शब्दों में कालिक सम्बन्ध से सब धर्म अभिन्न हैं, क्योंकि समानकालमें ही सब धर्म विद्यमान हैं । इनमें से प्रत्येक भङ्गका सविस्तार विवरण करने के पहले यह अत्यावश्यक है कि इनके सम झमें जिन जिन बातोंकी आवश्यकता है उनका भी थोड़ा हाल दे दिया जाय । वे बातें ये हैं: १ - इन भङ्गों में 'स्यात्' शब्द जो आया है उसका अर्थ | २ –इन भङ्गोंमें ' अस्ति " शब्द जो आया है और जिससे वस्तुमें धर्मोकी स्थिति बताई हैं उसका [ भाग १३ गूढाशय, अर्थात् यह कि वस्तुमें धर्मोकी स्थिति किस प्रकार होती है । ३-इन भङ्गोंमें जो घट वस्तु दी है उसके रूप क्या हैं । उसका निजरूप क्या है और पररूप क्या है । द्रव्यरूप क्या है और पय्यीयरूप क्या है । इनका खुलासा यह है: १ - ' स्यात् ' शब्द अनेकान्तरूप अर्थबोधक है। इसके प्रयोग करनेसे यह अभिप्राय है कि वाक्यमें निश्चयरूपी एक अर्थ ही नहीं समझा जाय, बल्कि उसमें जो दूसरे अंश मिले हुए हैं उनकी तरफ भी दृष्टि पड़े । , २ - ' अस्ति ' शब्दसे वस्तुमें धर्मों की स्थिति सूचित होती है । यह स्थिति अभेदरूप आठ प्रकारसे हो सकती है, अर्थात् १ काल, २ आत्मरूप, ३ अर्थ, ४ सम्बन्ध, उपकार, ६ गुणिदेश, ७ संसर्गे और शब्द । 1 इनसे कैसे स्थिति होती है इसका थोड़ासा विवरण नीचे लिखते हैं: २ आत्मरूप । जैसे घट अस्तित्वका स्वरूप है वैसे ही वह और धर्मो का भी स्वरूप है, अर्थात् अस्तित्व ही एक गुण नहीं उसमें और गुण भी हैं । धर्म जिस स्वरूपसे वस्तुमें रहते हैं वही उनका निजका रूप अथवा आत्मरूप है । इस प्रकार एक घटरूप अधिकरणमें आत्मस्वरूपसे सब धर्म रहते हैं, इसलिए आत्मस्वरूप के कारण सब धर्मोकी अभेदवृत्ति ( स्थिति ) हुई । For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समभकी नय। प्रधानतासे यह स्थिति अभेदोपचारके रूपसे रहती जे घटम्प द्रव्य पदार्थके अस्तित्वधर्मका है। इन दोनोंके द्वारा अनेकान्तवादकी सूचना आधार है वहीं घट द्रव्य अन्य धर्माका भी आधार होती है । यस प्रकार एक आधारमें अर्थात एक ही पत्रा- ३-जैसे वस्तमें धोकी स्थिति आठ प्रकारस थमें सब धमाकी स्थिति अर्थसे अभेदवृति है : रहती है, वैसे ही किसी वस्तका निजरूप चार र सम्बन्ध । प्रकारसे होता है । वे चार प्रकार ये हैं-नामजा शायद सम्बन्ध अभेदरूप अस्तित्वका स्थापना-द्रव्य और भाव। जैसे, मृत्तिकासे कितनी घटके साथ है वही शायद' सम्बन्ध रूप ही वस्तुयें बनी हैं परन्तु घट नाम एकका ही है। घट आदि अन्य मब धर्माका भी घटके साथ है । राह जिस स्थानमें रक्खा है वह उसका क्षेत्र है, जैसे मम्बन्धी अभेदवृति है ! चाट एक पत्थर पर रक्खा है, तो पत्थर उसका ५ उपकार : क्षेत्र है । दूसरा पत्थर अथवा तख्ता जहाँ वह नहीं जो अपने स्वरूपमय वस्तुका करना उपकार, रखरखा है वह उसका 'परक्षेत्र है। यह स्थापना परमत्तिका द्रव्य है, सुवर्ण द्रव्य नहीं है । स्तित्वका चटके साथ है वही अपना वैशिष्टयः ।। यह द्रव्य है । घट जिसकालमें है वह उसका भाव सम्पादन उपकार अन्य धर्मका भी है । यह उप है । यह वर्तमानकाल ही हो सकता है, भूत अथवा कार वृत्ति है। भविष्यत् काल नहीं। गुणिदेश . सारांश यह है कि वस्तका निजरूप जानष्टकं जिस देशमें अपन रूप (अपक्षा) से नके लिए उसे इन चार बातोंसे देखना चाहिए, अस्तित्व धर्म है. उसी देशमें अन्यकी अपक्षासे ' अर्थात् उस वस्तुका नाम, उसकी स्थापना नास्तित्व आदि सम्पूर्ण धर्म भी हैं, इसलिए देश ( क्षेत्र ), उसका द्रव्य और उसका भाव दिन नहीं है। अर्थात् काल । संसर्ग। उदाहरण- घटका नाम घट है, कँडीजिसप्रकार एक वस्तुत्व स्वरूपसे अस्तित्वका और 12 नांदी आदिका नहीं । ये उसके परिणाम हैं। स्टमें संसर्ग है. वैसे ही एक वस्तुत्व रूपसे अन्य चटकी स्थापना वही क्षेत्र है जहाँ वह धरा गव धाकानी संसर्ग है. इसलिए संसर्गसे अभेद संद है, दूसरा क्षेत्र नहीं । घटका द्रव्य मृत्तिका है, वृत्ति हुई। सुवर्ण नहीं । घटका काल वर्तमान है, भूत भवि८ शब्द। ष्यत् नहीं । षटकी मृत्तिकादि उसका द्रव्यरूप जो ' अस्ति' शब्द अस्तित्वधर्मस्वरूप घट अर्थात् निजरूप है और मृत्तिकासे जो सैकड़ों आदि वस्तका भी वाचक है उसी वाच्यत्वरूप चीजें बनती हैं जैसे फॅटी-मटकना-नाँदी आदि शब्दसे सब प्रकी घट आदि पदार्थोमें अभेद- ये उसके पर्यायरूप हैं । प्रत्येक वाक्यका स्पष्ट वृत्ति हैं । इस प्रकार सब धर्मोकी अभेदरूपसे विवरण इस प्रकार है:घटमें स्थिति रहती है । इस रीतिसे द्रव्यार्थिक १-शायद घट है। इसका यह अर्थ है कि नयकी प्रधानतासे बस्तुमें सब धर्मों की अभेदर- वट अपने निजलमसे है, अर्थात् नाम, स्थापना पसे स्थिति रहती है और पर्यायार्थिक नयकी (क्षेत्र) द्रव्य और भाव (काल ) से है। टेदी गर्दन For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ रूपसे घटका नाम है । इसकी द्रव्य मृत्तिका है। ही समयमें घटके निजरूपकी सत्ता और उसके 'इसका क्षेत्र वह स्थान है जहाँ वह धरा है और पर रूपकी असत्ता प्रधान करनेसे वह अवक्तव्य इसका काल वह समय है जिसमें वह वर्तमान हो जाता है। ऐसी वस्तु जो एक ही समयमें है। इन चीजोंके देखते घट है। 'शायद ' इस अपने निजरूप और पररूपकी प्रधानता रखती लिए कहा कि कोई यह न समझे कि घटमें केवल है वह सिवा अवक्तव्यके और क्या हो सकती है ? ये ही चीजें हैं जो प्रधानतासे बताई हैं और कुछ ५-शायद घट है और अवक्तव्य भी है। नहीं है । यह अनेकान्तार्थवाचक है । इस द्रव्यरूपसे तो घट है, लेकिन उसका द्रव्य वाक्यमें सत्ता प्रधान है। और पर्यायरूप एक कालमें ही प्रधानभूत ___ २-शायद घट नहीं है । इसका यह अर्थ है नहीं है । सत्तासाहत अंवक्तव्यताकी प्रधाकि घट परनाम, पररूप, परद्रव्य, परक्षेत्र (स्थापना) नता है। घटके द्रव्य अर्थात् मृत्तिका रूपको और परकाल ( भाव ) में नहीं है । अपना रूप देखें तो घट है, परन्तु द्रव्य (मृतिका ) और तो टेढ़ी गर्दन थी, लेकिन इस रूपसे अलग जो उसके परिवर्तनशील रूप दोनोंको एक समयमें रूप हैं जैसे चपटा लंबा आदि, वह इसमें नहीं है! ही देखें तो वह अवक्तव्य है। जैसे पट वृक्षादिका रूप । अपनी द्रव्यता ६-शायद घट नहीं है और अवक्तव्य भी मृत्तिका है, लेकिन परद्रव्य सुवर्ण लोहा है। घट अपने पर्यायरूपकी अपेक्षासे नहीं है, पत्थर सूत, ये नहीं हैं । अपना क्षेत्र तो क्योंकि वे रूप क्षणक्षणमें बदलते रहते हैं, लेकिन वह स्थान था जहाँ वह रक्खा था यानी पटा या प्रधानभूत द्रव्य पर्याय उभयकी अपेक्षासे वह पत्थर, दूसरा स्थान पृथिवी छत आदि । अपना अवक्तव्यत्वका आधार है। इसमें असत्तारहित काल तो वर्तमान था दूसरा काल भूत या भवि- अवक्तव्यत्वकी प्रधानता है। ष्यत् काल है। इसमें अमत्ता प्रधान है । परन्तु ७-शायद घट है, नहीं भी है और अवक्तव्य कोई यह न समझे कि इसमें घटका निषेध भी है । द्रव्य पर्याय अलग अलगकी अपेक्षासे है । नहीं कहनसे घटका अस्तित्व बिल- सत्ता असत्ता सहित मिलित तथा साथ ही योजत कुल चला नहीं गया, बाल्क गौण हो गया द्रव्य पर्यायकी अपेक्षासें अवक्तव्यत्वका आश्रय और परस्वरूपकी प्रधानता हो गई। यह वाक्य घट है । मृत्तिकाकी दृष्टि से 'है,' उसके क्षणक्षणमें पहले वाक्यका निषेधरूपसे विरुद्ध नहीं है, रूप बदलते हैं इस पर्यायदृष्टि से 'नहीं' है । इन बल्कि असत्ता इसमें प्रधान है और सत्ता गौण। दोनोंको एक साथ देखो तो 'अवक्तव्य' है। ३-शायद घट है और नहीं भी है। पहले इस सबका अभिप्राय यह है कि जब किसी घटके निजरूपकी सत्ता प्रधान होनेसे उसका हो- वस्तुका निर्णय करना है तो उसे केवल एक ना बताया है और फिर घटके परस्वरूपकी दृष्टिसे ही देखकर व्यवस्था नहीं देनी चाहिए । असत्ता प्रधान होनेसे उसका नहीं होना बताया प्रत्येक वस्तुमें अनेक धर्म होते हैं । इन सभी है। जब घटके निजरूपकी तरफ देखो तो वह धर्मोको देखना चाहिए । जैनशास्त्रका मत है कि है और उसके पररूपकी तरफ देखो तो प्रत्येक वस्तु सात दृष्टियोंसे देखी जा सकती है। नहीं है। ___इनमें से हरएक दृष्टि सत्य है; परन्तु पूरा ४-शायद घट अवक्तव्य है । अर्थात् ऐसा है ज्ञान तभी हो सकता है जब ये सातों दृष्टियाँ जिसके विषयमें कुछ कह नहीं सकते हैं । एक मिलाई जायँ । इस प्रकार किसी वस्तुके विषयमें For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १] सप्तभङ्गी नय । पूर्ण और विलक्षण सिद्धान्त है । जिस तरह प्रत्येक वस्तुमें ‘अस्ति' लगा कर वाक्य बनाते हैं, उसी तरह नित्य अनित्य एक अनेक शब्द भी लगाते हैं । सप्तभंगीका निरूपण नित्यत्व अनित्यत्व एकत्व और अनेकत्व आदि धर्मों से भी करना चाहिए। जैसे शायद घट नित्य है ( द्रव्यरूप से ), शायद अनित्य है ( पर्य्यायरूपसे), इसी तरह एकत्व और अनेकत्व रूपसे शायद घट एक है शायद घट अनेक है । द्रव्यरूपसे तो एक है क्योंकि मृत्तिकारूप द्रव्य एक हैं और सामान्य है और पर्याय रूपसे अनेक है, क्योंकि रस गंध आदि अनेक पीयरूप है । व्यवस्था देना जैनशास्त्रका अद्भुत गंभीर गवे न्तकी अपेक्षासे है। दूसरा अनेकान्तकी अपेक्षासे, तीसरा दोनोंकी अपेक्षासे - चौथा एकान्त और अनेकान्तकी एक कालमें योजनाकी अपेक्षासे, पाँचवाँ एकान्त और उभयवादकी एक काल में योजनाकी अपेक्षासे । छठा अनेकान्त और उभयवादकी एक कालकी योजनाकी अपेक्षासे और सातवाँ एकान्त और अनेकान्त और उभयवादकी एक कालमें योजनाकी अपेक्षा ह । एकान्त और अनेकान्त । एकान्त दो प्रकारका है अर्थात् सम्यक और मिथ्या । इसी तरह अनेकान्त भी दो प्रकारका है। एक पदार्थमें अनेक धर्म होते हैं। इनमें से किसी एक धर्मको प्रधान कर कहा जाय और दूसरे धर्मोका निषेध नहीं किया जाय तो सम्यक एकान्त है। यदि किसी एक धर्मका निश्चय कर उस पदार्थके और सब धर्मोका निषेध किया जाय तो वह मिथ्या एकान्त है । प्रत्यक्ष अनुमान और आगम प्रमाणोंसे अविरुद्ध एक वस्तुमें अनेक धर्मोका निरूपण करना सम्यक् अनेकान्त है । प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे विरुद्ध एक वस्तुमें अनेक धर्मोकी कल्पना करना मिथ्या अनेकान्त है । सम्यक् एकान्त तो नय है और मिथ्या एकान्त नयाभास है । ऐसे ही सम्यक् अनेकान्त तो प्रमाण है और मिथ्या अनेकान्त प्रमाणाभास है । जैनशास्त्र सम्यक् एकान्त और सम्यक् अनेकान्तको मानता है और मिथ्या एकान्त और मिथ्या अनेकान्तको नहीं । सप्त भङ्गिनयमें सम्यक् एकान्त और सम्यक् अनेकासन्त दोनों मिले हैं । इसका पहला वाक्य एका ५ यह न केवल अनेकान्त अनेकान्त ही नहीं है, बल्कि एकान्त भी इसमें मिला है । यदि एकान्तका अभाव हो तो एकान्त के समूहभूत अनेकान्तका भी अभाव हो जाय । जैसे शाखाओंका अभाव हो जाय तो शाखासमूहभूत वृक्षका भी अभाव हो जायगा । इस नयमें मूलभूत भङ्ग पहले दो वाक्य ' अस्ति ' और ' नास्ति ' हैं । आगेके ३ से ७ तक वाक्य इनहीकी योजनासे होते हैं । 1 जैनमतके सिवा और मतवाले किसी न किसी तत्त्वको प्रधान मानकर केवल एकान्तवादी ही हैं। अतः उनका पक्ष कमजोर हो जाता है. जैनमत सम्यक् एकान्तको लिये हुए सम्यक् अनेकान्तवादी है । इसलिए इसका पक्ष बड़ा बलिष्ठ और सर्वव्यापक है । केवल एकान्तवाद मानने से जो दोष आते हैं उन्हें कुछ दूसरे शास्त्रोंके सिद्धान्तसे दिखाते हैं । उसकी पर्य्याय नहीं, इसलिए उसकी दृष्टिसे इस १ सांख्य शास्त्र तत्त्वको द्रव्य ही मानता है, नयका एक ही भंग सत्य है । परन्तु पर्य्यीय भी अनुभवसिद्ध है, इसलिए यह मत ठीक नहीं । २ पर्याय ही तत्त्व है। हर एक पदार्थ क्षण क्षणमें बदलता रहता है, इसलिए क्षणिक पर्य्याय ही तत्त्व है, कोई मुख्य द्रव्य तत्त्व नहीं है । यह बौद्ध मानते हैं। इनकी दृष्टिसे दूसरा ही भंग ठीक है । परन्तु घटादि पर्य्यायोंमें मृत्तिकारूप द्रव्य और कटक कुण्डल आदिमें सुवर्ण द्रव्य भी अनुभव - सिद्ध है । इसलिए इनका मत भी ठीक नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ ३ जो यह कहते हैं कि वस्तु सर्वथा अव- है। अनेकान्तवादमें आठ विरोध दोष भी नहीं क्तव्य रूप ही है। उनमें निजवचनका विरोध है। हैं। वे आठ दोष ये हैं-१ विरोध, २ वैयधिकक्योंकि अवक्तव्य इस शब्दसे वे वस्तुको कहते रण्य, ३ अनवस्था, ४ संकर, ५ व्यतिकर, हैं तो सर्वथा अवक्तव्यता कहाँ रही? जैसे कोई ६ संशय, ७ अप्रतिपत्ति और ८ अभाव। कहे कि मैं सदा मौन व्रत धारण करता हूँ शंका १-अस्ति नास्ति एक पदार्थमें विरोध यदिसदा मौन है तो 'मैं मौन हूँ ' यह वाक्य दोष है। कैसे कहा ? उत्तर-विरोधका साधक अभाव है। जैसे एक इस लिए केवल तीसरा भंग भी ठीक नहीं है। वस्तुमें घटत्व और पटत्व, दोनों विरोधी हैं, इसी तरह और और मत भी समझो । अब परन्तु द्रव्यको छोड़ दिया जाय और केवल अनेकान्त वादमें जो शंकायें दूसरे मतावलम्बी उस वस्तु के रूप ही देखे जायँ तो इन रूपोंमें विद्वानोंने उठाई हैं, उनका निवारण लिखते हैं। विरोध नहीं है। द्रव्यकी दृष्टि से वस्तुकी सत्ता किसीने कहा है कि अनेकान्तवाद छलमात्र है, परन्तु रूपोंमें विरोध है। इस तरह एक वस्तुमें है, पर यह बात नहीं है । अनेकान्तबाद भाव अभाव दोनों हो सकते हैं। निजरूपसे छल मात्र इसलिए नहीं है कि छलयोजनामें एक भाव और पररूपसे अभाव । ही शब्दके दो अर्थ होते हैं। जैसे “नवकम्बलोऽयं शंका २-अस्ति नास्तिका एक पदार्थमें होना देवदत्तः' यहाँ नवके दो अर्थ हैं-१ नया और २ एक अधिकरणमें होना है । इस लिए यह दोष नौ, अर्थात् देवदत्तके पास नया कम्बल है और है। दो अधिकरण होने चाहिए थे। देवदत्तके पास नौ कम्बल हैं। यह बात अनेकान्त- उत्तर-एक वृक्ष अधिकरणमें चल और वादमें नहीं है। एक पदार्थको एक दृष्टिसे देखनेसे अचल दोनों धर्म हैं । एक वस्तुमें रक्त श्याम उसका होना बताना और दूसरी दृष्टिसे देखनेसे पीला कई रंग हो सकते हैं। इसी प्रकार अने. उसका नहीं होना बताना, एक शब्दके दो अर्थ कान्तवाद है। . नहीं हुए। इस लिए यह छल नहीं हुआ। ३ शंका-जो अप्रमाणिक पदार्थोकी परंपरासे __ अनेकान्तवाद संशयका हेतु भी नहीं है। कल्पना है उस कल्पनाके विश्रामके अभावको संशय होनेमें सामान्य अंशका प्रत्यक्ष, विशेष ही अनवस्था कहते हैं । अस्ति एक रूपसे है अंशका अप्रत्यक्ष, और विशेषकी स्मति होना आ. नास्ति पररूपसे है । दोनों एकरूपसे होने वश्यक है । जैसे कुछ प्रकाश और कुछ अन्धकार । चाहिए, नहीं तो यह दोष आता है । उत्तर-अनेकधर्मस्वरूप वस्तु पहले ही सिद्ध होनेके समय मनुष्यके समान स्थित खंभको देख । ख. हो चुकी है। फिर कहनेकी आवश्यकता नहीं। कर, लेकिन उसके और विशेष अंशोंको नहीं यहाँ अप्रमाणिक पदार्थोकी परंपराकी कल्पनाका देखकर (जैसे उसमें पक्षियोंके घासेले अथवा सर्वथा अभाव है। मनुष्यके हाथ पैर वस्त्र शिखा आदि ) और मनु- ४ शंका-एक कालमें ही एक वस्तुमें सब ज्यके और अंशोंको याद कर उसमें मनुष्यका धर्मोकी व्याप्ति संकर दोष है, और वह इसमें है। भ्रम करना। परन्तु यह बात अनेकान्तवादमें उत्तर-अनुभवसिद्ध पदार्थ सिद्ध होनेपर नहीं है । क्योंकि स्वरूपपररूपविशेषोंकी उप- किसी भी दोषका अवकाश नहीं है। जब पदार्थलब्धि प्रत्येक पदार्थमें है। इस लिए विशेषकी की सिद्धि अनुभवसे विरुद्ध होती है वह तभी इस उपलब्धिसे अनेकान्तवाद संशयका हेतु नहीं दोषका विषय होता है। For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क] सप्तभङ्गी मय। ५ शंका-परस्पर विषयगमनको व्यतिकर क हैं। तीनों गुणोंका समूह ही प्रधान है, तथापि कहते हैं । जैसे जिस रूपसे सत्त्व है उस रूपसे एक वस्तु अनेकात्मक स्वीकार करना अखअसत्त्व भी रहेगा न कि सत्त्व, और जिस रूपसे ण्डित है। असल है उसी रूपसे सत्त्व रहेगा न कि असत्त्व. नैयायिक इसलिए व्यतिकर दोष है। द्रव्यादि पदार्थोको सामान्य विशेषरूप उत्तर-स्वरूपसे सत्त्व और पररूपसे असत्त्व स्वीकार करते हैं। अनेकमें एक व्यापक नियम अनुभवसिद्ध होनेसे संकर तथा व्यतिकर होनेसे सामान्य और जो अन्य पदार्थोंसे एकको दोष नहीं है। पृथक् करे वह विशेष है। जैसे गुण द्रव्य नहीं है, शंका ६-एक ही वस्तु सत्त्व असत्त्व उभय कर्म द्रव्य नहीं है । एकहीको सामान्य विशेष रूप होनेसे यह निश्चय करना अशक्य है कि यह : माना है । ऐसे ही गुणत्व कर्मत्व भी सामान्य - विशेष रूप हैं। क्या है । इस लिए संशय है। उत्तर-संशयका निवारण पहले ही कर आये हैं। मेचक मणिके ज्ञानको एक और अनेक मानते शंका ७-संशय होनेसे बोधका अभाव है, ९ हैं । पाँच रंगरूप रत्नको मेचक कहते हैं। इसलिए अप्रतिपत्ति दोष है। ' इसका ज्ञान एक प्रतिभासरूप नहीं है। एक उत्तर-जब संशय.नहीं है तो वस्तुके बोध- । ज्ञान भी नहीं है और अनेक भी नहीं बल्कि एक का अभाव कैसा ? इस लिए अप्रतिपत्ति दोष पदार्थके नानाधर्म हैं जिनसे अनेकान्त और नहीं है। एकान्त दोनों मिलवाँ ( मिश्र) ज्ञान होता है। चार्वाकादि। शंका ८-अप्रतिपत्ति होनेसे सत्त्व असत्त्व पृथिवी जल तेज वायु चार तत्त्वोंसे चैतन्यस्वरूप वस्तुका ही अभाव भान होता है, इस बना मानते हैं। जैसे कोद्रव आदिसे मादक लिए अभाव दोष है। उत्तर-जब अप्रतिपत्ति दोष ही नहीं है तो शक्ति । उनका सिद्धान्त है कि पृथिवी आदि • अभाव कैसा । क्यों कि अप्रतिपत्ति होनेसे ही सत्त्व " अनेक स्वरूप एक ही चैतन्य है । इसलिए यह भी अंसत्त्व स्वरूप वस्तुका अभाव मान होता है। एकान्त अनेकान्तवाद हुआ । अब यह दिखाते हैं कि दूसरे शास्त्रोंके भी मीमांसक मत वास्तवमें अनेकान्तवाद ही हैं, एकान्तवाद प्रमाता प्रमिति प्रमेयाकार एक ही ज्ञान होता नहीं, जैसा कि वे मानते हैं। है। घटको मैं जानता हूँ-इसमें अनेकपदार्थसाय विषयतासहित एक ही ज्ञान स्वीकार किया है। - सत्व-रजस्-तमोगुणोंकी साम्यावस्थाको प्र- यह भी अनेकान्तवाद ही हुआ। धान ( प्रकृति ) कहते हैं । लाघव-शोष-ताप इस छोटेसे लेखमें इस गम्भीर नयका विवरण वाराण भिन्न भिन्न स्वभाववाले अनेक स्वरूप पदा- करेनेकी चेष्टा की है; परन्तु यह विषय तो स्पष्टतासे का एक प्रधान स्वरूप स्वीकार करनेहीसे एक एक बृहदाकार पुस्तकमें ही वर्णन हो सकता अनेक स्वरूप पदार्थ स्वीकृत हो चुका । एक है । इसलिए यदि यह लेख स्पष्ट नहीं है तो पाठक पदार्थ है (कृति), लेकिन स्वरूप उसके अने- क्षमा करें । विषय बहुत गम्भीर है। For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ विचित्र व्याह । ( खण्ड काव्य । ) जैनहितैषी - ( ले०, पं० रामचरितं उपाध्याय । ) प्रथम सर्ग } अति सुशील बे-नाम नगरमें रामदेव रहते थे, निर्धन होने के कारण वे विविध दुःख सहते थे । धर्मभीरु थे, कर्मवीर थे किसी भाँति श्रम करके, हाथ दबाकर काम चलाते थे वे अपने घरके ॥ १ ॥ उनकी स्त्रीका नाम सुशीला था, वह पतिव्रता थी, रामदेवकी छाया सी वह निशदिन अनुव्रता थी । मनो माधवीलता किसी सुन्दरतरुसे लपटी हो, धिक् उस नारीको जिसका मन पतिसे भी कपटी हो २ जलदागमसे सुख पाते हैं मनमें जलचर जैसे, शस्य वृद्धिसे भी आह्लादित होते स्थलचर जैसे । जगको देख निरामय जैसे सुख पाते हैं योगी, वैद्य सुखी होते हैं तैसे खूब बढ़ें जब रोगी ॥ १२ ॥ । रामदेवकी बड़ी चिकित्सा होती है, पर कैसे रोग बढ़ा जाता है, आहुति पाकर पावक जैसे । प्राण बेचेंगे नहीं, माल भी नहीं रहा अब घरमें, रामदेव अब लगे डूबने घोर शोक -सागरमें ॥ १३॥ रामदेव तब बड़े धैर्य्यसे बोले सुनो सुशीला, कैसे कौन समझ सकता है अद्भुत जगकी लीला ॥ जो जैसा करता है उसको वैसा फल मिलता है, क्यों गुलाबका फूल मनोहर, काँटोंमें खिलता है ? १४ स्त्रीके लिए स्वपतिसे बढ़कर प्रेमी और नहीं है, धनसे हीन कभी बिजली क्या देखी गई कहीं है । विना चन्द्रके कभी चंद्रिका कहीं नहीं रहती है, पति-वञ्चक स्त्री उभयलोकमै दुख ही दुख सहती है । ३ जिस दम्पतिमें प्रेम परस्पर रहता है, वह जगमेंसदा सुखी है, विघ्न न पड़ते उसके जीवन-मगमे । सत्यवान सावित्रीकी ज्यों जगमें प्रथित कथा है, ' उसी भाँति दम्पतिका रहना सच्ची सुखदप्रथा है ॥ ४ ॥ यद्यपि पति सेवामें तत्पर रहती सदा सुशीला, सुत-हीनाको किन्तु शून्य लगती थी जगकी लीला । सचमुच ही सुत-हीन व्यक्तिको निज जीवन खलता है, क्यों उदास वह रहे नही तरु, जो न कभी फलता है २ बिना शशीके निशा कृशा ज्यों सुखद नही होती है, बिना सलिलके क्या सरिता भी दुखद नही होती है । पुत्र दीपके बिना अंधेरा रहता है त्यों घरमें, क्या शोभित हो सकता है यदि सरसिज खिलेन सरमें। तनय-प्रणयके लिए न किसका मन लोभित होता है ? अब्धि इन्दुको देख उमँगकर क्यों क्षोमित होता है । शिशुकी बोली मधुर तोतली किसे न वश करती है ठुमक ठुमक करके उसकी गति मतिकी गति हरती है७ काल-क्रमसे धन्य सुशीलाने भी सुत सुख-पाया, रामदेवने उसे गोद में लेकर खूब खेलाया ! ? [ भाग १३ तनय-अंगके रजसे जिसका अंग मलिन होजावे, तो उसके सब दुःख दूर हों भाग्यवान् कहलावे ॥ ८ ॥ "जेस रामदेव थे वैसा, उनको भोला भालाबालक मिला, मिटी अब उनकी प्रबल हृदयकी ज्वाला । नाम पड़ा उसका हरिसेवक विज्ञोंकी अनुमतिसे, होनहारपन लक्षित है उसका, उसकी ही गतिसे ॥ ९ ॥ पर सुख सदा नहीं रहता है अद्भुत जग रचना है, पाकर जन्म दुःख-दानवसे बड़ा कठिन बचना है । कठिन रोगसे अब पीड़ित हो रामदेव रोते हैं, दीन क्षीण हो एक खाट पर बिना नींद सोते हैं ॥ १०॥ erter वैद्य हकीम forय ही उनके घर आते हैं, नाड़ी देख, दवा देकरके, रुपये ले जाते हैं । दुखियों को भी देख, सुखी नर होजाते हैं कैसे, जलता देख अन्य घरको मूढ़ तापते जैसे ॥ ११ ॥ कर्मविवश हो दुख सुख दोनों मिलते काल-कमसे, दोष दूसरेको पर नाहक जग देता है भ्रमसे । कौन बचा सकता है उसको जो मरनेवाला है, गिरते हुए सूर्यको कोई स्थिर करनेवाला है ॥ १५ ॥ है परिणाम वियोग योगका, व्यर्थ शोक करना है, सबकी गति है एक, बता दो किसे नहीं मरना है । सोचो तो क्या तुम्हें मरणका दुःख न सहना होगा, जिस विधि रक्खे ईश उसी विधि जगमें रहना होगा १६ पञ्चतत्त्व हैं नित्य सुशीले ! जीव नहीं मरता है, तो भी सुनकर नाम मृत्युका व्यर्थ मनुज बरता है । For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क] विचित्र ब्याह। एक देहको छोड़ दूसरी देह जीव पाता है। शिक्षितसे रक्षित होते हैं देश-धर्म घरवाले, इसी भाँति वह भटक भटक कर रोता है गाता है॥१७॥ शिक्षित मनुज नहीं पड़ते हैं कभी दुःखके पाले। . धन्य पुरुष वे कभी नहीं जो मरनेसे डरते है . इसी लिए तुम उसे दिलाना जैसे तैसे शिक्षा, बच करके जो बुरे कर्मसे जग-सेवा करते हैं। - उसका लालन पालन करना स्वयं माँगकर भिक्षा ॥२३ . उनको ही सच्चे संन्यासी सदा चाहिए कहना, आँख भर तब तुरत सुशीला बोली महा विकल हो, कभी स्वपमें जिन्हें न आता जगमें डरकर रहना ॥१८॥ नाथ ! आपके विना कभी क्यों मेरा जन्म सफल हो। धैर्य धारिए, क्या बिगड़ा है, वैद्य बुला लेती हूँ, हरिसेवक जो सुखद रहा वह आज दुखद होता है, उनसे लेकर रामबाणके सम ओषधि देती हूँ॥ २४ ॥ किसी वस्तुके लिए साम्हने जब मेरे होता है। होंगे आप निरोग शीघ्र ही, चिन्ता तनिक न करिए, यदि बीमार न होता मैं तो उसको देता लाकर, दृढता-नौका पर चढ़कर प्रभु ! रोग-नदीको तरिए। इस करके वह उसे खेलता बातेंविविध बनाकर ॥१९॥ जिसके मनमें स्थान नहीं पावेगी कभी निराशा, वित्त सुतादिक साथ न जाते उनके जो मरते हैं, वही मनुज देखेगा जगका अद्भुत अखिल तमाशा॥२५॥ और उन्हींके लिए मनुज क्या क्या न पाप करते हैं। रामदेव तब सिसक सिसक कर बोले धीमे स्वरसे, स्थार्थ-विवश हो सभी यहाँ पर मिलते हैं अपनेमें, एक बार जल और पिलादो मुझको अपने करसे । पर परत्रमें काम न आवेगा कोई सपने में ॥ २०॥ हरिसेवक है कहाँ दिखा दो देर न करो सुशीले, किसी वस्तु पर कभी न ज्ञानी दिखलाते हैं ममता, शरचन्द्रसे उसके मुखसे सुन लूँ वचन रसीले॥ २६ ॥ सदा सभीके साथ शान्त हो रखते हैं वे समता । वैद्य, दवाका नाम न लो, अब मैं परत्र जाऊँगा। अहंकार-युत ममता ही है जग-बन्धनका कारण, जननी जन्म-भूमिपर सोकर अनुपम सुख पाऊँगा, जीवनमुक्त जीव है वह जो उसका करे निवारण ॥२१॥ स्मरण सुशीले करो उसे अब जो जगका कर्ता है, भर्ता है सबका, सुखदाता, जो दुखका हर्ता है ॥२७॥ पर तो भी तुम हरिसेवकको शिक्षा खूब दिलाना, जितने मैंने कर्म किये हैं भलेबुरे इस जगमें, स्वयं भूखको सहलेना पर उसको खब खिलाना। देख रहा हूँ अड़े खड़े हैं वे सब मेरे मगमें । जिस माताने और पिताने बालक नहीं पढ़ाया, वे ही मेरे साथ चलेंगे और न कुछ जावेगा, मनो उन्होंने निज सुतको बलि अपने हाथ चढ़ाया२२॥ चिर सञ्चित यह ठाट हमारा काम न कुछ आवेगा ॥२८॥ शान्त चित्त हो रामदेव फिर और नहीं कुछ बोले, नेत्र बन्द कर लिए सदाके लिए, नहीं फिर खोले। प्राण पखेरू गये कहाँ पर देखा नहीं किसीने, मृत्यु-वज्रसे नहीं बचाया निजको कहीं किसीने ॥ २९ ॥ . देख सुशीला पतिकी गतिको मनमें अति घबराई, काष्ठ-मूर्तिसी हुई, वदनसे कुछ भी बात न आई। फिर हा नाथ! नाथ! कह कर वह गिरी भूमि पर नारी, पति-वियोग-विद्युत्की उसको लगी चोट अतिभारी ॥३०॥ (क्रमशः।) For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० हिन्दी - जैनसाहित्यका इतिहास । अथवा जैनलेखकों और कवियोंद्वारा हिन्दी साहित्यकी सेवा । [ गताङ्कसे आगे । ] जैनहितैषी - पाँडे जिनदास – इनके बा 'जम्बूचरित्र और ज्ञान सूर्योदय ये दो पद्य - ग्रन्थ हैं। कुछ फुटकरपद भी हैं। जम्बूचरित्रकों इन्होंने संवत् १६४२ में बनाया है । ९ पाँड़े हेमराज । इनका समय सत्रहवीं शताब्दीका चतुर्थपाद और अठारहवींका प्रथम पाद है । पण्डित रूपचन्दजीके ये शिष्य थे । पंचास्तिकायके अन्त में लिखा है- “ यह श्रीरूपचन्दगुरुके प्रसादथी पाँड़े श्रीहेमराजने अपनी बुद्धि माफिक लिखत कीना । " इनके बनाये हुए तीन ग्रन्थ उपलब्ध हैं- प्रवचनसार टीका, पंचास्तिकाय टीका और भाषा भक्तामर । प्रवचनसार टीकाको इन्होंने संवत् १७०९ समाप्त किया था: सत्रह सय नव उत्तरै, माघ मास सितपाख । पंचमि आदितवारकौं, पूरन कीनी भाख ॥ पंचास्तिकाय टीका पीछे बनाई गई है। ये दोनों ग्रन्थ गयमें है और इनमें शुद्ध अध्यामका वर्णन है । जैनसमाजमें ये ग्रन्थ बड़े ही महत्त्वके समझे जाते हैं । इनकी भाषा सरल और स्पष्ट है । उदाहरण " जो जीव मुनि हुवा चाहै है सो प्रथम ही कुटंब लोककौं पूछि आपकौं छुटावै है बंधु लोगनिसौं इसि प्रकार कहै है - अहो इसि जनके रके तुम भाइबंध हौ इसि जनका आत्मा तुम्हास नाहीं यौ तुम निश्चय करि जानौ । " [ भाग १३ 66 ऐसें नाहीं कि कोई काल द्रव्य परिणाम विना होहि जातैं परिणाम विना द्रव्य गदहेके सींग समान है जैसैं गोरसके परिणाम दूध दही घृत तक इत्यादिक अनेक हैं इनि अपने परिणामनि विना गोरस जुदा न पाइए जहाँजु परिणाम नाहीं तहाँ गोरसकी सत्ता नाहीं तैसें ही परिणाम विना द्रव्यकी सत्ता नाहीं । " चौथा ग्रन्थ ' भाषा भक्तामर ' है । यह मानतुंगसूरिके सुप्रसिद्ध स्तोत्र ' भक्तामर ' का हिन्दी पद्यानुवाद है । अनुवाद सुन्दर हैं और इसका खूब ही प्रचार है। इससे मालूम होता है कि हेमराजजी कवि भी अच्छे थे। एक उदाहरणः- प्रलय पवन करि उठी आगि जो तास पटंतर । वमै फुलिंग शिखा उतंग परजलै निरंतर ॥ जगत समस्त निगल्ल भस्मकर हैगी मानो । तड़तड़ाट व अनल, जोर चहुंदिशा उठानो ॥ सो इक छिनमैं उपशमै, नाम-नीर तुम लेत । होइ सरोवर परिनमै, विकसित कमल समेत ॥ ४१ ॥ इस अनुवाद में एक दोष यह है कि इसके लिए जो चौपाई छन्द चुना गया है, वह मूल शार्दूलविक्रीडित छन्दोंका भाव प्रकट करनेमें कहीं कहीं असमर्थ हो गया है और इस कारण कहीं कहीं क्लिष्टता आ गई है । छप्पय और नाराच छन्दोंमें यह बात नहीं है । इन छन्दोंमें जो अनुवाद है वह सरल है । गोम्मटसार और नयचक्रकी वचनिका (सं० १७२४) भी इनकी बनाई हुई है । ' चौरासी बोल " नामकी एक छन्दोबद्ध रचना भी इनकी है। For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १] हिन्दी-जैनसाहित्यका इतिहास । सत्रहवीं शताब्दीके नीचे लिखे कवियोंका हैं । ये भी बनारसीदासजीके समान आध्याउल्लेख मिश्रबन्धुविनोदमें मिलता है:- त्मिक कवि थे । प्रतिभाशाली थे । काव्यकी १ उदयराज जती। इनके बनाये हुए तमाम रीतियोंसे तथा शब्दालंकार अर्थालङ्कार राजनीतिसम्बन्धी फुटकर दोहे मिलते हैं। रचना- आदिसे परिचित थे । बहुतसे अन्तलोपिका, काल १६६० के लगभग । ये बीकानेरनरेश बहिापिका और चित्रबद्ध काव्य भी इन्होंने रायसिंहके आश्रित थे जिन्होंने १६३० से १६८८ बनाये हैं । अनुप्रास और यमककी झंकार भी तक राज्य किया है। इनकी रचनामें यथेष्ट है। २ विद्याकमल । भगवती-गीता बनाया । सुनि रे सयाने नर कहा करै 'घर घर,' इसमें सरस्वतीका स्तवन है । रचनाकाल संवत् तेरो जो सरीर घर घरी ज्यौं तरतु है। छिन छिन छीजै आय जल जैसैं घरी जाय, १६६९ के पूर्व । ताहूको इलाज कछू उरह धरतु है ॥ ३ मुनिलावण्य । 'रावणमन्दोदरी संवाद ' सं० १६६९ के पहले बनाया। आदि जे सहे हैं तेतौ यादिकछु नाहिंतोहि, आनें कही कहा गति काहे उछरतु है। ४ गुणसूरि । १६७६ में 'ढोलासागर' घरी एक देखौ ख्याल धरीकी कहां है चाल, बनाया। घरी घरी रियाल शोर यौं करतु है । ५ लूणसागर । सं० १६८९ में 'अंजनासु- लाई हौं लालन बाल अमोलक, न्दरी संवाद' नामक ग्रंथ बनाया । देखहु तो तुम कैसी बनी है। ऐसी कहूँ तिहुँ लोकमैं सुन्दर, अठारहवीं शताब्दी । और न नारि अनेक धनी है ॥ . १ भैया भगवतीदास ।ये आगरेके रहनेवाले याहीते तोहि कहूँ नित चेतन, थे।ओसवाल जाति और कटारिया इनका गोत्र याहुकी प्रीति जो तोसौं सनी है। था। इनके पिताका नाम लालजी और पिता तेरी औ राधेकी रीझ अनंत, महका दशरथसाहु था । इनकी जन्म और __ सो मोपै कहूं यह जात गनी है।. मृत्युकी तिथि तो मालूम नहीं है; परन्तु इनकी शयन करत हैं रयनमैं, रचनाओंमें वि० संवत् १७३१ से लेकर १७५५ __ कोटीधुज अरु रंक। तकका उल्लेख मिलता है । वि० संवत् १७११ सुपनेमैं दोउ एकसे, ___ वरतें सदा निशंक ॥ में जब पं० हीरानन्दने पंचास्तिकायका अनुवाद दै लोचन सब धरै, किया है, तब भगवतीदास नामके एक विद्वान् मणि नहिं मोल कराहिं। थे। उनका उसमें जिक्र है। शायद वे आप ही हों। सम्यकदृष्टी जौहरी, 'भैया' शायद इनका उपनाम था। अपनी कवि- विरले इह जग माहिं ॥ तामें इन्होंने जगह जगह यही 'छाप रक्खी है। सारे विभ्रम मोहके, . 'ब्रह्मविलास' नामके ग्रन्थमें जो कि छप चुका __ सारे जगतमझार। है. इनकी तमाम रचनाओंका संग्रह है । छोटी सारे तिनके तुम परे, मोटी .सब रचनाओंकी संख्या ६७ है । कोई . सारे गुणहिं विसार ॥ कोई रचनायें एक एक स्वतंत्र ग्रन्थके समान १ आयु । For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जैनहितैषी [ भाग १३ __ पद । २ भूधरदास । आप भी आगरेके रहनेवाले . कहा परदेशीको पतियारो; (टेक ) थे। जातिके आप खण्डेलवाल थे । अठारहवीं मनमानै तब चलै पंथकौं, शताब्दीके अन्तमें आप विद्यमान थे। आपके ___साँझ गिनै न सकारो। सबै कुटंब छांडि इतही पुनि, विषयमें इससे आधिक कुछ ज्ञात नहीं हुआ । ___ त्यागि चलै तन प्यारो॥१॥ आपके बनाये हुए तीन ग्रन्थ हैं-१ जैनशतक, दूर दिसावर चलत आपही, २पार्श्वपुराण और ३ पदसंग्रह । ये तीनों ही छप कोउ न राखनहारो। चुके हैं । जैनशतकमें १०७ कवित्त, सवैया, दोहा कोऊ प्रीति करौ किन कोटिक, और छप्पय हैं । प्रत्येक पद्य अपने अपने विषयको अंत होयगौ न्यारो॥२॥ कहनेवाला है । इसे एक प्रकारका 'सुभाषितधनसौं राचि धरमसौं भूलत, संग्रह' कहना चाहिए । इसका प्रचार भी बहुत झूलत मोह मँझारो। है । हजारों आदमी ऐसे हैं जिन्हें यह कण्ठाग्र इहिविध काल अनंत गमायौ, हो रहा है । कुछ उदाहरणः पायौ नहिं भवपारो॥३॥ सांचे सुखसौं विमुख होत है, बालपैन न सँभार सक्यौ कछु, भ्रम मदिरा मतवारो। ___ जानत नाहिं हिताहितहीको। चेतहु चेत सुनहु रे 'भैया,' यौवन वैस बसी वनिता उर, __ कै नित राग रह्यो लछमीको ॥ आप ही आप सँभारो॥४॥ आपकी सारी रचना धार्मिक भावोंसे भरी हुई यौं पन दोइ विगोइ दये नर, ___ डा क्यौं नरकै निज जीको। है। शृंगाररससे आपको प्रेम नहीं था। इसी आये हैं 'सेत' अजौं सठ चेत, कारण आपने कविवर केशवदासकी · रसिक- __ गई सु गई अब राख रहीको ॥ प्रिया' को पढ़कर उन्हें उलहना दिया है:- काननमैं बसै ऐसौ आन न गरीब जीव, . बड़ी नीत लघु नीत करत है, प्राननसौं प्यारी प्रान पूँजी मिस यहै है। बाय सरत बदबोय भरी। कायर सुभाव धरै काइसौं न द्रोह करै, फोड़ा आदि फुनगनी मंडित, सबहीसौं डरै दाँत लि3 'तिन' रहै है ॥ __ सकल देह मनो रोग-दरी॥ काहूसौं न रोष पुनि काहूपै न पोष चहै, शोणित-हाड़-मांसमय मूरत, काहूके परोष परदोष नाहिं कहै है। . तापर रीझत घरी घरी। नेकु स्वाद सारिवेकौं ऐसे मृग मारिवेकौं, ऐसी नारि निरख करि केशव, हा हा रे कठोर ! तेरौ कैसे कर बहै है॥५५॥ 'रसिकप्रिया' तुम कहा करी ॥ यह विक्रम संवत् १७८१में बनकर समाप्त इस ग्रन्थकी बहुतसी रचनायें साम्प्रदायिक हुआ है। दूसरा ग्रन्थ पार्श्वपुराप्प संवत् १७८९ हैं जिनका आनन्द जैनेतर सज्जनोंको नहीं समाप्त हुआ है। इस ग्रन्थकी जैनसमाजमें बड़ी आसकता; परन्तु बहुतसी रचनायें ऐसी भी हैं प्रतिष्ठा है। हिन्दीके जैनसाहित्यमें यही एक जिनके स्वादका अनुभव सभीको हो सकता है। चरितग्रन्थ है जिसकी रचना उच्चश्रेणीकी है कोई कोई रचना बहुत ही हृदयग्राहिणी है। और जो वास्तवमें पढ़ने योग्य है । यों तो भगवतीदासजी इस शताब्दिके नामी कवियोंमें सैकड़ों ही चरितग्रन्थ पद्यमें बनाये गये हैं, अमिन जाने योग्य हैं। परन्तु उन्हें प्रायः तुकबन्दकेि सिवाय और कुछ For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १ ] नहीं कह सकते । यह ग्रन्थ स्वतंत्र है, किसी खास ग्रन्थका अनुवाद नहीं है । मूलकथानक पुराने ग्रन्थोंसे ले लिया गया है; पर प्रबन्धरचना कविने स्वयं की है। इसमें तत्त्वोंका और स्वर्ग, नरक, लोक गुणस्थान, आदिका जो विस्तृत वर्णन है, वह काव्यदृष्टिसे अच्छा नहीं मालूम होता है, मामूली से बहुत अधिक हो गया है, पर फिर भी रचना में सौन्दर्य तथा प्रसाद गुण है। थोड़े देखिए: हिन्दी - जैनसाहित्यका इतिहास । उपजे एकहि गर्भसौं, सज्जन दुर्जन येह | लोह कवच रक्षा करै, खांड़ो खंडै देह ॥ पिता नीर परसै नहीं, दूर रहै रवि यार । ताअम्बुजमैं मूढ़ अलि, उरझि मरै अविचार ॥ पोखत तो दुख दोख करै सब, सोखत सुख उपजावै । दुर्जन- दह- स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावै ॥ चनजोग स्वरूप न याकौ, विरचनजोग सही है । यह तन पाय महा तप कीजै, या सार यही है यथा हंसके वंसकौं, ॥ चाल न सिखवै कोइ । त्यौं कुलीन नरनारिकै, सहज नमन गुण होइ ॥ जिन-जननी रोमांच तन, जगी मुदित मन जान । किधौं सकंटक कमलिनी, विकसी निसि - अवसान ॥ पहरे सुभ आभरन तन, सुन्दर वसन सुरंग । कलपबेल जंगम किधौं, चली सखीजन संग ॥ रागादिक जलसौं भरचौ तन तलाब बहु भाय । पारस - रवि दरसत सुखै, अघ सारस उड़ जाय ॥ सुलभ काज गरुवो गनै, अलप बुद्धिकी रीत । ज्यों कीड़ी कन ले चलै, किधौं चली गढ़ जीत ॥ तीसरा ग्रन्थ ' पदसंग्रह ' है । इसमें सब मिलाकर ८० पद और वीनती आदि हैं। नमूने के तौरपर एक पद सुन लीजिए: राग कालिंगड़ा । चरखा चलता नाहीं, चरखा हुआ पुराना ॥ टेक ॥ पग खूँटे द्वय हालन लागे, १३ उर मदरा खखराना । छीदी हुईं पांखड़ी पसलीं, फिरै नहीं मनमाना ॥ १ ॥ रसना तकलीने बल खाया, सो अब कैसें खटै । सबद सूत सुधा नहिं निकले, घड़ी घड़ी पल टूटै ॥ २ ॥ आयु मालका नहीं भरोसा, अंग चलाचल सारे । रोज इलाज मरम्मत चाहै, वैद बाढ़ई हारे ॥ ३॥ नया चरखला रंगा चंगा, सबका चित्त चुरावै । पलटा वरन गये गुन अगले, अब देखें नहिं भावैं ॥ ४ ॥ मौटा महीं कातकर भाई, कर अपना सुरझेरा । अंत आगमें ईंधन होगी, " भूधर ' समझ सबेरा ॥ ५ ॥ ३ द्यानतराय । ये आगरे के रहनेवाले थे । इनकी जाति अग्रवाल और गोत्र गोयल पिताका नाम श्यामदास और दादा वारदास For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ था । इनका जन्म संवत् १७३३ में हुआ था । ग्रन्थमें कविने एक विस्तृत प्रशस्ति दी है उस समय आगरेमें मानसिंह जौहरीकी 'सैली' जिसमें उस समयकी अनेक जानने योग्य थी । उसके उद्योगसे वहाँ जैनधर्मकी अच्छी बातोंका उल्लेख किया है। आगरेका वर्णन कवि चर्चा रहती थी । मानसिंह, और विहारीदासको इस भाँति करता है:द्यानतरायने अपना गुरु माना है । क्योंकि इधैं कोट उधैं बाग जमना बहै है बीच, इन्हींके सहवाससे और उपदेशसे इन्हें संवत् पच्छिमसौं पूरव लौं असीम प्रबाहौं। १७४६ में जैनधर्मपर विश्वास हुआ था। पीछे अरमनी कसमीरी गुजराती मारबारी ये दिल्लीमें जाकर रहने लगे थे। दिल्लीमें जब ये न सेती जामैं बहु देस बसैं चाहसौं॥ पहुँचे तब वहाँ सुखानन्दजीकी सैली थी । रूपचंद बानारसी चंदजी भगौतीदास, इनका बनाया हुआ एक धर्मविलास नामका जहाँ भले भले कवि धानत उछाहसौं। ग्रन्थ है, जो कुछ आगरेमें और कुछ दिल्टीमें . ऐसे आगरेकी हम कौन भाँति सोभा कहूँ, रहकर बनाया गया है । १७८० में इसकी बड़ी धर्मथानक है देखिए निगाहसौं ॥३०॥ समाप्ति हुई है। इसे द्यानतविलास भी कहते हैं। संसारके दुःखोंको देखकर कविके हृदयमें कुछ अंशको छोड़कर यह छप चुका है। इसमें यह भावना उठती है-- यानतरायजीकी तमाम रचनाओंका संग्रह है। सरसों समान सुख नहीं कहूं गृह माहिं, संग्रह बहुत बड़ा है। अकेले पदोंकी संख्या ही दुःख तो अपार मन कहाँ लो बताइए । ३३३ है। इन पदोंके सिवाय और पूजाओंके तात मात सुत नारि स्वारथके सगे भ्रात, सिवाय ४५ विषय और हैं जो धर्मविलासके देह तो चलै न साथ और कौन गाइए। नामसे छपे हैं । इसके देखनेसे मालम होता है नर भी सफल कीजै और स्वादछोडिदीजै. कि धानतरायजी अच्छे कवि थे। कठिन विष- क्रोध मान माया लोभ चित्तमैं न लाइए । योंको सरलतासे समझाना इन्हें खूब आता था। ज्ञानके प्रकासनकौं सिद्धथानवासनकौं, जीमैं ऐसीआवै है कि जोगी होइ जाइए॥७८॥ ग्रन्थके अन्तमें आपने कितने अच्छे ढंगसे कहा है कि इस ग्रन्थमें हमारा कर्तृत्व कुछ नहीं है: ४ जगजीवन और.५ हीरानन्द । आग. रेमें जिस समय बादशाह जहाँगीरका राज्य अच्छरसेती तुक भई, था, संगही अभयराज अग्रवाल बड़े भारी और तुकसौं हूए छंद। छंदनिसौं आगम भयौ, सुप्रसिद्ध धनी थे । उनकी अनेक स्त्रियोंमें आगम अरथ सुछंद ॥ 'माहनदे' लक्ष्मीस्वरूपा थीं। जगजीवनका जन्म उन्हींकी कुक्षिसे हुआ था । जगजीवन भी आगम अरथ सुछंद, हौंने यह नहिं कीना । अपने पिताहीके समान प्रसिद्ध पुरुष हुए । “समै गंगाका जल लेइ, जोग पाइ जगजीवन विख्यात भयौ, ज्ञानिनकी अरचं गंगाकौं दीना॥ मण्डलीमें जिसको विकास है । " वे जाफरखाँ सबद अनादि अनंत, नामक किसी उमरावके मंत्री हो गये थे जैसा ग्यान कारन विनमच्छर। कि पंचास्तिकायमें लिखा है:मैं सब सेती भिन्न, ताको पूत भयौ जगनामी, यानमय चेतन अच्छर ॥ जगजीवन जिनमारगगामी। For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १] हिन्दी-जैनसाहित्यका इतिहास। जाफरखाँके काज समारै, . पं० हीरानन्द ने इसके सिवाय और कोई भया दिवान उजागर सारै ॥५॥ ग्रन्थ बनाया या नहीं, यह मालूम नहीं होसका। जगजीवनजीको साहित्यका अच्छा प्रेम ६आनन्दघन। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें ये था। आपकी प्रेरणासे हिन्दीमें कई जैनग्रन्थोंकी एक प्रसिद्ध महात्मा हो गये हैं । उपाध्याय रचना हुई है। आप स्वयं भी कवि और विद्वान् यशोविजयजीसे, सुनते हैं इनका एक बार थे । बनारसीदासजीकी तमाम कविताका संग्रह साक्षात् हुआ था । यशोविजयजीने आनन्दबनारसीविलासके नामसे आपहीने विक्रम संवत् घनजीकी स्तुतिरूप एक अष्टक बनाया है, अतः १७०१ में किया है । बनारसीके नाटक सम- इन्हें यशोविजयजीके समसामयिक ही समझना यसारकी आपने एक अच्छी टीका भी लिखी है, चाहिए। ये पहुँचे हुए महात्मा और आध्याजो हमारे देखनेमें नहीं आई, पर उसके आधा- त्मिक कवि थे । आपकी केवल दो रचना रसे जो गुजराती टीका लिखी गई है और भीमसी उपलब्ध हैं एक स्तवनावली जो गुजराती भाषामें माणकके प्रकरणरत्नाकरमें प्रकाशित हुई है उसे है और जिसमें २४ स्तोत्र हैं और दूसरी 'आहमने देखा है। नन्दघन बहत्तरी' जिसमें ७२ पद* हैं और जगजीवनके समयमें भगवतीदास, घनमल, हिन्दीमें है । आनन्दघनजीके निवासस्थान आमुरारि, हीरानन्द आदि आदि अनेक विद्वान् दिका कुछ भी पता नहीं है; परन्तु उनके विथे। हीरानन्दजी शाहजहानाबादमें रहते थे। षयमें गुजरातीके प्रसिद्ध लेखक मनसुखलाल जगजीवनजीने उनसे पंचास्तिकाय समयसारका रवजीभाई मेहताने एक ४०-४२ पृष्ठका निपद्यानुवाद करनेकी प्रेरणा की और तब उन्होंने बन्ध लिखा है और उक्त दोनों ग्रन्थोंकी भाषा संवत् १७११ में इस ग्रन्थको रचकर तैयार कर पर विचार करके 'भाषाविवेकशास्त्र' की दृष्टिसे दिया। उन्होंने इसे केवल दो महीनेमें बनाया अनुमान किया है कि अमुक अमुक प्रान्तोंमें था । यह ग्रन्थ छप चुका है; गत वर्ष जैनमि- उन्होंने भ्रमण किया होगा और वे रहनेवाले त्रके उपाहारमें दिया गया था । इसमें शुद्ध अमुक प्रान्तके होंगे । आनन्दघन बहत्तरीकी निश्चयनयसे जैनदर्शनमें मानी हुई ( कालद्र- प्रसिद्धि गुजरातमें बहुत है। उसके कई संस्कव्यको छोड़कर शेष ) पाँच द्रव्योंका स्वरूपनि- रण छप चुके हैं । गुजरातियों द्वारा प्रकाशित रूपण है । तात्त्विक ग्रन्थ है । कविता बनारसी, होनेसे यद्यपि उसमें गुजरातीपन आ गया है, भगवतीदास आदिके समान तो नहीं है, पर तथापि भाषा उसकी शुद्ध हिन्दी है । उसकी बुरी भी नहीं है। उदाहरणः रचना कबीर सुन्दरदास आदिके ढंगकी है और सुखदुख दीसै भोगता, ___ * रायचन्द्र काव्यमालामें जो 'आनन्दघन बहसुखदुखरूप न जीव। त्तरी' छपी है उसमें १०७ पद्य हैं । जान पड़ता है, सुखदुख जाननहार है, इसमें बहतसे पद औरोंके मिला दिये गये है। थोडा ग्यान सुधारसपीव ॥ ३२१॥ ही परिश्रम करनेसे हमें मालूम हुआ कि इसका ४२ संसारी संसारमैं, वाँ पद 'अब हम अमर भये न मरेंगे' और अन्तकरनी करै असार । का पद 'तुम ज्ञान-विभौ फूली वसन्त ' ये दोनों. सार रूप जानै नहीं, द्यानततरायजीके हैं । इसी तरह जाँच करनेसे मिथ्यापनकौं टार ॥ ३२४ रोका भी पता चल सकता है। For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ बड़ी ही मर्मस्पर्शिनी है। आनन्दघनजीकी मतमतान्तरोंके प्रति समदृष्टि थी । इनकी रचना भरमें खण्डन मण्डनके भाव नहीं है। उदाहरण, - -- जग आशा जंजीरकी, गति उलटी कछु और । जकरचौ धावत जगत मैं, रहै छुटौ इक टौर ॥ आतम अनुभव फूलकी, कोउ नवेली रीत । नाक न पकरै वासना, कान है न प्रतीत ॥ जैनहितैषी - राग सारंग । मेरे घट ज्ञान भान भयौ भोर ॥ टेक ॥ चेतन चकवा चेतन चकवी, भागौ विरहको सोर ॥ १ ॥ फैली चहुं दिशि चतुर भाव रुचि, मिट्यौ भरम-तम- जोर । आपकी चोरी आप ही जानत, और कहत न चोर ॥ २ ॥ अमल कमल विकसित भये भूतल, मंद विषय शशिकोर । 'आनंदघन' इक वल्लभ लागत, और न लाख किरोर ॥ ३ ॥ ७ यशोविजय | आप श्वेताम्बर सम्प्रदाके बहुत ही प्रसिद्ध विद्वान हुए है । इनका जन्म सं० १६८० के लगभग हुआ था और देहान्त सं० १७४५ में गुजरातके डभोई नगर में । ये नयविजयजी के शिष्य थे । संस्कृत, प्राकृत गुजराती और हिन्दी इन चारों भाषाओं के आप कवि थे । आपका एक जीवनचरित अँगरेजीमें प्रकाशित हुआ है। उससे मालूम होता है कि संस्कृतमें आपने छोटे बड़े सब मिलाकर लगभग ५०० ग्रन्थ बनाये हैं और उनमें से अधिकांश उपलब्ध हैं । न्याय, अध्यात्म आदि अनेक विषयोंपर आपका अधिकार था । यद्यपि आप गुजराती थे, पर विद्याभ्यासके निमित्त कितने [ भाग १३ इस कारण हिन्दी में । ही वर्ष काशीमें रहे थे, भी व्युत्पन्न हो गये थे 6 सज्झाय, पद अने स्तवनसंग्रह ' नामके मुद्रित संग्रह में आपके हिन्दी पदोंका संग्रह ' जसविलास' नामसे छपा है । इसमें आपके ७५ पदोंका संग्रह है । इसी संग्रह में आपके आठ पद 'आनन्दघन अष्टपदी' के नामसे जुदा छपे हैं जो आपने महात्मा आनन्दघनजीके स्तवनस्वरूप बनाये थे । इन सब पदों के देखनेसे मालूम होता है कि यशोविजयजी हिन्दीके भी अच्छे कवि थे । आपकी इस रचना में गुजरातीकी झलक बहुत ही कम - प्रायः नहीं के बराबर है । परन्तु खेदके साथ कहना पड़ता है कि उक्त संग्रह छपानेवालोंने हिन्दीकी बहुत ही दुर्दशा कर डाली है। अच्छा हो यदि कोई श्वेताम्बर सज्जन इस संग्रहको शुद्धतापूर्वक स्वतंत्ररूपसे छपा दें । आपकी हिन्दी कवितामें अध्यात्मिक भावोंकी विशेषता है । हम मगन भये प्रभु ध्यानमैं। विसर गई दुविधा तनमनकी, अचिरा- सुत- गुनगान ॥ हम० ॥ १ ॥ हारे हर ब्रह्म पुरंदरकी रिधि, आवत नहिं कोउ मानमैं । चिदानंदकी मौज मची है, समतारस के पानमैं | हम० ॥ २ ॥ इतने दिन तू नाहिं पिछान्यौ, जन्म गँवाय अजानमैं । अब तो अधिकारी है बैठे, प्रभुगुन अखय खजानमैं ॥ ३ ॥ गई दनिता सभी हमारी, प्रभु तुझ समकित दानमेँ । प्रभुगुन अनुभवके रसआंगे, आवत नहिं को ध्यानमें ॥ ४ ॥ जिनही पाया तिन हि छिपाया, न कहै कोऊ कानमैं । ताली लगी जबहि अनुभवकी, तब जाने कोउ ज्ञानमें ॥ ५ ॥ For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १] हिन्दी-जैनसाहित्यका इतिहास । प्रभुगुन अनुभव चन्द्रहास ज्यों, खूब खजाना खरच खिलाओ, सो तो रहै न म्यानमें । द्यो सब न्यामत चारा। वाचक 'जस' कहै मोह महा हरि, असवारीका अवसर आवै, जीत लियो मैदानमें ॥६॥ गलिया होय गँवारा ॥३॥ आपका बनाया हुआ ' दिग्पट चौरासी छिनु ताता छिनु प्यासा होवै, बोल ' छप गया है। यह भी हिन्दी पद्यमें है। . खिजमत करावनहारा (1)। पाँड़े हेमराजजीका बनाया हुआ एक 'सितपट दौर दूर जंगल में डारे, चौरासी बोल ' नामका खण्ड ग्रन्थ है, जिसमें ___झुरै धनी विचारा ॥ ४॥ . श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जो चौरासी बातें दिगम्बर करहु चौकड़ा चातुर चौकस, सम्प्रदायके विरुद्ध मानी गई हैं उनका खण्डन यो चाबुक दो चारा। है। 'दिग्पट चौरासी बोल ' उसीके उत्तरस्वरूप इस. घोरेकौं विनय सिखावो, लिखा गया है। संभव है कि इनकी हिन्दीरचना ज्यों पावो भवपारा ॥५॥ और भी हो, पर हम उससे परिचित नहीं हैं। ९ बुलाकीदास । लाला बुलाकीदासकाजन्म सविनयविजय। ये भी श्वेताम्बरसम्प्रदा- आगरेमें हुआ था। आप गोयलगोत्री अग्रवाल यके विद्वान थे और यशोविजयजीके ही सम- थे। आपका व्येक 'कसावर' था । आपके यमें हुए हैं। सुनते हैं इन्होंने यशोविजयके ही पूर्वपुरुष बयाने (भरतपुर) में रहते थे। साहुसाथ रह कर काशीमें विद्याध्ययन किया था । अमरसी-प्रेमचन्द-श्रमणदास-नन्दलाल और उपाध्याय कीर्तिविजयके ये शिष्य थे और संवत् बुलाकीदास यह इनकी वंशपरम्परा है । श्रमण१७३९ तक मौजूद थे। ये भी संस्कृतके अच्छे दास अपना निवासस्थान छोड़कर आगरमें आ विद्वान और ग्रन्थकची थे । इनके बनाये हुए रहे थे। आपके पुत्र नन्दलालको सुयोग्य देखकर अनेक ग्रन्थ हैं और वे प्रायः उपलब्ध हैं। इनका पण्डित हेमराजजीने (प्रवचनसार-पंचास्तिकाय'नयकार्णका' नामका न्यायग्रन्थ अंगरेजी टीका टीकाके कर्त्ताने) अपनी कन्या ब्याह दी। सहित छप गया है। काशीमें रहने के कारण उसका नाम 'जैनी' था । हेमराजजीने इस हिन्दीकी योग्यता भी आपमें अच्छी हो गई थी। लड़कीको बहुत ही बुद्धिमती और व्युत्पन्न की जिस संग्रहमें यशोविजयजीके पद छपे हैं थी। बुलाकीदासजी इसीके गर्भसे उत्पन्न हुए उसीमें आपके पद भी 'विनयविलास , के थे। वे अपनी माताकी प्रशंसा इस प्रकार नामसे छपे हैं। पदोंकी संख्या ३७ है । अच्छी करते हैं:रचना है। एक पद देखिएः हेमराज पंडित वक्ष, घोरा झूठा है ऐ, मत भूले असवारा। .. तिसी आगरे ठाइ। तोहि मुधा ये लागत प्यारा, गरग गोत गुन आगरी, अंत होयगा न्यारा ॥घो०॥ सब पूजै जिस पाइ॥ चरै चीज अरु डरै कैदसौं, उपजी ताकै देहजा, . ३ ऊबद चले अटारा। ''जैनी' नाम विख्याति। जीन. कसै तब सोया चाहै, सीलरूप गुन आगरी, खानेकौं होशियारा ॥२॥ प्रीतिनीतिकी पाँति ॥ For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [ भाग १३ दीनी विद्या जनकनैं, प्रतिभा है, पर वह मूलग्रन्थकी कैदके कारण कीनी अति व्युत्पन्न । विकसित नहीं होने पाई । मूलग्रन्थकी ही रचना पंडित जापै सीख लें, बढ़ियाँ नहीं है । यह ग्रन्थ संवत् १७५४ में । धरनीतलमैं धन्न ॥ । समाप्त हुआ है। सुगुनकी खानि कीधौं सुकृतकी वानि सुभ, कीरतिकी दानि अपकीरति-कृपानि है। १० कितनासह । य सागानरक रहनवाल स्वारथविधानि परस्वारथकी राजधानि, खण्डेलवाल थे । इनका गोत्र. पाटणी था । रमाहूकी रानि कीधौं जैनी जिनवानि है। 'संघी' पद था । कल्याणसिंगईके सुखदेव और धरमधरनि भव भरम हरनि कीधौं, आनन्दसिंह दो बेटे थे। सुखदेवके थान, मान असरन सरनि कीधौं जननि-जहानि है। और किशनसिंह ये तीन बेटे हुए । किशनसिंहहेमसौ...पन सीलसागर...भनि, जीने संवत् १७८४ में क्रियाकोश नामका दुरितदरनि सुरसरिता समानि है ॥ छन्दोवद्ध ग्रन्थ बनाया, जिसकी श्लोकसंख्या बुलाकीदासजी पीछे अपनी माताके सहित २९०० है । रचना स्वतंत्र है; पर कविताकी दिल्ली में आ रहे थे। पाण्डवपुराण या 'भारत दृष्टिसे बिल्कुल साधारण है । इस ग्रन्थका प्रचार भाषा' की रचना आपने दिल्लीमें ही रहकर की बहुत है । भद्रबाहुचरित्र ( सं०१७८५ ) और थी। इनकी माता · जैनी ' या 'जैनुलदे' ने रात्रिभोजनकथा (सं०१७७३) ये दो छन्दोबद्ध जब शुभचन्द्र भट्टारकका बनाया हुआ संस्कृत ग्रन्थ भी आपहीके बनाये हुए हैं। पाण्डवपुराण पढ़ा, तब वह उन्हें बहुत पसन्द ११ शिरोमणिदास । ये पण्डित गंगादाआया, इसलिए उन्होंने पुत्रसे कहा: सके शिष्य थे । इन्होंने भट्टारक सकलकीर्तिके ताको अर्थ विचारकै, उपदेशसे, सिहरोन नगरमें रहकर, जहाँ राजा भारत भाषा नाम । देवीसिंह राज्य करते थे, सं० १७३२ में, कथा पांडुसुत पंचकी, दोहा-चौपाईवद्ध 'धर्मसार । नामके ग्रन्थकी कीजै बहु अभिराम ॥ रचना की। इसमें ७६३ दोहा चौपाई हैं । सुगम अर्थ श्रावक सबै, भनँ भना3 जाहि। रचना स्वतंत्र है । किसी ग्रन्थका अनुवाद नहीं ऐसो रचिकै प्रथम ही, है। कविता साधारण है। मोहि सुनावी ताहि ॥ १२ रायचन्द । इनका बनाया हुआ इस आज्ञाको मस्तक पर चढ़ाकर बलाकी- 'सीताचरित ' नामका छन्दोवद्ध ग्रन्थ है दासजीने इस ग्रन्थकी रचना की है। इसी लिए जिसकी श्लोकसंख्या ३६०० है । रविषेणके इस ग्रन्थ के प्रत्येक सर्गमें ' श्रीमन्महाशीलाभरण- पद्मपुराणके आधारसे यह बनाया गया है । बनभूषितायां जैनीनामाडितायां भारतभाषायां । इस • नेका समय संवत् १७१३ है । कवितामें कवि प्रकार लिखकर उन्होंने अपनी माताकी स्मति अपना नाम 'चन्द्र ' लिखता है । कविता रक्षा की है । ग्रन्थके अन्तमें भी कविने अपनी साधारण है। माताके प्रति बहुत भक्ति प्रकट की है । ग्रन्थकी १३ मनोहरलाल । इन्होंने संवत् १७०५ लोकसंख्या ५५०० है । रचना मध्यम श्रेणीकी में धर्मपरीक्षा नामका ग्रन्थ बनाया है। यह है, पर कहीं कहीं बहुंत अच्छी है । कविमें आचार्य अमितगतिके इसी नामके सस्कृत For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १ ] हिन्दी - जैनसाहित्यका इतिहास । १९ ग्रन्थका पद्यानुवाद है । कवि अपना परिचय इस सत्त्व नहीं है पर इन्होंने बड़े बड़े ग्रन्थोंका प्रकार देता है: परपाद कर डाला है । इनकी तमाम रचनाकी लोकसंख्या ५०-६० हजारसे कम न होगी । इन्होंने हरिवंशपुराण संवत् १७८० में, पद्मपुराणं १७८३ में और उत्तरपुराण १७९९ में बनाया है । धन्यकुमारचरित्र, व्रतकथाकोश, जम्बूचरित्र, और चौवीसी पूजापाठ भी इन्हीं के बनाये हुए हैं । बम्बई मंदिरमें खुशालचन्दजीका बनाया हुआ एक यशोधरचरित्र है, जो संवत् १७८१ में बना है। मालूम नहीं, इसके कर्त्ता खुशालचन्द हरिवंश आदिके कर्त्तासे भिन्न हैं यावे ही हैं । इन्होंने अपनेको सुन्दरका पुत्र लिखा है और दिल्ली शहरके जयसिहपुरा में रहकर ग्रन्थ बनाया है । छन्दोबद्ध सद्भाषितावली भी इन दोमेंसे किसी एककी बनाई हुई है जो संवत् १७७३ में बनी है । 1 कविता मनोहर खंडेलवाल सोनी जाति, मूलसंघी मूल जाकौ सांगानेर वास है । कर्मके उदय धामपुर मैं वसन भयौ, सबसौं मिलाप पुनि सज्जनको दास है ॥ व्याकरण छंद अलंकार कछु पढ्यौ नाहिं भाषा मैं निपुन तुच्छ बुद्धिकौं प्रकास है । बाई दाहिनी कछू समझे संतोष लीयै, जिनकी दुहाई जाऊँ जिनही की आस है ॥ कविता साधारण है । कोई कोई पय बहुत चुभता हुआ है । १४ जोधराज गोदीका । इनका बनाया हुआ' सम्यक्त्वकौमुदी' नामका ग्रन्थ है । उसके अन्तमें इन्होंने अपना परिचय इस प्रकार दिया है: अमर पूत जिनवर भगत, जोधराज कवि नाम । बासी सांगानेरकौ, करी कथा सुखधाम ॥ संवत सत्रह सौ चौईस, फागुन वदि तेरस सुभदीस । सुकरवार संपूरन भई, 1 कथा समकित गुन उई ॥ इसकी रचना संस्कृत' सम्यक्त्वकौमुदी' के आधारसे की गई है । इसमें सब मिलाकर ११७८ दोहा चौपाई हैं । कविता साधारण है । इनके बनायेहुए और छह ग्रन्थोंका उल्लेख बाबू 'ज्ञानचन्दजीने अपनी ग्रन्थसूचीमें किया है : प्रीतंकर चरित्र (सं० १७२१ ), धर्मसरोवर, - कथाकोश ( १७२२ ), प्रवचनसार (१७२६), भावदीपिका वचनिका और ज्ञानसमुद्र । इनमेंसे मावदीपिका को छोड़कर सब पद्यमें हैं। । १५ खुशालचन्द काला । ये सांगानेर के - रहनेवाले खण्डेलवाल थे । रचनायें तो कोई 1 १६ रूपचन्द । ये पाँड़े रूपचन्दजीसे भिन्न हैं । इनकी बनाई हुई बनारसीकृत नाटकसमयसाकी टीका हमने एक सज्जनके पास देखी थी। बड़ी सुन्दर और विशद टीका है । सं० १७९८ में बनी है । उसमें ग्रन्थकर्ताका परिचय भी दिया गया है, पर वह अब मुझे स्मरण नहीं है । १७ नेणसी मूता । ये ओसवाल जाति के श्वेताम्बर जैन थे । जोधपुर के महाराजा बड़े जसवन्तजी के दीवान थे । मारवाड़ी भाषामें राजस्थानका एक इतिहास लिखकर - जिसे ' मूता नेणसी की ख्यात ' कहते हैं-ये अपना नाम अजर अमर कर गये हैं । सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ मुंशी देवीप्रसादजीने इस ग्रन्थकी बड़ी प्रशंसा की है और इसे एक अपूर्व और प्रामाधिक इतिहास बतलाया है । यह संवत् १७१६ से १७२२ तक लिखा गया है । ऐसी सैकड़ों बातोंका इसमें उल्लेख है जिसका कर्नल टाडके राजस्थान में दूसरे ग्रन्थोंमें पता भी नहीं है । इसमें राजपू For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जैनहितषी [भाग १३ तोंकी ३१ जातियोंका इतिहास दिया है । इसके जिसका संक्षिप्त नाम 'जयसुत ' ( जयसिंहके पहले भागमें पहले तो एक एक परगनेका इति- पुत्र ) लिखा है । उस समय ये उदयपुरमें थे:हास लिखा है । उसमें यह दिखाया है कि संवत सत्रासै पिच्याणव, परगनेका वैसा नाम क्यों हुआ, उसमें कौन कौन भादव सुदि वारस तिथि जानव । राजा हुए, उन्होंने क्या क्या काम किये और मंगलवार उदैपुरमाहीं, वह कब और कैसे जोधपुरके अधिकारमें आया। पूरन कीनी संसै नाहीं॥ फिर प्रत्येक गाँवका थोड़ा थोड़ा हाल दिया है आनंदसुत जयसुतकौ मंत्री, कि वह कैसा है, फसल कौन कौन धान्योंकी जयको अनुचर जाहि कहै। होती है, खेती किस किस जातिके लोग करते सो दौलत जिनदासनि-दासा, हैं, जागीरदार कौन हैं, गाँव कितनी जमाका है, जिनमारगकी शरण गहै । पाँच वर्षोंमें कितना कितना रुपया बढ़ा है, हरिवंशपुराणकी रचनाके समय जयपुरमें तालाब नाले और नालियाँ कितनी हैं, उनके इर्द रत्नचन्द्रजी दीवान थे, ऐसा उक्त पुराणमें उल्लेख गिर्द किस प्रकारके वृक्ष हैं । इत्यादि । यह भाग है। उसमें यह भी लिखा है कि इस राज्यके कोई चारसौ पाँचसौ पत्रोंका है । इसमें जोध- मंत्री अकसर जैनी होते हैं। रायमल्ल नामक एक पुरके राजाओंका इतिहास राव सियाजीसे महा- धर्मात्मा सज्जन जयपुरमें थे । उनकी प्रेरणासे राजा बड़े जसवन्तसिंहजीके समयतकका है । दौलतरामजीने आदिपुराण,पद्मपुराण और हरिवंशदूसरे भागमें अनेक राजपूत राजाओंके इतिहास पुराणकी वचनिकायें या गद्यानुवाद लिखे हैं । हैं । यह ग्रन्थ अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ हरिवंशपुराणकी वचनिकाके लिए तो उन्होंने है । यदि कोई जैन धनिक इसे प्रकाशित करा मालवेसे पत्र लिखकर प्रेरणा की थी । वे मालदेवे, तो बड़ा लाभ हो । मूता नेणसी इस ग्रन्थको वेको किसी कार्यके लिए गये थे। वहाँ भाषा लिखकर जैनसमाजके विद्वानोंका एक कलंक धो पद्मपुराण और आदिपुराणसे लोगोंका बहुत गये हैं कि ये देशके सार्वजनिक कार्योंसे उपेक्षा उपकार हो रहा था, यह देख उन्होंने हरिवंरखते हैं। शपुराणकी भी वचनिका बनाईजानेकी आवश्य१८ दौलतराम । ये बसवाके रहनेवाले थे कता समझी। इससे उनका भाषाप्रेम प्रकट होता और जयपुरमें आ रहे थे । इनके पिताका नाम है । सचमुच ही जैनसमाजको इन ग्रन्थोंका आनन्दराम था। इनकी जाति खण्डेलवाल और भाषानुवाद हो जानेसे बहुत ही लाभ हुआ है । मोव काशलीवाल था । ये राज्यके किसी बड़े जैनधर्मकी रक्षा होनेमें इन ग्रन्थोंसे बहुत सहायता पद पर थे । हरिवंशपुराणकी प्रशस्तिमें मिली है। ये ग्रन्थ बहुत बड़े बड़े हैं। हरिवं. लिखा है: शपुराणकी वचनिका १९ हजार श्लोकोंमें और सेवक नरपतिको सही, पद्मपुराणकी लगभग २० हजार श्लोकोंमें हुई नाम सु दौलतराम। . . है । आदिपुराण इससे भी बड़ा है । वचनिका तानै यह भाषा करी, बहुत सरल है । केवल हिन्दीभाषाभाषी जपकर जिनवर नाम ॥२५॥ प्रान्तोंमें ही नहीं, गुजरात और दक्षिणमें भी ये .. संवत् १७९५ में जब इन्होंने क्रियाकोश ग्रन्थ पढ़े और समझे जाते हैं। इनकी भाषामें लिखा था, तब ये किसी राजाके मंत्री थे ढूंढारीपन है, तो भी वह समझ ली जाती है । For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १] हरिवंशकी रचना संवत् १८२९ में, आदिपुराणकी १८२४ में और पद्मपुराणकी १८२३ में हुई है । योगीन्द्रदेवकृत परमात्म- प्रकाशकी और श्रीपाल चरित्रकी वचनिका भी आपकी ही बनाई हुई है । पं० टोडरमल्लजी पुरुषार्थसिद्धुपायकी भाषाटीका अधूरी छोड़ गये थे । वह भी दौलतरामजीने पूरी की है । पुण्यास्रवकी वचनिका सं० १७७७ में बनी है। मालूम नहीं वह इन्हीं की है या किसी अन्य दौलतरामकी | हिन्दी-जैन साहित्यका इतिहास । १९ खड्गसेन ( आगरानिवासी ) त्रिलोकदर्पण छन्दोबद्ध ( वि० सं० १७१३) । । १ टोडरमल । इस शताब्दी के सबसे प्रसिद्ध लेखक पं० टोडरमलजी हैं । दिगम्बरजैन सम्प्रदायमें आप ऋषितुल्य माने जाते हैं। केवल ३२ ही वर्षकी अवस्थामें आप इतना काम कर रचनासे जैनसमाजमें तत्त्वज्ञानका बन्द हुआ गये हैं कि सुनकर आश्चर्य होता है । आपकी प्रवाह फिरसे बहने लगा । जहाँ कर्म फिलासफीकी चर्चा करना केवल संस्कृतके - प्राकृतके विद्वानोंके २१ जिनहर्ष (पाटननिवासी ) | श्रेणिक चरित्र हिस्से में था, वहाँ आपकी कृपासे साधारण हिन्दी छन्दोबद्ध (१७२४) । २२ देवीसिंह ( नरवरनिवासी) । उपदेशसि - वान्तरत्नमाला छन्दोवद्ध ( संवत् १७९६ ) । २३ जीवराज । ( बड़नगर निवासी ) | परमात्मप्रकाश वचनिका ( सं० १७६२ ) । जाननेवाले लोग भी कर्मतत्त्वोंके विद्वान् बनने लगे । आप जयपुरके रहनेवाले खण्डेलवाल जैन थे । सुनते हैं जयपुर राज्यके दीवान अमरचन्द्रजीने आपको अपने पास रख कर विद्याध्ययन कराया था । १५-१६ वर्षकी उम्र में ही आप ग्रंथरचना करने लगे थे । जैनधर्मके असाधारण विद्वान् थे । आपका सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ 'गोम्मटसार क्षपणासार और २४ ताराचन्द । ज्ञानार्णव छन्दोबद्ध । ( सं० १७२८ ) । १ हरखचन्द साधु । श्रीपालचरित्र । रचना - '२५ विश्वभूषणभट्टारक | जिनदत्तचरित्र वचनिका' है, जिसमें छन्दोबद्ध (सं०१७३८ ) । लब्धिसार भी शामिल है । इसकी श्लोकसंख्या लगभग ४५ हजार है । स्वामीके प्राकृत गोम्मटसारकी भाषाटीका है । यह नेमिचन्द्र इसमें जैनधर्म कर्मसिद्धान्तका विस्तृत विवेचन है । दूसरा ग्रन्थ त्रैलोक्यसार वंचनिका है । यह भी प्राकृतका अनुवाद है । इसमें जैनमतके अनुसार भूगोल और खगोलका बर्णन है । इसकी श्लोक संख्या लगभग १०-१२ हजार होगी । तीसरा ग्रन्थ गुणभद्रस्वामीकृत संस्कृत आत्मानुशासनकी वचनिका है। इसमें बहुत ही हृदयग्राही आध्यात्मिक उपदेश है । भर्तृहरिके वैराग्यशत २० जगतराय । `आगमविलास, सम्यक्त्वकौमुदी, और पद्मनंदिपच्चीसी (सं० १७२१ ) । सब छन्दोबद्ध | मिश्रबन्धुविनोदमें इस शताब्दीके नीचे लिखे कवियों का भी उल्लेख किया है: काल १७४० । २ जिनरंगसूरि । सौभाग्यपंचमी। समय १७४१ । २६ धर्ममन्दिर गणि । प्रबोधचि - न्तामणि, चोपीमुनिचरित्र । रचनाकाल १७४१ - १७५० । २१ ४ हंसविजय जती । कल्पसूत्रकी टीका । समय १७८० । ५. ज्ञानविजय जती | मलयचरित्र । १७८१ संवत् । ६ लाभवर्द्धन । उपपदी । संवत् १७११ । उन्नीसवीं शताब्दी | For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैनहितैषी [भाग १३ की भाषा जयपुरके बने द्वितीय सर्गका न्यायभाग समय मालूम नहीं। कके ढंगका है । शेष दो ग्रन्थ अधूरे हैं- १ सर्वार्थसिद्धि विक्रम संवत् १८६१ १ पुरुषार्थसिद्ध पायकीवचनिका और २ मोक्षमार्ग- २ परीक्षामुख (न्याय ) , १८६३ प्रकाशक । इनमेंसे पहले ग्रन्थको तो पं० ३ द्रव्यसंग्रह .. , १८६३। दौलतरामजी काशलीवालने पूर्ण कर दिया था; ४ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा परन्तु दूसरा ग्रन्थ मोक्षमार्गप्रकाशक अधूरा ही ५ आमख्याति समयसार , १८६४ । है । यह छप चुका है । ५०० पृष्ठका ग्रन्थ ६ देवागम ( न्याय) १८८६ । है। बिल्कुल स्वतंत्र है। गद्य हिन्दीमें जैनोंका ७ अष्टपाहुड १८६७। यही एक ग्रन्थ है जो तात्विक होकर भी स्वतंत्र ८ ज्ञानार्णव १८६९। लिखा गया है। इसे पढ़नेसे मालूम होता है ९ भक्तामरचरित्र , १८७० । कि यदि टोडरमलजी वृद्धावस्थातक जीते, तो १० सामायिक पाठ जैनसाहित्यको अनेक अपूर्व रत्नोंसे अलंकृत कर ११ चन्द्रप्रभकाव्यके जाते । आपके ग्रन्थोंकी भाषा जयपुरके बने , हुए तमाम ग्रन्थोंसे सरल, शुद्ध और साफ है। १२ मतसमुच्चय (न्याय) [ अपने ग्रन्थोंमें मंगलाचरण आदिमें जो आपने १३ पत्रपरीक्षा (न्याय ) , पद्य दिये हैं, उनके पढ़नेसे मालूम होता है कि । ये सब ग्रन्थ संस्कृत और प्राकृतके कठिन आप कविता भी अच्छी कर सकते थे। आपकी कठिन ग्रन्थोंक भाषानुवाद हैं। पाँच ग्रन्थ तो जन्म और मृत्यकी तिथियाँ हमें मालम नहीं हैं। केवल न्यायके हैं । (भक्तामरको छोड़कर ) शेष आपने गोम्मटसारकी टीका विक्रम संवत सब उच्चश्रेणीके तात्त्विक ग्रन्थ हैं । पद्य भी आप १८१८ में पूर्ण की है और आपके परुषार्थ- अच्छा लिख सकते थे। आपने फुटकर पद और सिद्ध्युपायका शेष भाग दौलतरामजीने सं० विनतियाँ भी बनाई हैं जिनकी श्लोकसंख्या १८२७ में समाप्त किया है। अर्थात् इससे वर्ष ११०० है । व्यसंग्रहका पद्यानुवाद भी आपने दो वर्ष पहले आपका स्वर्गवास हो चुका होगा किया है । आपकी लिखी हुई एक चिट्ठी हमने और यदि आपकी मृत्यु ३२-३३ वर्षकी अव वृन्दावनविलासमें प्रकाशित की है जो संवत् स्थामें हुई हो तो आपका जन्म वि. संवत् १८७० की लिखी हुई है और पद्यमें है । आपकी गद्यलेखशैली अच्छी है । आपके बनाये १७९३के लगभग माना जा सकता है । आपकी लिखी हुई एक धर्ममर्मपूर्ण चिट्री भी है जो . हुए कई बड़े बड़े ग्रन्थ छप चुके हैं । लेख बड़ा आपने मुलतानके पंचोंको लिखी थी। यह एक हो गया है, इस कारण हम आपकी रचनाके छोटी मोटी पुस्तकके तुल्य है । छप चुकी है। उदाहरण नहीं दे सकते। २ जयचन्द्र । इस शताब्दीके लेखकोंमें ३ वृन्दावन । वृन्दावनजीका जन्म शाहा बाद जिलेके बारा नामक ग्राममें संवत् १८४८ पं० जयचन्दजीका दूसरा नम्बर है । आप भी को हुआ था। आप गोयलगोत्री अग्रवाल थे। जयपुरके रहनेवाले थे और छावड़ा-गोत्री खंडे आपके पिताका नाम धर्मचन्दजी था । जब लवाल थे। आपने नीचे लिखे ग्रन्थोंकी भाषावच. आपकी उम्र १२ वर्षकी थी तब आपके पिता निकायें लिखी हैं। इन सब ग्रन्थोंकी श्लोकसं- आदि काशीमें आ रहे थे । काशीमें बाबरशहीख्या सब मिलाकर ६० हजारके लगभग है। दकी गलीमें आपका मकान था । आपके वंशके For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १ ] हिन्दी - जैनसाहित्यका इतिहास । २३ उदाहरण: लोग इस समय आरामें मौजूद हैं । आपका अच्छी निर्दोष शिक्षायें भरी हुई हैं । एक विस्तृत जीवनचरित हमने वृन्दावनविलासकी भूमिकामें लिखा है । आपका देहान्त कब हुआ है, यह पता नहीं । आपकी सबसे अन्तिम रचना संवत् १९०५ की है । आप अच्छे कवि थे । आपका बनाया हुआ मुख्य ग्रन्थ ' प्रवचनसार' है, जो प्राकृत ग्रन्थका पद्यानुवाद है । इसे आपने बड़े ही परिश्रमसे बनाया है । इसको सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए आपने तीन बार परिश्रम किया था । यथा: - 1 तब छन्द रची पूरन करी, चित न रुची तब पुनि रची। सोऊ न रुची तब अब रची, अनेकान्त रससौं मची ॥ दूसरा ग्रन्थ ' चतुर्विंशतिजिनपूजापाठ ' और तीसरा ' तीस चौवीसीपूजापाठ ' है । दूसरे ग्रन्थका बहुत अधिक प्रचार है । कई बार छप चुका है । इनमें तीर्थंकरोंकी पूजायें हैं । शब्दालङ्कार अनुप्रास यमक आदिकी इनमें भरमार है; पर भावकी ओर उतना ध्यान नहीं दिया गया जितना शब्दोंकी ओर दिया गया है । चौथा छन्दशतक है । यह बहुत ही अच्छा ग्रन्थ है । इसमें अधिक उपयोगी १०० प्रकारके छन्दोंके बनाने की विधि और छन्दशास्त्रकी प्रारंभकी बातें पद्यमें लिखी हुई हैं । विद्यार्थी बहुत ही थोड़े परिश्रमसे इसके द्वारा छन्दशास्त्रका ज्ञान प्राप्त कर सकता है । अब तक इसके जोड़का सरल सुपाठ्य और थोड़े में बहुत प्रयोजन सिद्ध करनेवाला दूसरा छोटा छन्दोग्रन्थ नहीं देखा गया । हिन्दी साहित्य सम्मेलनकी प्रथमा परीक्षामें यह पाठ्य पुस्तक बननेके योग्य है । संस्कृतके वृत्तरत्नाकर आदि ग्रन्थोंकी नाई प्रत्येक छन्दके लक्षण और नाम आदि उसी छन्दमें दिये हैं और प्रत्येक छन्दमें अच्छी चतुर नगन मुनि दरसत, भगत उमग उर सरसत । ति श्रुति करि मन हरसत, तरल नयन जल बरसत ॥ इसमें छन्दका नाम और लक्षण बहुत ही खूबीसे दिया गया है । यह ग्रन्थ सं०१८९८ में कविने अपने पुत्र अजितदासके पढ़ाने के लिए केवल १५ दिनमें बनाया था । चौथा ग्रन्थ कविकी तमाम फुटकर कविताओंका संग्रह 'वृन्दा वनविलास ' है । इसमें पद, स्तुति, पत्रव्यवहार आदि हैं । एक और ग्रन्थ 'पासा केवली' है जिसमें पासा डालकर शुभाशुभ जानकी रीति लिखी है । ४ यति ज्ञानचन्द्र । ये उदयपुर राज्यके इति माण्डलगढ़ में रहते थे । राजस्थानके हासके अच्छे जानकार और इतिहास के साहित्यका संग्रह रखनेवाले थे । राजस्थान का इतिहास लिखने में कर्नल टाडको इन्होंने बहुत सहायता दी थी । टाड साहब इन्हें अपना गुरु मानते थे । उन्होंने अपने ग्रन्थमें इनके उपकारोंका उल्लेख कियाँ है । ये अच्छे कवि थे । इनकी बनाई हुई कुछ फुटकर कवितायें मिलती हैं । मिश्रबन्धुओंने इनका पद्य रचनाकाल १८४० लिखा है । ५ भूधर मिश्र | आगरे के समीप शाहगंजके रहनेवाले ब्राह्मण थे । आपके गुरुका नाम पण्डित रंगनाथजी था । पुरुषार्थसिद्धुपाय नामक जैनग्रन्थमें अहिंसातत्त्वकी मीमांसा पढ़नेसे आपको जैनधर्म पर भक्ति हो गई थी । आपने रंगनाथजीसे अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया और फिर पुरुषार्थसिद्ध्युपायकी एक विशद भाषाटीका बनाई । यह विक्रम संवत् १८७१ की भाद्रपद सुदी १० को समाप्त हुई है। इस टीका आप For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैनहितैषी [भाग १३ बीसों जैनग्रन्थोंके प्रमाण देकर अपने विचारोंको गद्य पद्यके अनेक ग्रन्थ हैं, जिनमेंसे दो छप पुष्ट किया है । चर्चासमाधान नामका एक और चुके हैं-१ ज्ञानदर्पण और २ अनुभवप्रकाश । ग्रन्थ भी आपका बनाया हुआ मिलता है । इनमें पहला पद्यमें और दूसरा गयमें है। पयआप कवि भी अच्छे थे । पुरुषार्थसि० का रचना सुन्दर, छन्दोभंग आदि दोषोंसे रहित और मंगलाचरण देखिए: सरल है । गद्यका नमूना यह है:नमों आदि करता पुरुष, " इस शरीरमंदिरमैं यह चेतन दीपक आदिनाथ अरहत। सासता है । मन्दिर तौ छूटै पर सासता रतन द्विविध धर्मदातार धुर, दीप ज्यौंका त्यौं रहै । व्यवहारमैं तुम अनेक महिमा अतुल अनंत ॥१॥ स्वांग नटकी ज्यौं धरे। नट ज्यौंका त्यौं रहै । स्वर्ग-भूमि-पातालपति, वह स्पष्ट भाव कर्मको है। तौऊ कमलिनीपत्रकी जपत निरंतर नाम । नाई कर्मसौं न बँधै न स्पर्शे।" जा प्रभुके जस हंसको, जग पिंजर विश्राम ॥२॥ इससे मालूम होता है कि गवरचना कितनी जाकौं सुमरत सुरतसौं, . अच्छी और साफ है । आजसे लंगभग १०० दुरत दुरत यह भाय। वर्ष पहले इतना अच्छा गय लिखा जाने लगा तेज फुरत ज्यौं तुरत ही, था। इनके बनाये हुए अनुभवप्रकाश, अनुभवतिमिर दूर दुर जाय ॥३॥ विलास, आत्मावलोकन, चिबिलास, परमात्मइन पद्योंसे यह भी मालूम होता है कि पुराण, स्वरूपानन्द, उपदेशरत्न, और अध्यात्मआपको जैनधर्म पर अच्छा विश्वास था। पचीसी ये पद्यके ग्रन्थ और भी हैं। ये सब ग्रन्थ ६ बुधजन। बुधजनका पूरा नाम विरधीच- स्वतंत्र हैं और यही इनकी विशेषता है। न्दजी था । आप खण्डेलवाल थे और जयपुरके ८ ज्ञानसार या ज्ञानानन्द । आप एक रहनेवाले थे। आपके बनाये हुए चार पयग्रन्थ श्वेताम्बर साधु थे। संवत् १८६६ तक आप उपलब्ध हैं -१ तत्त्वार्थबोध, २ बुधजनस- जीवित रहे हैं । आप अपने आपमें मस्त रहते तसई, ३ पंचास्तिकाय और ४ बुधजनविलास। थे और लोगोंसे बहुत कम सम्बन्ध रखते थे। ये चारों क्रमसे १८७१-८१-९१ और ९२ कहते हैं कि आप कभी कभी अहमदाबादके एक संवत्के बने हुए हैं। इनकी कवितामें मारवाडीपनं स्मशानमें पड़े रहते थे! 'सज्झाय पद अने स्तवन बहुत है । बुधजनसतसईकी रचना कुछ अच्छी संग्रह' नामके संग्रहमें आपके 'ज्ञानविलास' और है और सब रचनायें साधारण हैं। तत्त्वार्थबेध 'समयतरंग' नामसे दो हिन्दी पदसंग्रह छपे हैं और पंचास्तिकायको छोड़कर इनके लगभग सब जिनमें क्रमसे ७५ और ३७ पद हैं । रचना ग्रन्थ छप गये हैं। ___ अच्छी है। आपने आनन्दघनकी चौवीसी पर ७ दीपचन्द । ये आमेर (जयपुर ) के एक उत्तम गुजराती टीका लिखी है जो छप रहनेवाले काशलीवाल गोत्रीय खेण्डलवाल थे। चुकी है । इससे आपके गहरे आत्मानुभवका इनके जो ग्रन्थ हमने देखे, उनमें समय आदि पता लगता है। कुछ भी नहीं लिखा है, तो भी अनुमानसे ये ९ रंगविजय । ये तपागच्छके विजयानंद१९ वीं शताब्दीके कवि हैं। इनके बनाये हुए सूरि समुदायके यति थे । इनके गुरुका नाम For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैनसाहित्यका इतिहास । अमृतविजय कधि था। इन्होंने बहुतसे आध्या- डाल देते और मौज हुई तो सुंदर मकानोमें मिक और प्रार्थनात्मक पद बनाये हैं । इनकी आकर जम जाते । ये योगी अच्छे थे और अपना इन कृतियोंका एक संग्रह, जो स्वयं इन्हींके साम्प्रदायिक नाम छोड़ कर ‘चिदानन्द ' के हाथका लिखा हुआ है, श्वेताम्बर साधु प्रवर्तक अभेदमार्गीय नामसे अपना परिचय देते थे। श्रीकांतिविजयजीके शास्त्रसंग्रहमें है। इस इन्होंने बहुतसे आध्यात्मिक पद बनाये हैं। संग्रहमें कोई २०० पद इनके बनाये हुए हैं । स्वरशास्त्रके ये अच्छे ज्ञाता थे, इस लिए. 'स्वरे रचना सरल और सरस है । वैष्णव कवियोंने दय' नामका एक प्रबंध भी इन्होंने स्वरज्ञानविजैसे राधा और कृष्णको लक्ष्य कर भक्ति और षयक बनाया है । कहते हैं ये संवत् १९०५ शृंगारकी रचना की है वैसे ही इन्होंने भी तक विद्यमान थे । इनकी रचना आनंदघनके राजीमती और नेमिनाथके विषयमें बहुतसे जैसी ही अनुभवपूर्ण और मार्मिक है । एक पद शृंगारभावके पद लिखे हैं । नमूनाके लिए यह देखिए:-- एक पद देखिए; जौं लौं तत्त्व न सूझ पड़े रे। आवन देरी या होरी। तौ लौं मूढ़ भरमवश भूल्यौ,. . चंदमुखी राजुलसौं जपत, मत ममता गहि जगसौं लडै रे॥ ल्याउं मनाय पकर बरजोरी॥ . अकर रोग शुभ कंप अशुभ लख, फागुनके दिन दूर नहीं अब, भवसागर इण भांति मडै रे! कहा सोचत तू जियमैं भोरी॥ धान काज जिम मूरख खिंतहड़, बाँह पकर राहा जो कहावू, उखेर भूमिको खेत खडै रे॥ छाईं ना मुख माँ. रोरी ॥ उचित ति ओलख बिन चेतन, सज सनगार सकल जदुवनिता, निश दिन खोटो घाट थडैरे। - अबीर गुलाल लेह भर झोरी॥ मस्तक मुकुट उचित मणि अनुपम, नेमीसर संग खेलें खिलौना, पग भूषण अज्ञान जडै रे॥ 'चंग मृद्ग डफ ताल टेकोरी॥ कुमता वश मन वक्र तुरग जिम, हैं प्रभु समुदविजैके छौना, गहि विकल्प मग माहिं अडैरे। तू है उग्रसेनकी छोरी॥ 'चिदानन्द' निज रूप मगन भया, 'रंग' कहै अंमृत पद दायक, तब कुतर्क तोहि नाहिं नडै रे॥ ... चिरजीवहु या जुग जुग जोरी ॥ गुजरातमें निवास होनेके कारण इसमें कुछ संवत् १८४९ में इन्होंने एक गजल बनाई है कुछ गुजरातीकी झलक है। जिसमें ५५ पद्य है और जिसमें अहमदाबाद ११ टेकचन्द । इनके बनाये हुए ग्रन्थ-१ नगरका वर्णन है । यह खड़ी हिन्दीके ढंगकी तत्त्वार्थकी श्रुतसागरी टीकाकी वचनिका (सं० भाषा है। १८३७ ), सुदृष्टितरंगिनी वचनिका (१८३८) । १० कपूरविजय य चिदानन्दाये संवेगी षट्पाहुड़ वर्चनिका, कथाकोश छन्दोवद्ध, साधु थे, पर रहते थे सदा अपने ही मतमें मस्त । बुधप्रकाश छ०, अनेक पूजा पाठ । इनका सुदृइन्हें मतभेदका कर्कश पार्श कुछ भी नहीं कर किसान । २ ऊसर । ३ पहिचान । ४नडना सकता था । इच्छा हुई तो गुहाओंमें जा डेरा बाधा देना । For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ ष्टितरंगिणी ग्रन्थ बहुत बड़ा है। उसकी ग्रन्थसं- १९ थानसिंह । सुबुद्धिप्रकाश छन्दो ख्या साढ़े सत्रह हजार श्लोक है। .... (सं० १८४७)। १२ नथमल विलाला। (भरतपुरनिवासी २० नन्दलाल छावड़ा । मूलाचारकी खजांची) । इनका एक ग्रन्थ सिद्धान्तसार वचानका स० १८८८ में । हमने देखा है । यह सकलकीर्तिके संस्कृत २१ मन्नालाल सांगाका। चारित्रसारकी. ग्रन्थका अनुवाद है। संवत् १८२४ में बना है। वचनिका सं० १८७१ में। श्लोकसंख्या लगभग ७५०० है । जिनगुणविलास, २२ मनरंगलाल। ( कन्नौजके रहनेवाले नागकुमारचरित्र, ( १८३४ ), जीवंधरचरित्र पल्लीवाल )। सं० १८५७ में चौवीसी पूजापाठ (१८३५) और जम्बूस्वामीचरित्र, ये ग्रन्थ बनाया । कविता अच्छी है । नमिचन्द्रिका, भी इन्हींके बनाय हुए हैं । सब पद्यमें हैं। सप्तव्यसनचरित्र और सप्तर्षिपूजा ये ग्रन्थ भी कविता साधारण है। इनके बनाये हुए हैं। १३ डालूराम । (माधवराजपुरनिवासी २३ लालचन्द (सांगानेरी) । षट्कर्मोपदे-.. अग्रवाल ) । गुरूपदेशश्रावकाचार छन्दोवद्ध शरत्नमाला (सं०१८१८) वरांगचरित्र, विमल(१८६७), सम्यक्त्वप्रकाश ( १८७१ ) और नाथपुराण, शिखरविलास, सम्यक्त्वकौमुदी, अनेक पूजायें। आगम शतक, और अनेक पूजाग्रन्थ । सब १४ देवादास । (खण्डेलवाल बसवानिवासी) छन्दोबद्ध। सिद्धान्तसारसंग्रह वचनिका (१८४४ ) और २४ सेवारामशाह। (जयपुरनिवासी)। तत्त्वार्थसूत्रकी वचनिका। चौवीसी पूजापाठ (सं० १८५४) और धर्मो१५देवीदास । (दुगोदह केलगवाँ जिला पदेश छन्दोवद्ध । झांसी निवासी) । परमानन्दविलास छन्दोवद्ध २५ कुशलचन्द्र गाण यति । यति ( सं० १८१२), प्रवचनसार छ०, चिद्विलास- बालचन्द्रजी खामगांव वालोंने आपका बनाया वचनिका, चौवीसी पाठ। हुआ 'जिनवाणीसार' नामका ७०० हिन्दी १६ सेवाराम । ( राजपूत ) । हनुमच्चरित्र पयोंका ग्रन्थ बीकानेरके यतियोंके पास देखा है। अध्यात्मिक ग्रन्थ है, रचना भी कहते हैं छन्दोवद्ध (१८३१), शान्तिनाथपुराण छ० अच्छी है। और भविष्यदतचरित्र छ। २६ यति मोतीचन्द । उक्त यतिजीके १७ भारामल्ल । ये फर्रुखाबादके रहनेवाले कथनानुसार ये जोधपुरनरेश मानसिंहजीके सिंगई परशुरामके पुत्र थे और खरौआ जातिके सभाके रत्नों से एक थे । इन्हें मानसिंह ने थे। इन्होंने भिण्ड नगरमें रह कर संवत् १८१३ । जगद्गुरु भट्टारक ' पद प्रदान किया था । में चारुदत्तचरित्र बनाया। सप्तव्यसनचरित्र, दान- हिन्दीके श्रेष्ठ कवि थे। कथा, शीलकथा, रात्रिभोजन कथा ये सब २७ हरजसराय। ये स्थानकवासी सम्प्रछन्दोबद्ध ग्रन्थ भी इन्हींके बनाये हुए हैं। दायके थे । हिन्दीके अच्छे कवि थे । साधुगु १८ गुलाबराय । शिखरविलास छ० सं० णमाला, देवाधिदेवरचना और देवरचना नामके १८४२ में बनाया। ग्रन्थ आपके बनाये हुए हैं 1 'देवाधिदेव रचना' For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १ ] छप चुका है । यह संवत् १८६५ में समाप्त हुआ है। हिन्दी - जैनसाहित्यका इतिहास । २८ क्षमाकल्याण पाठक । इन्होंने संवत् १८५० में जीवविचारवृत्तिकी रचना की । साधु प्रतिक्रमणविधि, श्रावकप्रतिक्रमणविधि, सुमतिजिनस्तवन आदि और भी कई ग्रन्थ इनके रचे हुए हैं। पिछला स्तवन छप गया है। रचना अच्छी है। २७. ७ भक्तामरकथा, ८ आराधनासार, ९ धर्मपरीक्षा, १० यशोधरचरित्र, ११ योगसार, १२ पाण्डवपुराण, १३ समाधिशतक, १४ सुभाषितरत्न सं-दोह, १५ आचारसार, १६ नवतत्त्व, १७ गोतमचरित्र, १८ जम्बूचरित्र, १९ जीवंधररित्र, २० भविष्यदत्तचरित्र, २१ तत्त्वार्थसारदीपक, २२ श्रावकप्रतिक्रमण, २३ स्वाध्यायपाठ, विविध भक्तियाँ और विविधस्तोत्र | विजयकीर्ति – ये नागौर की गद्दी भट्टारक थे। इन्होंनें सं० १८२० में श्रेणिकचरित्र छन्दोवद्धकी रचना की है। बीसवीं शताब्दी | १ सदासुख । इस शताब्दी के पुराने ढंगके लेखकों में सदासुखजी बहुत प्रसिद्ध हैं । इनका रत्नकरण्ड श्रावकाचार बहुत बड़ा लगभग १५-१६ हजार श्लोक प्रमाण गयग्रन्थ है । जैनसमाजमें इसका बहुत अधिक प्रचार है। दो बार छप चुका है। एक डेड़ सौ श्लोकके इसी नामके मूल ग्रंथका यह विशाल भाष्य है । एक प्रकारसे इसे स्वतंत्र ग्रन्थ कहना चाहिए । इनका दूसरा ग्रन्थ अर्थप्रकाशिका है। यह भी लगभग उतना ही बड़ा है । यह तत्वार्थसूत्रका भाष्य है । . गद्यमें है । भगवती आराधना की टीका भी आपने लिखी है जो २० हजार होगी। यह विक्रम संवत् १९०८ में बनी है । बनारसीकृत नाटक समयसाकी टीका, नित्यपूजाटीका और अकलंका की टीका भी आपकी बनाई हुई है । २ पन्नालाल चौधरी । संस्कृत ग्रन्थोंके ये बड़ेभारी अनुवादक हुए हैं। इन्होंने ३५ ग्रन्थोंकी वचनिकायें ( गद्यानुवाद) लिखी हैं जो प्रायः सब ही उपलब्ध हैं: - १ वसुनंदिश्रावकाचार, २ सुभाषितार्णव, ३ प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, ४ ५ मुनि आत्माराम । ये श्वेताम्बर सम्प्रदायजिनदत्तचरित्र, ५ तत्त्वार्थसार, ६ सद्भाषितावली, के बहुत ही प्रसिद्ध विद्वान् हुए हैं । इनका जीवन ३ भागचन्द्र । ये ईसागढ़ ( ग्वालियर ) के रहनेवाले ओसवाल थे, पर दिगम्बरसम्प्रदाय के अनुयायी थे । बहुत अच्छे विद्वान थे । संस्कृत और भाषा दोनोंके कवि थे । ज्ञानसूर्योदय, उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला ( षष्टिशतप्रकरण ), अमितगतिश्रावकाचार, प्रमाणपरीक्षा ( न्याय), और नेमिनाथपुराण, इतने ग्रन्थोंकी आपने गद्यटीकायें लिखी हैं जो प्रायः उपलब्ध हैं । आपकी कई रचनायें संस्कृतमें भी हैं। आपके पदमजनोंका संग्रह छप चुका है। छ कविता है । ४ दौलतराम । ये सासनीनिवासी पल्लीवाल थे । सुनते हैं, छीपीका काम करते थे; परन्तु बहुत अच्छे विद्वान थे । गोम्मटसार सिद्धान्त के अच्छे मर्मज्ञ समझे जाते थे । आपका बनाया हुआ एक छहढाला नामका सुन्दर पयग्रन्थ है, जो कमसे कम ७-८ बार छप चुका है। जैनपाठशालाओंमें पाठ्यपुस्तक है । इसमें जैनधर्मका सार भरा हुआ है । सर्वथा स्वतंत्र है । इसके सिवाय आपके बनाये हुए बहुतसे पद और स्तवन है जिनमेंसे लगभग १२५ का संग्रह प्रकाशित हो चुका है। चार बार छप चुका है। पदरचना भाषा और भाव दोनोंकी दृष्टि अच्छी है । For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ चरित्र सरस्वतीमें निकल चुका है । शायद इनके बाद इस सम्प्रदाय में कोई ऐसा उद्भट विद्वान् - नहीं हुआ । इनका जन्म वि० सं० १८९३ के लगभग हुआ था और देहोत्सर्ग १९५३ में । आपकी जन्मभूमि पंजाब थी । पाश्चात्यदेशोंतक आपकी ख्याति थी । आपके शिष्य श्रीयुत वीरचन्द राघवजी गांधी बी. ए. बैरिस्टर एट ला, चिकागो ( अमेरिका ) की धर्ममहासभा में गये थे। उन्होंने वहाँ आपकी बहुत ही प्रतिष्ठा बढ़ाई थी । आपकी ' चिकागो - प्रश्नोत्तर' नामकी पुस्तक उसी समय के प्रश्नोत्तरों की है । आपने अपनी सारी रचना हिन्दीमें की है आपके कई बड़े बड़े ग्रन्थ हैं । उनमें जैनतत्त्वादर्श, तत्त्वनिर्णयप्रसाद, और अज्ञानतिमिरभास्कर मुख्य | आप स्वामी दयानन्दके ढंगके विद्वान थे । खण्डन मण्डनसे आपको बहुत प्रेम रहा है। अन्य धर्मों और सम्प्रदायों पर आपने बहुत आक्रमण किये हैं । आपकी भाषा में कुछ पंजाबीपन मिला हुआ है, पर वह समझमें अच्छी तरह आती है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें आपकी स्मृतिकी रक्षा के लिए बहुत प्रयत्न किये गये हैं । कई सभायें आपके नामसे चल रही हैं और कई - मासिकपत्र और ग्रन्थमालायें भी आपके स्मरणार्थ निकलती हैं । आपके प्रायः सभी ग्रन्थ छपकर प्रकाशित हो चुके हैं । उनका प्रचार खूब है। 1 1 जैनहितैषी - ६ यति श्रीपालचन्द्र । ये यति बीकानेरके रहनेवाले थे। सुयोग्य थे। कई वर्षोंतक अनवरत परिश्रम करके आपने 'जैन सम्प्रदाय शिक्षा ' नीमका ग्रन्थ बनाया था । यह ग्रन्थ आधा भी न छप पाया था कि आपका देहान्त हो गया । आपके ग्रन्थको अब निर्णयसागर प्रेसके मालिक चार रुपयेमें बेचते हैं। बोलचा - लकी शुद्ध हिन्दीमें इसकी रचना हुई है । इसमें विविध विषयोंका संग्रह है । यतिजीका देहान्त ' हुए केवल ७-८ वर्ष हुए हैं I [ भाग १३ ७ चंपाराम । ( पाटननिवासी ) । गौतमपरीक्षा ( सं० १९९६), वसुनन्दिश्रावकाचार, चर्चासागर, योगसार । ये सब ग्रन्थ गद्यमें हैं । ८ छत्रपति । ( पद्मावतीपुरवार ) । द्वादशानुप्रेक्षा ( १९०७ ) मनमोदनपंचश ( १९१६ ), उद्यमप्रकाश ( १९२२), शिक्षाप्र धान । ये सब ग्रन्थ पयमें हैं । ये अच्छे कवि मालूम होते हैं । इनकी मनमोदनपंचशती छपकर प्रकाशित हो रही है । ९ जौहरीलाल शाह | पद्मनन्दि पंचविंशतिकाकी वचनिका ( १९१५ ) । १० नन्दराम । योगसारवचनिका (सं० १९०४), यशोधरचरित्र छ० और त्रैलोक्यसार पूजा । गयमें सुकमालचरित्र, महीपालचरित्र, समाधितंत्र, ११ नाथूलाल दोसी । ( जयपुर निवासी) । और पयमें दर्शनसार, परमात्माप्रकाश, सिद्धप्रियस्तोत्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार | बोधक ( विशालग्रन्थ ), उत्तरपुराण वचनिका १२ पन्नालाल ( दूनीवाले ) । विद्वज्जनऔर अनेक पूजापाठ | १३ पारसदास । ( जयपुर निवासी ) । पारसविलास ( छ० ), ज्ञानसूर्योदय और सार - चतुर्विंशतिकाकी वचनिका । १४ फतेहलाल । (जयपुरी ) । विवाहपद्धति, दशावतारनाटक, राजवार्तिकालंकार, रत्नकरण्ड, न्यायदीपिका और तत्त्वार्थ सूत्रकी, वचनिकायें । १५ बक्ताबरमल - रतनलाल । (दिल्लीनिवासी ) । जिनदत्तचरित्र, नेमिनाथपुराण, चंन्द्रप्रभपुराण, भविष्यदत्त चरित्र, प्रीतिंकरचरित्र, प्रयुनचरित्र, व्रतकथाकोश आदि छन्दोबद्ध ग्रन्थ । १६ मन्नालाल बैनाड़ा । प्रद्युम्नच वचनिका ( १९१६ ) । For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १ ] १७ महाचन्द्र । महापुराण संस्कृत - प्राकृत और भाषा में, सामायिकपाठ, फुटकर संस्कृत और भाषा के पद । हिन्दी - जैन साहित्यका इतिहास । १८ मिहिर चन्द्र । ये सुनपत (दिल्ली) के रहनेवाले थे। संस्कृत और फारसीके अच्छे विद्वान् थे । आपने सज्जनचित्तवल्लभ काव्यकी संस्कृत टीका और हिन्दी पद्यानुवाद बनाया है जो छप चुका है । कविता अच्छी है। शेख सादी के सुप्रसिद्ध काव्यद्वय गुलिस्तां और बोस्तांका हिन्दी अनुवाद भी आपका किया हुआ है जो एक बार छप चुका है । सुनते हैं, और भी आपकी कई हिन्दी रचनायें हैं । १९ हीराचन्द्र अमोलक । ये फलटण जिला सताराके रहनेवाले हूंबड़ वैश्य थे । आपकी मातृभाषा हिन्दी न थी तो भी आपने हिन्दीमें अनेक अच्छे पद बनाये हैं जो छप चुके पंचपूजा भी आपकी बनाई हुई है । । २० शिवचन्द्र ( दिल्लीवाले भट्टारक के शिष्य ) । नीतिवाक्यामृत, प्रश्नोत्तर श्रावका - चार और तत्त्वार्थसूत्रकी वचनिकायें । २१ शिवजीलाल ( जयपुरनिवासी ) । रत्नकरण्ड, चर्चासंग्रह, बोधसार, दर्शनसार, अध्यात्मतरंगिणी आदि अनेक ग्रन्थोंकी वचनि. कायें और तेरहपंथखण्डन । २२ स्वरूपचन्द् । मदनपराजयवचनिका, त्रैलोक्यसार छ० आदि । वर्तमान समय के परलोकगत लेखक । १ राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द | ये महाशय सं० १८८० में उत्पन्न हुए और १९५२ में इनका स्वर्गवास हुआ । श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के आप अनुयायी थे । आप शिक्षा विभाग के उच्च कर्मचारी थे और राजा तथा सीआई. ई. की उपाधियोंसे विभूषित थे । वर्तमान खड़ी हिन्दीके आप जन्मदाता समझे जाते हैं । २९ भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्रजी आपको अपना गुरु मानते थे । उन्होंने अपना मुद्राराक्षस नाटक आपको ही समर्पित किया था । आप हिन्दीके बड़े पक्षपाती थे। आपकी ही दयासे शिक्षाविभागसे हिन्दी का दर्शनिकाला होता होता रह गया । शिक्षाविभागके लिए आपने हिन्दीकी अनेक पुस्तकें लिखी हैं । उनमें इतिहास तिमिरनाशक बहुत प्रसिद्ध है । आपके धार्मिक विचार बहुत स्वतंत्र थे । जैनसमाजको आपका अभिमान है । २ बाबू रतनचन्द्र वकील | आप इलाहाबाद के रहनेवाले खण्डेलवाल जैन थे। बी. ए. एल एल. बी. और वकील थे । अभी कुछ ही वर्षो पहले आपका स्वर्गवास हुआ है । आप हिन्दी के अच्छे लेखक थे । आपका नूतनचरित्र प्रयागके इंडियन प्रेसने प्रकाशित किया है । न्यायसभा नाटक, भ्रमजालनाटक, चातुर्थार्णव, वीरनारायण, इन्दिरा, हिन्दी-उर्दूनाटक, आदि कई ग्रन्थ आपके बनाये हुए हैं जो प्रकाशित हो चुके हैं । ' भ्रमजाल ' आदि अँगरेजीसे अनुवादित हैं, कुछ स्वतंत्र हैं और कुछ आधार लेकर लिखे गये हैं । ३. बाबू जैनेन्द्रकिशोर । आप आरके एक जमींदार थे। अग्रवाल जैन थे। आराकी नागरीप्रचारिणी सभा और प्रणेतृसमालोचक सभा के उत्साही कार्यकर्ता थे | हिन्दीके सुलेखक और सुकवि थे । आपकी बनाई हुई खगोलविज्ञान, कमलावती, मनोरमा उपन्यास आदि कई पुस्तकें छप चुकी हैं। जैनकथाओंके आधारसे आपने कई नाटक और प्रहसन लिखे थे जिनमें से ' सोमासती' व्यंकटेश्वर प्रेससे प्रकाशित हो चुका है, शेष सब अमुद्रित हैं । आपने कई वर्षातक हिन्दी जैनगजटका सम्पादन किया था । कोई ६-७ वर्ष हुए, आपका देहान्त हो गया For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैनहितैषी [ भाग १३ आपका जीवनचरित आरेकी नागरीहितैषिणी थे । पयमें आपने लावनियाँ बहुत बनाई हैं, पत्रिकामें निकल चुका है। जिनमेंसे कुछ ‘ज्ञानानन्दरत्नाकर' के नामसे ४ मि० जैन वैद्य । मि० जैन वैद्यका __ छपी हैं । गद्यमें आपने जैन प्रथम-द्वितीय-तृतीय.' नाम जवाहिरलाल था। आप खण्डेलवाल जैन थे। प 1 चतुर्थ पुस्तक और हिन्दीकी पहली दूसरी-तीसरी “वैद' आपका गोत्र था। आपका जन्म संवत् । - आदि अनेक पुस्तकें लिखी हैं । कई पुस्तकों१९३७ में हुआ था । आपने अंगरेजी तो की टीकायें और पयानुवाद भी आपने किये हैं। म्याट्रिक तक ही पढ़ी थी, पर विद्याभिरुचिके आप पुस्तकप्रकाशक थे। सैकड़ों छोटी बड़ी कारण उसमें उन्नति अच्छी कर ली थी। रायल ! पुस्तकें आपने छपाई थीं । आपके विचार सुधाएशियाटिक सुसायटी और थियोसोफिकल रकोंके ढंगके थे, इस कारण सर्व साधारणसे सुसायटीके आप मेम्बर थे । बंगला उर्दू, मराठी भा " आपकी बहुत ही कम बनती थी । जैन कथाऔर गुजराती भी आप जानते थे । हिन्दीके ग्रन्थोंकी असंभव बातों पर आपकी अश्रद्धा थी बड़े ही रसिक थे और नागरीके प्रचारका सदेव और जैनभूगोलके सिद्धान्तोंका आप विरोध किया यत्न किया करते थे। आपने हिन्दीके कई पत्र करते थे। इस विषयमें उस समय आपने लाहो. निकाले, पर वे चल नहीं सके। आपका सबसे रकी 'जैनपत्रिका ' में कुछ लेख भी प्रकाशित 'नामी पत्र 'समालोचक' निकला। उसे आपने कराये थे। आपके पुत्र बाबू नन्दकिशोरजी चार सालतक बड़े परिश्रम और अर्थव्ययसे बी ए. असिस्टेंट सर्जन हैं । उन्होंने आपके चलाया । इससे आपकी हिन्दी संसारमें बड़ी पुस्तकालयकी तमाम पुस्तकें कटमीकी जैनपाठख्याति हुई । इस पत्रमें बड़े ही मार्केके लेख शालाको दे डाली हैं। निकलते थे। छात्रावस्थामें इन्होंने कमलमोहिनी- वर्तमान लेखक । भँवरसिंह नाटक, व्याख्यानप्रबोधक और ज्ञानवर्णमाला नामक तीन पुस्तकें लिखी थीं । नागरी बाबू सूरजभानजी । आप देवबन्द जिला प्रचारिणीसभाके ये बड़े सहायक थे । इन्होंने सहारनपुरक - सहारनपुरके रहनेवाले अग्रवाल जैन हैं । वकील जयपुरमें एक 'नागरी भवन' नामक पुस्तकालय हैं। लगभग २०-२२ वर्षसे आप हिन्दीकी सेवा खोला था, जो अबतक अच्छी दशामें है। आपने कर रहे हैं । जैनसमाजमें नई जागृति उत्पन्न 'संस्कृत कविपंचक' आदि हिन्दीके कई अच्छे करनेवालोंमेंसे आप एक हैं । जिससमय सारा ग्रन्थ अपने खर्चसे प्रकाशित किये थे। आपकी जैनसमाज जैनग्रन्थोंके छपानेका विरोधी था, मृत्यु संवत् १९६६ में हो गई। उससमय आपने बड़े साहसके साथ इस कामको उठाया और हरतरहके कष्ट उठाकर जारी मुशी नाथूरामजी लमेचू । ये करहल रक्खा । आप अपनी धुनके बड़े पक्के हैं । हिन्दी 'जिला मैनपुरीके रहनेवाले थे, पर पीछे कटनी जैनगजटके जन्मदाता आप ही हैं । आपने कई मुड़वारामें आ रहे थे । कोई दशवर्ष हुए जब वर्षतक उसे साप्ताहिक रूपमें बिना किसीकी आपकी मृत्यु हो गई । छापेके प्रचारकोंमें आ- मददके चलाया । इसके बाद दो मासिकपत्र 'पभी एक अगुए थे। इसके कारण आपने भी खूब आपने और निकाले जो कुछ वर्ष चलकर बन्द गालियाँ सुनी, अपमान सहन किया और मार होगये। द्रव्यसंग्रह, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, परमात्मतक खाई ! आप गद्य और पद्य दोनों लिखते प्रकाश आदि कई ग्रन्थोंके हिन्दी अनुवाद For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क१] हिन्दी-जैनसाहित्यका इतिहास । आपके लिखे हुए हैं। हिन्दीकी सर्वोपयोगी पुस्तकें मिली हुई हैं। आप बड़े स्वार्थत्यागी हैं। मोरेनाका भी आपने कई लिखी हैं । आपकी ‘ब्याही बहू' जैनसिद्धान्तविद्यालय-जिसमें कोई हजार रुपया नामकी छोटीसी पुस्तक अभी हाल ही प्रकाशित मासिक खर्च होता है-आपहीके परिश्रम और हुई है । 'मनमोहिनी' नामका स्वतंत्र उपन्यास स्वार्थत्यागसे चल रहा है । आपके द्वारा मी आपका लिखा हुआ है । आपकी 'ज्ञानसूर्यो- जैनसमाजमें न्याय और कर्मसिद्धान्तके जाननेवाले दय' नामकी पुस्तक बहुत अच्छी है जो पहले बीसों विद्वान् तैयार हुए हैं और हो रहे हैं। उर्दूमें लिखी गई थी। इस समय आप वकालतका बम्बईका 'जैनमित्र' जो अब साप्ताहिक होगया. काम छोड़कर जैन-समाजकी सेवा किया करते है, सबसे पहले आपहीने निकाला था। इसका हैं। आपकी अवस्था ५० वर्षके लगभग होगी। सम्पादन आप ६-७ वर्षतक करते रहे हैं। आप खासी हिन्दी लिखते हैं। सुशीला उपन्यास, पं० पन्नालालजी वाकलीवाल । आप जैनसिद्धान्तदर्पण, और जैनासद्धान्त-प्रवेशिका ये सुजानगढ़ जिला बीकानेरके रहनेवाले खण्डेलवाल तीन हिन्दीके ग्रन्थ आपके रचे हए हैं। पिछली जैन हैं । जैनसमाजमें ग्रन्थोंके छपाने और प्रचार पस्तकका जैनसमाजमें खब प्रचार है । इस समय करनेवालोंमें आप अग्रणी हैं । आप भी कोई आपकी अवस्था ४८ वर्षके लगभग होगी। बीस वर्षसे केवल यही काम कर रहे हैं । बम्बईके मोरेनामें आपकी आढ़तकी दूकान है। जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालयकी जड़ जमानेवाले आप ही हैं । काशीकी स्याद्वादपाठशालाकी बाबू जुगलकिशोरजी । आप देवबन्द स्थापना करनेमें भी आपका हाथ था ।आप बड़े जिला सहारनपुरमें रहते हैं । अग्रवाल जैन हैं। स्वार्थत्यागी हैं । जैनहितैषी पत्रके जन्मदाता भी मुख्तारीका काम छोड़कर अब केवल साहित्यआप ही हैं । इसे शुरूमें आपने कई बार निकाला सेवा करते हैं । अभी आपकी उम्र ४० वर्षसे और कई वर्षतक चलाया था। धर्मपरीक्षाका कम है । जैन-साहित्यके बड़े नामी समालोचक अनुवाद, रत्नकरंड, द्रव्यसंग्रह, और तत्त्वार्थ- हैं। अभी अभी आपने चार पाँच जैन ग्रन्थोंकी सूत्रकी छात्रोपयोगी टीकायें, जैनबालबोधक, विस्तृत समालोचनायें लिखकर जैनसमाजमें एक स्त्रीशिक्षा आदि जैनधर्मकी पुस्तकोंके सिवाय हलचल मचा दी है। बड़े ही परिश्रमशील हिन्दीकी सर्वोपयोगी पुस्तकें भी आपने कई लिखी लेखक हैं । जैनधर्मसम्बन्धी इतिहास पर भी हैं। आजकल आप कलकत्तेसे 'सनातन जैनग्रन्थ- आप बहुत कुछ लिखा करते हैं । आगे आपसे माला' नामक संस्कृत ग्रन्थोंकी सीरीज निकाल जैनसाहित्यकाबहुत उपकार होनेकी संभावना रहे हैं । इस समय आपकी उम्र लगभग ४८ है। आप कई वर्षतक साप्ताहिक जैनगजटका वर्षकी होगी। सम्पादन कर चुके हैं । आर्यमतलीला, पूजाधिपं. गोपालदासजी बरैया । आप आगरेके र कारमीमांसा, विवाहका उद्देश्य आदि कई अच्छी रहनेवाले हैं और बरैया आपकी जाति है । अच्छी पुस्तकं आपकी लिखी हुई हैं। आजकल मोरेना (ग्वालियर ) में रहते हैं। पं० अर्जुनलालजी सेठी। आप जयपुरके दिगम्बरसम्प्रदायके धुरंधर विद्वानोंमें आपकी रहनेवाले खण्डेलवाल जैन हैं । बी. ए. हैं। गणना है । न्यायवाचस्पति, वादिगजकेसरी, किसी राजनीतिक अपराधके सन्देहमें आप कोई स्याद्वादवारिधि आदि कई पदवियाँ आपको तीन वर्षसे कैद हैं । आप हिन्दीके परम प्रेमी For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ और देशभक्त हैं। जयपुरकी जैनशिक्षाप्रचारक लिखी हैं । गत वर्षसे आप एक 'जातिप्रबोधक' समिति और वर्द्धमानविद्यालय ये दो संस्थायें नामका मासिकपत्र निकालने लगे हैं। आपहीने अपने असीम परिश्रम और स्वार्थत्यागके मि० वाडीलाल मोतीलाल शाह। आप बलसे स्थापित की थीं । जैनसमाजमें हिन्दीकी अहमदाबादके रहनेवाले श्रीमाल जैन हैं और प्रतिष्ठाके लिए आपने बहुत उद्योग किया है। गुजरातीके प्रमावशाली पत्र जैनहितेच्छुके आपने महेन्द्रकुमार नाटक आदि दो तीन हिन्दी सम्पादक हैं । गुजरातीके आप लब्धप्रतिष्ठ लेखक पुस्तकें भी लिखी हैं। हैं। हिन्दी आपकी मातृभाषा नहीं है, तो भी आप अपने हिन्दीभाषी भाइयोंके लिए कुछ लाला मुंशीलालजी । आप अग्रवाल जन न कुछ लिखा ही करते हैं। आपके जैनसमाचाहैं, ग्रेज्युएट हैं और संस्कृतके एम. ए. है । पहले रपत्र में हिन्दीके लगभग आधे लेख रहते थे। लाहौरके किसी कालेजमें प्रोफेसर थे । इस हिन्दीसे आपको बहुत ही प्रेम है। अभी थोडे समय पेन्शनर हैं और लाहौरमें ही रहते हैं । आप ही दिन पहले झालरापाटनमें जो 'राजपूताना उर्दू और हिन्दी दोनों भाषाओंके लेखक हैं। हिन्दी-साहित्य-समितिकी स्थापना हुई है और हिन्दीमें आपकी लिखी हुई कई अच्छी अच्छी जिसमें लगभग १०-११ हजारका चन्दा केवल पुस्तकें हैं-१ दरिद्रतासे श्रेय, २ कहानियोंकी जैन सज्जनोंने दिया है, वह आपके ही उद्योगका पुस्तक,३ शील और भावना, ४ शीलसूत्र, ५ फल है। आपने उसमें स्वयं अपनी गाँठसे दो छात्रोंको उपदेश आदि । संस्कृतके भी आप हजार रुपयेकी रकम दी है । इस समितिका अच्छे विद्वान् हैं, इस लिए आपने क्षत्रचूडामणि काम आपके ही हाथमें है। इसके द्वारा बहुत ही काव्यका हिन्दी अनुवाद लिखा है और पंजाबके जल्दी अच्छे अच्छे ग्रन्थ लागतके मूल्य पर शिक्षा-विभागके लिए संस्कृतकी चार पुस्तकें प्रकाशित होंगे। लिख दी हैं । उत्तराध्ययन सूत्रका भी आपने बाबू सुपार्श्वदासजी गुप्त । आप आराके हिन्दी अनुवाद किया है । आपका स्वास्थ्य रहनेवाले अग्रवाल जैन हैं। एम. ए. के विद्यार्थी अच्छा नहीं रहता है, वृद्धावस्था है, तो भी आप हैं। हिन्दी लिखनेका आपको बहुत उत्साह है। हिन्दीमें कुछ न कुछ लिखा ही करते हैं। लिखते भी अच्छा हैं । सरस्वतीमें प्रायः लिखा बाबू दयाचन्दजी गोयलीय । आप करते हैं। अभी आपने एक 'पार्लमेंट' नामका अग्रवाल जैन हैं और बी. ए. हैं । इस समय लगभग ४०० पृष्ठका ग्रन्थ लिखा है, जो लखनऊके कालीचरण हाईस्कूलमें मास्टर हैं। शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाला है। हिन्दीकी सेवाका आपको बहुत ही उत्साह है। दाबू मोतीलालजी। आप आगरेमें स्कूल अच्छी हिन्दी लिखते हैं । हिन्दी-ग्रन्थरत्नाकर- मास्टर हैं। पल्लीवाल जैन हैं। बी. ए. हैं । आपने कार्यालय द्वारा आपकी १ मितव्ययता, २ स्माइल्सके 'सेल्फ हेल्प' की छाया लेकर 'स्वावयुवाओंको उपदेश, ३ शान्तिवैभव, ४ अच्छी लम्बन' नामका ग्रन्थ लिखा है, जो बहुत आदतें डालनेकी शिक्षा, ५ चरित्रगठन और पसन्द किया गया है। इन्दौरकी होलकर्स हिन्दी मनोबल, ५ पिताके उपदेश, ६ अब्राहम लिंकन कमेटीने इससे प्रसन्न होकर आपको परितोषिक आदि कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। दिया है । कविता भी अच्छी लिखते हैं । आगे जैनधर्मकी भी आपने कई छोटी छोटी पुस्तकें आपके द्वारा हिन्दीकी बहुत कुछ सेवा होगी। For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १] हिन्दी-जैनसाहित्यका इतिहास। ३३ बाबू वेणीप्रसादजी । आप बाबू मोती- अध्यवसाय और परिश्रमसे चल रही है। आपके ही लालजीके भाई हैं । अभी एम. ए. के विद्यार्थी प्रयत्नसे मंडली कई नामी नामी ग्रन्थोंके प्रकाशित हैं। हिन्दी बड़ी अच्छी लिखते हैं। सरस्वती करनेमें समर्थ हुई है। जीवदया, सुखानन्दमनोरमा आदिपत्रोंमें आपके कई प्रतिभापरिचायक लेख नाटक आदि कई पुस्तकें आपने छात्रावस्थामें प्रकाशित हुए हैं । आगे आपसे हिन्दीकी बहुत लिखी हैं। हिन्दीका आपके द्वारा बहुत उपकार कुछ सेवा होनेकी आशा है। हुआ है और होगा। ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी । आप लखन- बाबू कन्हैयालालजी। आप श्रीमाल जैन ऊके रहनेवाले अग्रवाल जैन हैं । ७-८ वर्षसे हैं। भरतपरकी पल्टनमें हेडकार्क हैं । आपने आप गृहत्यागी होगये हैं। बम्बईके जैनमित्रका 'अंजनासन्दरी' नामका एक नाटक लिखा है सम्पादन इन दिनों आप ही करते हैं । गृहस्थधर्म, जिसे व्येंकटेश्वर प्रेसने प्रकाशित किया है। छहढालाकी टीका, नियमसारकी टीका, अनुभ- नाटक स्वतंत्र है और अच्छा है। आपने सुनते हैं वानन्द आदि कई जैनधर्मसम्बन्धी ग्रन्थ आपके और भी कई पुस्तकें लिखी हैं, पर हम उनसे परिलिखे हुए हैं। आप जैनसमाजकी निःस्वार्थ भावसे चित नहीं। अनवरत सेवा कर रहे हैं। पं० उदयलालजी काशलीवाल। आप मुनि जिनविजयजी । आप श्वेताम्बर खण्डेलवाल जैन हैं। सत्यवादी नामक पत्रका सम्प्रदायके साधु हैं । बहुत अच्छे विद्वान हैं। ' न! आप दो वर्षतक सम्पादन करते रहे हैं। जैनधआपका ऐतिहासिक ज्ञान बहुत बढ़ा चढ़ा है। मैके कई संस्कृत ग्रन्थोंका आपने अनुवाद किया पाटनआदिके पुस्तकभण्डारोंके ग्रन्थोंसे आप है। आप अच्छी हिन्दी लिखते हैं । इस समय सविशेष परिचित हैं। हिन्दी और गुजराती दोनों आप बम्बईमें रहते हैं । हिन्दीजैनसाहित्यप्रसाभाषाओंके लेखक हैं, और मजा यह कि दाना रक कार्यालयके मालिकोंमें हैं। इस वर्ष आपने भाषाओंमें आप मातृभाषाके समान शुद्ध लिख ‘हिन्दी-गौरवग्रन्थमाला' नामकी सीरीज निकासकते हैं। विज्ञप्ति-त्रिवेणी, कृपारस-कोश, प्रश- लनका प्रारंभ किया है। स्तिसंग्रह आदि कई संस्कृत ग्रन्थोंका सम्पादन आपने किया है और बडी योग्यतासे किया है। पं० दरयावसिंहजी सोधिया। आप गढाइन ग्रन्थोंकी आपने बहुत बडी बडी विस्तत कोठा जिला सागरके रहनेवाले हैं। आजकल भूमिकायें हिन्दीमें ही लिखी हैं जो इतिहासपर इन्दौरमें रहते हैं। हिन्दीमें आपने कृषिविद्या, अपूर्व प्रकाश डालती हैं । जैनधर्मके भी आप हिन्दी व्याकरण, कहावतकल्पद्रुम आदि कई अच्छे मर्मज्ञ हैं । आपके लेख सरस्वती आदि पुस्तकें लिखी हैं। अभी लगभग एक वर्ष पहले अनेक पत्रोंमें प्रकाशित हुआ करते हैं। आपने 'श्रावकधर्मसंग्रह' नामक जैनग्रन्थ लिख _ बाबू माणिकचन्दजी। आप पोरबाड़ हैं कर प्रकाशित कराया है। और बी. एल एल.बी. हैं । खंडवमें वकालत करते बाबू खूबचन्दजी सोधिया । आप पं० हैं। छात्रावस्थासे ही आपको हिन्दी लिखनेका दरयावसिंहजी सोधियाके पुत्र हैं। बी. ए. तथा शौक है । आप कुछ समय तक प्रयागके एल. टी. हैं और हिन्दीके होनहार लेखक हैं। अम्युदयके सहकारी सम्पादक रह चुके हैं। अभी आपने हेल्प्सके निबन्धोंका अनुवाद खंडवेकी हिन्दीग्रन्थप्रसारक मण्डली आपके ही ' सफलगृहस्थ ' के नामसे लिखा है और For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ प्रकाशित कराया है। आप और भी कई अच्छी यति बालचन्द्राचार्यजी । आप सामगाँव अच्छी पुस्तकें लिख रहे हैं। . (बरार) में रहते हैं। श्वेताम्बर यति हैं । इलि__ बाबू निहालकरणजी सेठी एम. एस हासके जानकार हैं। आपको भी खण्डन मण्डन सी. । आप काशीके हिन्दू विश्वविद्यालयमें बहुत प्रिय है । आपने जगकर्तत्वमीमांसा, प्रोफेसर हैं। खण्डेलवाल जैन हैं। जैनहितैषी, मानवकर्तव्य आदि कई हिन्दी पुस्तकें लिखी हैं। विज्ञान आदि पत्रोंमें आपके हिन्दीके कई लेख आपने हमको इस लेखके लिखनेमें भी बहुत प्रकाशित हुए हैं। हिन्दीसे आपको अतिशय प्रेम कुछ सहायता दी है । है। आप इस समय एक विज्ञानसम्बन्धी ग्रन्थ मुनि माणिकजी। आप श्वेताम्बर साधु लिख रहे हैं। हैं। आपकी मातृभाषा शायद गुजराती है, पं० वंशीधरजी शास्त्री । आप सोलापुरकी पर । र पर हिन्दी भी आप लिख सकते हैं और हिन्दीसे जैनपाठशालामें अध्यापक हैं । संस्कृतके अच्छे । " आपको बहुत प्रेम है । हिन्दीके आपने मेरठ विद्वान हैं। अष्टसहस्री, प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि । 19 जिलेमें कई सार्वजनिक पुस्तकालय खुलवाये हैं। अनेक ग्रन्थोंका आपने सम्पादन और संशोधन समाधितंत्र, कल्पसूत्र, आदि कई पुस्तकोंके किया है। हिन्दीमें आत्मानुशासनका अनुवाद शित कराये हैं। आपने हिन्दी अनुवाद भी किये हैं और प्रकाआपने लिखा है । जैनगजटके सहकारी ' ___ बाबू सुखसम्पतिरायजी भण्डारी । सम्पादकका काम भी आपने कुछ समय तक आप श्वेताम्बरसम्प्रदायके ओसवाल हैं। इस समय किया है। इन्दौरके 'मल्हारि मार्तण्ड विजय' के सम्पादक पं० खूबचन्दजी शास्त्री । आप वंशी- हैं। इसके पहले हिन्दीके और भी कई पत्रोंका धरजीके भाई हैं। आजकल सत्यवादीका सम्पा- सम्पादन आप कर चुके हैं। महात्मा बुद्धदेव, दान करते हैं । हिन्दी अच्छी लिखते हैं। स्वर्गीय जीवन, उन्नति, आदि कई पुस्तके आपकी गोम्मटसार जीवकाण्ड, न्यायदीपिका और लिखी हुई हैं। महावीरचरित काव्यका आपने हिन्दी अनुवाद बाबू सूरजमलजी । आपकी जाति लमेचू किया है। है। हरदेमें आपका घर है । इस समय इन्दौरमें -- मुनि शान्तिविजयजी । आप श्वेताम्बर रहते हैं। पहले आप जैनमित्रक सहकारी सम्पासम्प्रदाय के साधु हैं । मानवधर्मसंहिता, जैनतीर्थ दक रह चुके हैं । आज कल जैनप्रभातका माइड, उपदेशदर्पण आदि कई पुस्तकें आपने सम्पादन करते हैं। जैन इतिहास, पयुर्षणपर्व लिखी हैं । खण्डन मण्डन आपको बहुत प्रिय आदि कई पुस्तके आप लिख चुके हैं। है । आपकी भाषा उमिश्रित होती है। बाबू कृष्णलालजी वर्मा । जयपुरकी जैन__लाला न्यामतसिंहजी । आप हिसारके शिक्षाप्रचारक समितिके आप विद्यार्थी हैं। रहनेवाले अग्रवाल हैं। इस समय जैनसमाजमें राजपूत जैन हैं । इस समय बम्बईमें रहकर 'जैनसंसार' का सम्पादन करते हैं। चम्पा, आपके थियेट्रिकल गानोंकी धूम है। इस प्रकारकी राजपथका पथिक, दलजीतसिंह नाटक आदि आप एक दर्जनसे अधिक पुस्तकें बना चुके हैं। कई पुस्तकें अपने लिखी हैं। दर असलमें आपके कोई कोई पद बहुत अच्छे पं० लालारामजी । पद्मावतीपुरवार हैं। होते हैं। संस्कृतके अच्छे पण्डित हैं । इन्दौरके जैन For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ अङ्क१] भाग्यचक। हाईस्कूलमें अध्यापक हैं । हिन्दी अच्छी लिखते भाग्यचक्र। हैं। आपने सागरधर्मामृत और आदिपुराण इन दो ग्रन्थोंके हिन्दी अनुवाद किये हैं । पिछला ग्रन्थ बहुत बड़ा है। [ले., पं. व्रजनन्दनप्रसाद मिश्र और बाबू शंकरलालजी । आप मुरादाबादके पं० रघुनन्दनप्रसाद मिश्र । ] रहनेवाले खण्डेलवालजातीय हैं। अच्छे वैद्य हैं । दो तीन वर्षसे 'वैय' नामक हिन्दी मासिक .. प्रथम परिच्छेद। पत्रका सम्पादन करते हैं । वैद्यके लेख अच्छे जब रामेश्वर शर्मा पचीस वर्षके हुए तब होते हैं । आपने कई वैद्यक-ग्रन्थ भी लिखे हैं। "उनके पिता चल बसे। उनको अपने पिता___ इस निबन्धके लेखक द्वारा पहले पाँच से बड़ा प्रेम था। उनके पिताने मरते समय जो छह वर्ष तक जैनमित्रका सम्पादन हुआ और कुछ भी छोड़ा था, उस सबको उन्होंने पिताके अब लगभग सात वर्षसे जैनहितैषीका सम्पादन हो श्राद्धहीमें लगा डाला। पिताको स्वर्ग मिलनेकी रहा है। नीचे लिखी रचनाओंके सिवाय बहुतसे इच्छासे उन्होंने वे सभी काम किये जो उन्हें जैनग्रन्थों और सार्वजनिक हिन्दी ग्रन्थोंका भी लोगोंने बतलाये । क्रिया समाप्त हो जानेपर जब इसने सम्पादन-संशोधन आदि किया हैं:- नाते रिश्तेके लोग अपने अपने घरों को लौट १ विद्वद्रत्नमाला प्रथम और द्वितीयभाग गये, तब कहीं रामेश्वरको जान पड़ा कि मैं छूछा (इतिहास)। . रह गया । घरवालोंको खिलाना पहिनाना तक २ दिगम्बरजैनग्रन्थकर्ता और उनके ग्रन्थ । कठिन होगया। उनके घरमें एक दिन उन्हें, उनकी ३ भट्टारक-मीमांसा (आलोचनात्मक निबन्ध)। जबान स्त्री और तीन वर्षके बालक आनन्ददुलोर४ बनारसीदासजीका जीवनचरित। । सबहीको भूखे रहने पड़ा । बालक भोजनके ५ कर्नाटक-जैन-कवि (इतिहास)। लिए रोने लगा और बच्चेका रोना देखकर रामे६ भक्तामरस्तोत्रका पद्यानुवाद और अन्वयार्थ। श्वर शर्माकी स्त्री पार्वती भी रो पड़ी। रामेश्वर , ७ विषापहारका पद्यानुवाद । कुछ खानेके सामानका संग्रह करनेको घरसे बाहर ८ उपमितिभवप्रपंचाकथाके दो भाग ( संस्कृ• गये हुए थे; जब वे निष्फल चेष्टा करके खाली हाथ .. तसे अनुवादित)। लौट आये तो उन्होंने मा-बेटा दोनोंको बाहर ९ पुरुषार्थसिद्धुपायकी हिन्दीभाषाटीका।। द्वार पर खड़े प्रतीक्षा करतेहुए देखा । दरवाजेसे १० ज्ञानसूर्योदयनाटक ( संस्कृतसे अनु०)। कुछ ही दूर पर ब्राह्मण भोजनकी पत्तलें ११ प्राणप्रिय काव्य और (संस्कृतसे )। मिट्टीके जल पीनेके पात्रोंका ढेर लगा हुआ था, १२ सज्जनचित्तवल्लभ काव्य , १३ पुण्यास्रवकथाकोश जिनमें कि गाँवके कुत्ते भोजन खोज रहे थे। , १४ धर्ताख्यान ( गजरातीसे अनवादित )। । बालक बेचारा उधरहीको एकटक देख रहा १५ चरचाशतककी टीका। था। रामेश्वरको देखते ही बालक उनके पासको १६ जान स्टुआर्ट मिलका जीवनचरित । दौड़ आया और पूछने लगा “पिता, हमारे १७ प्रतिभा ( बंगलासे अनुवादित)। लिए क्या लाये ?” रामेश्वरकी आँखों में आँसू १० फूलोंका गुच्छा " छलछला आये; पार्वतीके नेत्रोंमें भी पानी भर १९ दियातले अँधेरा ( मराठीसे)। . आया। उसने जब बालकके मुखको देखा तो आँसू बह निकले-इतनेहीमें जब फिर उसने आँख For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ उठाई तो पतिसे दृष्टि मिल गई जिससे दोनों कुछ पैसे चुराये । पिटारेमें तीन रुपये और रोपड़े । बालकने दो एक बार इनकी ओर देखा आठ आनेके पैसे पड़े थे। रामेश्वरने केवल आठ और फिर अन्तमें वह भी रोने लगा। इस प्रकार आने पैसे ही निकाले । घरवालोंमेंसे किसीको भी तोनों बड़ी देरतक रोते रहे । बालक रोते रोते चेत नहीं हुआ। सो गया। ___ चलते चलते रामेश्वरने सोचा कि पैसे तो संध्या होगई, रामेश्वर उठ खड़े हुए और मिले; किन्तु चावल और नोन कहाँ मिलेगा ? अपने जीमें दृढ प्रतिज्ञा करके चल पड़े । आखिर इस सामानकी खोजमें वे एक दूसरे एक जगह पर उन्होंने देखा कि नये निकले हुए गाँवको गये। आसपासके पाँच सात गाँवोंमेंसे केवल चन्द्रमाके उजालेमें एक बावड़ीके किनारे कई एक उसी गाँवमें एक दूकान थी । वहाँ पहुँचकर कम अवस्थावाले बाबू लोग बालकाढ़े और कोट रामेश्वरने दूकानदारको कई बार पुकारा; पर पहने हुए चाँदनीसे चमकते हुए स्वच्छ जलमें दूकानदार कहीं गया था, इसलिए कोई उत्तर पैसे फेंक फेंककर 'छन मन' खेल रहे हैं। न मिला । हारकर उन्होंने दूकानका दरवाजा उनके सामने हाथ जोड़ कर रुद्धकंठ रामेश्वरने खोला और भीतर पहुँचकर वहाँसे रातके गुजारे चार पैसेकी भिक्षा माँगी । इसपर उन्होंने कहा- भरके लिए दाल चावल और नोनको निकाला । " हम अपने पैसे तुझे क्यों दे ?" रामेश्वरने सब चीजोंको कपड़ेके छोरमें बाँधकर उचित कातर होकर कहा “ मैं पैसोंके बिना अपने कुटु- मूल्य वहाँ रख दिया और इसके बाद उन्होंने म्बके सहित भूखों मरा जाता हूँ, और आप वहाँसे प्रस्थान किया। रास्तेभर उनका जी पैसोंको जलमें फेंक रहे हैं।" बाबुओंने उत्तर डरता रहा, किन्तु कोई विपत्ति नहीं आई और दिया, “ हम अपने पैसोंको चाहे जलमें फेंकें वे सकुशल घर जा पहुंचे। पार्वर्ताने भोजन बनाया या कुछ करें, तू कौन है साले !” यह कह और रामेश्वर और लड़केने खाया। पार्वती चुकने पर एक आदमी घूसा तानकर रामेश्वरको खा लेती तो दूसरे दिनको कुछ भी नहीं बचता. मारनेको चला । तीर लगे हुए सिंहकी भाँति इससे उसने उपवास किया और अपने हिस्सेका रामेश्वर वहाँसे हट गये और कुछ दूर जाकर भोजन स्वामीसे छिपाकर एक हाँडीमें बालजीमें सोचने लगे कि मैं तो इन बन्दरोंको एक कके लिए दूसरे दिनको रख दिया । रामेश्वरको एक थप्पड़ जमा देकर इनके पैसे छीन ले सकता इसका पता नहीं लगा। था, तब मैंने छीन ही क्यों न लिये ! क्षुधाकी दूसरे दिन पार्वतीसे सलाह करके रामेश्वरने ज्वालासे उनका धर्म और अधर्मका ज्ञान लोप अपना गाँव छोड़ दिया और परिवारसहित होने लगा था। वहाँसे वे एक और गाँवमें गये वे भातीपुर गाँवको चले गये । यह गाँव उनके और एक मकानके पास जाकर खड़े हो जन्मस्थानसे दो मंजिल दूर था । वहाँ गये । घरमें सब सोये हुए जान पड़े । पर पहिचाने जानेकी कोई संभावना नहीं थी,इतनेहीमें आनन्ददुलारेका भूखा और कातर इसलिए उन्होंने सोचा कि मैं अपनेको क्षत्रिय नन्हासा मुख स्मरण आगया और पार्वतीके बतलाकर और लोगोंकी भाँति शारीरिक परिरोनेकी याद आगई, जिसस उन्होंने विचारा कि श्रम करके घरवालोंका पेट पाल सकूँगा । पार्वती' अकेले धर्मको लेकर क्या चादूँगा ! वे उसी समय बोली कि मैं किसी भले घरानेमें दासीवृत्ति घरमें घुस गये और वहाँ एक पिटारेमेंसे उन्होंने कर लूंगी। यह सलाह ठहरा कर उन्होंने अपने For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १] भाग्यचका ही व्यर्थ है।" घरको बेचनसे पायेहुए धनद्वारा एक कुटी नहीं भेजा जायगा, तो जमींदारको फिर दण्डबनवाली और उसमें रहने लगे। किन्तु अपरि- दिया जायगा, या उनकी जमींदारी निकल जाचित होने के कारण उनके भाग्यसे कोई नौकरी यगी । इस लिए इसकी बड़ी आवश्यकता है कि नहीं मिली। वे जहाँ जाते थे वहीं जमानत किसी आसामीको तैयार करके चालान कर दिया माँगी जाती थी । अजान पुरुषकी जमानत जाय । जो कोई तैयार होगा, उसको भी कुछ कौन दे ? अपने घरको बेचकर जो दाम दमड़े अधिक भयकी बात नहीं है । क्योंकि चोरी लाये थे वे प्रायः सब पूरे हो चुके थे । ऐसी केवल सामान्य वर्तनोंकी है जिसके लिए ज्यादासे दशामें रामेश्वरने एक दिन गाँवके नायबसे ज्यादा महीने भर तककी जेल हो सकती है, अपनी दीनताका हाल कहकर एक सिपहगीरीकी अधिककी नहीं। किसी रोजगारके लिए विनौकरीकी प्रार्थना की । नायब बोला, “ अभी देश जानेहीमें कभी कभी महीने भरसे अधिक कोई जगह तो खाली नहीं हैकिन्तु इस समय समय लग जाता है । यह भी वैसा ही हिसाब है पैसा कमानेकी एक और सूरत है। कल तुम्हारी और फिर विदेश जाकर एक महीनेमें जितना स्त्री मेरे घर गई थी। मैंने उसे भी वह बात बत- धन कमाया जा सकता है, इसमें उससे दसगुनेका लाई थी; किन्तु उसको सुनते ही वह बिगड़ उठी। मीजान है । जमींदारने कहा है कि जो आसामी शायद तुम भी बिगड़ उठोगे और वह काम जानेको तैयार होगा, उसको पचास रुपये मिलेंगे। है भी कठिन । इसलिए तुमको उसका बतलाना इस लिए यह भी धन कमानेकी एक राह है। इसके सिवाय जब तुम जेलसे छूट आओगे, तब __ रामेश्वरने कहा-“पेटकी आगके सामने मेरे तुम्हें कोई सरकारी नौकरी भी दिला दी लिए सब कुछ साध्य है। स्त्रियोंकी समझमें तो जायगी।" सबही कार्य बे-ठीक अँचते हैं । आप मुझसे नायबकी इस बातको सुनते ही रामेश्वर कहें तो मैं उस पर विचार करूँ।" अपनी पहली चोरीको याद करके पीला होगया नायबने कहा, "अच्छा, सुनो। कोई दो महीने और सोचने लगा कि शायद ईश्वरने मेरे भाग्यमें हुए इस गाँवमें एक स्त्री मार डाली गई थी; किन्तु जेलखाना ही लिख रक्खा है; नहीं तो मैं उस इस बातका पता अभी तक नहीं चला कि दिन वे थोड़ेसे पैसे चुराता ही क्यों ? जब उस हत्या करनेवाला कौन है। दारोगाने बड़ी तहकी- पापका प्रायश्चित्त अवश्य ही करना पड़ेगा, कात की और मैंने भी चेष्टा की, किन्तु कुछ भी तब दो दिनके आगे पीछेका विचार क्या सफलता नहीं हुई। पता न लग सकनेके कारण किया जाय ! स्वयं ही जेल जाकर उस पापका माजिस्ट्रेट साहबने रुष्ट होकर हमारी लापरवाही प्रायश्चित्त क्यों न कर डालूं? मैं जब अपने आप समझी और जमींदारको दण्ड दिया। उसके बाद ही प्रायश्चित्त कर लूँगा तब क्या भगवान् प्रसन्न अब इस गावमें एक चोरी होगई है । पर उसका नहीं होंगे ? और यह जो अन्नका दारिद्र्य सिर भी अभीतक कुछ भेद नहीं खुला है। दारोगाको पर चढ़ा हुआ है इसको हटानेका और कोई एक मनुष्य पर सन्देह हुआ था; किन्तु वह भाग दूसरा उपाय भी तो नहीं है। गया । उसका न अबतक कुछ पता लगा है रामेश्वरने कहा, "मैं राजी हूँ, तुम मेरे पचास और न शीघ्र लगनेकी आशा ही है। यदि शीघ्र ही रुपये मुझको दे दो।" नायब उसी समय रुपये किसीको अपराधी ठहराकर मजिस्ट्रेटके पास देकर बोला- “ एक बात यह भी है कि जब For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जिलेमें पहुँचोगे तब तुमको मजिस्ट्रेटके सामने वोरी स्वीकार करनी होगी । यदि तुम अपराध अस्वीकार करोगे तो मुझको तुम्हारे विरुद्ध झूठा प्रमाण तैयार करके भेजना होगा ।" रामेश्वर स्वीकारता सूचक गर्दन हिलाकर वहाँसे चल - दिया । घर जाकर उसने वे पचास रुपये गिनकर अपनी स्त्रीके हाथमें रख दिये । हाथमें रुपये लेकर पार्वती बोली कि ये रुपये आपने कहाँसे पाये ? रामेश्वरने सब हाल विस्तारपूर्वक कह डाला । इस बात को सुनते ही पार्वतीने रुपयोंको दूर फेंक कर स्वामीके दोनों पैर पकड़ लिये और आँखों में आँसू भरकर ऊपरको मुख उठाकर कहना आरंभ किया - " ऐसा काम कभी मत करना, इन सत्यानाशी रुपयोंके लिए अपने आपको क्यों कैदी बन रहे हो? मैं भीख माँगकर खिलाऊँगी । देखो, ऐसा मत करो। मुझे विदेशमें अकेली छोड़कर न चले जाना । यदि तुम्हें मेरा ख्याल न हो तो न सही, टुक इस बालकके मुखको तो देखो; इस बेचारेका और कौन है ? यदि इसे कुछ हो गया तो मैं कहाँ जाऊँगी और किसके द्वार पर जाकर खड़ी होऊँगी ?” यह कह कर उसने अपने पतिकी छातीमें मुख छुपा लिया और रोना शुरू कर दिया । उस समय लड़का बाहर खेल रहा था; उसने माँकी रोनेकी आवाज सुनी। सुनते ही दौड़ा आया और उसने घबड़ाकर अपने धूल भरे हाथोंको शरीरसे पोंछते पोंछते दोनोंकी ओर देखा अंतमें बोला कि “पिताजी, क्या तुमने अम्माको मारा है ?” यह कहकर उसने माँकी गोद में चढ़ कर उसके मुखका बार बार चुंबन किया और कहा- " माँ तू मत रो, मैं बापको मारूँगा । " । खूब इससे पार्वती सब भूल गई, गोद में उठा लिया और कहा उसने 66 जैनहितैषी - [ भाग १३ इनको मार ।" बालक उतर पड़ा और अपने छोटेसे हाथोंको बापकी पीठ पर यह कह कर मारने लगा कि 'देख यह मारा' और फिर उसी समय गला पकड़कर उनका मुखचुम्बन करने लगा । पार्वती सिखाने लगी ' फिर मार' और बालक उसी समय " फिर मारता हूँ” कहकर अपने अमृतमय हाथोंसे पिताकी पीठमें फिर मारने लगा। इस पवित्र सुखमें न जाने कितना समय बीत गया । रामेश्वर रुपयों को इकट्टा करके खाटपर रख कर चले गये और पार्वती बालकके साथमें अपना जी बहलाती रही ! 66 उधर रामेश्वरने नायबके पास जाकर कहा'नायब साहब, मेरा चालान करनेमें अब अधिक देर मत करो । देर होनेसे जाने में बाधा आ पड़ेगी । यदि एक बार स्त्रीकी कात - रता और देखना पड़ेगी तो मेरी समझ जाती रहेगी, इस लिए जो कुछ भी करना हो, कर डालो; मैं अभीतक पक्का बना हुआ हूँ।" नायबने घबड़ाकर दारोगा के पास संवाद भेजा । थोड़ी ही देरमें सिपाहियोंने आकर रामेश्वरको घेर लिया और वे उनको जिलेकी ओर ले चले। अब रामेश्वरको स्मरण आया कि ओह ! मैं जेलखानेको जा रहा हूँ ! उस जेलखानेको ! - जहाँ ब्राह्मणों और स्त्रियोंके हत्यारे और पापी लोग रक्खे जाते हैं; जहाँ डकैत, राहजन और ठग आपसमें बन्धु बनते हैं - उसी जेलको ! जहाँ कि मनुष्य जानवर बनाकर कोल्हूसे बाँध दिये जाते हैं- उसी जेलखानेको ! जहाँ कि बिना जाने पहिचाने ब्राह्मण और मुसल्मान दोनों एक पंक्तिमें खाते हैं; और भंगी, डोम एक ही खाट पर सोते हैं उसी जेलको ! जहाँ न्याय नहीं होता है बल्कि बेतोंसे ठोका पीटी ही हुआ करती है-उसी जेलको ! किस अपराधमें ? अपराध है तो केवल अच्छा जुटता है - स्त्री और बच्चेको For Personal & Private Use Only यह है कि भोजन नहीं ▾ पुत्रका बिना अन्न भूखों Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क] भाग्यचक। मरना आँखों · नहीं देखा जाता है-बस यही जब दासी यह बातें करके चली गई तब अपराध है। दारोगाने कहा, "जो कुछ सुनने में आया है उससे इतनेहीमें आकाशको चीरती हुई पुष्पाच्छादित समझ पड़ता है कि आसामी भाग जानेकी ताकमें है वृक्षों, लताओं, पत्रों और बस्तीवाले स्थानोंको और यदि भाग नहीं पाया तो कमसे कम मजिकॅपाती हुई एक तीव्र, करुणाजनक, और मर्मभेदी स्ट्रेटके सामने इकरार तो नहीं करेगा।" नायरोनेकी आवाज रामेश्वरके कानोंमें आकर पड़ी। बने कहा, “ तब क्या करना चाहिए ?" दारोघूमकर देखने पर हाँफती हुई और दौड़ती आती हुई गा बोला, “यदि आसामी अपराध स्वीकार नहीं पार्वती दिखाई पड़ी। वह रोकर यह कह रही थी- करेगा तो कोई प्रमाण देना पड़ेगा। आसामीके "जरा ठहरो,तुमको देख तो लँ।” अब रामेश्वरसे घरसे चोरीका माल निकालना पड़ेगा और इस संभला नहीं गया; वह घमकर खड़ा होगया और कामको करनेके लिए माल वहाँ पहलेसे ही रख दौड़कर ब्राह्मणी के पास पहुँचनेकी चेष्टा करने आना होगा। तुम इसी समय एक लोटा लेजाकर लगा, पर सिपाहियोंने उसको जाने नहीं दिया और उसकी स्त्रीको राजी करके स्वयं रख आओ।" धक्का देकर वे उसे आगेको ले चले। इतनेहीमें नायबने कहा, “अब तो रात होगई, कल सबेरे ही देखते देखते गाँवके कछ लोगोंने आकर पार्वती- इस कार्यको कर डालूंगा।” दारोगाने कहा, को पकड़ लिया। पार्वती धूलमें गिरकर चीत्कार “ आलस्य करनेमें लाभ नहीं है । यदि सबेरे करने लगी। उसके बाल धलमें मैले होगये । अब लोग देख लेंगे तो सब चौपट होजायगा। इस रामेश्वरको आँखोंसे यह कुछ दीख नहीं पड रहा लिए देर न करो, जाओ।" नायबको हार मान था, क्योंकि वह बराबर दूर होता जा रहा था। कर जाना हा पड़ा। केवल बीच बीचमें पत्नीके रोनेकी ध्वनि कानमें रामेश्वरके भाग्यकी जंजीरने उसे सब ओरसे आपडती थी जिससे कि उसको समद्र चढता बाँध डाला था। अँधेरी रातमें रामेश्वर सिपाहियोंके हुआ और संसार रोता हुआ जान पड़ता था। हाथसे छूटकर निकल भागा। कहीं कोई पहि चान न ले, इस भयसे वह छिपकर मकानके पास. दूसरा परिच्छेद । के एक पेड़की आड़में खड़ा हो गया और चारों तालिसके सिपाहियोंके रामेश्वरकोलेजाने बाद ओर देखने लगा। इसी समय पूर्वकी ओरसे ॐदारोगा और नायब दोनों भोजन करके कोई मनुष्य आया। रामेश्वरने उसे सिरसे पैर एक जगह बैठे और बातचीत करने लगे। इतनेही- तक देखकर पहचान लिया कि यह नायब है। में एक दासीने आकर संवाद दिया कि रामेश्वर- एकबार उसके जीमें आया कि दौड़कर इसके की स्त्री कुछ कुछ शान्त हुई है और जान पड़ता पैर पकड़ लूँ और रुपये फेर ढूँ। स्त्रीको सुख देनेहै कि अब वह पतिवियोगकी यन्त्रणाको सह हीके लिए मैंने यह काम किया था और यदि लेगी। वह बालकको सुलाकर लेट रही है- उसीको कष्ट हुआ तो फिर रुपये किस कामके ! धीरे धीरे रोती भी जाती है। वह यह सोचता ही रहा कि नायब उसके मकान नायबने कहा “आज उसके पास जिस स्त्री- पर जाकर खड़ा हो गया। उस समय भी पार्वती के रखनेकी बात हुई थी वह क्या अब भी नहीं बहुत धीरे धीरे रो रही थी। उस घरमें जो पहुँची है ?" दासीने उत्तर दिया, "वह वहाँ ही स्त्रियाँ थीं, उन्होंने कहा- 'अजी ! सो जाओ, है और मैं भी वहीं थी; अभी वहींसे आई हूँ।" नहीं तो बीमार हो जाओगी ।' यह सुनकर For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जैनहितैषी - पार्वती और भी अधिक रोने लगी । नायबने बाहर से रोनेके शब्दको सुनकर कहा - " ब्राह्मणी बाई, जरा किवाड़ खोल दो । मैं तुम्हारे पति की खबर लेकर आया हूँ । ” जहाँपर पेड़की आड़ में छिपे हुए रामेश्वर खड़े थे वहाँतक इन बातोंका कोई शब्द नहीं पहुँचता था । पार्वती के धीरे 'धीरे रोने की आवाज भी वहाँतक नहीं जाती थी । नायबकी बात सुनते ही भलाई बुराईका विचार किये विना ही पार्वतीने मकानका द्वार खोल दिया । नायबने भीतर जाकर कहा कि तुमसे बहुतसी बातें कहना है, इसलिए पहले द्वार बंद कर लो तो अच्छा है ; नहीं तो कोई सुन लेगा । रामेश्वरने दूरसे ही खड़े खड़े देखा कि नायबने मकानके द्वारपर पहुँचकर किबाड़ खटखटाये और पार्वतीको अस्फुट स्वरमें पुकार कर दो एक बातें कहीं । इससे उसका स्वास जल्दी जल्दी चलने लगा । आगे उसने देखा कि पार्वतीने शीघ्र ही कबाड़ खोल दिये और नायबके घर में धँसते ही द्वार फिर बन्द हो गया । रामेश्वरने सोचा कि अब मुझे और क्या समझना बाकी रह गया ? नायबने इसीके लिए कौशल से मुझको दारोगा के हाथमें फँसाया था । अच्छा इसका बदला लूँगा यह कहकर वह मकानके द्वारपर आकर खड़ा हो गया । वहाँसे उन दोनोंकी बातचीत सुन पड़ती थी। पहले तो उसने सोचा कि सुनना चाहिए क्या बातें हो रही हैं; किन्तु फिर तत्क्षण ही अपने ऊपर क्रुद्ध होकर किबाड़ोंमें लात मारी । घर के भीतर निस्तब्धता हो गई; तब मर्मवेदना से रुके हुए क़ण्ठसे उसने कहा -, " जिसके लिए तू रो रही थी, वह आया था; किन्तु तेरा यार घरमें है इसलिए अब वह जाता है । " पार्वती पतिकी आवाज समझकर आनन्दसे फूली नहीं समाई, पागलसी होकर बाहर निकल आई और पुकारने लगी। पर रामेश्वरने उसपर ध्यान नहीं दिया, वह बिना कुछ कहे ही चल दिया । द्वार । [ भाग १३ खोलने पर जब पार्वतीने पतिको देखा और पुकारनेका उत्तर न पाया, तब वह रोने लगी । रामेश्वर सोचने लगा कि मैं अब न किसी औरको कष्ट दूँगा और न स्वयं ही कष्ट उठाऊँगा - इस घृणित पृथिवीको ही त्याग दूँगा । यही सिद्धान्त करके वह चल पड़ा । दोपहर जो रोना मर्मभेदीसा जान पड़ा था, वही अब पैशाचिक समझ पड़ने लगा । 66 कुछ दूर जानेपर रामेश्वरने देखा कि सिपाही लौटे हुए आरहे हैं । उनके पास जाकर उसने कहा - " लो, हमको बाँध लो, हम लौटकर आ गये।” रामेश्वर की सूरत देखकर सब कोई डरे, उनका साहस न हुआ कि हम इसे बाँध लें । रामेश्वरने कहा कि “ घरके उन लोगोंको देखनेकी बड़ी इच्छा हुई थी, इसी से चला गया था । अब चलो, डरने की कोई बात नहीं है । मैंने अपने आपही अपने को पकड़ावाया था, तभी तो तुम्हारे दारोगा मेरा चालान कर सके थे; नहीं तो उनकी कुछ भी नहीं चलती । मैंने उस दिन खून किया था, किन्तु किसीने भी मुझको इसलिए पकड़ने की चेष्टा नहीं की कि मैं पकड़ा नहीं जा सकूँगा । " "" यह सुनकर जमादारने बड़े आग्रहके साथ पूछा “कि क्या उस दिनका खून तुमहीने किया था ? " रामेश्वरने उत्तर दिया, “हाँ, वह खून मेरा ही किया हुआ था । जमादारने फिर पूछा कि “ तुम क्या अदालत में उसको स्वीकार कर सकते हो ? " रामेश्वरने कहा, हाँ, अवश्य स्वीकार कर सकता हूँ; मुझे डर ही किसका है ।” इसके बाद उससे किसीने कुछ भी पूछताछ नहीं की; उसे लेकर सब चुपचाप चल दिये । 66 दूसरे दिन अपराधी मजिस्ट्रेट के सामने ले जाकर खड़ा किया गया । उसे गौरसे देख कर मजिस्ट्रेट साहबने पूछा " क्या तुम उस खूनके मामलेके इकरारी आसामी हो ? " " हाँ " कह For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ] कर रामेश्वरने सलाम किया । उस समय उसकी मानसिक पीड़ा बहुत ही अधिक हो गई थी । उसने अपने लिये इसी कारणसे हत्यारा बनाया था कि जैसे बने तैसे इस जीवनको त्याग देना ही भला है । जमादार ने इस सम्बन्धका आवश्यक प्रमाण जुटा दिया और रामेश्वर दौरा सुपुर्द कर दिया गया । वहाँ उसको जन्म भरके लिए काले पानीका दण्ड दिया गया । निजामत अदालत ने इस दंडकी आज्ञाको कम कर दिया । उन दिनों में पिनल कोड ( दंडसंग्रह ) नहीं बना था । रामेश्वर बीस वर्षको काले पानी भेज दिया गया | भाग्यचक्र । उधर पार्वती अपने पतिके शब्दको एक बार सुनने के पीछे फिर उत्तर न पाकर पगलीसी होकर उनको ढूँढने के लिए वन वन भटकती फिरने लगी । उसको उसके पति कहीं भी नहीं मिले। वह कितनी ही रोई किन्तु उसको किसीने भी नहीं चुपाया । अन्तमें पद्मानदीकी धारमें खड़ी होकर वह कुछ सोचने लगी । सोचते ही सोचते एक साथ उसको ध्यान आया कि जब पति गये थे, तब उनकी बातमें एक शब्द था - एक बहुत ही निष्ठुर और भयंकर वाक्य था । उस समय आनन्दमें पार्वतीने कुछ कान नहीं दिया था, उस समय उस बातका अर्थ वह समझ पाई थी। अब उसे उस बातका अर्थ समझमें आया- अब समझ में आया कि वे क्यों चले गये ! अब उसे सूझा कि मेरा भाग्य फूट गया- अब संसारमें पतिका साक्षात् नहीं होगा । उस समय उसको आकाश, नक्षत्र और जल सर्वत्र अँधेरा सुझने लगा । नदीके जलमें एक शब्द हुआ, जलतरंग उठी और फिर जल मिल गया, अंतमें फिर स्तब्धता होगई । पार्वती जहाँ खड़ी थी वहाँ नहीं रही; वह पानीमें डूब गई । नहीं ४१ तृतीय परिच्छेद । इस घोर नाद करनेवाले समुद्रकी वज्र जैसी भारी लहरोंको सुनते सुनते बीस वर्ष ! रेतेसे पूर्ण किनारे के पास के नारियल के वृक्षों की छोकरते बीस वर्ष ! इस समुद्र- प्रान्तके फेनके ऊपर के टीसी छाया में कुदाल हाथमें लिये हुए विश्राम करते धुएँमें आनन्ददुलारे के मुस्कुराते हुए मुखको खोजते हुए बीस वर्ष ! ओफ ! अपने आप कालेपानी जानेवाले रामेश्वरने सोचा था कि मैं मर जाऊँगा, किन्तु वह मर नहीं पाया उसे बीस वर्षकी यन्त्रणा भोगनेको जाना पड़ा । हम लोग मनमें विचारते हैं कि यह करेंगे और वह करेंगे; किन्तु एक और कोई है जो वैसा होने नहीं देता। हमलोगों का काम दिखाई पड़ता है और उसका काम अदृष्ट है । जिस समय विश्वासघातिनी पार्वती की बातको मनमें लाकर रामेश्वरने मरना चाहा था, उस समय उसे आनन्ददुलारेकी याद नहीं आई थी; किन्तु इस देशसे निकाले गये लोगों के रहने के स्थान में आनन्ददुलारेका स्वाभाविक और सरल मुस्कुराहटवाला चेहरा, उसकी तोतली बातें और तरह तरहके खेल दिनरात याद आने लगे । जब समुद्र धीरे धीरे शब्द करता था तब रामेश्वर सोचता था कि आनन्ददुलारे बोल रहा है। जब दूरपर अच्छी तरह न दिखाई पड़नेवाली कोई लहर उठ कर नाचती थी, तब रामेश्वर समझता था कि आनन्ददुलारे नाचता है । रामेश्वरने तो समझा था कि बीसवर्ष नहीं जीऊँगा; किन्तु हुआ यह कि वह जीता रहा और अवधि पूरी होनेपर स्वदेशको लौट आया । भातीपुर लौटने पर उसने देखा कि न वह झोपड़ी है और न उसकी स्त्री ही है । आनन्ददुलारेको भी कोई नहीं जानता- कोई भी उनका पता नहीं बतला सकता । रामेश्वर ! ऐं, रामेश्वर कौन ? रामेश्वरको कोई नहीं पहचानता । For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैनहितैषी [भाग १३ रामेश्वर अपने लड़के के लिए कितने ही दिनोंतक रामेश्वरसे यह सहा नहीं गया। उसने वेश्याकी पागलोंके सदृश घूमता फिरता रहा । एक दिन छातीमें जोरसे एक लात मारी और अपनी वह बाजारके रास्तेमें जा बैठा और सोचने लगा, रास्ता धर ली। इसका उसको कुछ भी पता नहीं संभव है कि आज मेरा लड़का हाट करनेको था कि मैं कहाँ जा रहा हूँ। कालेपानीमें वह निकल आवे । युवावस्थाके जितने पथिक केवल अपने लड़केके मुखहीका ध्यान करता उधरसे निकलते थे रामेश्वर उन सबको रहता था और बैठे बैठे सोचा करता था अतृप्त दृष्टिसे देखता जाता था। अचानक एक कि उस मुखको अब कब देखूगा। बस यह स्त्रीको देखते ही रामेश्वर घबड़ा गया। देखने में आशा ही उसको संसारसे जोड़नेवाली एक गाँठ वह स्त्री वेश्या जान पड़ती थी । उसके आका- थी। अब यह गाँठ भी छूट गई। रको देखकर रामेश्वरने समझा, पार्वती है । आगे उसको राहमें एक स्त्री मिली जो कि उस समय पार्वती २० वर्षकी थी, रामेश्वरको एक सुन्दर बच्चेको गोदमें लिये थी । रामेश्वरने गये बीस वर्ष हो गये, इससे अब उसके ४० उसके गालपर एक जोरका तमाचा मारा और वर्षकी अवस्था होनेके दिन हैं-यह स्त्री भी इतनी बच्चेको छीनकर पृथ्वी पर खड़ा कर दिया। ही अवस्था की है। जिसको बीस वर्षकी अवस्था स्त्री बड़े जोरसे रोने लगी । रामेश्वरने कहा हो जानेके पीछे फिर न देखा हो, वह चालीस "तू राक्षसी जातिकी है; बच्चेको मार डालेगी। वर्षकी होनेपर सहजमें नहीं पहचानी जा सकती। इसे छोड़ दे।” जिस पार्वतीको छोड़कर रामेश्वर गया था, यह रामेश्वरने गली गली और बन बन भटकते वह पार्वती नहीं है; किन्तु रामेश्वरने सोचा कि यह हुए सारा दिन बिता दिया। जब रात हुई तो जो आकृतिका भेद है, सो अवस्थाके कारणसे हो उसे बड़ी भूख लगी। सामने एक दूकान थी मया है । वेश्या लाल वस्त्र पहने और गलेमें बनैले और दूकानवाला टट्टी दे कर सो रहा था। रामेश्वर सूखे फूलोंकी माला डाले हुए, तमाखू खाती हुई, टट्टी तोड़कर घुस पड़ा और सामने जो कुछ मिला एक मुसल्मानसे बातें कर रही थी। रामेश्वरने खाने लगा। दूकानदारने उठकर गाली देना आरंभ उसके पास जाकर गंभीर स्वरसे पूछा-" मेरा किया। इस पर रामेश्वरने उसे गला पकड़कर लड़का कहाँ है ? " वेश्याने आकाशकी ओर दूकानके बाहर निकाल दिया । दूकानदार दौड़मुख करके कहा,-" तेरा लड़का कौन ?" ता हुआ गया और चौकीसे एक बरकंदाजको रामेश्वर-आनन्ददुलारे ! बुला लाया। रामेश्वरने बरकंदाजकी लाठी छीन कर उसीके सिरमें जमाई जिससे कि उसका सिर वेश्या-तू मर क्यों नहीं जाता ? क्या फट गया ! शीघ्र ही यह खबर फैल गई कि एक मरनेके लिए रस्सी नहीं मिलती ? प्रसिद्ध डाँकू कालेपानीसे लौट कर देशको लूटे रामेश्वर-रस्सी शीघ्र मिल जायगी। इस डालता है और जिसे पाता ह उसीको मारता है। समय तू यह तो बतला दे कि आनन्ददुलारेको पुलिस चौकन्नी होगई और मजिष्ट्रेटने उसके कहाँ भेज आई है ? नामका दोसौ रुपये इनामकी गिरफ्तारीका इश्तवेश्या-चूल्हेमें भेज आई हूँ । उसको नदीके हार निकाल दिया । रामेश्वरने कुछ दिनोंतक घाट पर पहुँचा आई हूँ। उसके चेचक निकली तो इसी तरह लूट मार करते हुए छिपछिपे दिन थी। वह गया, अब तू भी जा। बिताये और लोगोंने उसका पीछा करके उसे For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १] भाग्यचक। ४३ जंगली पशुओंकी भाँति इधर उधर घुमाया। आधीरातका समय था। नदीके जलपर चन्द्रमाकी इसके बाद जितने भी बदमाश और डाँकू थे वे किरणें काँप रही थीं। नदीके किनारे किनारे सब उसका प्रताप सुनकर उसके पास सब ओर- एक पाल्की धीरे धीरे जा रही थी । पाल्ककि से आकर इकडे होने लगे। अब रामेश्वरने भीतर एक बाबूं लेटे हुए थे। घरवाली, लड़की, डकैतोंका सरदार बनकर मनुष्यजाति पर घोर ईंटोंका पजाबा, नया बाग, नये बागके केवला अत्याचार करना आरंभ कर दिया। उसे कभी कोई मालीकी दुरंगी दाढ़ी और चपटी नाक इस पकड़ नहीं सका । केवल एक बार वह पकडा तरहकी अनेक बातें थीं, जिनका बाबू. विचार जाता, पर बच गया । एक दिन वह अपने कर रहे थे । उनकी विचारपरम्परा चल ही डाँकुओंके दलके साथ बहुत दूर पर डाँका रही थी कि इतनेहीमें एकाएक पाल्की पर एक डालने गया था। जहाँ डाँका डाला गया, वहाँके जोरका धक्का लगा और वह कुछ ही दूर लोग सचेत और बलवान थे। वे डाँकुओंसे भिड़ चल कर पृथ्वीपर आरही । बाबूने पाल्कीसे पड़े। रामेश्वरको चोट आगई, वह बेहोश हो गया। मुँह बाहर निकाला, यह देखते ही वे काँप उठेकि उसके संगियोंने उसको वहाँसे उठा ले आकर एक चन्द्रमाकी किरणोंसे पचीस तीस तलवारें चमक दूसरे गाँवके पास वनमें छोड़ दिया। दूसरे दिन रही हैं और जिन लोगोंके हाथों में वे तलवारें हैं, सबेरे गाँवके लोगोंने उसे देखा जिससे कि वे वे सब चुपचाप पैर रखतेहुए आगेको बढ़ते जीमें डरे और पुलिसको सूचना देने जाने लगे। आते हैं। बाबू सब समझ गये। डाँकुओंने इतनेहीमें पासके नगरके एक डाक्टर उस पाल्कीके पास आकर बाबूको बाहर निकाल गाँवके किसी धनी मनुष्यकी चिकित्सा करनेके लिया। इतनेहीमें एक डॉकूने बड़े जोरसे घुमाकर लिए वहाँ आगये। उन्होंने कहा,-" यह शीघ्र एक चाबुक चलाया, पर रामेश्वरने हाथ फैलाकर ही मरजानेवाला है-मैं चिकित्सा करके उस कोड़ेको बीचहीमें पकड़ लिया और बाबूको इसको बचा लूंगा । पर यदि तुम इसको पुलिसमें बचा लिया। उसने सारे डाँकुओंसे कहा,-"तुम लेजाओगे, तो यह मरजायगा-इसलिए पुलिसको लोग जरा ठहरो, जान पड़ता है कि इनको मैंने अच्छे होनेके बाद सूचना देना।" कहीं देखा है, इन्हें अच्छी तरह देख लूं।" · · लोगोंने डाक्टरकी बात मान ली । डाक्टर जिसने चाबुक चलाया था, उसने खिसियाकर चिकित्सा करने लगे और उसके प्राण बच गये। कहा,-" तुमने तो सबहीको देखा है ! वह अच्छा हो ही रहा था, उठनेकी शक्ति ही सब तुम्हारे कुटुम्बी और नातेदार ही तो हैं । आ पाई थी कि पुलिसके डरसे डाक्टरके यहाँ- अच्छा तुम अलग हो जाओ, हम लोग बाबूको से भाग गया। पहचाने लेते हैं।" इस पर रामेश्वरने दर्पसे तल वार घुमाकर कहा-"या तो सब दूर हो जाओ, चतुर्थ परिच्छेद। नहीं तो जिसमें साहस हो वह सामने हथियार मूसारके डरसे देश काँपने लगा; किन्तु लेकर आ जावे ।" यह बात सुनते ही सब हट 'वह आनन्ददुलारेके शोकको नहीं भुला कर खड़े हो गये। इसके बाद रामेश्वरने बाबूसे पूछा स। जिस घटनाका हाल ऊपर लिखा गया है कि "क्या आप डाक्टर हैं ?" बाबूने उत्तर दिया आके चार वर्ष पीछे रामू या रामेश्वर एक दिन कि “ हाँ , मैं डाक्टर हूँ, मुझे बचा देओ, मैं । अपनी डकैती सेनाके साथ चला जा रहा था। तुम्हारा जन्मभर ऋणी रहूँगा।" रामेश्वरने कहा कि For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जैनहितैषी भाग १३ "डरनेकी कोई बात नहीं है, मैं ही आपका ऋणी हरज नहीं है ।" यह कहकर उसने अपना पुराना हूँ।" बाबूसे यह कहकर उसने और डाँकुओंको वृत्तान्त कहना आरंभ किया। अन्तमें आँसुओंबुलाकर उनसे कुछ कह दिया और बाबूको को पोंछतेहुए वह डाक्टर साहबसे कहने लगा, लूटनेमें उसकी सलाह न देखकर अन्य डाँकू जहाँ- “आज यदि कहीं मेरा पुत्र जीता होता और मुझे को जानेवाले थे वहींको चल दिये। देखनेको मिल जाता तो मैं सब कुछ पा लेता।" ___ डाक्टर बाबूने डॉकूसे पूछा कि तुमने मुझे से यह कहकर वह स्तब्ध हो रहा, उसकी आँखोंसे कैसे पहचाना और किस लिए मेरी रक्षा की. आसुआकी धारा बहने लगी । डाक्टरसाहब यह जाननेके लिए मैं बहुत ही उत्कण्ठित हो रहा भी उसके साथ रोने लगे । कुछ देर पीछे आँसू हूँ। डाँकूने कहा कि "बहुत दिन हुए तब मैं घायल पोंछकर डाक्टर बाबू कहने लगे, “मैं उस भाती होकर एक जंगलमें पड़ा था। वहाँसे आपने मुझे ग्रामको जानता हूँ। मैं वहाँ कुछ दिनोंके लिए उठवा मँगाया था और मेरे प्राण बचाये थे। मुझे चिकित्सा करनेको गया था । आपकी पहलेकी आपने गाँववालोंके हाथसे बचाया था और पनि सब बात मैंने वहाँ नायब तथा और और लोगोंहाथ नहीं पड़ने दिया था। मैं सदाके लिए आपके . से सुनी थीं। आपका भाग्य बड़ा खोटा है । हाथ बिक चुका हूँ। अच्छा चलिए, मैं आपको ३ - इसीसे आप भारी भूलमें पड़कर सबको त्यागकर घाटीके उस पार पहुँचाकर चला आऊँगा।"डॉकी काले पानी चले गये थे।" ऐसी कृतज्ञता देखकर डाक्टर साहबने कहा, रामेश्वरने विस्मित होकर पूछा, “सो कैसे ?" " तुम्हारा स्वभाव तो महात्माओंके जैसा है, डाक्टर साहबने कहा, “ आपने बाजारके रास्ते तुमने इस डॉकूपनकी वृत्तिको क्यों कर में जिस वेश्याको देखा था और पार्वती जाना रक्खा है ?" ___था, वह पार्वती नहीं थी।" ___रामेश्वर एक लंबी साँस ले कर चुप हो रहा। है रामेश्वरने कहा कि “ वह चाहे पार्वती हो रामश्च यह देखकर डाक्टरसाहबने समझ लिया कि या न हो, मेरे लिए दोनों बातें एक ही सी हैं। यह मनुष्य कोई बड़ा दुःख पाकर डॉक हो बैठा क्योंकि वह पापिन भी कहीं वेश्या बनी हुई है और चेष्टा करनेसे यह कपथसे हटाया जा समय काटती होगी।" सकता है। उन्होंने सोचा कि इसने मेरी प्राणरक्षा डाक्टरने कहा “ नहीं, वह आपके शोकमें रक्षा की है, इसलिए इसके उद्धारका उपाय पद्मानदीमें कूद पड़ी थी।" रामेश्वरने इस बातको करना मेरा कर्त्तव्य है। उन्होंने रामेश्वरसे पूछा अश्रद्धासे सुनकर हँस दिया। " तुम कौन हो ? तुम डाँकू कैसे हो बैठे ? चाहे जैसे ही क्यों न हो किन्तु डाक्टर तुम्हारा हाल जानेनेको बड़ी उत्कंठा है। यदि- साहब सारा सच्चा वृत्तान्त जानते थे। उन्होंने कोई हर्ज न हो तो अपना हाल कहकर चित्तको नायब और दारोगाकी सलाहसे लेकर पार्वतीके शान्त करो। तुमने हमारा प्राण बचाया है, इस- पद्मामें डूबने तकका सारा हाल कह सुनाया। लिए हमारे हाथसे तुमको कोई हानि नहीं पहुँच उसे सुनकर रामेश्वरने अपने यज्ञोपवीतको हाथसे सकती ।" डॉकूने कहा-“आपने भी एक वार बाहर खींचकर और उसे डाक्टर साहबके हाथसे मेरी प्राणरक्षा की थी। अब यदि आपके हाथसे छुआकर कहा-“मुझे धोखा न देना, शपथपूर्वक उस जीवनमें कोई विघ्न भी हो तो भी कोई कहना कि क्या ये सब बातें सच्ची हैं ? यदि For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १] काम करनेवालोंके लिए। मिथ्या कहिएगा तो आपको ब्रह्महत्याका पाप प्रातःकाल ही मै वहाँ पहुँच जाऊँगा।" आन.. होगा। क्या ये सब बातें सच्ची हैं ?" न्द दुलारेने बहुत कुछ आग्रह किया, किन्तु रामे डाक्टर साहबने कहा कि "हाँ, ये सब बातें श्वरने एक नहीं सुनी, इस लिए उनहीको आगे सच हैं।" तब रामेश्वर चंद्रमाकी चाँदनीसे चम- जाना पड़ा। रामेश्वर उसी नदीके तटपर बैठ कती हुई और कोमल फूलोंसे सुशोभित उस कर साध्वी पार्वतीके लिए रोने लगा। नदीके तटकी भमिपर धीरेसे बैठ गया और दूसरे दिन सबेरे पुत्रके घर पहुँचकर रामेउसने दोनों हाथोंसे अपने मखको ढाँप लिया। श्वरने उसको फिर गले लगाया । इतनेहीमें धीरे धीरे उसका शरीर काँपने लगा और क्षण- आधा घूघट डालेहुए एक स्त्री आई और रामेश्वरके भरमें जमीन पर पडकर वह ऊँचे स्वरसे 'पार्वती- पैरोंमें पड़कर ऊँचे स्वरसे रोने लगी। शब्द सुनते 'पार्वती,' कहता हुआ रोने लगा। उसकी असह्य ही रामेश्वर चौंक पड़ा- ऐं ! यह शब्द कियंत्रणा देखकर डाक्टरने उसको धीरज बंधाया, सका है ! जब दोनों हाथोंसे उसको उठाकर हाथ पकड़ कर उठाया; और कहा-"आप रोवें देखा तो मालूम हुआ कि वह पार्वती ही है। नहीं; मैं इस दुःखके समय आपको एक अच्छा रामेश्वरने पुत्रकी ओरको मुख करके संवाद दूंगा, आपका पुत्र मरा नहीं है।" कहा-“यह क्या बात है? मुझसे तो तुमने कहा था कि यह पद्माके जलमें डूब गई थी।" । रामेश्वरने बिजलीकी जैसी तेजीसे खड़े आनन्ददुलारेने कहा-“ मैंने सच ही कहाहोकर पछा-"क्या मेरा दुलारे जीता है ? था। माँ पद्मामें कद पडी थी, किन्त मरी मझे जल्दी बतलाओ कि वह कहाँ है ?” नहीं थी । जालवालोंने निकाल कर बचा "आपका पुत्र आपके चरणोंके पास ही है," लिया था।" यह कहकर डाक्टरसाहब रामेश्वरके पैरोंमें । लोटकर आँसू बहाने लगे। पहले तो रामेश्वर . तीनों आनन्दके आँसू बहाने लगे और पुराकुछ भी नहीं समझा, किन्तु धीरे धीरे समझ C नी सुखदुखकी बातें कह-कहकर सुनाने लगे गया । दोनों हाथोंसे अपने बेटेका मुख उठाकर वह देखने लगा, किन्तु आँखोंके आँसुओंने उसको काम करनेवालोंके लिए। कुछ भी देखने नहीं दिया। तब पुत्रके सिरको छातीसे लगाकर वह रोतेरोते कहने लगा,-"हाँ, (ले०-बाबू दयाचन्द गोयलीय बी. ए. । सचमुच ही यह मेरा आनन्ददुलारे है !” कुछ देर पीछे पुत्रने पिताकी छातीसे सिर हटाकर चाहे तुम्हारा काम कोई सा हो, कैसा ही कहा-"आप इस पाल्कीमें बैठकर घरको चलें, "हो, तुम्हें चाहिए कि तनिक भी उससे वहाँ मैं आपको अपने पाले जाने और लिखने भयभीत मत होओ और न इस कारण उसे छोड़. पढ़नेका हाल विस्तारपूर्वक सुनाऊँगा।" ही बैठो। चाहे तुम कितने ही दुःखमें होओ, चाहे रामेश्वरने सोचा कि यदि मैं इस समय पुत्रके लोग तुम्हारा कितना ही विरोध करते हों, तथापि साथ जाऊँगा तो पुत्रको पैदल जाना होगा। तुम उसे दृढ़तासे किये जाओ और अपने अभीष्ट इस लिए उसने कहा, “ तुम पहले चलो और स्थानपर पहुँचनेके लिए नित्य प्रति आगे बढ़ते अपने घरका पता मुझे बतलाये जाओ; कल जाओ । इसका कभी स्वममें भी ख्याल मत For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ४६ जैनहितैषी [भाग १३ करा कि लोग तुम्हारे विरुद्ध हैं या तुमसे रुष्ट लगता । चंचल मन जगह जगह दौड़ा फिरता हैं। यदि तुम विचार करके देखोगे तो शायद ही है । जो शक्ति एक काममें लगती, वह तुम्हें कोई ऐसा आदमी मिलेगा जो इरादा करके अब दश कामोंमें · बट जाती है और तुम्हें हानि पहुँचाता होगा। तुम्हें कभी कभी इसी कारणसे सफलता नहीं होती है। दृढ़तासे प्रायः ऐसा ख्याल होता है कि तमाम दुनिया किसी काम करते रहनेसे कठिनसे कठिन काम तुम्हारे रास्तेमें रुकावटें डाल रही है, परन्तु यदि भी सुगम हो जाता है । लोहेके पहाड़ भी मोमके दृष्टि पसार कर देखोगे तो तुम्हें मालूम होगा कि समान कोमल हो जाते हैं। छोटेसे छोटा नाला दुनिया जानबूझकर तुम्हारे रास्तेमें विघ्न नहीं डाल भी दृढ़तासे बराबर बहते रहकर अपने लिए रही है, किंतु बात असलमें यह है कि दुनिया अपने गहरा मार्ग बना लेता है । फिर मनुष्य दृढ़तासे मार्ग पर चल रही है और वह मार्ग है भी तुमसे यदि सफलता प्राप्त करले, तो इसमें आश्चर्य ही बिल्कुल भिन्न; परन्तु कभी कभी वह अपनी धुनमें क्या है ?-(कार्लाइल ।) . ... बेजाने तुम्हें कुचल देती है । पर वह कभी तुम्हें हानि पहुँचानेकी इच्छासे ऐसा नहीं करती और न कभी उसके मनमें ऐसा विचार ही आता है। यह दुनिया नवयुवकोंको उपदेश । एक घुड़दौड़का मैदान है । इसमें हर एक व्यक्ति colta अपने अपने अभीष्ट पर पहुँचनेके लिए दौड़ा चला बालविवाहके कुप्रभाव । जा रहा है । उसे केवल अपनी धुन है । रास्तेमें कौन आ जाता है, इसकी उसे सुध नहीं। अत- लखनऊमें सप्तम भारतीय आर्यकुमारसम्मेएव इससे तुम हतोत्साह और भयभीत मत हो और भयभीत मत होलनके समापति प्रोफे० बालकृष्ण एम० जाओ। यदि तुम देखो कि इस दुनियामें जिसे ए० ने कहाःतुम प्रायः कृतघ्न और निर्दय समझते हो, सज्जनो, व्यायामके अभावका कुप्रभाव उठबहुतसे आदमी तुम्हारे विरुद्ध हैं, तो साथ ही ती जवानीके कारण कभी कभी हमें ज्ञात नहीं इसी दुनियामें तुम्हें बहुतसे आदमी ऐसे भी होता किंतु इतना स्पष्ट है कि यौवनका वह मिलेंगे जो तुम्हें प्रेमकी दृष्टि से देखते हैं और सौन्दर्य नहीं होता जितना कि व्यायामकी अवतुमसे सहानुभूति रखते हैं। उनकी सहायता स्थामें सम्भव है और फिर गृहस्थ में प्रवेश करते तुम्हारे लिए बड़ी बहुमूल्य है। इसी तरह तुम्हें ही क्या रोगोंका तारतम्य हमें और हमारे परिसंसारमें अच्छाई और बुराई दोनों मिलेंगी और वारोंको हैरान नही कर देता ? जवानी में शरीरोंयदि तुम दृढ़तापूर्वक अपने कामको किये जा- को घुन लग जाता है और क्या इसमें संदेह है ओगे, तो तुम्हें एक दिन अवश्य सफलता होगी। कि निर्बल शरीर हमें पापों और कुकर्मों की ओर ले दृढ़ता सब गुणोंकी खानि है । सफलताकी कुंजी जाता है ? उसमें संयमकी शक्ति नहीं होती। है। संसारमें जो लोगोंको इतनी असफलतायें इद्रियनिग्रह उससे कोसों दूर भागता है । पविहोती हैं, उनमें १०० पीछे ९० का कारण दृढ़- त्रात्मा उसके सामने दासकी भाँति झुक जाती ताक्षी कमी है। यद्यपि बहुतोंमें योग्यता होतीहै और है और मनुष्यकी सारी प्रकृतिको वह ऐसा परिव. योग्यताको काममें लानेका संकल्प भी होता है; तन कर देता है कि वह सूरत इन्सान किन्तु परन्तु दृढ़ता नहीं होती । एक काममें जी नहीं शरीर शैतान बन जाता है । राक्षसी वा आसुरी For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १] नवयुवकोंको उपदेश। स्वसाधसे बचने के लिए, आत्माकी दृढतार्थ देशोंमें न्यूनतम जीवनकाल ४३ वर्ष है, वहाँ और मनकी मलीनताके दूरीकरणार्थ बली शरी- मातृभमि भारतमें केवल २४ है। आर्यकुमासे! रोंका होना आवश्यक है । स्वस्थ मन स्वस्थ बड़ी विचित्र घटना तो यह है कि सभ्य देशोंमें शरीरमें ही हो सकता है-यह लोकोक्ति प्रायः सभ्यताकी वृद्धिके कारण रोग, मृत्यु, दरिद्रता ठीक होती है। बस शरीर, मन और आत्मा इन बालकोंकी मरण-संख्यामें कमी और जीवतीनों रत्नोंकी रक्षार्थ आपको व्यायामकी ओर नाशाकी उन्नति होती है। परन्तु २० वीं ध्यान देना चाहिए । पर इससे भी आवश्यक शताब्दीकी अपूर्व सभ्यतामें रहते हुए हमारा कारण सावधान होनेके लिए मौजूद है । हमारे कितना अद्भुत सौभाग्य है कि हममें रोग, निर्बल रोगी शरीर संसार-यात्राके कष्ट क्लेश मृत्यु, दरिद्रताकी वृद्धि हो रही है, जीवनाशा दुःख विपत्तियोंको न सहार कर शीघ्र ही मृत्यु- प्रतिवर्ष कम होती जाती है और बालकोंके लोकमें प्रवासित होते हैं । इस पृथ्वीपर कोई मरनेकी संख्या अत्यन्त हृदयविदारक है। ये उद्विग्न सभ्य देश ऐसा नहीं जिसमें जीवनकाल इतना मनसे निकले हुए शब्द नहीं है, इन्हें मैं अपना अल्प हो जितना पुण्यभूमि वीरजननी भारत- उत्तरदातृत्व समझते हुए कह रहा हूँ—यतः भूमिमें है। देखिए । आप कोई असत्य भ्रभयुक्त विचार यहाँसे न ले जन्मपर जीवनाशाकी पत्री। जीता जाय, मैं सरकारकी गणना-रिपोर्टोसे आपके सन्मुख कुछ गणनायें रखता हूँ। देश पुत्र पुत्री । न्यूजीलैंड ५४.४ जीवनयात्राकी भयंकरता। ५७.३ स्वीडन ५०.९ ५३.६ अब यदि हम अपने बालकोंकी जीवन शक्ति नारवे ५०.४ का मुकाबला सभ्य देशोंके बालकोंके साथ करें,तो डेन्मार्क ५०.२ ५३.२ हमें वास्तविक दशाका ज्ञान हो सकता है । इस हालैण्ड ४६.२ ४९.० संसारमें हम यात्री हैं और यात्रा-स्थान यद्यपि फ्रान्स ४५.७ अत्यन्त सुन्दर है पर साथ ही बहुत छोटा हैबैल्जियम ४५.३ ४८.८ उसके पूर्व एक अज्ञात अनन्त यात्रा हम कर स्काटलैंड ४४.७ ४७.४ आये होते हैं और एक अज्ञात अनन्त यात्राकी इंग्लैण्ड ४४.१ ४७.८ सम्भावना सामने खड़ी होती है । यह यात्रा इन इटली ४२.८ ४३.१ दो यात्राओको मिलानेवाला एक पुल है जिसके प्रशिया ४२.१ ४५.८ १०० भाग हैं-उस पुलके नीचे कालकी सज्जनो! आप क्या आशा रखते हैं ? जग- भयंकर नदी अत्यन्त वेगसे बह रही है। प्रत्येक द्गुरु भारत जिसमें जन्म लेना सौभाग्य समझा भागके सफरमें कुछ यात्री रोग निर्बलता क्षुधाके जाता रहा है, जो एक अद्भुत सभ्यताके कारण हतोत्साह हो जाते हैं, उनका शरीर शिखर पर पहुँच चुका है, उसके पुत्र पुत्रियोंकी थरथराता है और असंख्य लाशोंको बहते देखजीवनाशाकी मात्रा क्या है ? इसमें जन्म लेने. कर भीतात्मा नदीमें गिर जाते हैं। इतना वाले पुत्रोंके जीनेकी आशा २३.६ वर्ष है और तो स्पष्ट है कि बली साहसी हृष्टपुष्ट शरीर इस' पुत्रियोंकी २४ वर्ष ! इस प्रकार जहाँ यूरोपीय यात्रामें कामयाब हो सकते हैं। निर्बलेन्द्रिय ५४.१ ४९.१ For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ स्त्री भारत बंगाल पंजाब १४॥ नरनारी कालके विकराल गालमें पड़कर इस पुरुषोमेंसे भिन्न भिन्न आयु पर दोनों देशोंमें कितने यात्रासे चिरकालके लिए वञ्चित हो जाते हैं। नरनारी जीवित हैं तो निम्न चित्र सत्य दशाका यदि भिन्न देशोंके १०० बालक इस यात्राको प्रकाशक होगा- .. एक साथ आरम्भ करें तो हम देखना चाहते हैं स्वीडन और भारतका कि उनमेंसे कौन बाजी ले जाता है कि उनमें मुकावला । से ५० बालक किस आयु तक पहुँचकर काल- ४५ वर्ष ५५ ६५ ७५ ८५ की नदीमें गिरेंगे और शेष कितने वीर काम- स्वीडन ६४५ ५७० ४५६ २७३ ६७ याबीसे आगे बढ़े चले जावेंगे। भारत २५२ १६३ ८६ २६ २ १०० बालक ५० किस आयुमें अर्थात् ४५ वें वर्षमें एक हजार पुरुषोंमेसे स्वीडनमें ६४५ और भारतमें केवल २५२ रहते रह जाते हैं ? हैं।१०० मेंसे हैं बालक जीवन-यात्राके संकटोंसे मरचुके होते हैं और शेष रहते हैं उनकी भी १२ शीघ्र मृत्यु होती है। हमारी भक्ति। सं० प्रा० बम्बई. ११३ [ले०-पण्डित सुखराम चौबे (गुणाकर )।] मद्रास _उनमें भक्ति महान, हमारी । २९ ३१ सहज प्रसन्न वदन है जिनका, अर्थात् उत्तरीय भारतवर्ष में सिन्धुसे बङ्ग देश तन है तेजनिधान ॥ हमारी०॥१॥ और हिमालयसे विन्ध्याचल तक जो विशेष पुष्ट बलिष्ट साहसी हैं जो, तारै पर आर्योंकी भूमि समझी जाती है उसमें कर्म-वीर व्रतवान । ९ वर्षों में ही ५० बालक यमराजकी भेंट हो सभ्य वेष वर भाव जिन्होंका, जाते हैं और जिन देशोंमें आर्योंका कम वास है भाषण सुधा-समान ॥२॥ जैसे बम्बई, मद्रास और वर्मा, वहाँ १०, १४॥ सरल उदार सदय संतोषी, और २९ वर्षों में पुरुष आधे होजाते हैं। क्या इस क्षमाशील सज्ञान । आर्यावर्त्तका यही आर्यत्व है ? क्या यही श्रेष्ठता, कहे हुएको पलट न जाने, सदाचार, पवित्रता, धर्मानुराग, शारीरिक बल जौं लों तनमें प्रान ॥३॥ और ब्रह्मचर्य है कि सब जातियोंके मुकाबलेमें मिलें सबोंसे उरसे उर ला, भारतीय आर्य अधम हो गये है ? तजें घृणित अभिमान। रहे लक्ष्य परहित पर जिनका, शारीरिक निर्बलता । जिन्हें स्व-हित इच्छा न ॥४॥ हमारे शरीरोंकी शोकजनक निर्बलताका एक भाषा भूमि भूप भगवतके, अन्य हृदयविदारक उदाहरण भी लीजिए । जहाँ सच्चे भक्त जहाँन । भारतमें सुन्दर बालकोंकी कमी है वहाँ वृद्ध नरनारी कहे 'गुणाकर ' जिन्हे हृदयसे ‘भी यहाँ बहुत ही कम दिखाई देते हैं । यदि हम दें सज्जन सम्मान ॥५॥ स्वीडन और भारतका मुकाबला करें और देखें कि वर्मा For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः । तेरहवाँ भाग। अंक २ जैनहितैषी। फाल्गुन, २४४३. फरवरी, १९१७. نقیب न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी। बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी हितैषी ॥ भद्रबाहु-संहिता। किया जा चुका है। इस लिए आज इस ले खमें, फलादेश-सम्बंधी सूक्ष्म विचारोंको छोड़ग्रन्थ-परीक्षा-लेखमालाका चतुर्थ लेख । " ख। कर, बहुत मोटेरूपसे विरुद्ध कथनोंका दिग्द ___ र्शन कराया जाता है। जिससे और भी जैनिले० श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार। योंकी कुछ थोड़ी बहुत आँखें खुलें, उनका (३) साम्प्रदायिक मोह टूटे और उनकी अंधी ___ इस ग्रंथमें निमित्त और ज्योतिष आदि श्रधा दूर होकर उनमें सदसद्विवेकवती बुद्धिका संबंधी फलादेशका जो कुछ वर्णन है यदि उस विकास हो सके:सब पर बारीकीके साथ-सूक्ष्म-दृष्टिसे-विचार पूर्वापर विरुद्ध। किया जाय और उसे सिद्धान्तसे मीलान करके (१) पहले खंडके तीसरे अध्यायमें, दंडके दिखलाया जाय, तो इसमें संदेह नहीं, कि स्वरूपका वर्णन करते हुए, लिखा है कि:विरुद्ध कथनोंके ढेरके ढेर लग जाय । परन्तु "हा-मा-धिक्कारभेदश्च वाग्दंडः प्रथमो मतः। जैन समाज अभी इतने बारीक तथा सूक्ष्म द्वितीयो धनदंडश्च देहदंडस्तृतीयकः ॥ २४२॥ विचारोंको सुनने और समझनेके लिए तैयार र तुरीयो ज्ञातिदंडश्च देयाः कृत्यानुसारतः। नहीं है, और न एक ऐसे ग्रंथके लिए इतना दोषानुसारतश्चैव चतुर्वर्णेभ्य एव च ॥ २४३॥ अधिक प्रयास और परिश्रम करनेकी कोई जरू- आप्तश्रीआदिदेवेन प्रथमो दंड उध्दतः। रत है, जो पिछले लेखों द्वारा बहुत स्पष्ट शब्दोंमें वासुपूज्यो द्वितीयं च तृतीयं षोडशस्तथा ॥२४४॥ विक्रम संवत् १६५७ और १६६५ के मध्य- तुरीयं वर्धमानस्तु प्रोक्तवानद्य पंचमे । वर्ती समयका बना हुआ ही नहीं बल्कि इधर काले दोषानुसारेण दीयते सर्वभूमिपैः ॥२४५ ॥ उधरके प्रकरणोंका एक बढंगा संग्रह भी सिद्ध अर्थात्-दंड चार प्रकारका होता है । पहला ७-८ For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ वाग्दंड, जिसके हा, मा, और धिक्कार ऐसे शारीरिक दंडकी भी योजना की थी *। जिससे तीन भेद हैं; दूसरा धनदंड, तीसरा देहदंड पौराणिक दृष्टिकी अपेक्षा यह बात स्पष्ट हो ( वध-बन्धादिरूप) और चौथा ज्ञातिदंड जाती है कि तीसरे शारीरिक दंडका प्रणयन (जातिच्युतादिरूप ) । ये सब दंड अपराधों शान्तिनाथसे बहुत पहले प्रायः ऋषभदेवके और कृत्योंके अनुसार चारों ही वर्गों के लिए समयमें ही हो चुका था। यहाँ पाठकोंको यह प्रयुक्त किये जानेके योग्य हैं । इनमेंसे पहले जानकर आश्चर्य होगा कि आदिपुराणका यह दंडके प्रणेता भगवान् श्रीआदिनाथ ( ऋषभ- सब कथन संहिताके 'केवल काल' नामक ३४४ देव ), दूसरेके भगवान् वासुपूज्य, तीसरेके वें अध्यायमें भी पाया जाता है । परन्तु इन सब १६ वें तीर्थकर श्रीशांतिनाथ और चौथे बातोंको छोड़िए, और संहिताके इस निम्न वाक्य दंडके प्रणेता श्रीवर्धमान स्वामी हुए हैं । पर ध्यान दीजए, जिसमें उक्त कथनसे आगे आजकल पाँचवें कालमें संपूर्ण राजाओंके द्वारा ये अपराधोंके चार विभाग करके प्रत्येकके दंड सभी दंड अपराधों के अनुसार प्रयुक्त किये जाते हैं। विधानका नियम बतलाते हुए लिखा है किइस कथनसे ऐसा सूचित होता है कि, तीसरे व्यवहारमें वाग्दंड, चोरीके काममें धनदंड, बालकालके अन्तसे प्रारंभ होकर, चतुर्थ कालमें यह हत्यादिकमें देहदंड और धर्मके लोपमें ज्ञातिचार प्रकारका दंडविधान उपर्युक्त. अलग अलग दंडका प्रयोग होना चाहिए । ' यथा:तीर्थकरोंके द्वारा संसारमें प्रवर्तित हुआ है । परन्तु " व्यवहारे तु प्रथमो द्वितीयः स्तैन्यकर्मणि । वास्तवमें ऐसा हुआ या नहीं, यह अभी निर्णयाधीन तृतीयो बालहत्यादौ धर्मलोपेऽन्तिमः स्मृतः ॥२४॥ है और उस पर विचार करनेका इस समय अवसर दंडविधानका यह नियम जगत्का शासन नहीं है । यहाँ पर मैं सिर्फ इतना बतला देना करनेके लिए कहाँ तक समुचित और उपयोगी जरूरी समझता हूँ कि दंडप्रणयन-संबन्धी यह है, इस विचारको छोड़कर, जिस समय हम इस सब कथन ऐतिहासिक दृष्टिसे कुछ सत्य प्रतीत निमयको सामने रखते हुए इसी खंडके अगले दंडविधान-संबंधी अध्यायोंका पाठ करते हैं उस नहीं होता। श्रीगुणभद्राचार्यकृत महापुराण - समय मालूम होता है कि ग्रंथकर्ता महाशयने (उत्तरपुराण ) में या उससे पहलेके बने हुए हुए स्थान स्थान पर स्वयं ही इस नियमका उल्लंघन किसी माननीय प्राचीन जैनग्रंथमें भी इसका किया है। और इस लिए उनका यह संपूर्ण कोई उल्लेख नहीं है। हाँ, भगवज्जिनसेन - * यथाःप्रणीत आदिपुराणमें इतना कथन जरूर मिलता ।। लता 'हामाकारौ च दंडोऽन्यैः पंचभिः सम्प्रवर्तितः। है कि ऋषभदेवने हा-मा-धिक्कार लक्षणवाला पंचभिस्तु ततः शेषैर्हामाधिकारलक्षणः ॥ ३-२१५ ॥ वह वाचिक दंड प्रवर्तित किया था जिसको शारीरं दंडनं चैव वध-बन्धादिलक्षणम् । उनसे पहलेके कुलकर ( मनु ) जारी कर चके नृणां प्रबलदोषेण भरतेन नियोजितम् ॥-२१६ ॥ थे और इस लिए जो उनके अवतारसे पहले ही + जिसका एक पद्य इस प्रकार है:- “हामाधि ग्नीतिमार्गोक्तोऽस्य पुत्रो भरतोऽग्रजः । चक्री भूमंडल पर प्रचलित था । साथ ही, उक्त ग्रंथमें , कुलकरो जातो वध-बन्धादिदंडभृत् ॥ १२०॥" यह भी लिखा हुआ मिलता है कि ऋषभदेवके इस अध्यायकी शद्वरचनासे मालूम होता है कि पुत्र भरत चक्रवर्तीने वध-बन्धादि लक्षणवाले वह प्रायः आदिपुराणपरसे उसे देखकर बनाया गयाहै। HAHTHHTHE For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क २ ] भद्रबाहु -संहिता : दूषित --- ८८ दंड - विषयक कथन पूर्वापर - विरोध - दोषसे है। साथ ही, श्रुतकेवली जैसे विद्वानों की कीर्तिको कलंकित करनेवाला है । उदाहरण के तौर पर यहाँ उसके कुछ नमूने दिखलाये जाते हैं:कूपाद्रज्जुं घटं वस्त्रं यो हरेत्स्तन्यकर्मणा । कशाविंशतिभिस्ताड्यः पुनर्ग्रामाद्विवासयेत् । ७-१२॥ इस पद्यमें कुएँ परसे रस्सी, घड़ा तथा वस्त्र चुरानेवालेके लिए २० चाबुक से ताड़ित करने और फिर ग्रामसे निकाल देनेकी सजा तजवीज की गई है । पाठक सोचें, यह सजा पहले नियमके कितनी विरुद्ध है और साथ ही कितनी अधिक सख्त है ! उक्त नियमानुसार चोरी के इस अपराधमें धनदंड ( जुर्माना ) का विधान होना चाहिए था, देहदंड या निर्वासनका नहीं । कुलीनानां नराणां च हरणे बालकन्ययोः । तथानुपमरत्नानां चौरो बंदिग्रहं विशेत् ॥ ७-१६॥ येन यज्ञोपवीतादिकृते सूत्राणि यो हरेत् । • संस्कृतानि नृपस्तस्य मासकं बंधके न्यसेत् ॥ २४ ॥ इन दोनों पयोंमें चोर के लिए बंदिग्रह ( जेलखाना ) की सजा बतलाई गई है। पहले पद्यमें यह सजा कुलीन मनुष्यों, बालक-बालिकाओं • और उत्तम रत्नोंको चुराने के अपराधमें तजवीज की गई है। दूसरे पद्यमें लिखा है कि जो यज्ञोपवीत (जनेऊ) आदि के लिए संस्कृत किये हुए सूतके डोरोको चुराता है, राजाको चाहिए कि उसे एक महीने तक कैदमें रक्खे। चोरीके काममें धनदंडका विधान न करके यह दंड तजवीज करना भी उपयुक्त नियमके विरुद्ध है । "" केशान् ग्रीवां च वृषणं क्रोधाद्गृह्णाति यः शठः । दंष्यते स्वर्णनिष्केण प्राणिघाताभिलोलुपः । ६- २०। त्वग्भेत्ता तु शतैर्दंड्यः ब्राह्मणोऽसृक्प्रच्यावने । - शतद्वयेन दंड्यः स्यातुर्यैम सापकर्षकः ॥ २१ ॥ इन दोनों पद्योंमें प्राणिघातकी इच्छा से क्रो- धमें आकर दूसरेके केरा, गर्दन और अंडकोश पकड़नेवाले व्यक्तिको, तथा त्वचाका भेद करने ५१ वाले, रक्तपात करनेवाले और मांस उखाड़नेवाले ब्राह्मणको शारीरिक दंडका विधान न करके धन दंडका विधान किया गया है। यह भी उपर्युक्त नियमके बिरुद्ध है । इसके आगे तीन पयोंमें, उद्यानको जाते हुए किसी वृक्षकी छाल, दंड, पत्र या पुष्पादिकको तोडू डालने अथवा नष्ट कर डालनेके अपराधमें धनदंडका विधान न करके 'प्रवास्यो वृक्षभेदक:' इस पदके द्वारा वृक्ष तोड़ डालनेवालेके लिए देशसे निकाल देनेकी सजा तजवीज की है । यह सजा उपर्युक्त नियमसे कहाँ तक सम्बंध रखती है, इसे पाठक स्वयं विचार सकते हैं । " वैश्यः शूद्रोऽथवा काष्टधातुनिर्मित, आसने । क्षत्रियद्विजयोर्मोहाद्दर्पाश्चोपविशेत्तदा ॥ ६-१७ ॥ कशाविंशतिभिर्वैश्यः पंचाशद्भिश्च ताड्यते । शूद्रः पुनस्तु सता- (?) मासनं कोऽपि न श्रयेत्॥ - १८॥ महान्तं यो दर्पान्निष्ठीवति हसेच्च वा । चतुर्वर्णेषु यः कश्चिद्दंड्यते दश राजतैः ॥ १९ ॥ ” ( इन पयोंमें से पहले दो पद्योंमें लिखा है कि यदि क्षत्रिय तथा ब्राह्मणके आसन पर कोई वैश्य अथवा शूद्र बैठ जाय तो वैश्यको २० और शूद्रको ५० चाबुककी सजा देनी चाहिए ! तीसरे पयमें किसी भी वर्णके उस व्यक्तिके लिए धनदंडका विधान किया गया है जो किसी महान् पुरुषको देखकर हँसता है अथवा घृणाप्रकाश करने रूप थूकता है । उपर्युक्त नियमानुसार इन दोनों प्रकारके कृत्योंके लिए यदि कोई दंडविधान हो सकता था तो वह सिर्फ वाग्दंड था । क्योंकि आसन पर बैठने और हँसने आदि कृत्योंका चोरी आदि अपराधोंमें समावेश नहीं हो सकता । परन्तु यहाँ पर ऐसा विधान नहीं किया गया; इस लिए यह कथन भी पूर्व पर विरोध - दोष से दूषित है ।' cc मूर्खः सारथिरेव स्याद्युग्यस्था दंडभागिनः । भूपः पणशतं लाखा हानिनीशं च दापयेत् ॥ ६-३५॥६ For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैनहितैषी भाग १३ इस पद्यमें, मूर्ख गाड़ीवानके कारण गाड़ीसे इससे यह भी सूचित होता है कि ये दोनों पद्य ही किसीको हानि पहुँचने पर, गाड़ीमें बैठे हुए उन नहीं बल्कि संभवतः ये दोनों अध्याय ही भिन्न स्त्री-पुरुषोंको भी धनदंडका पात्र ठहराया है भिन्न व्यक्तियों द्वारा रचे गये हैं। जो बेचारे उस गाड़ीके स्वामी नहीं है और न (३) भद्रबाहुसंहिताके 'चंद्रचार' नामक जिनको उक्त गाड़ीवानके मूर्ख या कुशल २३ वें अध्यायमें लिखा है कि — श्वेत, रक्त, होनेका कोई ज्ञान है। समझमें नहीं आता कि पीत तथा कृष्ण वर्णका चंद्रमा यथाक्रम अपने उक्त नियमके अनुसार गाड़ीमें बैठे हुए ऐसे वर्णवालेको (क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और मुसाफिरोंको कौनसे अपराधका अपराधी माना शद्रको) सुखका देनेवाला और विपरीत जाय ? अस्तु; इस प्रकारके विरुद्ध कथनोंसे इस वर्णके लिए भयकारी होता है । यथाःग्रंथके कई अध्याय भरे हुए हैं । मालूम होता। हाता खेतो रक्तश्च पीतश्च कृष्णश्चापि यथाक्रमं ॥ .. है कि ग्रंथकर्ताको इधर उधरसे वाक्योंको उठाकर रखनमें आगे पीछेके कथनोंका कुछ भी सवर्ण सुखदश्चन्द्रो विपरीतं भयावहः ।। १६ ॥ ध्यान नहीं रहा; और इससे उसका यह संपर्ण परन्तु तीसरे खंडके उसी 'ऋषिपुत्रिका ' दंड-विषयक कथन कुछ अच्छा व्यापक और नामके चौथे अध्यायमें यह बतलाया है कि सिलसिले वार भी नहीं बन सका। 'समानवर्णका चंद्रमा समान वर्णवालेको भय . (२) दूसरे खंडके 'उत्पात' नामक १४ वें .और पीडाका देनेवाला होता है ' 'कृष्णचंद्रमा अध्यायमें लिखा है कि 'यदि बाजे बिना बजाये : शूद्रोंका विनाश करता है। ' यथाःहुए स्वयं बजने लगे और विकृत रूपको धारण "समवण्णो समवणं भयं च पार्ड तहा णिवेदेहि। करें तो कहना चाहिए कि छठे महीने राजा लक्खारसप्पयासो कुणदि भयं सब्वदेसेसु ॥ ३६ ।। बद्ध होगा (वंदिगृहमें पड़ेगा ) और अनेक किण्हो सुद्दविणासइ"चंदो ॥ ३८ ॥ प्रकारके भय उत्पन्न होंगे। यथाः चंद्रफलादेश-सम्बंधी यह कथन पहले कथनके " अनाहतानि तूर्याणि नदन्ति विकृति यथा। बिल्कुल विरुद्ध है-वह सुख होना कहता षष्ठे मासे नृपो बद्धो भयानि च तदा दिशेत् ॥१६५॥ है तो यह दुःख होना बतलाता है-समझमें - परंतु तीसरे खंडके ' ऋषिपुत्रिका ' नामक नही आता नहीं आता कि ऐसी हालतमें कौन बुद्धिमान चौथे अध्यायमें इसी उत्पातका फल पाँचवें इन कथनोंको केवली या श्रुतकेवलीके वाक्य महीने राजाकी मृत्यु होना लिखा है। यथा:- मा. न मानेगा? वास्तवमें ऐसे पूर्वापर-विरुद्ध कथन किसी " अह णंदितूरसंखा वजंति अणाहया विफुटंति। " भी केवलीके वचन नहीं हो सकते। अस्तु। ये तो अह पंचमम्मि मासे णरवइमरणं च णायब्बं ॥९॥* हुए पूर्वोपर-विरुद्ध कथनोंके नमूने । अब आगे .. इससे साफ प्रगट है कि ये दोनों पद्य पर्वापर- दूसरे प्रकारके विरुद्ध कथनोंको लीजिए। विरोधको लिये हुए हैं और इस लिए इनका मिथ्या क्रियायें। निर्माण किसी केवली द्वारा नहीं हुआ। साथ ही, (४) संहिताके द्वितीय खंड-विषयक *संस्कृतच्छायाः अध्याय नं० २७ में लिखा है कि 'प्रीति' 'अथ नंदितूरशंखा नदन्ति अनाहताः स्फुटति। और सुप्रीति ' ये दो क्रियायें पुत्रके जन्म अथ पंचमे मासे नरपतिमरणं च ज्ञातव्यं ॥ ५३॥ होने पर करनी चाहिए। साथ ही, जन्मसे पहले For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ अङ्क २] भद्रबाहु-संहिता। 'पुंसवन' और 'सीमन्त । नामकी दूसरी है। पुंसवन सम्बंधी क्रियाका अभिप्राय उनके दो क्रियाओंके करनेका भी विधान किया है। यहाँ यह माना जाता है कि इसके कारण गर्भिणीयथाः __ के गर्भसे लड़का पैदा होता है । परन्तु जैन "गर्भस्य त्रितये मासे व्यक्ते पुंसवनं भवेत् । सिद्धान्तके अनुसार, इस प्रकारके संस्कारसे, गर्भे व्यक्ते तृतीये चेच्चतुर्थे मासि कारयेत् ॥१३९॥ गर्भ में आई हुई लड़कीका लड़का नहीं बन सकता। अथ षष्ठाष्टम मासि सीमन्तविधिरुच्यते । इस लिए जैनधर्मसे इस संस्कारका कुछ सम्बंध केशमध्ये तु गर्भिण्याः सीमा सीमन्तमुच्यते॥१४२॥ नहीं है। पुत्रस्य जन्मसंजाती प्रीतिसुप्रीतिके क्रिये । दंडमें मुनि-भोजन-विधान। प्रियोद्भवश्च सोत्साहः कर्तव्यो जातकर्मणि ॥ १४९॥ परन्तु भगवज्जिनसेनप्रणीत आदिपराणमें (५) इस संहिताके प्रथम खंडमें 'प्रायगर्भाधानसे निर्वाण पर्यंत ५३ क्रियाओंका श्चित्त' नामका एक अध्याय है, जिसके दो माग वर्णन करते हुए, जिनमें उक्त पंसवन ' और हैं-पहला पद्यभाग और दूसरा गयभाग पयभा'सीमन्त' नामकी क्रियायें नहीं हैं, लिखा है गमें, व्यभिचारका दंड-विधान करते हुए, एक कि प्रीति' क्रिया गर्भसे तीसरे महीने और स्थान पर ये चार पद्य दिये हैं:सुप्रीति क्रिया पाँचवे महीने करनी चाहिए। “माता मातानुजा ज्येष्ठा लिंगिनी भगिनी स्नुषा । साथ ही, यह भी लिखा है कि उक्त ५३ क्रिया- चाण्डाली भ्रातृपत्नी च मातुली गोत्रजाथवा ॥ २० ॥ ओंसे भिन्न जो, दूसरे लोगोंकी मानी हुई, गर्भसे . सकृद्भान्त्याथ दर्पाद्वा सेविता दुर्जनेरिता । मरण तककी क्रियायें हैं वे सम्यक् क्रियायें प्रायश्चित्तोपवासाः स्युत्रिंशत्तच्छीर्षमुंडनम् ॥२९॥ तीर्थयात्राश्च पंचैव महाभिषेकपूर्वकम् ॥ , नं होकर मिथ्या क्रियायें समझनी चाहिए । कृत्वा नित्यार्चनायाश्च क्षेत्रं घंटा वितीर्य च ॥३०॥ यथाः भोजयेन्मुनिमुख्यानां संघ द्विशतसंमितं । .. " गर्भाधानात्परं मासे तृतीये संप्रवर्तते । वस्त्राभरणताम्बूलभोजनः श्रावकान् भजेत् ॥ ३१ ॥ प्रीतिर्नामि क्रिया प्रीतैर्याऽनुष्ठेया द्विजन्मभिः॥३८-७७ इन पद्यों में लिखा है कि यदि एक वार भ्रमसे आधानात्पंचमे मासि क्रिया सुप्रीतिरिष्यते । __अथवा जान बूझकर अपनी माता, माताकी या सुप्रीतैः प्रयोक्तव्या परमोपासकव्रतैः ॥-८० ॥ छोटी बड़ी बहिन, लिंगिनी (आर्यिकादिक), कियां गर्भादिका यास्ता निर्वाणान्ताः पुरोदिताः। आधानादिस्मशानान्ता न ताः सम्यक्रिया बहिन, पुत्रवधू, चांडाली, भाईकी स्त्री, मामी अथवा अपने गोत्रकी किसी दूसरी स्त्रीका सेवन __ मताः ३९-२५॥ हो जाय तो उसके प्रायश्चित्तमें तीस उपवास इससे साफ जाहिर है कि संहिताका उक्त __ करने चाहिए, उस स्त्रीका सिर मुंडना चाहिए, कथन आदिपुराणके कथनसे विरुद्ध है। और र महाभिषेक पूर्वक पाँच तीर्थयात्रायें करनी चाहिए, उसकी 'पुंसवन' तथा 'सीमंत' नामकी दोनों क्रियायें भगवज्जिनसेनके वचनानुसार मिथ्या नित्यपूजनके लिए भूमि तथा घंटा वितरण क्रियायें हैं। वास्तवमें ये दोनों क्रियायें हिन्दू करना चाहिए। और यह सब कर चुकनेके बाद, प्रधान मुनियोंके दोसे संख्या प्रमाण धर्मकी क्रियायें ( संस्कार ) हैं । हिन्दुओंके धर्मग्रंथों में इनका विस्तारके साथ वर्णन पाया जाता श्रावकोंको वस्त्राभूषण, ताम्बूल और भोजनसे संघको भोजन खिलाना चाहिए। साथ ही, .१ गर्भवतीके केशोंकी रचना-विशेष माँग उपाड़ना - संतुष्ट करना चाहिए । इस दंडविधानमें, अन्य For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जैनहितैषी [ भाग १३ बातोंको छोड़कर, दोसो मुनियोंको भोजन साथ ही, दंडक्षेत्र विस्तृत करने के लिए इसमें कुछ करानेकी बात बड़ी ही विलक्षण है। जैनियोंके अधिकार वृद्धि भी पाई जाती है । पाठक देखें चरणानयोग तथा प्राचीन यत्याचार विषयक और सोचें कि, यह सब कथन प्रायश्चित्तसमग्रंथोंसे इसका जरा भी मेल नहीं है । जिन जैन र CL च्चयके कथनसे कितना असंगत और विरुद्ध है। इस प्रकारका और भी बहुतसा कथन इस मुनियोंक विषयमे लिखा है कि व उद्मादिक अध्यायमें पाया जाता है। च्यालीस दोषों तथा ३२ अंतरायोंको टालकर शुद्ध आहार लेते हैं, किसीका निमंत्रण स्वीकार पद्यमें कुछ और गद्यमें कछ । नहीं करते और यह मालूम हो जाने पर, कि भोजन (६) साथ ही, इस अध्यायमें कछ दंडउनके उद्देश्यसे तैयार किया गया है, दातारके विधान ऐसा भी देखने में आता है जो पद्यमें कुछ घरसे वापिस चले जाते हैं उनके लिड स्वरू. है तो गद्यमें कुछ और है । अर्थात एक ही अपरापमें प्रस्तुत किया हुआ और खास उन्हींके उद्दे- धके लिए दोनों भागोंमें भिन्न भिन्न प्रकारका दंड श्यसे तैयार किया हुआ इस प्रकारका भोजन प्रयोग किया गया है। और जो इस बातको कभी विधेय नहीं हो सकता। इस लिए दंड- भी सूचित् करता है कि ये दोनों भाग किसी विधानका यह नियम जैनधर्मकी नीतिके विरुद्ध एक व्यक्तिके बनाये हुए नहीं हैं । इस प्रकारके है । साथ ही, इसका अनुष्ठान भी प्रायः अशक्य , कथनोंका एक नमूना इस प्रकार है: "गर्वान्मांसं च मद्यं च क्षौद्रं सेवितवानसौ । जान पड़ता है । बहुत संभव है कि इस दंड- . एकशः क्षपणं तस्य विंशत्यभ्यधिकं शतम् ।। २२॥ विधानमें उस समयके भट्टारकोंका, जो अपने प्रमादादुपवासाः स्युर्विशतिदोषहानये।" आपको मुनिमुख्य मानते थे और जिनका थोड़ा इस डेढ पद्यमें गर्वसे मय, मांस और मद्य बहत परिचय इस लेखमें आगे चलकर दिया नामक तीन मकारोंके सेवनका प्रायश्चित्त १२१ जायगा, कुछ स्वार्थ छिपा हुआ हो। परन्तु उपवास प्रमाण और प्रमादसे उनके सेवनका कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि, यह कथन प्रायश्चित्त सिर्फ २० उपवास प्रमाण लिखा है। जैनधर्मकी दृष्टिसे विरुद्ध अवश्य है । जैन अब गद्य भागको देखिए:धर्मके प्रायश्चित्त ग्रंथोंमें श्रीनन्दनन्याचार्यके "मकारत्रयसेवितस्य प्रायाश्चत्तं विद्यते-उपवासा द्वादश शिष्य गुरुदासाचार्यका बनाया हुआ 'प्राय- १२, अभिषेकाः पंचाशत् ५०, आहारदानानि पंचश्चित्तसमुच्चय ' नामका एक प्राचीन ग्रंथ है। शत् ५०, कलशाभिषेक एकः १, पुष्पसहस्रचतुर्विइस ग्रंथकी चूलिकामें उक्त प्रकारके अपराधका शतिः २४०००, तीर्थयात्रा द्वे २, गंधं पलचतुष्टयं प्रायश्चित्त सिर्फ ३२ उपवास प्रमाण लिखा , ४, संघपूजा, गद्याण ? त्रय सुवर्ण ३, वीटिका शतमेकं, कायोत्सर्गाश्चतुर्विंशतिः । यदि प्रमादतः मकारत्रय. है । यथाः -- सेविता उपवासषटुं ६, एकभकाष्टकं, पंचविंशत्याहार" सुतामातृभगिन्यादिचाण्डालीरभिगम्य च। दानानि २५, पंचविंशतिरभिषेकाः २५, पुष्पसहस्राणि अनुवीतोपवासानां द्वात्रिंशतमसंशयम् ॥ १५० ॥ पंच ५०००, गंधं पलद्वयं २, पूजा द्वादश १२, ताम्बू- इससे मालूम होता है कि संहिताके उपर्युक्त लवीटक-पंचाशत् ५०, कायोत्सर्गा द्वादश १२॥" दंड-विधानमें उपवासोंको छोड़कर शेष मुंडन, यह कथन पहले कथनसे कितना विलक्षण तीर्थयात्रा, महाभिषेक, पूजनके लिए भूम्यादि है, इसे बतलानेकी जरूरत नहीं है । पाठक एक अर्पण और मुनिभोजनादिका संपूर्ण विधान सिर्फ नजर डालते ही स्वयं मालूम कर सकते हैं। -दो उपवासोंके स्थानमें प्रस्तुत किया गया है। हाँ प्रायश्चित्त-समुच्चयका इस विषयमें क्या For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क २] भद्रबाहु-संहिता। विधान है ? यह बतला देना जरूरी है। और एक ही प्रकारका दंड-विधान करना जैनधर्मकी वह इस प्रकार है: दृष्टिके अनुकूल प्रतीत नहीं होता। " रेतोमूत्रपुरीषाणि मद्यमांसमधूनि च । प्रायश्चित्त या अन्याय। अभक्ष्यं भक्षयेत्षष्ठं दर्पतश्च द्विषट् क्षमाः ॥१४७॥ (८) इसी प्रायश्चित्ताध्यायमें गृहस्थों के लिए । इसमें दर्पसे मद्य, मांस और मधुके सेवनका बहुतसा ऐसा दंड-विधान भी पाया जाता है जो प्रायश्चित्त बारह उपवास प्रमाण बतलाया है और आकस्मिक घटनाओंसे होनेवाली मृत्युओंसें प्रमादसे उनका सेवन होनम षष्ठ नामका सम्बंध रखता है। जैसे साँप बिच्छू आदिसे डसा प्रायश्चित्त तजवीज किया है, जो तीन उपवास जाना, व्याघ आदिसे भक्षित होना, वृक्ष या पकान प्रमाण होता है। परसे गिरजाना, मार्गमें जाते हुए ठोकर खाकर सबके लिए एक ही दंड। गिर पड़ना, वज्रपातका होना, सींगवाले पशुका (७) उक्त 'प्रायश्चित्त' नामके अध्याय में सींग लग जाना और स्त्रीके प्रसवका होना ब्रह्महत्या, गोहत्या, स्त्रीहत्या, बालहत्या और आदि । इन सब कारणोंमेंसे किसी भी कारणसे सामान्य मनुष्यहत्या, इन सब हत्याओंमेंसे प्रत्येक जो आकस्मिक मृत्यु होती है उसके लिए यह हत्या करनेवालेके लिए एक ही प्रकारका दंड तज दंड-विधान किया गया है:वीज किया गया है। यथाः __" प्रायश्चित्तं-उपवासाः ५, एकभक्तानि विंशतिः २०, कलशाभिषेकद्वयं २, पंचामृताभिषकाः ५, ल'ब्रह्महत्या-गोहत्या स्त्रीहत्या बालहत्या-सामान्य- ध्वभिषेकाः पंचविंशतिः, आहारदानानि चत्वारिंशत, मनुष्यहत्यादि,-करणे प्रायश्चित्तं उपवासाः त्रिंशत् ३०, गावी द्वे २, गंधपला १०, पुष्पसहस्र १०००, संघ. . एकभक्कानि पंचाशत् ५०, कलशाभिषेको हो। पूजा-गद्याण (?) द्वयं, तीर्थयात्रा-कायोत्सर्गाः परन्तु जैनधर्मकी दृष्टिसे इन सभी अपराधोंके ६, वीटिका ताम्बूल ५० ।” अपराधी एक ही दंडके पात्र नहीं हो सकते। परन्तु इस दंडका पात्र कौन है ? किसको प्रायश्चित्तसमुच्चयकी चूलिकामें भी गोहत्यासे इसका अनुष्ठान करना होगा ? यह सब यहाँ कुछ स्त्रीहत्या,स्त्रीहत्यासे बालहत्या, बालहत्यासे श्रावक- भी नहीं बतलाया गया । जो शख्स मर चुका है. हत्या और श्रावकहत्यासे साधुहत्याका प्रायश्चित्त उसके लिए तो यह दंड-विधान हो नहीं सकता। उत्तरोत्तर आधिक बतलाया है । यथाः- इस लिए . जरूर है कि मृतकके किसी " साधपासकबालस्त्रीधेनूनां घातने क्रमात् । कुटुम्बीके लिए यह सब दंड तजवीज यावद्वादश मासाः स्यात्षष्ठमर्धाधहानियुक् ॥ ११॥+ किया गया है । परन्तु उस बेचाऐसी हालतमें संहिताका सबके लिए उपर्यक्त रेने कोई अपराध नहीं किया और न मृतकका - हि इसमें कोई अपराध था। बिना अपरांधके दंड . x इस पद्यमें मुनियों द्वारा ऐसी हत्या हो जाने पर देना सरासर अन्याय है। इस लिए कहना पड़ता उनके लिए प्रायश्चित्तका विधान किया है। श्रावकोंके ' है कि यह प्रायश्चित्त नहीं बल्कि अन्याय और लिए इससे कमती प्रायश्चित्त है । परन्तु वह भी उत्तरोत्तर इसी क्रमको लिये हुए है। जैसा कि उक्त अधर्म है; श्रुतकेवली जैसे विद्वानोंका यह कर्म चलिकाके इस पद्यसे प्रगट है: नहीं हो सकता। जरूर इसमें किसीका स्वार्थ " श्रमणच्छेदनं यच्च श्रावकानां तदेव हि। छिपा हुआ है । गंध, फूल और पानोंके बीड़ों द्वयोरपि त्रयाणां च षण्णामधिहानितः ॥ १३ ॥ आदिको छोड़कर यहाँ पाठकोंके सन्मुख दो For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ mmmnanimoon गाय भी उपस्थित हैं। ये भी दंडमें किसीको दान १-" अस्नातान्न स्पृशेत्सर्वान् स्नातानपि च शूद्रकान् । स्वरूप भेंट की जायगी । यद्यपि जैनधर्ममें कुलालमालिकादिवाकीर्तचक्रिकुविंदकान् ॥ ४५ ॥ गौ-दानकी कोई माहमा नहीं है और न उसके २-मातंगश्वपचादीनां छायापतनमात्रतः। देनेसे किसी पापकी कोई शांतिका होना माना तदा जलाशयं गत्वा सचेलस्नानमाचरेत् ॥ ५६ ॥ जाता है। प्रत्युत अनेक जैनग्रंथोंमें इस दानको ३-उच्छिष्टास्पृश्यकाकादिविण्मूत्रस्पर्शसंशये। निषिद्ध जरूर लिखा है *। तो भी उमास्वामि- अस्पृश्यमृष्टसूर्पादिकटादिस्पर्शने द्विजः ॥ ८२ ॥ श्रावकाचार जैसे जाली ग्रंथों में जिनमदिरके ४-शुद्ध वारिणि पूर्वोक्तयंत्रमंत्रैः सचेलकः । लिए गौ-दान करनेका विधान जरूर कुर्यात्स्नानत्रयं दंतजिह्वाघर्षणपूर्वकम् ॥ ८३ ॥ पाया जाता है, जिससे अर्हद्रद्वारकके लिए ५-मिथ्यादृशां गृहे पात्रे भुंक्ते वा शूद्रसद्मनि । रोजाना शुद्ध पंचामृत तैयार हो सके । तदोपवासाः पंच स्युर्जाप्यं तु द्विसहस्रकम् ।। ८६ ॥ आश्चर्य नहीं कि ऐसे ही किसी आशयसे प्रेरित इन पद्योंमेंसे पहले पद्यमें लिखा है कि, चारों होकर, उसकी पूर्तिके लिए, उपर्युक्त दंड-विधानमें वर्णो से किसी भी वर्णका-अथवा मनुष्य मात्र से तथा इसी ग्रंथके अंतर्गत और भी बहतसे दंडप्र- कोई भी क्यों न हो यदि उसने स्नान नहीं किया योगोंमें गो-दानका विधान किया गया हो । अस्त है तो उसे छूना नहीं चाहिए । और शूद्रोंकोइसी प्रकार इस अध्यायमें कुछ दंड-विधान ऐसा कुम्हार, माली, नाई, तेली तथा जुलाहोंको-यदि भी देखनेम आता है जिसमें । अपराधी कोई वे स्नान भी किये हुए हों तो भी नहीं छूना चाऔर दंड किसीको' अथवा 'खता किसीकी हिए । ये सब लोग अस्पृश्य हैं। दूसरे पद्यमें यह सजा किसीको' इस दुर्नीतिका अनुसरण किया बतलाया है कि यदि किसी मातंग-श्वपचादिककी गया है। जैसे आत्महत्या ( खटक अर्थात् भील, चांडाल, म्लेच्छ, भंगी, और चमार आत्मघातीके किसी कुटुम्बीको, इत्यादि। आदिककी छाया भी शरीर पर पड़ जाय तो तुरन्त जलाशयको जाकर वस्त्रसहित स्नान करना संकीर्ण हृदयोद्वार । चाहिए ! तीसरे और चौथे पद्यमें यहाँ तक (९) अब इस प्रायश्चित्ताध्यायसे दो चार आज्ञा की है कि, यदि किसी उच्छिष्ट पदार्थसे, नमने ऐसे भी दिखलाये जाते हैं, जो जैनधर्मकी अपय मनष्यादिकसे. काकादिकसे अर्थात उदारनीतिके विरुद्ध हैं । यथाः-. कौआ, कुत्ता, गधा, ऊँट, पालतू सूअर नामके ___ * जैसा कि निम्न वाक्योंसे प्रगट है:-" यया जानवरोंसे और मलमूत्रसे छूजानेका संदेह मी जीवा हि हन्यन्ते पुच्छरोंगखुरादिभिः ॥ ९-५४॥ हो जाय अथवा किसी ऐसे छाज-छलनी वगैरयस्यां च दह्यमानायां तर्णकः पीज्यते तरं। दका तथा चाई.आसनाटिकका स्पर्श हो जाय तां गां वितरता श्रेयो लभ्यते न मनागपि ॥५५॥" जिसमें कोई अस्पृश्य पदार्थ लगा हुआ हो तो -इति अमितगत्युपासकाचारः । १ यह ग्रंथ परीक्षा द्वारा जाली सिद्ध किया जा इन दोनों ही अवस्थाओंमें दाँतों तथा जीभको चुका है । देखो जैनहितैषी दसवाँ भाग अंक १-२ । रगड़कर यंत्रमंत्रोंके साथ शुद्धजलमें तीन वार * यथा: १ आदि' शब्दसे इवान (कुत्ता ) आदिका जो "-पुष्पं देयं महाभक्त्या न तु दुष्टजनैधृतम् ॥२-१२९॥ ग्रहण किया गया है वह इससे पहलेके " स्पृष्टे विण्मूत्रपंयोथै गौ जलार्थ वा कूप पुष्पसुहेतवे । काकश्च खरोष्ट्र ग्रामशूकरे 'इस वाक्यके आधारपर किया वाटिकां संप्रकुर्वेश्च नाति दोषधरो भवेत् ॥-१३०॥” गया है। For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क २] · भद्रबाहु-संहिता। . वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए !! और पाँचवें व्यक्तिका हृदयोद्गार है जिसने शुद्धि और पद्यमें इससे भी बढ़कर यह आदेश है कि यदि अशुद्धिके तत्त्वको ही नहीं समझा * । निःसन्देह मिथ्यादृष्टियों अर्थात् अजैनोंके घर पर अपने पा- जबसे, कुछ महात्माओंकी कृपासे, जैनधर्मके त्रोंमें तथा अपने ही घर पर उनके पात्रोंमें भोजन साहित्यमें इस प्रकारके अनुदार विचारोंका प्रवेश हो जाय अथवा शूद्रके घर पर बैठकर-चाहे वह हुआ है तबसे जैनधर्मको बहुत बड़ा धक्का पहुँचा सम्यग्दृष्टि और व्रतिक जैनी ही क्यों न हो-कुछ है और उसकी सारी प्रगति रुक गई। वास्तव में खालिया जाय तो इस पापकी शांतिके लिए ऐसे अनुदार विचारोंके अनुकूल चलनेवाले संसारतुरन्त दो हजार संख्या प्रमाण जाप्यके साथ में कभी कोई उन्नति नहीं कर सकते और न पाँच उपवास करने चाहिए!!! पाठको, देखा, उच्च तथा महान् बन सकते हैं। कैसा धार्मिक उपदेश है ! घृणा और देषके पिण्डदान और तर्पण । भावोंसे कितना अलग है! परोपकारमय जीवन (१०) पहले खंडके 'दायभाग ' नामक विताने तथा जगत्का शासन, रक्षण और पालन ९वें अध्यायमें लिखा है कि 'दायग्रहण और करनेके लिए कितना अनुकूल है ! सार्वजनिक पिंडदानमें दोहिते पोतोंकी बराबर हैं' । साथ प्रेम और वात्सल्यभाव इससे कितना प्रवाहित ही, दूसरे स्थान पर पुत्रोंका विभाग करते हुए, होता है । और साथ ही, जैनधर्मके उस उदार जैनागमके अनसार छह प्रकारके पुत्रोंको दाय उद्देश्यसे इसका कितना सम्बंध है जिसका चित्र ग्रहण और पिंडदानके अधिकारी बतलाये जैनग्रंथोंमें, जैनतीर्थंकरोंकी 'समवसरण' हैं। यथाःनामकी सभाका नकशा खींचकर दिखलाया । दाये वा पिंडदाने च पौत्रैःदौहित्रकाः समाः॥२५॥ जाता है !! कहा जाता है कि जैनतीर्थकरोंकी। औरसो दत्तको मुख्यौ क्रीतसौतसहोदराः। सभामें ऊँच-नीचके भेदभावको छोड़कर, सब तथैवोपनतश्चैव इमे गौणा जिनागमे ।। मनुष्य ही नहीं बल्कि पशु-पक्षी तक भी शामिल दायादाः पिंडदाश्चैव इतरे नाधिकारिणः ॥ ८४ ॥ होते थे। और वहाँ पहुँचते ही वे आपसमें ऐसे इस कथनसे ग्रंथकर्तीने यह सूचित किया है हिलमिल जाते थे कि अपने अपने जातिविरोध कि पितरोंके लिए पिंडदानका करना भी जैनितकको भी भुला देते थे । सर्प निर्भय होकर यों द्वारा मान्य है और यह जैनधर्मकी क्रिया नकुलके पास खेलता था और बिल्ली प्रेमसे चूहे- है। परन्तु.वस्तुतः ऐसा नहीं है। यह सब हिन्दू का आलिंगन करती थी। कितना ऊँचा आदर्श धर्मकी कल्पना है। हिन्दुओंके यहाँ इस पिंड और कितना विश्व-प्रेममय-भाव है ! कहाँ यह दानके करनेसे पितरोंकी सदति आदि अनेक फल आदर्श ? और कहाँ संहिताका उपर्युक्त विधान ! माने गये हैं और उनके लिए वे गया आदिक इससे स्पष्ट है कि संहिताका यह सब कथन जैन- तीर्थों पर भी पिंड देने जाते हैं । जिसका जैनधर्मकी शिक्षा न होकर उससे बहिर्भूत है। जैन धर्मसे कुछ सम्बंध नहीं है । जैनसिद्धान्तके अनुतीर्थकरोंका कदापि ऐसा अनुदार शासन नहीं सार न तो वह पिंड उन पितरोंको पहुँचता है हो सकता। और न जैनसिद्धान्तोंसे इसका * लेखकका विचार है कि शुद्धि-तत्त्व-मीमांसा कोई मेल है । इस लिए कहना होगा कि उपर्युक्त नामका एक विस्तृत लेख लिखा जाय और उसके प्रकारका संपूर्ण कथन दूसरे धर्मोंसे उधार लेकर द्वारा इस विषय पर प्रकाश डाला जाय । अवसर रक्खा गया है। और यह किसी ऐसे संकीर्ण हृदय मिलने पर उसके लिए प्रयत्न किया जायगा। For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [ भाग १३ और न उसके द्वारा उनकी सद्गति आदि कोई दन्तधावनका फल नरक । दूसरा कल्याण हो सकता है। इस लिए संहिताका यह कथन जैनधर्मके विरुद्ध है। इसी प्रकार (११) संहिताके पहले अध्यायमें, दन्तधाकुल-देवताओंका तर्पण-विषयक कथन भी जैन- वनका वर्णन करते हुए, एक पद्य इस प्रकारसे धर्मके विरुद्ध है, जिसे ग्रंथकर्ताने इसी खंडके दिया हःपहले अध्यायमें दिया हैं। यथाः " सहस्रांशावनुदिते यः कुर्याद्दन्तधावनम् । " वामहस्तपयःपात्राजलमग्नकराजलौ। स पापी नरकं याति सर्वजीवदयातिगः ॥ ३८ ॥ कृत्वान्नममृतीकृत्य तर्पयेत्कुलदेवताः ॥ ९७ ॥ इसमें लिखा है कि 'जो मनुष्य सर्योदयसे 'ॐ ही ॐ वँ हूँ पयः इदमन्नममृतं भवतु स्वाहा। पहले दन्तधावन करता है वह पापी है, सर्व अन्नेन घृतीसक्तेन नमस्कारेण वै भुवि। जीवोंके प्रति निर्दयी है और नरक जायगा । त्रिस्र एवाहुतीदद्याद्भोजनादेः तु दक्षिणे ॥ ९८ ॥ परन्तु उसने पापका कौनसा विशेष कार्य किया ? यह कथन भोजन-समयका है-भोजनके लिए कैसे सर्व जीवोंके प्रति उसका निर्दयत्व प्रमागोबरका चतुष्कोणादि मंडल बनाकर बैठनेके । णित हुआ ? और जैनधर्मके किस सिद्धान्तके बादका यह विधान है-इसमें लिखा है कि अनुसार उसे नरक जाना होगा ? इन सब बातोंभोजनसे पहले, बायें हाथके जलपात्रसे अंजलिमें का उक्त पद्यसे कुछ भी बोध नहीं होता। आगे जल लेकर और उपर्युक्त मंत्र पढ़कर, अन्नका पीछेके पद्य भी इस विषयमें मौन हैं और कुछ अमृतीकरण करे । और फिर उस घृतमिश्रित अन्नसे कुल देवताओंका इस प्रकारसे तर्पण करे उत्तर नहीं देते । जैनसिद्धान्तोंको बहुत कुछ कि उस अन्नसे तीन आहुतियें दक्षिणकी ओर टट टटोला गया । कमफिलासोफीका बहुतेरा मथन पथ्वी पर छोडे ।। इसके बाद आपोऽशनका किया गया । परन्तु ऐसा कोई सिद्धान्त-कर्म विधान है। अस्तु; यह सब कथन भी हिन्दूधर्मका प्रवृत्तिका कोई नियम-मेरे देखनेमें नहीं आया कथन है और उन्हींके धर्मग्रंथोंसे लिया गया जिससे बेचारे प्रातःकाल उठकर दन्तधावन मालूम होता है । जैनसिद्धान्तके अनुसार तर्प के अनुसार तप करनेवालेको नरक भेजा जाय । हाँ, इस ढूँड़ णका अन्नजल पितरों तथा देवताओंको नहीं खोजमें, स्मृतिरत्नाकरसे, हिन्दूधर्मका एक पहुँच सकता और न उससे उनकी कोई तृप्ति होती है । हिन्दूधर्ममें तर्पणका कैसा सिद्धान्त वाक्य जरूर मिला है, जिसमें उपवासके दिन है ? कैसी कैसी विचित्र कल्पनायें हैं ? जैनधर्मके दन्तधावन करनेवालेको नरककी कड़ी सजा सिद्धान्तोंसे उनका कहाँतक मेल है ? वे कितनी दी गई है । और इतने पर भी संतोष नहीं किया असंगत और विभिन्न हैं ? और किस प्रकारसे गया बल्कि उसे चारों युगोंमें व्याघ्रका शिकार कळ कपट-वेषधारी निर्बल आत्माओंने उन्हें भी बनाया गया है । यथाःजैनसमाजमें प्रचलित करना चाहा है ? इन सब " उपवासदिने राजन् दन्तधावनकृन्नरः। . . बातोंका कुछ विशेष परिचय पानेके लिए स घोरं नरकं याति व्याघ्रभक्षश्चतुर्युगम् ।। पाठकोंको 'जिनसेन-त्रिवर्णाचार' की परीक्षाका लेख देखना चाहिए ! -इति नारदः। १ यह लेख जैनहितैषीकी १० वें वर्षकी फायलमें बहुत संभव है कि ग्रंथकर्ताने हिन्दूधर्मके छपा है। किसी ऐसे ही वाक्यका अनुसरण किया हो। For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क २] भद्रबाहु-संहिता। ५९ अथवा जरूरत बिना जरूरत उसे कुछ परिवर्तन बातोंको छोड़िए, और खास पहले पद्य नं. २४८ करके रक्खा हो। परन्तु कुछ भी हो इसमें संदेह के 'कुटुम्बयुक् ' पद पर ध्यान दीजिए, नहीं कि संहिताका उक्त वाक्य सैद्धान्तिक जिसका अर्थ होता है कि वह राजा कुटुम्बदृष्टिसे जैनधर्मके बिल्कुल विरुद्ध है। सहित नरक जाता है । क्यों ? कुटुम्बियोंने क्या कोई अपराध किया है जिसके लिए उन्हें अद्भुत न्याय। नरक भेजा जाय ? चाहे उन बेचारोंको राजाके (१२) पहले खंडके तीसरे अध्यायमें एक कृत्योंकी खबर तक भी न हो, वे उसके उन स्थान पर ये दो पद्य पाये जाते हैं: कार्यों में सहायक और अनुमोदक भी न हों और दंडोऽदंड्येषु देयस्तु यशोघ्नो दुरिताकरः । चाहे राजाके उस आचरणको बुरा ही समझते हों; परत्र नरकं याति दाता भूपः कुटुम्बयुक् ॥ २४८ ॥ परन्त फिर भी उन सबको नरक जाना होगा ! अदड्यदंडनं राजा कुर्वन्दंड्यानदंडयन् । यह कहाँका न्याय और इन्साफ है ! ! जैनधर्मकी लोके निन्दामवाप्नोति परत्र नरकं व्रजेत् ॥ २४९ ॥ कर्मफिलासोफीके अनुसार कुटुम्बका प्रत्येक ___ इन दोनों पद्योंमें निरपराधीको दंड देनेवाले व्यक्ति अपने ही कृत्योंका उत्तरदायी और राजाको और दूसरे पयमें अपराधीको छोड़ देने- अपने ही उपार्जन किये हए कर्मोंके फलका भोक्ता वाले-क्षमा कर देनेवाले-राजाको भी नरकका है। ऐसी हालतमें ऊपरका सिद्धान्त कदापि पात्र ठहराया है। लिखा है कि इस लोकमें जैनधर्मका सिद्धान्त नहीं हो सकता । अस्तु: उसकी निन्दा होती है-जो प्रायः सत्य है- इसी प्रकारका एक कथन दायभाग नामके और मरकर परलोकमें वह नरक गतिको जाता है अध्यायमें भी पाया जाता है । यथाः- . नरक गतिका यह फर्मान इस विषयका कोई " दत्तं चतुर्विधं द्रव्यं नैव गृह्णति चोत्तमाः। फाइनल आर्डर ( अन्तिम फैसला ) हो सकता है। अन्यथा सकुटुम्बास्ते प्रयान्ति नरकं ततः ॥७१ ॥ या नहीं ? अथवा यों कहिए कि वह नियमसे नरक गति जायगा या नहीं ? यह बात अभी इसमें लिखा है कि 'उत्तम पुरुष दिये हुए विवादास्पद है। जैनसिद्धान्तकी दृष्टिसे याद चार प्रकारके द्रव्यको वापिस नहीं लेते । और किसी निरपराधीको दंड मिल जाय अथवा कोई हो, यदि ऐसा करते हैं तो वे उसके कारण कुटुम्ब सहित नरकमें जाते हैं। ऐसे अटकलपच्चू और अपराधी दंडसे छूट जाय या छोड़ दिया जाय। तो सिर्फ इतने कृत्यसे ही कोई राजा नरकका - अव्यवस्थित वाक्य कदापि केवली या श्रुतकेवली. के वचन नहीं हो सकते । उनके वाक्य बहुत ही पात्र नहीं बन जाता । उसके लिए और भी अनेक बातोंकी जरूरत रहती है । परन्तु मनुका ऊँचे और तुले होने चाहिए । परन्तु ग्रन्थकर्ता ' इन्हें 'उपासकाध्ययन' से उद्धृत करके ऐसा विधान जरूर पाया जाता है । यथाः लिखना बयान करता है, जो द्वादशांगश्रुतका " अदंड्यान्दंडयन् राजा दंड्यांश्चैवाप्यदंडयन् । ... सातवाँ अंग कहलाता है ! पाठक सोचें,कि ग्रंथअयशो महदाप्नोति नरकं चैव गच्छति ॥ ८-१२८ ॥ कती महाशय कितने सत्यवक्ता है ! यह पद्य ऊपरके दूसरे पद्य नं २४९ से बहुत कुछ मिलता जुलता है; और दोनोंका विषय भी एक कन्याओं पर आपत्ति। है । आश्चर्य नहीं कि ऊपरका वह पद्य इसी पद्य (१३) दूसरे खंडके 'लक्षण' नामक परसे बनाया गया हो । परंतु इन सब प्रासंगिक ३७ वें अध्यायमें, स्त्रियोंके कुलक्षणोंका वर्णन For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ करते हुए, लिखा है कि जिस कन्याका नाम कूटोपदेश और मायाजाल । किसी नदी-देवी-कुल-आम्नाय-तीर्थ या वृक्षके (१४ ) तीसरे खंडके 'प्रतिष्ठा-क्रम' नामक नाम पर होवे उसका मुख नहीं देखना चाहिए। दूसरे अध्यायमें, गुरुके उपदेशानुसार कार्य करनेयथाः का विधान करते हुए, लिखा है कि:--- .. " नदीदेवीकुलाम्नायतीर्थवृक्षसुनामतः “ यो न मन्यत तद्वाक्यं सो मन्येत न चाहतम् । एतन्नामा च या कन्या तन्मुखं नावलोकयेत्॥१२०॥" जैनधर्मबहिर्भतः प्राप्नयान्नारकी गति ॥ ८८॥" यह वचन कितना निष्ठुर है ! कितना धर्म अर्थात्-जो गुरुके वचनको नहीं मानता वह शन्य है ! और इसके द्वारा कन्याओं पर कितनी अर्हन्तके वचनोंको नहीं मानता । उसे जैनधर्मसे आपत्ति डालनेका आयोजन किया गया है, बहिर्भत समझना चाहिए और वह मरकर नरक इसका विचार पाठक स्वयं कर सकते हैं । सम- गतिको प्राप्त होगा। नरक गतिका यह फर्मान भी झमें नहीं आता कि किस आधार पर यह आज्ञा बडा ही विलक्षण है! इसके अनुसार जो प्रचारित की गई है ? और लक्षण-शास्त्रसे इस लोग जैनधर्मसे बहिर्भूत है अर्थात् अजैनी. कथनका क्या सम्बंध है ! क्या पैदा होते समय हैं उन सबको नरक जाना पडेगा ! कन्याके मस्तकादिक किसी अंग विशेष साथ ही, जो जैनी है और जैनगरुके-पदवीधारी पर उसका कोई नाम खुदा हुआ होता है जिससे गुरुके-उलटे सीधे सभी वचनोंको नहीं मानतेअशुभ या शुभ नामके कारण वह भयं- किसीको मान लेते हैं और किसीको अमान्य करी समझली जाय ? और लोगोंको उससे अपना कर देते हैं-उन सबको भी नरक जाना होगा! मुँह छिपाने, आँखें बन्द करने या उसे कहीं कैसा कूटोपदेश है! स्वार्थ-रक्षाकी कैसी विचित्र प्रवासित करनेकी जरूरत पैदा हो ? जब ऐसा युक्ति है ! समाजमें कितनी अन्धश्रद्धा फैलानेकुछ भी न होकर स्वयं मातापिताओंके द्वारा वाला है ! धर्मगुरुओं-स्वार्थसाधुओं-कपट वेष अपनी इच्छानुसार कन्याओंका नाम रक्खा जाता धारियों के अन्याय और अत्याचारका कितना है तो फिर उसमें उन बेचारी अबलाओंका क्या उत्पादक और पोषक है। साथ ही, जैनियोंके दोष है जिससे वे अदर्शनीय और अनवलोकनीय तत्त्वार्थसत्र में दिये हुए नरकायुके कारण विषसमझी जायँ ? जिन पाठकोंको उस कपटी यक सूत्रसे-'बहारंभपरिग्रहत्वं नारकस्यासाधुका उपाख्यान याद है, जिसने अपनी स्वार्थ- युषः' इस वाक्यसे-इसका कहाँ तक सम्बंध है? सिद्धिके लिए-अपनी पाशविक इच्छाको पूरा इन सब बातोंको विज्ञ-पाठक विचार सकते हैं। करनेके आभिप्रायसे-एक सर्वांग सुन्दरी कन्याको समझमें नहीं आता कि जैनगुरुके किसी वचनको कुलक्षणा और अदर्शनीया कह कर उसे उसके न माननेसे ही किस प्रकार कोई जैनी अर्हन्तके पिता द्वारा मंजूषमें बन्द कराकर नदीमें बहाया वचनोंको माननेवाला नहीं रहता? क्या सभी था, वे इस बातका अनुभव कर सकते हैं कि समय जैनगुरु पूर्णज्ञानी और वीतराग होते हैं! क्या समय पर इस प्रकारके निराधार और निर्हेतुक उनमें कोई स्वार्थसाधु, कपट-वेषधारी, निर्बवचन ऐसे ही स्वार्थसाधुओं द्वारा भूमंडल पर लात्मा और कदाचारी नहीं होता ? और क्या प्रचारित हुए हैं। मनुष्योंको विवेकसे काम लेना जिन गुरुओंके कृत्योंकी यह समालोचना (परीक्षा) चाहिए और किसीके कहने सुनने या धोखेमें हो रही है वे जैनगुरु नहीं थे ? यदि ऐसा कोई नहीं आना चाहिए। नियम नहीं है बल्कि वे अल्पज्ञानी, रागी, देषी For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क २ ] " आदि सभी कुछ होते हैं । और जिनके कृत्योंकी यह समालोचना हो रही है वे भी जैनगुरु कह लाते थे तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि जो गुरुके वचनको नहीं मानता वह अर्हन्तके वचनों को भी नहीं मानता ? और उसे जैनधर्मसे बाहर्भूत-खारिज - अजैनी समझना चाहिए ? मालूम होता है कि यह सब भोले जीवोंको ठगने के लिए कपटी साधुओंका मायाजाल है । उनके कार्यों में कोई बाधा न डाल सके उनकी काली कृतियों पर उनके अत्याचारदुराचारों पर कोई आक्षेप न कर सके और समाजमें उनकी उलटी सीधी सभी बातें प्रचलित हो जायँ, इन्हीं सब बातोंके लिए यह बँध बाँधा गया है । आगे 'साफ लिख दिया है कि ' तदाज्ञाकारको मर्त्यो न दुष्यति विधौ पुनः – गुरुकी आज्ञासे काम करनेवालेको कोई दोष नहीं लगता । कितना बड़ा आश्वासन है । ऐसे ही मिथ्या आश्वासनके जैनसमाजमें मिथ्यात्वका द्वारा हुआ है । अनेक प्रकारकी पूजायें- देवी-देवताओंकी उपासनायें जारी हुई हैं, जिनका बहुतसा कथन इस ग्रंथ में भी पाया जाता है । इसी प्रतिष्ठाध्यायमें अनेक ऐसे कृत्योंकी सूचना की गई है, जो जैनधर्मके विरुद्ध हैं- जैनसिद्धान्तसे जिनका कोई सम्बंध नहीं है और जिनका सर्व साधारण के सन्मुख स्वतंत्र विवेचन प्रगट किये जाने की जरूरत है । यहाँ इस अध्यायके सम्बंध में सिर्फ इतना और बतलाया जाता है कि, इसमें मुनिको - साधारण मुनिको नहीं बल्कि गणि और गच्छाधिपतिको — प्रतिष्ठाका 'अधिकारी बतलाया है । उसके द्वारा प्रतिष्ठित किये हुए बिम्बादिकके पूजन सेवनका उपदेश दिया है । और यहाँ तक लिख दिया है कि जो प्रतिष्ठा ऐसे महामुनि द्वारा न हुई हो उसे सम्यक तथा सातिशयवती प्रतिष्ठा ही न सम प्रचार 1 भद्रबाहु -संहिता । ६१ झनी चाहिए। और इस लिए उक्त प्रतिष्ठामें प्रतिष्ठित हुई मूर्तियाँ अप्रतिष्ठित ही मानीजानी चाहिए। यथा: - "C सामायिकादिसंयुक्तः प्रभुः सूरिर्विचक्षणः । देशमान्यो राजमान्यः गणी गच्छाधिपो भवेत् ॥९२॥ बिम्बं प्रतिष्ठामिन्द्रत्वं तेन संस्कारितं भजेत् । नोचेत्प्रतिष्ठा न भवेत्सम्यक्सातिशयान्विता ॥ ९३ ॥ परन्तु इन्द्रनन्दि, वसुनन्दि और एकसंधि आदि विद्वानोंने, पूजासारादि ग्रंथोंमें, महाव्रती मुनिके लिए प्रतिष्ठाचार्य होने का सख्त निषेध किया है । और अणुवती के लिए चाहे वह स्वदार संतोषी हो या ब्रह्मचारी - उसका विधान किया है । ऐसी हालत में, जैनी लोग कौनसे गुरुकी बात मानें, यह बड़ी समस्या है ! जिस गुरुकी बातको वे नहीं मानेंगे उसीकी आज्ञा उल्लंघन के पाप द्वारा उन्हें नरक जाना पड़ेगा । इस लिए जैनियोंको सावधान होकर अपने बचने का कोई उपाय करना चाहिए | अजैन देवताओंकी पूजा । (१५) भद्रबाहु संहिता के तीसरे खंड मेंऋषिपुत्रिका ' नामके चौथे अध्याय में, - देवताओं की मूर्तियोंके फूटने टूटने आदिरूप उत्पातोंके फलका वर्णन करते हुए, ' अथान्यदेव - तोत्पातमाह ' यह वाक्य देकर, लिखा है कि ' भंग होने पर - कुबेरकी प्रतिमा वैश्योंका, स्कंदकी प्रतिमा भोज्योंका, नंदिवृषभ ( नादिया बैल ) की प्रतिमा कायस्थोंका नाश करती है; इन्द्रकी प्रतिमा युद्धको उपस्थित करती है; कामदेवकी प्रतिमा भोगियोंका, कृष्णकी प्रतिमा सर्व लोकका, अर्हत-सिद्ध तथा बुद्ध देवकी प्रतिमायें साधुओंका नाश करती हैं; कात्यायनी - चंडिका - केशी - काली की मूर्तियाँ सर्व स्त्रियोंका, पार्वती दुर्गा-सरस्वती - त्रिपुरा की मूर्तियाँ बालकों का, वराहीकी मूर्ति हाथियोंका घात “ For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ करती है; नागिनीकी मूर्ति स्त्रियोंके गर्भोका और लक्ष्मी तथा शाकंभरी देवीकी मूर्तियाँ नगका विनाश करती हैं। इसी प्रकार यदि शिवलिंग फूट जाय तो उससे मंत्रीका भेद होता है, उसमें से अग्निज्वाला निकलने पर देशका नाश समझना चाहिए; और चर्बी, तेल तथा रुधिरकी धारायें निकलने पर वे किसी प्रधान पुरुषके रोगका कारण होती हैं । यदि इन देवताओंकी भक्ति भावपूर्वक पूजा नहीं की जाती है तो ये सभी उत्पात तीन महीने के भीतर अपना अपना रंग दिखलाते हैं अर्थात् फल देते हैं । ' इस कथन के आदि और अन्तकी दो दो गाथायें नमूने के तौर पर इस प्रकार है: जैन हितैषी , इसके आगे उत्पातोंकी शांति के लिए उक्त कुबेरादिक देवताओंके पूजनका विधान करते हुए लिखा है कि 'ऐसी उत्पातावस्थामें ये सब देव गंध, माल्य, दीप, धूप और अनेक प्रकारके बलिदानोंसे पूजा किये जाने पर संतुष्ट हो जाते हैं, शांतिको देते हैं और पुष्टिप्रदान करते हैं । साथ ही यह भी लिखा है कि, — चूँ कि अपमानित देवता मनुष्योंका नाश करते हैं और पूजित देवता उनकी सेवा करते हैं, इस लिए इन देवताओंकी नित्य ही पूजा करना श्रेष्ठ है। इस पूजाके कारण न तो देवता किसीका नाश करते हैं, न रोगोंको उत्पन्न करते हैं और न किसीको दुःख या संताप देते हैं। बल्कि अति विरुद्ध देवता भी शांत हो जाते हैं । यथा: ܕ इसके बाद कुछ दूसरे प्रकारके उत्पातोंका वर्णन देकर, सर्व प्रकार के उत्पातोंकी शांतिके लिए अर्हन्त और सिद्धकी पूजा के साथ हरिहर ब्रह्मादिक देवोंके पूजनका भी विधान किया है। साथ ही, ब्राह्मण देवताओंको दक्षिणा देने - सोना, गौ और भूमि प्रदान करने तथा संपूर्ण ब्राह्मणों और श्रेष्ठ मुनियों आदिको भोजन -*“ वणियाणं च कुबेरो खंदो भोयाण णासणं कुणदि । खिलाने का भी उपदेश दिया है। और अन्त में कायस्थाणं वसहो इंदो रणं णिवेदेदि ॥ ८२ ॥ लिखा है कि उत्पात - शांति के लिए यह विधि हमेशा करने योग्य है । यथाः 46 • भोगवदीण य कामो किण्हो पुण सव्वलोयणासयरो | अरहंत सिद्धबुद्धा जदीण णासं पकुव्वंति ॥ ८३ ॥ 'फुडिदो मंतियभेद अग्गीजालेण देसणासयरो । वसतेलरुहिरधारा कुणंति रोगं णरवरस्स ॥ ८७ ॥ मासेहिं तीयेहिं रूवं दंसंति अप्पणो सव्त्र । जदि वि कीरदि पूजा देवाणं भत्तिरायेण ॥ ८८ ॥ [ भाग १३ मलेहिं गंधधूवेहिं पूजिदा बलिपयार दावेहिं । तूसंति तत्थ देवा संतिं पुष्टिं णिवेदिति ॥ ८९ ॥ . अवमाणिया य णासं करंति तह पूजिदा य पूजति । देवाण णिश्च पूजा तम्हा पुण सोहणा भणिया ।। ९० । य कुव्वंति विणासं पयरोगे णेव दुक्खसंतावं । देवावि अइविरुद्धा हवंति पुण पुज्जिदा संता ॥ ९१ ॥ ८८ अरहंत सिद्धपूजा कायव्वा सुद्धभत्ताए ॥ ११० ॥ हरिहर विरंचिआईदेवाण य दहियदुद्धण्हवणंपि । पच्छावलिं च सिरिखंडेण य लेवधूपदीवआदीहिं ॥ १११ जं किंविवि उप्पादं अण्णं विग्धं च तत्थ णासेइ । दक्खिणदेज्जसुवण्णं गावी भूमीउ विप्पदेवाणं ॥११२॥ जवस बह्मे तवसीलसव्वलोयस्स । णिसाव्त्रय यइ सारय एस विही सव्वकालस्स ॥११३॥ ८.८ 1 इस तरह पर, बहुत स्पष्ट शब्दों में, अजैन देवताओंके पूजनका यह विधान इस ग्रन्थमें पाया जाता है । और वह भी प्राकृत भाषामें, जिस भाषा में बने हुए ग्रंथको आजकलकी साधारण जैन - जनता कुछ प्राचीन और अधिक महत्वका समझा करती है। इस विधानमें सिर्फ उत्पा तोंकी शांति के लिए ही हरि-हर-ब्रह्मादिक देवताओंका पूजन करना नहीं बतलाया, बल्कि नित्य पूजन न किये जाने पर कहीं वे देवता अपने को अपमानित न समझ बैठें और इस लिए कुपित होकर जैनियों में अनेक प्रकार के रोग, मरी तथा अन्य उपद्रव खड़े न करदें, इस भयसे उनका For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क २ ] नित्य पूजन करना भी ठहराया गया है। और उसे सुन्दर श्रेष्ठ पूजा - शोभना - पूजा- बयान किया है । आश्चर्य है कि इतने पर भी कुछ जैन विद्वान् इस ग्रंथको जैनग्रन्थ मानते हैं | जैनग्रंथ ही नहीं, बल्कि श्रुतकेवलीका वचन - स्वीकार करते हैं और जैनसमाजमें उसका प्रचार करना चाहते हैं ! अन्धी श्रद्धाकी भी हद हो गई !! यहाँ पर मुझे उस मनुष्य की अवस्था याद आती है जो अपने घरकी चिट्ठीमें किसी कौतुकी द्वारा यह लिखा हुआ देखकर, कि तुम्हारी स्त्री विधवा हो गई है फूट फूट कर रोने लगा था। और लोगों के बहुत कुछ समझाने • बुझाने पर उसने यह उत्तर दिया था कि 'यह तो मैं भी समझता हूँ कि मेरे जीवित रहते हुए मेरी स्त्री विधवा कैसे हो सकती है । परन्तु चिट्ठी में ऐसा ही लिखा है और जो नौकर उस चिट्ठीको लाया है वह बड़ा विश्वासपात्र है, इस लिए वह जरूर विधवा हो गई है, इसमें कोई संदेह नहीं; ' और यह कह कर फिर सिरमें दुह थड़ मारकर रोने लगा था । जैनियोंकी हालत भद्रबाहु -संहिता । कुछ ऐसी ही विचित्र मालूम होती है। किसी ग्रंथ में जैनसिद्धान्त, जैनधर्म और जैननीतिके प्रत्यक्ष विरुद्ध कथनोंको देखते हुए मी, 'यह ग्रंथ हमारे शास्त्र -भंडार से निकला है और एक प्राचीन जैनाचार्यका उस पर नाम . लिखा हुआ है, बस इतने परसे ही, बिना किसी जाँच और परीक्षाके, उस ग्रंथको मानने-मनाने के लिए तैयार हो जाते हैं, उसे साष्टांग प्रणाम करने लगते हैं और उस पर अमल भी शुरू कर देते हैं! यह नहीं सोचते कि जाली ग्रंथ भी हुआ करते हैं, वे शास्त्र - भंडारोंमें भी पहुँच जाया करते हैं और इस लिए हमें 'लकीरके फकीर न बनकर विवेकसे काम लेना चाहिए । पाठक सोचें, इस अंधेरका भी कहीं कुछ ठिकाना है ! क्या जैनगुरुओंकी - ६३ चाहे वे दिगम्बर हों या श्वेताम्बर - ऐसी आज्ञायें भी जैनियोंके लिए माने जानेके योग्य हैं ? क्या इन आज्ञाओंका पालन करने से जैनियोंको कोई दोष नहीं लगेगा ? क्या उनका श्रद्धान और आचरण बिल्कुल निर्मल ही बना रहेगा ? और क्या इनके उल्लंघन से भी उन्हें नरक जाना होगा ? सब बातें बड़ी ही चक्क - रमें डालनेवाली हैं । और इस लिए जैनियोंको बहुत सावधान होनेकी जरूरत हैं । यहाँ पाठकों पर यह भी प्रगट कर देना उचित है कि इस अध्यायके शुरू में भद्रबाहु मुनिका नामोल्लेख पूर्वक यह प्रतिज्ञावाक्य भी दिया हुआ है:अह खलु तो रिसिपुत्तियणाम णिमित्तं सूप्पाज्झयणा । पवक्खइस्सामि सयं सुभद्दबाद्दू मुणिवरोहं ॥ ३ ॥ इसमें लिखा है कि 'मैं भद्रबाहु मुनिवर निश्चयपूर्वक उत्पादाध्ययन नाम के पूर्व से स्वयं ही इस ' ऋषिपुत्रिका ' नामके निमित्ताध्यायका वर्णन करूँगा । ' इससे यह सूचित किया गया है कि यह अध्याय खास द्वादशांग वाणी से निकला हुआ है- उसके ' उत्पाद ' नामके एक पूर्वका अंग है - और उसे भद्रबाहु स्वामीने खास अपने आप ही रचा है- अपने किसी शिष्य या चेलेसे भी नहीं बनवाया और इस लिए वह बड़ी ही पूज्य दृष्टि से देखे जानेके योग्य है ! निःसन्देह ऐसे ऐसे वाक्योंने सर्व साधारणको बहुत बड़े धोखेमे डाला है । यह सब कपटी साधुओंका कृत्य है, जिन्हें कूट बोलते हुए जरा भी लज्जा नहीं आती और जो अपने स्वार्थके सामने दूसरों के हानि-लाभको कुछ नहीं समझते। ग्रहादिकदेवता | (१६) इसी प्रकार से दूसरे अध्यायोंमें और खास कर तीसरे खंडके 'शांति' नामक दसवें अध्यायमें रोग, मरी, दुर्भिक्ष और उत्पातादिककी शांतिके लिए ग्रह - भूत-पिशाच योगिनी-यक्षा For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ दिक तथा सर्पादिक और भी बहुतसे देवता - ओंकी पूजाका विधान किया है, उन्हें शान्तिका कर्त्ता बतलाया हैं और उनसे तरह तरहकी प्रार्थनायें की गई हैं; जिन सबका कथन यहाँ कथन विस्तार भयसे छोड़ा जाता है । सिर्फ ग्रहोंके पूजन-सम्बंध में दो श्लोक नमूने के तौर पर उद्धृत किये जाते हैं जिनमें लिखा है कि ' ग्रहोंका पूजन करनेके बाद उन्हें बलि देनेसे, जिनेंद्रका अभिषेक करनेसे और जैन महामुनियोंके संघको दान देनेसे, नवग्रह तृप्त होते हैं और तृप्त होकर उन लोगों पर अनुग्रह करते हैं जो ग्रहोंसे पीड़ित हैं। साथ ही, अपने किये हुए रोगोंको दूर कर देते हैं । यथा:" पूजान्ते बलिदानेन जिनेन्द्राभिषवेण च । महाश्रमण संघस्य दानेन विहितेन च ॥ २०९ ॥ नवग्रहास्ते तृप्यंति ग्रहातिश्चानुगृह्णते । शमयंति रोगांस्तान्स्वस्वस्थानस्वात्मनाकृतान् ॥२१०॥ जैनहितैषी - इससे यह सूचित किया गया है कि सूर्या - दिक नव देवता अपनी इच्छासे ही लोगों को कष्ट देते हैं और उनके अंगोंमें अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न करते हैं । जब वे पूजन और बलिदाना - दिकसे संतुष्ट हो जाते हैं तब स्वयं ही अपनी मायाको समेट लेते हैं और इच्छापूर्वक लोगों पर अनुग्रह करने लगते हैं । दूसरे देवताओंके पूजन सम्बंध में भी प्रायः इसी प्रकारका भाव व्यक्त किया गया है । इससे मालूम होता है कि यह सब पूजन विधान जैनसिद्धान्तोंके विरुद्ध है, मिथ्यात्वादिकको पुष्ट करके जैनियोंको उनके आदर्शसे गिरानेवाला है और, इस लिए कदापि इसे जैनधर्मकी शिक्षा नहीं कह सकते । स्वामिकार्तिकेय लिखते हैं कि ' जो मनुष्य ग्रह, भूत, पिशाच, योगिनी और यक्षोंको अपने रक्षक मानता है और इस लिए पूजनादिक द्वारा उनके शरणमें प्राप्त होता [ भाग - १३ है, समझना चाहिए कि वह मूढ़ है और उसके तीव्र मिथ्यात्वका उदय है । यथा: " एवं पेच्छं तो बिहु गहभुयपिसायजोइणीजक्खं सरणं भण्णइ मूढो सुगाढमिच्छत्तभावादो ॥ २७ ॥ इसी प्रकारके और भी बहुत से लेखोंसे, जो दूसरे ग्रंथोंमें पाये जाते हैं, स्पष्ट है कि यह सब पूजन-विधान जैनधर्मकी शिक्षा न होकर दूसरे धर्मों से उधार लिया गया है। गुरुमंत्र या गुप्तमंत्र | (१७) उधार लेनेका एक गुरुमंत्र या गुप्तमंत्र भी इस ग्रंथके अन्तिम अध्यायमें पाया जाता है और वह इस प्रकार हैं:— " शान्तिनाथमनुस्मृत्य येने केन प्रकाशितम् । दुर्भिक्षमारीशान्त्यर्थं विदध्यात्सुविधानकम् ॥ २२५ ॥ • इसमें लिखा है कि 'दुर्भिक्ष और मरी. ( उप लक्षणसे रोग तथा अन्य उत्पातादिक ) की शांति के लिए जिस किसी भी व्यक्तिने कोई अच्छा विधान प्रकाशित किया हो वह 'शांतिनाथको स्मरण करके - अर्थात् शांतिनाथकी पूजा उसके साथ जोड़ करके - जैनियोंको भी करलेना चाहिए ।' इससे साफ तौर पर अजैन विधान को जैन बनानेकी खुली आज्ञा और विधि पाई जाती है । इसी मंत्रके आधार पर, मालूम होता है कि, ग्रंथकर्ताने यह सब पूजन - विधान दूसरे धर्मोसे उधार लेकर यहाँ रक्खा है । शायद इसी मंत्रकी शिक्षासे शिक्षित होकर ही उसने दूसरे बहुत से प्रकरणों को भी, जिनका परिचय पहले लेखोंमें दिया गया है, अजैन ग्रंथोंसे उठाकर इस संहितामें शामिल किया हो । और इस तरह पर उन्हें भद्रबाहुके वचन प्रगट करके जैनके कथन बनाया हो । परन्तु कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि, यह मंत्र बहुत बड़े कामका मंत्र है | देखने में छोटा मालूम होने पर भी इसका प्रकाश दूर तक फैलता है और यह अनेक बड़े बड़े For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क २ ] विषयों पर भी अपना प्रकाश डालता है । इस लिए इसे महामंत्र कहना चाहिए। नहीं मालूम इस महामंत्रके प्रभावसे समय समय पर कितनी कथायें, कितने व्रत, कितने नियम, कितने विधान, कितने स्तोत्र, कितनी प्रार्थनायें, कितने पूजा-पाठ, कितने मंत्र और कितने सिद्धान्त तक जैन साहित्य में प्रविष्ट हुए हैं, जिन सबकी जाँच और परीक्षा होनेकी जरूरत है । जाँचसे पाठकों को मालूम होगा कि संसारमें धर्मोकी पारस्परिक स्पर्धा और एक दूसरे की देखा देखी आदि कारणोंसे कितने काम हो जाते हैं और फिर वे कैसे आप्तवाक्यका रूप धारण कर लेते हैं । शान्ति-विधान और झूठा भद्रबाहु -संहिता | आश्वासन । ( १८) इस संहिताके तीसरे खंड में - 'शांति' नामक १० वें अध्यायमें - रोग मरी और शत्रुओं आदिकी शांति के लिए एक शांति-विधानका वन देकर लिखा है कि, 'जो कोई राष्ट्र, देश, पुर, ग्राम, खेट, कर्वट, पत्तन, मठ, घोष, संवाह, वैला, द्रोणमुखादिक तथा घर, सभा, देवमंदिर बावड़ी, नदी, कुआँ और तालाब इस शांतिहोम - के साथ स्थापन किये जाते हैं वे सब निश्चयसे उस वक्त तक कायम रहेंगे जब तक कि आका शर्में चंद्रमा स्थित है । अर्थात् वे हमेशा के लिए, अमर हो जायँगे- उनका कभी नाश नहीं होगा | यथाः ee 'राष्ट्रदेशपुरग्रामखेटकर्वटपत्तनं । मठं च घोषसंवाहवेलाद्रोणमुखानि च ॥ ११५ ॥ इत्यादीनां गृहाणां च सभानां देववेखनाम् । वापीकूपतटाकानी सन्नदीनां तथैव च ॥ ११६ ॥ शांतिहोमं पुरस्कृत्य स्थापयद्दर्भमुत्तमं । आचंद्रस्थायि तत्सर्वे भवत्येव कृते सति ॥ ११७ ॥ १ शायद इसी लिए ग्रंथकर्त्ताने, अपने अन्तिम वक्तव्यमें, इस संहिताका ' महामंत्रयुता' ऐसा विशेषण दिया हो ? ९-१० ६५ इस कथनमें कितना अधिक आश्वासन और प्रलोभन भरा हुआ है, यह बतलाने की यहाँ जरूरत नहीं है । परन्तु इतना जरूर कहना होगा कि यह सब कथन निरी गप्पके सिवाय और कुछ भी नहीं है । ऐसा कोई भी विधान नहीं हो सकता जिससे कोई कृत्रिम पदार्थ अपनी अवस्था विशेषमें हमेशा के लिए स्थित रह सके । नहीं मालूम कितने मंदिर, मकान, कुएँ बावड़ी, और नगर-ग्रामादिक इस शांति-विधानके साथ स्थापित हुए होंगे जिनका आज निशान भी नहीं है और जो मौजूद हैं उनका भी एक दिन निशान मिट जायगा । ऐसी हालत में संहिताका उपर्युक्त कथन बिल्कुल असंभव मालूम होता है और उसके द्वारा लोंगोको व्यर्थ - का झूठा आश्वासन दिया गया है। श्रुतकेवली जैसे विद्वानोंका कदापि ऐसा निःसार और गौरवशून्य वचन नहीं हो सकता । अस्तु; जिस शांतिविधानका इतना बड़ा माहात्म्य वर्णन किया गया है और जिसके विषयमें लिखा है कि वह अकालमृत्यु, शत्रु, रोग और अनेक प्रकारकी मरी तकको दूर कर देनेवाला है उसका परिचय पानेके लिए पाठक जरूर उत्कंठ होंगे । इस लिए यहाँ संक्षेपमें उसका भी वर्णन दिया जाता है । और वह यह है कि ' शांतिविधानके मुख्य तीन अंग है - १ शांतिभट्टारकका महाभिषेक २ बलिदान और ३ होम । इन तीनों क्रियाओंके वर्णनमें होममंडप, होमकुंड, वेदी, गंधकुटी और स्नानमंडप आदिके आकार - विस्तार, शोभा-संस्कार तथा रचना विशेषका विस्तृत वर्णन देकर लिखा है कि गंधकुटीमें शांतिभट्टारकका, उसके सामने सरस्वतका और दाहने बायें यक्ष-यक्षीका स्थापन किया जाय । और फिर, अभिषेक से पहले, भगवान् शांतिनाथकी पूजा करना ठहराया है। इस पूजनमें जल- चंदनादिकके सिवाय लोटा, दर्पण, For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ छत्र, पालकी, ध्वजा, चँवर, रकेवी, कलश, व्यंजन, रत्न और स्वर्ण तथा मोतियोंकी मालाओं आदि से भी पूजा करनेका विधान किया है । अर्थात ये चीजें भी, इस शांतिविधान में, भगवानको अर्पण करनी चाहिए, ऐसा लिखा है । यथा: जैनहितैषी - 'भंगारमुकुरच्छत्रं पालिकाध्वजचामरैः । घंटैः पंचमहाशब्दकलशव्यंजनाचलैः ॥ ५६ ॥ सद्र्धचूर्णैर्मणिभिः स्त्रर्णमौक्तिकद (मभिः । वेणुवीणादिवादित्रैः गीतैर्नृत्यैश्च मंगलैः ॥ ५७ ॥। भगवंतं समभ्यर्च्य शांतिभहारकं ततः । तत्पादाम्बुरुहोपान्ते शांतिधारां निपातयेत् ॥ ५८ ॥" " ऊपर के तीसरे पद्य में यह भी बतलाया गया है कि पूजन के बाद शांतिनाथ के चरण-कमलोंके निकट शांतिधारा छोड़नी चाहिए । यही इस प्रकरण में अभिषेकका विधान है जिसको 'महाभिषेक ' प्रगट किया है ! इस अभिषेक के बाद 'शान्त्य' को और फिर ' पुण्याहमंत्र' को, जिसे 'शांतिमंत्र भी सूचित किया है और जो केवल आशीर्वादालक गय है, पढ़नेका विज्ञान करके लिखा है कि 'गुरु प्रसन्नचित्त* होकर भगवान के स्नानका वह जल ( जिसे भगवान के शरीरने छुआ भी नहीं ! ) उस मनुष्यके ऊपर छिड़के जिसके लिए शांति-विधान किया गया है। साथ ही उस नगर तथा ग्रामके रहनेवाले दूसरे मनुष्यों, हाथी-घोड़ों, गाय-भैंसों, भेड़-बकरियों और ऊँट तथा गधों आदि अन्य प्राणियों पर भी उस जल के छिड़के जानेका विधान किया है । इसके बाद एक सुन्दर नवयुवकको सफेद * गुरुकी प्रसन्नता सम्पादन करनेके लिए इसी अध्याय में एक स्थान पर लिखा है कि जिस द्रव्यके देनेसे आचार्य प्रसन्नचित्त हो जाय वही उसको देना चाहिए। यथा [ भाग १३ वस्त्र तथा पुष्पमालादिकसे सजाकर और उसके मस्तक पर 'सर्वाल्ह' नामके किसी यक्षकी मूर्ति विराजमान करके उसे गाजेबाजे के साथ चौराहों, राजद्वारों, महाद्वारों, देवमंदिरों अनाजके ढेरों या हाथियोंके स्तंभों, स्त्रियोंके निवासस्थानों, अश्वशालाओं, तीर्थों और तालाबों पर घुमाते हुए पाँच वर्णके नैवेद्यसे गंध- पुष्प-अक्षतके साथ जलधारा पूर्वक बलि देनेका विधान किया है । और साथ ही यह भी लिखा है कि पूजन, अभिषेक और बलिदान सम्बंधी यह सब अनुटान दिनमें तीन बार करना चाहिए । इस बलिदान के पहले तीन पर्योों को छोड़कर, जो उस नवयुवककी सजावट से सम्बंध रखते हैं, शेष पय इस प्रकार हैं: ― ॥ "" कस्यचिच्चारुरूपस्य पुंसः सङ्गात्रधारिणः । सर्वाल्हयक्षं सोष्णीषे मूर्द्धन्यारोपयेत्ततः ॥ ६९ ॥ तत्सहायो विनिर्गच्छेदिदानाय मंत्रवित् । छत्रचामरखत्कतुशखभर्यादिसंपदा ॥ ७० चतुष्पथेषु ग्रामस्य पत्तनस्य पुरस्य च । राजद्वारे महाद्वार्षु देवतायतनेषु च ॥ ७१ ॥ स्वम्बेराणां च स्थानेषु तुरंगानां च धामसु । बहुसेव्येषु तीर्थेषु चरतां सरसामपि ॥ ७२ ॥ चरुणा पंचवर्णेन गंधपुष्पाक्षतैरपि । यथाविधिवलिं दद्याज्जलधारापुरःसरं ॥ ७३ ॥ अनुष्ठितो विधिर्योयं पूर्वाह्णेऽभित्रवादिकः । मध्याह्ने च प्रदोषे च तं तथैव समाचरत् ॥ ७४ ॥ "> इसके बाद अर्धरात्रि के समय खूब रोशनी करके, सुगंधित धूप जलाकर और आह्वान पूर्वक शांतिनाथका अनेक बहुमूल्य द्रव्योंसे पूजन करके शांतिमंत्रसे होम करना, तथा वही जलधारा छोड़नेरूप अभिषेक - विधान पढ़ना और फिर विसर्जन करना बतलाया है । इसके बाद फिर ये पद्य दिये हैं: शान्त्यष्टक 'द्रव्येण येन दत्तेनाचार्यः सुप्रसन्नहृदयः स्यात् " एवं संध्यात्रये चार्धरात्रौ च दिवसस्य यः । महशान्त्यन्ते दद्यात्तत्तस्मै श्रद्धया साध्यः ॥ २१५ ॥ " जिनस्नानादिहोमान्तो विधि: सम्यमनुसृतः ॥ १०२ ॥ For Personal & Private Use Only - Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क २] भद्रबाहु-संहिता। ६७ तं कृत्स्नमपि सोत्साहो बुधः सप्त दिनानि वा। इस शांतिविधानका इतना महच्च क्यों वर्णन यद्वैकविंशतिं कुर्याद्यावदिष्टप्रसिद्धिता ।। १०३ ॥ किया गया ? क्यों इसके अनुष्ठानकी इतनी साध्यः सप्त गुणोपेतः समस्तगुणशालिनः। अधिक प्रेरणा की गई ! आडम्बरके सिवाय इसमें शांतिहोमदिनेष्वेषु सर्वेष्वप्यतिथीन् यतीन् ॥ १०४॥ मोबास कोई वास्तविक गुण है भी या कि नहीं ? इन क्षीरेण सर्पिषा दना सूपखंडसितागुडैः । संब बातोंको तो ग्रंथकर्ता महाशय या केवली व्यंजनैर्विविधैर्भक्ष्यैः लड्डुकापूरिकादिभिः ॥ १०५ ॥ भगवान ही जानें ! परन्तु सहृदय पाठकोंको, इस स्वादुभिश्वोचमोचाम्रफनसादिफलैरपि। उपेतं भोजयेन्मृष्टं शुद्धं शाल्यन्नमादरात् ॥ १०६ ॥ संपूर्ण कथनसे, इतना जरूर मालूम हो जायगा क्षान्तिभ्यः श्रावकेभ्यश्च श्राविकाभ्यश्च सादरः। कि इस विधानमें, जैनधर्मकी शिक्षाके विरुद्ध वितरेदोदनं योग्यं विदद्याच्चाम्बरादिकं ।। १०७ ॥ कथनोंको छोड़कर, कपटी और लोभी गुरुओंकी कुमाराँश्च कुमारीश्च चतुर्विशतिसम्मितान्। स्वार्थ-साधनाका बहुत कुछ तत्त्व छिपा हुआ है। भोजयेदनुवर्तेत दीनानथजनानपि ॥ १०८॥" आचार्यपद-प्रतिष्ठा। ___ इनमें लिखा है कि:- इस प्रकार तीनों संध्याओं और अर्धरात्रिके समयकी, स्नानसे (१९) इस ग्रंथके तीसरे खंड सम्बन्धी लेकर होम पर्यंतकी, जो यह विधि कही सातवें अध्यायमें, दीक्षा-लग्नका निरूपण करनेके गई है वह उत्साह पूर्वक सात दिन तक बाद, आचार्य-पदकी प्रतिष्ठा-विधिका जो वर्णन या २१ दिन तक अथवा जब तक साध्यकी दिया है उसका सार इस प्रकार है । फुट नोटसिद्धि न हो तब तक करनी चाहिए । और समें कुछ पोंका नमूना भी दिया जाता है:इन संपूर्ण दिवसोंमें शांति करानेवालेको “जिस नगर या ग्राममें आचार्य पदकी चाहिए कि अतिथियों तथा मुनियोंको केला प्रतिष्ठा-विधि की जाय वह सिर्फ निर्मल और साफ आम्रादि अनेक रसीले फलोंके सिवाय दूध, ही नहीं बल्कि राजाके संघसे भी युक्त होना दही, घी, मिठाई तथा लड्डू, पूरी आदि खूब चाहिए । इस विधानके लिए प्रासुक भूमि पर स्वादिष्ट और तर माल खिलावे । मुनि-आर्यिका- सौ हाथ परिमाणका एक क्षेत्र मण्डपके लिए ठीक ओं, श्रावक-श्राविकाओंको चावल वितरण करे करना चाहिए और उसमें दो वेदी बनानी चाहितथा वस्त्रादिक देवे। और २४ कुमार-कुमा- ये। पहली वेदीमें पाँच रंगोंके चूर्णसे 'गणधर. रियोंको जिमानेके बाद दीनों तथा दूसरे मनु- वलय' नामका मंडल बनाया जाय; और ष्योंको भी भोजन करावे।' इस तरह पर यह दूसरी वेदीमें शांतिमंडलकी महिमा सब शांतिहोमका विधान है जिसकी महिमाका करके चक्रको ' नाना प्रकारके धृत-दुग्धादिऊपर उल्लेख किया गया है। विपुल धन-साध्य होने मिश्रित भोजनोंसे संतुष्ट किया जाय । संतुष्ट पर भी ग्रंथकर्ताने छोटे छोटे कार्योंके लिए भी करनेकी यह क्रिया उत्कृष्ट १२ दिन तक जारी इसका प्रयोग करना बतलाया है । बल्कि यहाँ रहनी चाहिए । और उस समय तक वहाँ प्रति तक लिखा दिया है कि जो कोई भी अशुभ हो दिन कोई योगीजन शास्त्र वाँचा करे । साथ ही नहारका सूचक चिह्न दिखलाई दे उस सबकी १ कायव्वं तत्थ पुणो गणहरवलयस्स पंचक्ण्पेण । शांतिके लिए यह विधान करना चाहिए। यथाः- चुण्णेणय कायव्वं उद्धरणं चाह सोहिलं ।। “यो यो भूद्रापको (?) हेतुरशुभस्य भविष्यतः। २ दुइजम्मि संति मंडलमाहमा काऊण पुप्फधूवेहिं । शांतिहोमममुं कुर्यात्तत्र तत्र यथाविधि ॥ ११४ ॥ गणाविभक्खेहिं य करिज्जपरितोनियं चकं ॥ For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ अभिषेकादि क्रियाओंका व्याख्यान और अनु- कलशे पानी और अनेक ओषधियोंसे भरे हुए होने ष्ठान भी हुआ करे । जिस दिन आचार्य-पदकी चाहिए । और चार ही सिंहासन होना चाहिए । प्रतिष्ठा की जाय उस दिन एकान्तमें सारस्वत सिंहासन सोना, रूपा, ताम्बा, काष्ठ और पाषाण, युक्त आचारांगकी एक बार संघसहित और इनमेंसे चाहे किसी चीजके बने हुए हों सब दूसरी बार, अपने वर्गसहित, पूजा करनी आचार्य-प्रतिष्ठाके योग्य हैं, बल्कि यदि वे खूब चाहिए । यदि वह मनुष्य (मुनि), जो अच्छी तरहसे सजे हुए और जड़ाऊ भी हों तो भी आचार्य पद पर नियुक्त किया जाय, दूसरे शुद्ध और ग्राह्य हैं । एक सिंहासनके नीचे आउ गणधरका शिष्य हो तो उसका केशलोच पखड़ीका कमल भी चावलोंसे बनाना चाहिए। और आलोचनापूर्वक नामकरण संस्कार भी ईसके बाद वह भावी आचार्य, यंत्रकी पूजा-प्रद होना चाहिए । बारह दिन तक दीनोंको दान क्षिणा करके; सिंहासन पर कलश डालकर और बाँटा जाय और युवतीजन भक्तिपूर्वक मंगल अपने गुरुसे पूछकर उस सिंहासन पर बैठे । बैठ गीत गावें । आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होनेवाले जाने पर पूर्वाचार्यों के नाम लेकर स्तुति करे । इसके उस मनुष्यको चाहिए कि बारह दिन तक ऐसा बाद एक इन्द्र उस आचार्यके सन्मुख बाँचने के कोई शब्द न कहे जिससे संघमें मत्सर-भाव लिए सिद्धान्तादि शास्त्र रक्खे और फिर संपूर्ण संघ उत्पन्न हो जाय ( काम बन जाने पर पीछेसे उसे वंदना करके इस बातकी घोषणा करे कि भले ही कहले ! ) । मुनियोंके इस उत्सवमें 'यह गुरु जिनेंद्र के समान हमारा स्वामी नाचने-गानेका भी विधान किया गया है, जिसके है। धर्मके लिए यह जो कुछ करायगा लिए बारह पुरुषों और उनकी बारह स्त्रियोंको (चाहे वह कैसा ही अनुचित कार्य क्यों न चाहिए कि वे खूब सजधज कर-इंद्र-इंद्राणियोंका हो?) उसको जो कोई मुनि-आर्यिका या रूप बनाकर-और अपने सिरों पर कलशे रखकर श्रावक नहीं मानेगा वह संघसे बाहिर भावी आचार्यके सन्मुख नाचे, गावें और पाठ समझा जायगा। इस घोषणाके बाद मोतिपढे । इसके बाद वे सब इंद्र-इंद्राणियाँ मंडलको योंकी माला तथा उत्तम वस्त्रादिकसे शास्त्रकी नमस्कार करें और दक्षिण औरके मंगल द्रव्यको और गुरुके चरणोंकी पूजा करनी चाहिए ! प्राप्त होकर तथा सात धान्योंको छूकर एक मंत्रका ७ सीहासणं पसत्थं भम्मारमुरूप्पकठपाहणयं । जाप्य करें । स्नानके लिए चाँदी-सोनेके रंगके चार आयरियठवणजोगं विसेसदो भुसियं सुद्ध । ३ वासरबारस जावदु दणिजणाणं च दिज्जए दाणं ८ तस्सतले वरपउमं अदलं सालितंदुलोक्किणं । गायइ मंगलगीयं जुबइजणो भत्तिराएण ॥ मज्झे मायापत्ते तलपिंडं चारु सव्वत्थ ।। ४ जण वयणेण संघो समच्छरो होह तं पुणो वयणं । ९ पच्छा पुज्जिवि जंतं तिय पाहिण दहि सिंहपीठस्स। बारसदिवसं जावदु वज्जियदव्वं अपमत्तण ॥ कुंभिय पायाणो स गणं परिपुच्छिय विउसउतं पीठे ॥ ५ बारस इंदा रम्मा तावदिया चेव तेसिमवलाओ। १. तो वंदिऊण संघो विच्छा किरयाए चारुभावेण । ण्हाणादिसुद्धदेहा रत्तंभरमउडकतसोहा ॥ आघोसदि एस गुरू जिणुब्ध अम्हाण सामीय ।। पंडिक्खुदंडहत्था इंदाइंदायणीउ सिरकलसा। जं कारदि एस गुरू धम्मत्थं तं जो ण मण्णोदि। आयरियस्स पुरत्था पढंति णाचंति गायति॥ सो सवणो, अज्जा वा सावय वा संघवाहिरओ ।। ६ कलसाई चारि रूप्पय-हेमय-वण्णाई तोयभरियाई। ११ एवं संघोसित्ता मुत्तामालादिदिव्ववत्थेहिं । दिव्वोसहिजुत्ताई पयोहवणे हांति इत्य जोगाई॥ पोत्थयपूयं किच्चा तदोपरं पायपूया य ॥ For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु -संहिता । अङ्क २ ] ६९ 1 दूसरे दिन संघके सुखके लिए शांतिविधानपूर्वक (वही विधान जिसका पहले उल्लेख किया है) 'महामह' नामका बड़ा पूजन करना चाहिए । इसके बाद • बाहर से आये हुए दूसरे आचार्योंको अपने अपने गणसहित इस नये आचार्यको ( मंडलाचार्य या आचार्य चक्रवर्तीको ! ) वन्दना करके स्वदेशको चले जाना चाहिए । संघके किसी भी व्यक्तिको - इस नव प्रतिष्ठित आचार्यकी कभी निन्दा नहीं करनी चाहिए और न उससे नाराज ही होना चाहिए ( चाहे वह कैसा ही निन्दनीय और नाराजीका काम क्यों न करे ! ) । " * ! लिए ऐसे कृत्योंकी कोई विधि हो सकती है ? कभी नहीं । जिन लोगों को जैनधर्मके स्वरूपका कुछ भी परिचय है और जिन्होंने जैनधर्मके मूलाचार आदि यत्याचार विषयक ग्रंथोंका कुछ अध्ययन किया है वे ऊपर के इस विधि - विधानको देखकर एकदम कह उठेंगे कि 'यह कदापि जैनधर्मके निर्ग्रथ आचार्योंकी प्रतिष्ठाविधि नहीं हो सकती' - निर्ग्रथ मुनियोंका इस विधानसे कोई सम्बंध नहीं हो सकता - वास्तवमें यह सब उन महात्माओंकी लीला है जिन्हें हम आज कल आधुनिक भट्टारक, शिथिलाचारी साधु या श्रमणा भास आदि नामों से पुकार हैं। ऐसे लोगोंने समाजमें अपना सिक्का चलानेके लिए, अपनेको तीर्थकरके तुल्य पूज्य मनानेके लिए और अपनी स्वार्थसाधना के लिए जैनधर्मकी कीर्तिको बहुत कुछ कलंक और मलिन किया है; उसके वास्तविक स्वरूपको छिपाकर उस पर मनमाने तरह तरहके रंगों के खोल चढ़ाये हैं; वही सब खोल बाह्य दृष्टिसे देखनेवाले साधारण जगत्‌को दिखलाई देते हैं और उन्हींको साधारण जनता जैनधर्मका वास्तविक रूप समझकर धोखा खा रही है । । इसी लिए आज जैनसमाजमें भी घोर अंधकार फैला हुआ है, जिसके दूर करनेके लिए सातिशय प्रयत्नकी जरूरत है । पाठक, देखा, कैसा विचित्र विधान है 'स्वार्थ साधनाका कैसा प्रबल अनुष्ठान है ! जैनधर्मकी शिक्षासे इसका कहाँ तक सम्बंध है जैनमहामुनियोंकी - आरंभ और परिग्रहके त्यागी महाव्रतियोंकी— पैसा तक पास न रखनेवाले तपस्वियोंकी—कैसी मिट्टी पलीद की गई है !! क्या जौनयोंके आचारांग-सूत्रों में निर्ग्रथ साधुओंके ! । १२ तत्तो विर्दिए दिवसे महामहं संतिवायणाजुत्तं । .. भूयवलिं गहसंति करिजए संघसोखत्थं ॥ १३ सगसगगणेण जुत्ता,आयरिया जह कमेण वंदित्ता लहुवा जंति सदेसं परिकलिय सूरिसूरेण ॥ १४ सो पठदि सव्वसत्थं दिक्खा विज्जाइ धम्म बहत्थं • गहु दिदि गहु रूसदि संघो सव्त्रो विसव्वत्थ ॥ * जिस अध्यायका यह सब कथन है उसके आदि और अन्तमें दोनों ही जगह भद्रबाहुका नाम भी लगा हुआ है । शुरूके पद्यमें यह सूचित किया है कि — गुप्तिगुप्त' नामके मुनिराज के प्रश्न पर भद्रबाहु स्वामीजीने इस अध्यायका प्रणयन किया है । और अन्तिम पद्य में लिखा है कि ' इस प्रकार परमार्थके प्ररूपणमें महा तेजस्वी भद्रबाहु जिनके सहायक होते हैं वे धन्य हैं और पूरे पुण्याधिकारी हैं । यथाः— Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० जैनहितैषी [भाग १३ "पासत्थाणं सेवी पासत्थो पंचचेलपरिहीणो। विवरीयहपवादी अवंदणिज्जो जई होई ॥ १४॥ जिनका स्वेताम्बर धर्मसे भी कोई सम्बंध नहीं पहले पद्यमें लिखा है कि 'भरतक्षेत्रका जो है । साथ ही, दूसरे खंडके दूसरे अध्यायमें कोई मुनि इस दुःषम पंचम कालमें संघके क्रम- 'दिग्वासा श्रमणोत्तमः' इस पदके द्वारा को मिलाकर दिगम्बर हुआ भ्रमण करता है- भद्रबाहु श्रुतकेवलीको उत्कृष्ट दिगम्बर साधु अर्थात् यह समझकर कि चतुर्थ कालमें पूर्वजों- बतलाया है । इस लिए कहना पड़ता है कि की ऐसी ही दैगम्बरी वृत्ति रही है तदनुसार इस यह ग्रंथ सिर्फ ऐसे महात्माओंकी करतूत है जो पंचम कालमें प्रवर्तता है-वह मूढ़ है और उसे दिगम्बर-श्वेताम्बर कुछ भी न होकर स्वार्थसंघसे बाहर तथा खारिज समझना चाहिए। साधना और ठगविद्याको ही अपना प्रधान धर्म और दूसरे पद्यमें यह बतलाया है कि वह यति समझते थे । ऐसे लोग दिगम्बर और श्वेताम्बर भी अवंदनीय है जो पंच प्रकारके वस्त्रोंसे रहित दोनों ही सम्प्रदायोंमें हुए हैं । श्वेताम्बरोंके यहाँ है । अर्थात् उस दिगम्बर मुनिको भी अपूज्य भी इस प्रकारके और बहुतसे जाली ग्रंथ पाये ठहराया है जो खाल, छाल, रेशम, ऊन और जाते हैं, जिन सबकी जाँच, परीक्षा और समाकपास, इन पाँचों प्रकारके वस्त्रोंसे रहित होता लोचना होनेकी जरूरत है। श्वेताम्बर विद्वाहै । इस तरह पर ग्रंथकाने दिगम्बर मुनियों पर नोंको इसके लिए खास परिश्रम करना चाहिए; अपना कोप प्रगट किया है। मालूम होता है कि और जैनधर्म पर चढ़े हुए शैवाल ( काई ) को ग्रंथकर्ताको आधुनिक भट्टारकों तथा दूसरे श्रमणा- दूर करके महावीर भगवानका शुद्ध और वास्तभासोंको तीर्थकरकी मूर्ति बनाकर या जिनेंद्रके विक शासन जगत्के सामने रखना चाहिए। तुल्य मनाकर ही संतोष नहीं हुआ बल्कि उसे ऐसा किये जाने पर विचार-स्वातंत्र्य फैलेगा। दिगम्बर मुनियोंका आस्तित्व भी असह्य तथा कष्ट और उससे न सिर्फ जैनियोंकी बल्कि दूसरे कर मालूम हुआ है और इस लिए उसने दिगम्बर लोगोंकी भी साम्प्रदायिक मोह-मुग्धता और अंधी मुनियोंको मूढ,अपूज्य और संघबाह्य करार देकर श्रद्धा दूर होकर उनमें सदसद्विवेकवती उनके प्रति अपनी घृणाका प्रकाश किया है। बुद्धिका निकाश होगा । ऐसे ही सदुद्देश्योंसे इतने पर भी दिगम्बर जैनियोंकी अंधश्रद्धा और प्रेरित होकर यह परीक्षा की गई है। आशा है समझकी बलिहारी है कि वे ऐसे ग्रंथका भी कि इन परीक्षा-लेखोंसे जैन-अजैन विद्वान् तथा प्रचार करनेके लिए उद्यत होगये ! सच है, साम्प्र- अन्य साधारण जन सभी लाभ उठावेंगे । दायिक मोहकी भी बड़ी ही विचित्र लीला है !! अन्तमें जैन विद्वानोंसे मेरा निवेदन है कि, यदि सत्यके अनुरोधसे इन लेखोंमें कोई कटुक । उपसंहार। शब्द लिखा गया हो अथवा अपने पूर्व संस्काग्रंथकी ऐसी हालत होते हुए, जिसमें अन्य बा. रोंके कारण उन्हें वह कटुक मालूम होता हो तो वे तोंको छोड़कर दिगम्बर मुनि भी अपूज्य और संघ- कृपया उसे 'आप्रिय पथ्य' समझ कर या बाह्य ठहराये गये, यह कहनेमें कोई संकोच नहीं 'सत्यं मनोहारि च दुर्लभं वचः । इस होता कि, यह ग्रंथ किसी दिगम्बर साधुका नीतिका अनुसरण करके क्षमा करें । इत्यलम् । कृत्य नहीं है । परन्तु श्वेताम्बर साधुओंका भी यह कृत्य मालूम नहीं होता; क्योंकि इसमें For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क २] मेरठकी जैनपाठशाला। ७१ मेरठकी जैनपाठशाला है कि “अजैनोंमें तो इतने उदारचेता हैं कि वे जैनसंस्थाका कार्य करते हैं और स्वयं जैनोंमें इतना और भी स्वार्थत्याग नहीं कि अपनी संस्थाकी कभी कभी प्रो० सेठीका वक्तव्य । खबर भी ले लिया करें।" इसे जैनसमाजका बड़ा भारी दुर्भाग्य समझना चाहिए कि उसके अधिका श लोग तो शिक्षाके महत्त्वको ही नहीं समझते मेरठ छावनीमें एक जैनपाठशाला है। हैं और जो लोग समझते हैं-उच्च श्रेणीकी शिक्षा "उसकी तीसरे वर्षकी १९१५-१६ की- पाये हुए हैं-वे अपनी शिक्षासे दूसरोंको फायदा रिपोर्ट, उपमंत्री बाबू कल्याणदासजी जैनी नहीं पहुँचाना चाहते-केवल अपने स्वार्थके ही बी. ए. ने हमारे पास भेजी है । पाठशालामें लिए जीते हैं। यह दशा केवल मेरठकी ही नहीं १४१ विद्यार्थी दर्जरजिस्टर हैं जिनमें है; सभी जगहके जैन शिक्षित समाज-सेवाके ३४ जैन और शेष अजैन हैं। लगभग १२५ कार्यसे उदासीन दिखलाई देते हैं। यह बड़ी विद्यार्थी प्रतिदिन हाजिर रहते हैं। कार्यकर्त्ता- शोचनीय अवस्था है । इसे जितनी जल्दी ओंमें जैन और अजैन दोनों हैं । पढ़ाई सरकारी हो, बदलनी चाहिए। स्कूलोंके अनुसार होती है। जैनधर्मकी शिक्षा विशेष मेरठकी उक्त संस्था बहुत ही थोड़े खर्चमें दी जाती है। अजैन विद्यार्थी भी जैनधर्मकी शिक्षा बहुत उत्तमतासे चल रही है। यदि अन्यान्य प्राप्त करते हैं। कक्षायें आठ हैं,जिनमें ४ डिस्ट्रिक्ट नगरोंमें भी इसी ढंगकी पाठशालायें खोली जायँ, बोर्डकी और शेष पाठशालाकी देखरेखमें चलती तो बहुत लाभ हो सकता है और ये धीरे धीरे हैं। अँगरेजीकी मिडिल कक्षा इसी साल खोली बढ़ती हुई हाईस्कूल बन सकती हैं । इस गई है । १३) रूपये मासिक डिस्ट्रिक्ट बोर्डसे, तरह थोड़े ही समयमें जैनसमाजके कई हाईलगभग ४५ ) रु० मासिक फीससे और स्कूल बन सकेंगे और वह दिन बहुत शेष ६७ ) रु० के लगभग मासिक चन्दे दूर नहीं रहेगा जब हम एक अच्छा जैनआदिसे प्राप्त हो जाता है। इस तरह बहुत ही कालेज स्थापित करनेके लिए समर्थ हो सकेंगे। थोड़े खर्चमें यह एक अच्छी संस्था चल रही है। केवल धर्मशिक्षाके ही लिए पाठशाालायें खोलने यदि संस्थाके पास केवल पाँच हजार रुपयेका और उनमें सौ सौ दो दो सौ रुपया मासिक खर्च ही ध्रुवफण्ड हो और सहायता वर्तमानकी अपेक्षा करनेकी अपेक्षा इस ढंगकी पाठशालायें खोलनाकुछ अधिक मिलने लगे, तो यह हाईस्कूल बना जिनमें साधारण शिक्षाके साथ साथ धर्मशिक्षा दी जा सकती है, पर निरीक्षकोंकी सम्मतियोंसे भी दी जाय और जैन अजैन सबको लाभ होमालूम होता है कि जैन भाइयोंका इस ओर बहुत कहीं अच्छा है। ही कम ध्यान है । और तो क्या मेरठके शिक्षित पाठशालाकी रिपोर्टके प्रारंभमें श्रीयुत बाबू जैन-वकील बैरिस्टर आदि भी इसके कार्यमें निहालकरणजी सेठी एम. एस सी. का जो हाथ नहीं बँटाते । यदि वे अन्य अजैन महाश- वक्तव्य छपा है, वह बहुत महत्त्वका है । योंके बराबर ही इस ओर ध्यान दें, तो बहुत अत एव हम उसके मुख्य भागको यहाँ उद्धृत उन्नति हो सकती है। प्रो० निहालकरणजी सेठीक कर देते हैं और आशा करते हैं कि पाठक लिखे अनुसार यह सचमुच ही बड़ी लज्जाकी बात उस पर विचार करेंगेः For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जैनहितैषी [भाग १३ “जैनसमाज न मालूम क्यों ऐसी संस्था- घटती जा रही है। १४ लाखसे १२ लाख ओंको उपेक्षाकी दृष्टि से देखता है। जब तक इस केवल दस वर्षमें होगई है ! यदि ऐसी ही दशा दृष्टिमें परिवर्तन न होगा तब तक सम्भव नहीं कि रही तो शायद ५०-६० वर्षमें ही यह जाति इन संस्थाओंमें अलीगढ़के मोहमडन कालिज सदाके लिए लुप्त हो जाय । प्रश्न यह है कि तब और लाहौरके वैदिक कालिजकी भाँति बल इन बड़े बड़े विशाल मंदिरोंमें पूजा करनेवाला आसके। कतिपय जैन और अजैन महाशय कौन बच रहेगा ? श्रीजिनभगवानके बिम्बका स्वार्थ त्यागकर, अनेक विघ्न-बाधाओंको सहकर प्रक्षालन कौन करेगा ? कहते दुःख होता है कि चाहे इनका जीवन अटकाये रहें, किन्तु ये सर्वांग- इन प्रतिमाओं परसे गर्दा भी कौन झाड़ेगा ? सुन्दर हृष्ट-पुष्ट कदापि नहीं बन सकतीं। हमारा साहित्य बहुत बड़ा है; किन्तु पढ़नेवाला " यद्यपि समय अब ऐसा नहीं है कि कोई जैनी कौन बचेगा ? यह केवल विचार ही भी मनुष्य चारों ओरकी जागति और हल- नहीं हैं। प्रत्यक्ष इस समय भी हम देख सकते हैं चलको देखकर भी ऐसा कह सके कि इन संस्था- कि सैकड़ों मंदिर ऐसे हैं जहाँ पर धनाढ्योंकी ऑसे लाभ ही क्या है; किन्तु सषप्त जैनसमाज कृपासे नौकर लोग प्रक्षालन किया करते हैं; यदि ऐसा कहे तो कोई आश्चर्य नहीं कि इस भक्तिसे पूजन करनेवाला कोई नहीं । ऐसे मन्दिउपेक्षाकी दृष्टिसे हमारी कोई हानि नहीं, यदि रोंकी संख्या भी कम नहीं है कि जहाँ मनुष्य हम लोग अलीगढ़ और लाहौरके कालिजोंकीसी कदाचित् वर्षमें एक-दो बार ही जाते हों। जिन संस्थायें स्थापित न कर सके तो क्या ? हमारा नगरोंमें सहस्रों जैन निवास करते थे, वहाँ अब वाणिज्य-व्यवसाय इन संस्थाओंके बिना भी इने गिने मनुष्य रहते हैं । क्या कोई कह सकता चल सकता है, हमारा धर्म ऐसा है कि बिना है कि ऐसी ही दशा भारतवर्षके किसी अन्य इन बातोंके भी हमारी मुक्ति अवश्य हो जायगी, 1 MC समाजकी भी है ? क्या इतने पर भी अपने धर्मके इत्यादि इत्यादि। प्रेमी सज्जनोंकी आँखें नहीं खुलेंगी ? - “अतः इस प्रश्न पर विचार करना आव- “जैनसमाज कोई भूखा समाज नहीं है । श्यक है। क्या अलीगढ़ और लाहौरसे मसलमानों बड़े बड़े धनाढ्य इसमें विद्यमान हैं। वाणिज्यऔर आर्यसमाजियोंको कुछ लाभ नहीं पहँचा? व्यवसाय करनेवाले भी बहुत हैं । फिर क्या कौन नहीं जानता कि इन समाजोंका बल दिन- कारण है कि वह मृत्युके अधिक अधिक निकट प्रतिदिन बढ़ता जाता है ? क्या अलीगढ कालि- आता जाता है ? यदि विचारपूर्वक देखा जाय जके स्थापित होनेके पहले मसलमानों में जाती- तो इसका एक मात्र कारण यही ज्ञात होगा यताके ऐसे ही चिह्न विद्यमान थे जैसे कि अब कि इस समाजने अपने यथार्थ धर्मको हैं ? क्या उस समयमें और इस समयमें कोई छोड़ दिया है । यह बात सुनकर बहुअन्तर नहीं है ? क्या आर्यसमाजने अपने विद्या " तोंको आश्चर्य होगा; किन्तु वास्तवमें बात लयोंहीके बलसे सहस्रों नवयुवकों और उत्साही "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।" यह यही है । जैनधर्मका मूल सिद्धान्त यही है कि वृद्धोंको अपने में नहीं मिला लिया है ! वाक्य जैनी प्रायः प्रतिदिन ही सुना करते हैं; " इसके विपरीत जैनसमाजकी इस उपे. किन्तु उनके आचरणसे ऐसा जान पड़ता है कि क्षाका क्या फल हुआ है ? जनसंख्या बराबर वे इस महामंत्रका अर्थ समझते ही नहीं । For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क २] मेरठकी जैनपाठशाला। 'कल्याणका मार्ग वास्तविक ज्ञान, आत्माकी दूसरे यह कि इन संस्थाओंको जैनधर्म और जैनशक्तियोंमें विश्वास और इस ज्ञानके अनुसार समाजकी उन्नतिसे क्या प्रयोजन ! इनमें पढ़कर आचरण करना है।' यह इसका शब्दार्थ हुआ। मनुष्य और सब बातें तो जान लेगा, किन्तु जैन-. किन्तु इसमें जो यह भाव है कि इन तीन बातों- धर्मसे तो वह अनभिज्ञ ही रहेगा । जैनसमाजकी के बिना कल्याण हो ही नहीं सकता, यह कदा- क्या आवश्यकतायें हैं, इसका ज्ञान तो उसे न चित् लोग जानते ही नहीं । और शायद उन्हें होगा । इसके बिना वह जैनसमाजकी क्या यह भी नहीं मालूम है कि इस कल्याणका अर्थ उन्नति करेगा? यदि मान भी लिया जाय कि केवल कर्म-बंधनसे मुक्ति ही नहीं है; किन्तु इसमें सब कार्य हो सकता है, तब भी क्या जैनसमाजऐहिक और पारलौकिक सभी सुख गर्भित है । का कोई कर्त्तव्य शेष नहीं रह जाता। मान कोई भी अच्छी बात इन तीनोंके बिना नहीं हो लीजिए कि एक मनुष्यको कोई भला आदमी सकती । यदि यह समझ लिया जाता तो मालूम रोज खानेको दे देता है। तब क्या उसका कर्तव्य होता कि ज्ञानका कितना माहात्म्य जैनधर्ममें नहीं है कि वह स्वयं अपने लिए कमानेका है । ज्ञानके बिना अन्य दो बातें भी नहीं हो प्रयत्न करे ? तब भी मानते कि जैनी इन सार्वसकतीं। और यह कहनेमें शास्त्रक मतानुसार बि- जनिक संस्थाओंमें ही जी खोल कर सहायता ल्कुल अत्युक्ति नहीं है कि अपने जन्म-जन्मान्तर करते होते, पर सो भी नहीं। तप और ध्यान करके बिता दीजिए, मंदिर बनवाने और पूजा आदि करनेमें लगे रहिए; किन्तु . “यह सब लिखनेका साहस इस लिए किया जब तक ज्ञान नहीं है वह सब तप कुतप, वह है कि लेखकको जैनियोंकी वर्तमान दशा देख ध्यान गर्हित, और वह पूजा केवल ढकोसले- कर बहुत दुःख होता है । यदि आपको दुःख न बाजी है । यदि किसी अध्यात्मके ग्रन्थको होता हो, तो इन सब बातोंके पढ़ने में जो कष्ट पढ़िए तो ज्ञात होगा कि ज्ञान ही आत्मा है। हुआ है, उसके लिए मुझे क्षमा कीजिए । यदि ज्ञानका प्राप्त करलेना ही मुक्ति है। जैनसमाज आप यही चाहते हों कि जैनियोंका वर्तमान उस ही ज्ञानकी उपेक्षा करता है । फिर दशामें ही रहना उचित है और ज्ञानकी वृद्धि कहिए धर्म पालन कहाँ रहा ? जिस धर्ममें उनके लिए हानिकारक है, तो डर है कि मेरी विद्यादान सर्वश्रेष्ठ बतलाया गया, उसके ही धृष्टताके लिए आप क्षमा भी प्रदान न करेंगे । अनुयायी होकर विद्यालयोंके प्रति उपेक्षादृष्टि ! किन्तु उस दशामें मुझे यह भी मानना पड़ेगा कि “ यदि इस ज्ञानका प्रसार रहता तो सैकड़ों आपकी आंतरिक इच्छा यही है कि जनसमाजमें सहस्रों नवयुवक इस धर्मसे विमुख होकर अन्य- एक भी मनुष्य जीवित न रहे और महावीर धर्मावलंबी न बन जाते और यह ज्ञात रहे कि स्वामीके पवित्र नामको पूज्य दृष्टि से देखनेवाला यह भी संख्याके ह्रासका एक बहुत बड़ा कारण एक भी न बच रहे । किन्तु मुझे आशा है कि है । यह कहनेसे काम न चलेगा कि इतने स्कूल मेरा डर वृथा ही होगा। उन्नतिके आप चाहे और कालिज तो हैं। उनमें भी तो जैनबालक कितने ही विरोधी हों, पर यह कभी नहीं पढ़ते ही हैं। प्रथम तो इन स्कूलों और कालि- चाह सकते । परन्तु उन्नतिके विरोधी भी आप जोंकी संख्या बहुत न्यून है, यहाँ तक कि बहुत- क्यों होंगे ? यदि जरा भी आप विचार करेंगे से विद्यार्थियोंको इनमें स्थान ही नहीं मिल सकता। तो मेरी बातोंकी सत्यता प्रगट हो जायगी और For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जैनहितैषी [भाग १३ वही पूज्य महापुरुषोंका रक्त उबल पड़ेगा । यदि स्नान करनेके पश्चात् खुरखुरे कपड़ेसे शरीर और कुछ नहीं तो ज्ञानके प्रसारको तो आप मल कर साफ करनेसे बड़ा लाभ होता है। क्योंअपना एक आवश्यक कर्म समझने लगेंगे; आव- कि, ऐसा करनेसे शरीरमें चर्मज रोग पैदा नहीं श्यकता है तनिक निष्पक्ष विचारकी। होते । साधारणतया हम लोग भोजन करनेके ___ "कुछ ऐसे ही विचारोंकी परिणामस्वरूपा यह पहले ११ या १२ बजे तक स्नान करते हैं। जैनपाठशाला है । इसके संचालकोंका सदा यही यह ठीक है। कुछ लोग बिल्कुल तड़के और कुछ प्रयत्न रहा है कि इसके द्वारा बालकोंको समाज लोग सूर्यके निकलनेके पहले ही स्नान कर लिया और धर्मके प्रति अपना कर्त्तव्य ज्ञात हो सके। करते हैं। यह भी अच्छा है, किन्तु कोमलप्रकृअतः लौकिक विद्याओंके अतिरिक्त यहाँ पर तिके और दुर्बल मनुष्योंको तड़केका स्नान लाभधर्मशिक्षा भी सब छात्रोंको दी जाती है। यहाँ तक दायक नहीं है । ऐसा करनेसे अनेक समय उन्हें कि इसमें विधर्मीय बालक भी जैनधर्मके मूल सि- हानि पहुँच जाया करती है । जहाँ शीतज्वरदान्तोंको पढ़ते और सीखते हैं। जिस तिस प्रकार की बीमारी ज्यादा होती है यहाँके रहने प्रयत्न करके तीन वर्ष में इस पाठशालामें मिडिल वालेको भी तड़केके स्नानसे बचना चाहिए । यानी ८ वीं कक्षा खोल दी गई है। और पढ़ाई तड़के स्नान करने में एक और भी असुविधा है । सब सरकारी मदरसोंके समान होती है, धर्म- वह यह कि काम करनेके पीछे स्नान न करनेसे शिक्षा विशेष है। मन और शरीर साफ नहीं मालूम पड़ता । “ कालिजोंके स्थापनसे पहले हाईस्कूलोंका यदि फिर एक दफा स्नान किया जाय तो दो बारस्थापन ही आवश्यक है और जहाँ तक हमें ज्ञात का स्नान करना भी कई बार सह्य नहीं होता। है, अभी तक जैनसमाजका कोई हाईस्कल इस कारण एक बार ही स्नान करना ठीक है। नहीं है । ' इस पाठशालाको बहुत सुगमतासे अधिक ठंडे और अधिक गर्म पानीसे भी स्नान हाईस्कूलमें परिणत कर सकते हैं ' ऐसा बहुतसे न करना चाहिए। ऐसा करनेसे शरीरकी शक्ति निरीक्षकोंने भी कहा है । अतः अब इस बातका कम हो जाती है और दुर्बलता आ जाती है । प्रयत्न है कि शीघ्र ही इसमें मैट्रिक तककी ताजा पानी स्नानके लिए सबसे उत्तम है। नदीकक्षायें खोल दी जावें।" में स्नान करनेसे बड़े लाभ हैं, किन्तु कमजोर आदमियोंको नहीं । उन्हें नदीमें स्नान न करना चाहिए, बल्कि अपने घर पर ही ताजे स्नान। अथवा गुनगुने पानीसे स्नान करलेना चाहिए । नदीके अभावमें किसी बड़े जलाशयमें भी [ले०, बाबू श्यामलालजी जैन।] स्नान करना लाभदायक है । बहुत देर तक जान करनेसे शरीर पवित्र हो जाता है ३ स्नान न करना चाहिए । क्यों कि, पानीमें आधिक समय तक रहनेसे सर्दी लग जाती 'अत एव स्नान करना चाहिए । है। इससे ज्वर और खाँसी पैदा होकर शरीर वास्तवमें स्नान क्या वस्तु है और इसका करना दुर्बल हो जाता है। ठंडी और तेज हवा चलते कहाँ तक लाभदायक है, उसीका विचार इस समय जाड़ेके दिनोमें बंद घरमें स्नान करना लेखमें किया जायगा । स्नान कैसे करना चाहिए, चाहिए। ऐसा न करनेसे शरीरमें अनेक पीड़ाओंके इसका दिग्दर्शन कराना ही इस लेखका उद्देश्य है। हो जानेका डर है। For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नान। अङ्क २] स्नानके-विषयकी और भी कई बातें जान बिजलीसे रक्षा करनेकी क्षमता घट जाती है लेना आवश्यक है। बहुतोंका विश्वास है कि और इस प्रकार शरीरमें रहनेवाली बिजलीकी स्नान करना ही न चाहिए अथवा कभी कभी क्षमताका क्षय होता है । हमारी समझमें वैज्ञाबहुत दिनोंके बाद करना चाहिए । वैज्ञानिकोंका निकोंका सबके विषयमें यह कहना भूल है । कहना है कि चमड़ा हमारे मांसके पट्टों और क्योंकि हमने देखा है कि तन्दुरुस्त आदमीको भीतरी यंत्रका आवरण है। बाहरी ठंड और गर्मीसे स्नानसे कोई हानि नहीं पहुँचती। यदि पहुँचती शरीरकी रक्षा चर्म द्वारा ही की जा सकती है। यही भी होगी तो इतनी कम कि उसको हानि कहना उसका प्रधान उपाय है। इस लिए धर्मशक्तिका ही मूर्खता है । हाँ, कमजोर आदमियोंको नाश न होने देना चाहिए। इसके नाश होनेसे अधिक हानि पहुँच सकती है। सारा शरीर रोगग्रस्त हो सकता है । स्नान करनेसे हमारे चर्मके नीचे छोटी छोटी ग्रंथियाँ हैं । चर्मकी क्षमता नष्ट हो जानेका भय है, अत एव उनमेंसे तैलकी भाँति एक चिकना पदार्थ निकल स्नान न करना चाहिए। रही सफाईकी बात सो कर चर्मको चिकना रखता है । चर्मके चिकने अन्य उपायों द्वारा शरीर साफ रक्खा जा सकता रहनेसे ही शरीरके तापकी रक्षा होती है । यह हैं। हमारे देशके बंगालवासी कविराज स्नान चिकनाहट ही शरीरके तापकी रक्षा करता है। करनेके बहुत विरुद्ध हैं । वे रोगीको स्नान करनेकी आज्ञा बड़ी कठिनाईसे देते हैं । कुछ गिरने लगता है और शरीरको ठंड मालूम हान स्नान द्वारा इस क्षमताको नष्ट करनेसे शरीर कविराज तो स्वयं भी स्नान नहीं करते । पर लगती है । तैल मल कर स्नान करनेसे यह स्नान करनेसे अपकार होता है, यह बात अभी असुविधा बहुत कुछ दूर हो जाती है । इस तक सिद्धि नहीं हुई। लिए दैनिक स्नान करनेवालोंको तैलकी मालिश हम लोग ग्रीष्म-प्रधान देशमें रहते हैं । यहाँ अवश्य करना चाहिए। स्नान करना अच्छा मालूम होता है । हमारे अनेक आदमी जल-वायु बदलनेके लिए विचारमें यहाँ स्नान न करनेमें अनेक बुराइयाँ समद्र किनारेके नगरोंमें चले जाते हैं और समुपैदा हो सकती हैं। स्नान न करनेसे अनेक , में स्नान किया करते हैं। समुद्रमें स्नान करनेबीमारियाँ पैदा होने का डर है । परंतु तो भी , I से शरीर बलिष्ठ होता है और आराम मिलता' दुर्बल मनुष्योंको जो हाल ही रोगसे उठे हो, है। इसका कारण यह है कि समुद्रके पोनीम अधिक स्नान न करना चाहिए । ऐसे आदमियों- बिजलीका तेज ( Majnetic power ) बहुत को चाहिए कि वे अपने स्नान करने अथवा न अथवान ज्यादा होता है । इस लिए समुद्रका पानी शरीकरनेके विषयमें किसी वैद्यसे निश्चय करा लेवें । रको हानि न पहुँचा कर लाभ पहुंचाता है । __स्नानके विरुद्ध वैज्ञानिक और भी अनेक गंगा और जमना मदीके पानीमें भी यही गुण बातें कहते हैं । उनका कहना है कि हमारा चर्म है। प्रातःकाल ८ बजेसे १० बजे तक समुद्रमें बिजली और तापसे हमारे शरीरकी रक्षा करता स्नान करना चाहिए । समुद्रमें अधिक तैरना है। क्योंकि चर्म बिजलीके तेज और तापको अथवा पानीमें रहना अच्छा नहीं है । ऐसा परिचालित नहीं होने देता । पानी बिजलीका करनेसे स्नान करनेका फायदा नष्ट हो जाता है परिचालक है, इस लिए पानी लगनेसे शरीरकी और शरीर कमजोर हो जाता है । For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ बहुत तड़के स्नान करना सबके लिए अच्छा निज पूर्वजोंके कीर्ति-कड़खे एक स्वरसे गाइए। नहीं है । उससे सर्दी लग जाने और खाँसी हो हे कर्मवीरो ! धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए । जानेका डर रहता है। स्नान करनेका समय (३) सबसे अच्छा ९ बजेसे १२ बजे तकका है। जो दुर्गुणोंसे हैं भरे उनकी नकल मत कीजिए, आज-कल साबुन आदिका व्यवहार बहुत बढ़ वे बक मरें पर ध्यान उनकी बात पर मत दीजिए। गया है । हमारी समझमें स्नान करते समय उसका परसे कभी अपना भला होता नहीं, सच मानिए, व्यवहार अच्छा नहीं। क्योंकि, उससे फायदा तो जो आपके हैं बस उन्हें अपना हितैषी जानिए ॥ कुछ नहीं, उलटा नुकसान है । कारण, साबुनसे , र वर विज्ञ होकर चापलूसोंसे न धोखा खाइए। हे कर्मवीरो ! धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए। शरीरका ताप नष्ट हो जाता है । इस लिए सर्दी लग जानेका डर रहता है । तौलियासे शरीरको (४) साफ करना ही अच्छा है । स्नान करनेके । . जिससे समुन्नत देश हो उस मन्त्रको पढ़िए सदा, . चलकर कभी रुकिए नहीं कुछ साम्हने बढ़िए सदा । पश्चात् सूखे कपड़ेसे शरीरको ढक लेना बहुत त जिस भाँति हो अपने चरितको गौरवान्वित कीजिए, लाभदायक है । इसी कारण हमारे देशके जगमें यशःसम्भूत-अमृतको सुखी हो पीजिए ॥ अधिकांश मनुष्य स्नानके पीछे आधी धोती गणवान होकरके स्वयं गण औरको सिखलाइए। ओढ़ लेते हैं। स्नान करनेसे शरीरका जो तेज हे कर्मवीरो ! धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए ॥ उत्तेजित होता है, कपड़ेसे ढके जाने पर वह रक्षित हो जाता है । नहीं तो, ठंड लग जानेसे समझे हुएको और समझाना वृथा है, है सही, . सर्दी हो जानेका संशय रहता है । पर क्या दिनेश्वरको दिवसमें दीप दिखलाते नहीं। सन्ताप सहते हैं सुजन सन्तप्त जीवोंके लिए, रखता सदा है छाहमें तरु आश्रितोंको देखिए । अनुरोध । निज शीश दुखियोंके लिए कुछ और दुःख उठाइए। हे कर्मवीरो! धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए॥ (६) गिरिए न मतके गर्तमें, डरिए नहीं संसारमें, लोहा चबाना ही पड़ेगा, देशके उपकारमें। है मृत्यु ही उसकी भली जिसका यहाँ अपयश हुआ, सरवस उसीका खोगया जो मोहसे परवश हुआ । होकर कनौड़े आप ही अपना न नाम हँसाइए। हे कर्मवीरो ! धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए॥ [ ले०, श्रीयुत पं० रामचरित उपाध्याय ।] (१) आलस्य-सरमें व्यर्थ गिरकर दुःखको सहिए नहीं, निजमूल मन्त्रोंको खलोंसे भूलकर कहिए नहीं। अपने भरोसे कार्यका आरम्भ दृढ़ हो कीजए, निज देशका उद्धार कर जगमें सुयशको लीजिए ॥ प्रणसे न अपने खप्नमें भी भीत हो हट जाइए। हे कर्मवीरो । धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए ॥ (२) निज भीरुताको दूरकर दृढ़ता बढ़ाते जाइए, निज उच्चताको और भी ऊँचे चढ़ाते जाइए। निज रूपको पहिचानिए पर-पंचमें फँसिए नहीं, परदेशको गुरु मानकर निज देशको हँसिए नहीं ॥ दुष्कर्म करके जो स्वयं परको सिखाते धर्म है, उनकी न चर्चा कीजिए, उनको नहीं कुछ शर्म है । मनमें, वचनमें, कर्ममें मत भेद पड़ने दीजिए, निज काज करिए, द्रोहियोंको खेद करने दीजिए ॥ पढ़ नीति, प्रीति, प्रतीति अपनी आप और बढ़ाइए। हे कर्मवीरो ! धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए । For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क २] अनुरोध। जिनको न तत्त्व-ज्ञान हो कृतकार्य क्यों वे हों कभी। हो जाव तत्पर और सत्वर फूट-घटको फोड़ दो, निज देशको पर-फेशनोंके जालमें न फँसाइए । हे कर्मवीरो! धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए॥ निज बान्धवोंके कण्ठसे अपने गलेको जोड़ दो। अति स्वार्थ-रत दुखदायियोंसे शीघ्र नाता तोड़ दो, (१२) अति हानिकर हैं शीघ्र मादक वस्तुओंको छोड़ दो ॥ कुछ काम दिखलाए बिना लम्बी न बात बनाइए। जिनमें बनी है एकता गणना उन्होंकी है यहाँ. हे कर्मवीरो ! धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए॥ दुख, दैन्य फैले क्यों नहीं अति फूट फैली हो जहाँ । अन्यायसे निज टेक पर मरिए न. अब भी मानिए निज हाथ चौपट देशको करिए न. अब भी मानिए॥ जो मन कहे, कहिए उसे, कहिए जिसे, करिए उसे, लड़कर परस्परमें नहीं द्वेषाग्निको भड़काइए। है जन्म-भूका ऋण उचित भरना अभी भरिए उसे। हे कर्मवीरो ! धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए ॥ कुछ हाथ पैर हिलाइए क्या लाभ है बकवादसे, ऋषि-वंश हो डरिए सदा संसारके अपवादसे ॥ . (१३) दुस्संगमें पड़ कर वृथा मत देशको बहकाइए। सवंश हो तो हंसहीको चालसे चलिए सदा, हे कर्मवीरो ! धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए ॥ पर गृध्रकी गतिसे न चलकर हाथको मलिए सदा । (१०) बनिए विवेकी, देखिए नय-दृष्टि से कुछ तो भला, क्या थे, हुए क्या, सोचिए हम कौन हैं तुम कौन हो ? निज हाथ कुत्तोंके लिए मत काटिए अपना गला ॥ कर्तव्य क्या है मानवोंका बोलिए क्यों मौन हो? * पर वर्गके सुखके लिए निज वर्गको न सताइए। जैसे बने अपनी प्रतिष्ठाको बना रखिए सदा, हे कर्मवीरो ! धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए ।। अपमान-कारक कर्मसे मनको मना रखिए सदा ।। (१४) . निज स्वत्वके शुभ तत्त्वको सबके लिए समझाइए। हे कर्मवीरो! धर्भसे निज कर्मको दिखलाइए। गिरते रहें यदि वारि-कण तो सर कभी भर जायगा.. उड़ते रहें यदि वारि कणतो सूख भी सर जायगा। (११) जो आपके हैं नित्य वे जा मिल रहे हैं औरसे, क्या कोकिलोंसे बक भले हैं तनिक भी तो सोचिए, सत्ता न अपनी जाय मिट रहिए सदा उस तौरसे ॥ क्या रंगमें रक्खा हुआ है कुछ कभी तो सोचिए। जिस भाँति हो उस भाँति ही सबको सदा अपनाइए। तुमको नहीं क्या ज्ञान है अपने परायेका अभी, हे कर्मवीरो । धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए॥ (१५) बन ब्रह्मचारी आप नित संयम नियमको कीजिए, पुरुषार्थ अपनेमें अलौकिक युक्तिसे भर लीजिए। फिर क्षेत्रमें भी कार्यके ऐसे उतरिए प्रीतिसे, ठोकर न पैरोंमें लगे यों कार्य करिए नीतिसे ॥ अति धीरतासे सिद्धि मिलती है, नहीं घबराइए । हे कर्मवीरो ! धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए ॥ For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जैन - भारतकी गति । [ लेखक, बाबू भगवानदासजी केला |] भारतवर्ष में ईसाईयों तथा इतर अल्पसंख्यक जातियोंको छोड़ प्रधानतया दो जातियाँ निवास करती हैं-हिन्दू और मुसलमान । इनमें से मुसलमानोंकी आभ्यंतरिक स्थितिका हमें विशेष बोध नहीं; परन्तु यह निर्विवाद है कि हिन्दू जातिकी दशा बड़ी विलक्षण है । इसके जनसमुदाय में अनेक मतोंका प्रचार है और जब ये लोग भिन्न भिन्न धर्मावलम्बी होनेके कारण अपने तई पृथक् जातिका समझने लगते हैं अथवा कुछ ऐसी कार्यप्रणाली अंगीकार कर लेते हैं, जिससे दूसरे आदमी इनके भिन्न जातिके होने का अनु मान करने लगते हैं, तो हिन्दू-शरीरमें एक रोमाञ्चकारी घटना हो जाती है, हिन्दू जातिके उन्नति के पथमें एक कदम पीछे हटने की सम्भा वना होती है, और दर्शकों के लिए एक कौतुक खड़ा हो जाता है। इस लिए बड़ी आवश्यकता है कि हिन्दू जातिके अंतर्गत भिन्न भिन्न धर्माव - लम्बी समाजोंके विचार-प्रवाह और कार्य्यशैली पर अच्छी तरह ध्यान रक्खा जाय । जैनहितैषी - आज हमें जैनसमाज पर ही एक दृष्टि डालना अभीष्ट है। इसमें संदेह नहीं कि इस समाजके द्वारा भारतका बहुत उपकार हुआ है, और 1. इसकी महिमा के गीत सुदूर देशोंमें गाये गये हैं । जैन - फिलासफीने विदेशी जिज्ञासुओंका ध्यान ज्ञानवृद्ध भारतकी ओर आकर्षित किया है जैनमंदिरोंकी कला और चित्रकारीने यहाँको भवन-निर्माणावद्या के संरक्षणमें हाथ बँटाया है तथा इनके अहिंसा धर्मकी विजय घोषणा मांसा - हारी भू-खंड भी कान लगाकर सुन रहा है । । साथ ही यह भी संतोष की बात है कि जैनसमाज अपनी प्राचीन महत्ताके आधार पर ही अपना [ भाग १३ अस्तित्व नहीं रखता । उसने समयानुकूल सुधार और उन्नतिका यथेष्ट स्वागत करना भी स्वीकार कर लिया है तभी तो स्थान स्थान पर जैन - औषधालय, जैन- विद्यालय, जैन-छत्रालय, जैन-पुस्तकालय, अनाथालय आदि संस्थाओंके खुलने के सुसमाचार मिलते रहते हैं । यह ठीक है कि अभी बहु काम करना शेष है और उद्योगकी बहुत आव - इयकता पड़ेगी- तीर्थों के झगड़े, श्वेताम्बरी दिगम्बरियोंके वाद-विवाद, सट्टेका जोर शोर आदि अनेक अनिष्टकारी शत्रुओंसे विकट संग्राम लड़ना पड़ेगा, परन्तु जब एक बार हिम्मत करके अखाड़े में आन उतरे हैं तो धीरे धीरे सफलता अवश्य होगी और हो भी रही है । इस प्रकारके प्रगतिकालमें बहुत सावधान रहनेकी अवश्यकता है, ऐसा न हो कि उतावलेपन से चलनेमें हम कोई ऐसा मार्ग पकड़ लें कि फिर उलटे पाँवों लौटना पड़े । यह बहुत विचारणीय विषय है । अपनी अल्प योग्यतानुसार जो बात हमे खटकती है उसे बड़े विनीत भावसे निवेदन किये देते हैं । हमने बहुत कुछ सुना है और थोड़ा बहुत देखा भी है कि जैन भाइयों की दृष्टिसीमा साधारणतया संकुचित हो गई है और जैन-क्षेत्र से बाहर की दुनियाकी ओर वे बहुत कम ध्यान देते हैं । निस्संदेह ऐसा कहते समय हम उन महानुभावों की शुभ नामावली नही भूलते जिनके सार्वजनिक कार्य भारत - सन्तानों के लिए आदर्श रूप हो गये हैं । जैसे स्वर्गीय सेठ प्रेमचन्द रायचन्दकी ओरसे प्रतिवर्ष कलकत्ता यूनीवर्सिटी के किसी एक छात्रको मिलनेवाली दस हजार रुपये की वृत्ति, सर वसनजी त्रीकमजी जे. पी. का बम्बई के सायन्स इन्स्टिट्यूट को दिया हुआ तीन लाख रुप येका दान स्वर्गीय दानवीर सेठ माणिकचन्द हीराचन्दजीकी ' : हीराबाग' नामकी आदर्श धर्मशाला, व्याख्यान- मन्दिर और औषधालय, For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह२] पतितोंकी पुकार। - जबलपुरके सिंगई भोलानाथ कस्तूरचन्दजीका जब ऐसे ऐसे कामों में ही इनकी उदारता इस वहाँके हितकारिणी हाईस्कूलको दिया हुआ २५ प्रकार सीमाबद्ध होने लगी है, तब अन्य हजार रुपयोंका दान आदि । परन्तु बुरा माननेकी स्वार्थ-त्यागके कामोंमें वह कितना स्थान पायेगी, बात नहीं; पाठक तनिक विचार देखें, कि उपर्युक्त इस बातकी कल्पना पाठक ही करलें । कार्य जैन-भारतकी रिपोर्टमें कितना स्थान घेरते जैन भाइयो ! अपने आदर्श, विचार, शिक्षा हैं। निदान सत्यके नाते यह मानना ही पड़ेगा कि और उदारताको यों संकुचित रखनेसे कब तक जैन बन्धुओंका भारतके सार्वजनिक कामोंमें बहुत गुजारा होगा ? सुनते नहीं यह बीसवीं शताब्दि थोड़ा-प्रायः नहींके बराबर-भाग है । वे यदि जोरोंसे कह रही है-“ उठो, सुधरो, नहीं तो उन्नतिके स्वप्न देखते हैं तो केवल जैन-समाज- तुम्हारा कल्याण नहीं ! ! जैनभारत, सोच समझ के भीतर और उन्नति करना चाहते हैं तो जैन और देख तेरी गति किधरको है ! तेरा धर्म एक क्षेत्रके अन्दर । मानों, वे एक ऐसी चार दीवा- स्वतंत्र धर्म है, तो क्या वह तुझे हिन्दू शरीरके रीमें सुरक्षित विराजमान हैं, जिसमें बाहरकी साथ हिल-मिलकर कार्य सम्पादन करनेका वायु प्रवेश ही नहीं कर पायगी और उसकी निषेध करता है ? नहीं-होशमें आ, निद्रा त्याग सुगंध या दुर्गन्धकी पहुँच ही उन तक न होगी। और अपने उत्तरदायित्वको पहिचान ।” जैनभाई समझते हैं कि बाहरके सुधार बिगाड़से उनका कुछ बनता बिगड़ता नहीं । उन्हें तीन लोकसे न्यारी केवल अपनी ही जैन 'मथुरा' की पतितोंकी पुकार । चिन्ता है । कैसी दयाजनक स्थिति है कि यदि ये महाशय किसी कर्मवीर या देशभक्तको आभिमान करने योग्य समझ सकते हैं, तो [ ले०, बाबू मोतीलालजी जैन बी. ए. ।] वह जैन ही होना चाहिए । हिन्दू जातिमें अन्य निशि-दिन हम क्या यों दुःख पाते रहेंगे ? अनेक प्रशंसा पात्रोंका होना न होना हत दिवस हमारे क्या कभी भी फिरेंगे? . इनके लिए बराबर है। केवल धार्मिक बातोंमें ही 'यह दुख हमसे तो यों सहा है न जाता, नहीं, अन्य विषयोंमें भी ये अपनेको सबसे अहह ! यह हमारा है कलेजा जलाता ॥१॥ क्षण क्षण कटता है आपदामें हमारा, अलग रखना चाहते हैं । यदि ये काव्यों या __ अतिशय बहती है नेत्रसे वारिधारा । नाटकोंके आनन्दामृतका पान करना चाहते हैं तो निशि-दिवस हमें तो काट्ने दौड़ते हैं, कालीदास, भवभूति प्रभृतिके प्रकृति-प्रेमियोंके बस हम अपनी तो मृत्यु ही चाहते हैं ॥२॥ द्वार इनके लिए बंद हैं । क्यो ? बस इसी लिए नर अधम हमारे तुल्य कोई न होगा, कि उन्होंने जैनधर्मकी दीक्षा नहीं ली थी । इसी पद-दलित भला यो धूलि-सा कौन होगा ? प्रकार यदि ये महाशय वैद्यकशास्त्र अध्ययन करना हम सब अपनी जो वेदनायें सुना दें, चाहेंगे,तो सम्भवतः चरक-सुश्रुतके ग्रन्थ तो 'जैन हम सच कहते हैं पत्थरोंको रुला दें ॥ ३ ॥ नहीं' की छाप होनेसे इनके पाठ्यक्रममें ही कुछ सुख हमने तो जन्म लेके न पाया, स्थान न पावेंगे । सुनते हैं इनकी संस्थाओंमें बहु दुख हमने है व्यग्र हो हो उठाया। इतिहास तो पढ़ाया ही नहीं जाता है। क्योंकि प्रति पल हमको है हो रहा कष्ट भारी, जैनइतिहास अभी तक कोई लिखा ही नहीं गया। अब कुमति मला क्या और होगी हमारी ! ॥४॥ For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ लघुतर हमसे है दृष्टि कोई न आता, आजकलकी अपेक्षा उसका रूप कुछ और ही बढ़कर हमसे है श्वान भी मान पाता। ___ था। उस समय एक नगरके संघकी ओरसे मनुज तन हमें हा ! क्या मिला है वृथा ही ! । दूसरे परिचित नगरोंके संघोंको, धर्मात्मा श्रावगति पलट गई है कालकी सर्वथा ही ॥५॥ सकल जगत सूना-सा हमें है दिखाता, कोंकी ओरसे साधुओंको और साधुओंकी ओरसे निज प्रिय हमको है दृष्टि कोई न आता। प्रधान आचार्योंको क्षमावनीके पत्र भेजे जाते थे। न तनिक हमको है प्रेम आशा किसीसे, और वे ' विज्ञप्तिपत्र' के नामसे अभिहित ___ कल हृदय हमारा है न पाता इसीसे ॥ ६॥ होते थे। ये पत्र जन्मपत्रियों के समान बहुत रज-सम हमको जो तुच्छ ही जानते हैं, लम्बे होते थे, यहाँ तक कि कोई कोई साठ बहुविध अपनेको उच्च जो मानते हैं। साठ फुटके होते थे। आचार्य मुनिसुन्दरके तो विनय उन कुलीनोंसे यही है हमारी। अतिशय उनकी है नीति अन्यायकारी ॥ ७ ॥ है एक ऐसे विज्ञप्तिपत्रका उल्लेख मिलता है, जो अब ग्रसित दुखोंसे देश क्यों है हमारा ? १०८ हाथ लम्बा था ! ये पत्र तरह तरहके __अब न बह रही क्यों शान्ति-पीयूष-धारा ? बेलबूटों और चित्रोंसे सजाये जाते थे। संस्कृत अब निज धनकी क्यों वृद्धि होती नहीं है ? प्राकृत तथा देशभाषाके गद्य तथा पद्योंमें बड़े . असफल पतितोंकी आह होती कहीं है?॥८॥ परिश्रमसे इनकी रचना होती थी। इनमें जहाँको बस अब प्रभुसे है प्रार्थना यों हमारी, पत्र भेजा जाता था उस नगरकी शोभा, कुमति इन कुलीनोंकी हटे भ्रान्तिकारी। आचार्य-गुणोंका कीर्तन, श्रावकोंके सौभाग्यकी तज मद जिससे ये बन्धुको बन्धु माने, प्रशंसा, पर्युषणपर्वमें किये गये धर्मकृत्योंका पर-हित-रत हो ये प्रेमकी रीति जानें ॥९॥ बस सुधि अब भी जो ये हमारी न लेंगे, उल्लेख, सांवत्सरिक क्षमापन आदिका आलकर पतित जनोंके जो नहीं ये गहेंगे। ङ्कारिक भाषामें विस्तृत वर्णन रहता था। हम दुखित जनोंकी आहकी अग्नि द्वारा, श्रावकों और संघोंके पत्रों की अपेक्षा मुनियों . अहह ! जल उठेगा शीघ्र ही देश सारा॥१०॥ या साधुओंके लिखे हुए पत्र बहुत मह('सरस्वती' से उद्धृत।) त्वके होते थे। उनमेंसे किसी किसीके पत्र तो एक प्रकारके स्वतंत्र ग्रन्थोंके समान होते थे। पुस्तक-परिचय । मालूम होता है कि इस प्रकारके पत्रों के लिखनेका प्रचार प्राचीन समयमें भी था । पर अभी तक जो सबसे प्राचीन विज्ञप्तिपत्र मिला है वह विक्रम १ विज्ञप्तित्रिवेणिः । सम्पादक, मुनि जिन- की १३वीं शताब्दिके मध्यका लिखा हुआ है जिसे विजयजी । प्रकाशक, जैनआत्मानन्द सभा, चन्द्रकुलके आचार्य भानुचन्द्र के पास बड़ौदा नगभावनगर । आकार डिमाई अठपेजी । पृष्ठसंख्या रसे प्रभाचन्द्र गणिने भेजा था। उपाध्याय १५० । कपड़ेकी जिल्द । मूल्य एक रुपया। विनयविजयका 'इन्दुदूत' नामका काव्य भी एक श्वेताम्बर जैनसम्प्रदायमें पर्युषण (पजूसण) विज्ञप्तिपत्र ही है । यह उन्होंने जोधपर्वके अन्तमें क्षमावनकि पत्र लिखनेका विशेष पुरसे प्रधान आचार्य विजयप्रभके पास सूरत प्रचार है। पूर्वकालमें भी पता लगता है कि भेजा था । उन्होंने चन्द्रमाको दूत कल्पना क्षमावनीके पत्र लिखनेकी पद्धति थी; परन्तु करके अपने सन्देशको उसके द्वारा सूरत भिज For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क] पुस्तक-परिचय। वाया है और उसमें मेघदूतके ढंगपर, उसीकी दिगम्बर सम्प्रदायके भी मन्दिर और गृह अवश्य छाया लेकर १३१ श्लोकोंमें अपनी कवित्व- होंगे। क्योंकि जनरल ए. कनिंगहामके कथनाशक्तिका परिचय दिया है। जोधपुरसे सूरत तक- नुसार बादशाही जमानमें नगर कोटकी दीवानके प्रसिद्ध प्रसिद्ध स्थलोंका और मन्दिर तीर्था- गीरी (मंत्रित्व ) दिगम्बर जैन किया करते दिकोंका इसमें मनोरम वर्णन है। 'मेघदू- थे। विज्ञप्तित्रिवेणीसे यह भी पता लगता है तसमस्यालेख ' नामका एक और विज्ञप्तिपत्र कि १५ वीं शताब्दिमें गुजरात, राजपूताना है, जिसे मेघविजयजीने औरंगाबाद ( दक्षिण ) आदिकी तरह सिन्ध और पंजाबमें भी जैनसे आचार्य विजयप्रभके पास दीव बन्दरको धर्मका अच्छा प्रचार था। वहाँ हजारों जैन भेजा था। यह भी इन्दुदूतके ढंगका है । बसते थे और सैकड़ों जिनालय मौजूद थे। जिन इसमें इतनी विशेषता है कि इसके प्रत्येक श्लोक- . • मरुकोट्ट, नन्दनवन, और कोटिल्लग्राम आदि के तीन चरण ग्रन्थकर्ताके हैं और चौथा मेघदू घ. तीर्थस्थानोंका इसमें उल्लेख है, उनका आज कोई तका है। 'चेतोदूत' नामका एक विज्ञप्तिपत्र नाम भी नहीं जानता है । सर्वसाधारण जनऔर भी है । इस ग्रन्थमें जो विज्ञप्तिपत्र प्रकाशित . ताको और राजादिकोंको भी उस समय जैनधर्मसे किया गया है, उसका नाम विज्ञप्तिनिवेणिः है । इसे विक्रम संवत् १४८४ माघ सुदी १०. " बहुत कुछ सहानुभूति थी । मुनिमहोदय जिनवींके दिन सिन्ध देशके 'मलिकवाहण' नामक विजयजीने इस ग्रन्थका बहुत ही परिश्रमसे र सम्पादन किया है । मूल विज्ञप्तिपत्र कुल ६५ स्थानसे जयसागर उपाध्यायने गुजरातके , गुजरातक पृष्ठोंमें आगया है और १२ पृष्ठोंमें उसका हिन्दी अणहिलपुरपाटणस्थ आचार्य जिनभद्रसूरिके सार है । शेषके लगभग ८० पृष्ठोंमें इसकी पास भेजा था । यह संस्कृत गयपयमय है । भमिका है, जिसमें पचासों ग्रन्थोंकी छानबीन इसकी श्लोकसंख्या १०१२ श्लोक प्रमाण करके विज्ञप्तिपत्रोंका स्वरूप, उनका इतिहास, है । इसकी रचना भी सुन्दर है और खास खास विज्ञप्तिपत्रोंका उल्लेख, विज्ञप्तित्रिवेविषय भी महत्त्वका है । जयसागर उपा - णीके लेखक, उनके सहयोगियों तथा गुरु और ध्यायने पंजाबके नगरकोट नामक तीर्थकीजिसको कि आजकल काँगड़ा या कोट - स्थानोंका परिचय आदि महत्त्वपूर्ण बातोंका ज्ञान कराया है । विशेषता यह है कि जो काँगड़ा कहते हैं-एक बड़े भारी संघके साथ जो यात्रा की थी उसका इसमें सविस्तर वर्णन कुछ - कुछ लिखा है वह अपने सम्प्रदायकी पक्ष या है । इससे उस समयके जैनधर्मके इतिहास पर , - श्रद्धाके वश होकर नहीं किन्तु इतिहास पर । प्रकाश डालनेकी दृष्टि से लिखा है । जैन बहुत प्रकाश पड़ता है । आज जिस नगरकोटमें एक भी जैनी नहीं है, वहाँ पर पाँच सम्प्रदायके इतिहासलेखकोंमें जो पक्षपातिताका 'दोष दिखलाई देता है, उससे लेखक महाशय सौ वर्ष पहले एक बड़ा भारी तीर्थ था और र बचे हुए हैं और इससे आशा होती है कि उनके सैकड़ों धनिक जैनोंका निवास था और वहाँका द्वारा जैन इतिहासकी बहुत अधिक सेवा राजा जैनधर्मसे सहानुभूति रखता था। होगी । ऐसी बहुमूल्य पुस्तक लिखने और पन्द्रहवीं शताब्दिके अन्त तक वहाँ पर श्वेता- प्रकाशित करनेके उपलक्ष्यमें हम लेखक महाम्बरसम्प्रदायके चार बड़े बड़े जैनमंदिर थे । शयकी और आत्मानन्द जैनसभाकी प्रशंसा For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितेषी [भाग १३ wwwmuvwwwwwwwwwwwwwwaura किये बिना नहीं रह सकते । पुस्तक बढ़िया दिये जाते हैं, परन्तु वास्तवमें ये सब श्वेताम्बर कागज पर सुन्दरताके साथ छपी है। धर्मवालोंके हैं और इन्हींकी मालिकीके हैं । इन २ कृपारसकोश । लेखक और प्रकाशक पर्वतोंके नीचे, ऊपर, आसपास, यात्राके सभी पूर्वोक्त मुनि महाशय और सभा । डिमाई अठ- स्थानोंमें और पूजास्थानोंमें कोई किसी प्रकारकी पेजी साइज । पृष्ठ संख्या ८० । मूल्य एक रुपया। जीवहिंसा न करे ।" इसके बाद हीरविजयजी श्वेताम्बर सम्प्रदायमें हीरविजयसूरि नामके दिल्लीसे चले गये और बादशाहके पास उपाएक बहुत ही प्रसिद्ध विद्वान् हो गये हैं। वे ध्याय शान्तिचन्द्रजीको रखते गये । उपाध्यायजी बादशाह अकबरके समसामयिक थे। उनकी अच्छे विद्वान थे। ये भी बादशाहको दयालु साधुता और विद्वत्ताकी कीर्ति सुनकर अकबरने बनानेका प्रयत्न करते रहे । इसका फल यह उनके दर्शन करनेकी इच्छा प्रकट की और तब हुआ कि वर्ष भरके खास खास हिन्दू तथा मुसहीरविजयजी बादशाहसे दो बार मिले । बाद- लमानोंके इतने तेहवारों पर जीववध न करनेकी शाहने उनकी बड़ी खातिर की और उनसे वार्ता- आज्ञा दे दी कि उन सब दिनोंकी संख्या छह लाप करके बहुतसा ज्ञान प्राप्त किया । एक तो महीनेके लगभग हो जाती है । जिजिया करके अकबर स्वयं ही प्रजाको प्रसन्न रखनेवाला बाद- उठा देनेमें भी ये ही उपाध्यायजी कारण समझे शाह था, दूसरे सूरिजीका भी उस पर बहुत जाते हैं। हीरविजयजी और अकबरके इस परिचय प्रभाव पड़ा। इस लिए उसने सूरिजीकी प्रेरणासे आदिके सम्बन्धमें श्वेताम्बर विद्वानोंने जगद्गुरुकैदखानोंसे तमाम कैदी मुक्त कर दिये,पीजड़ों- काव्य, हीरसौभाग्य महाकाव्य, विजयप्रशस्तिमेंके तमाम पक्षी छुड़वा दिये, डाबर नामके ताला- काव्य, विजयमाहात्म्य, आदि कई ग्रन्थ लिखे बमें मछली पकड़नेके जाल डालनेके लिए मनाई हैं। यह 'कृपारसकोश' भी उन्हीमेंका एक है। इसके कर दी और पर्युषणके आठ दिनोंमें तथा दूसरे की पूर्वोक्त उपाध्याय शान्तिचन्द्रजी हैं। ग्रन्थ चार दिनोंमें जीव-वध न होने पावे, इसके लिए १२८ संस्कृत पद्योंमें समाप्त हुआ है। इसमें गुजरात, मालवा, अजमेर, दिल्ली, फतहपुर और पहले खुरासान काबुल आदिका वर्णन, फिर लाहौरके सूबों पर फरमान (आज्ञापत्र) लिख बाबर और हुमायूँकी प्रशंसा और उसके बाद दिये । दूसरी बारकी मुलाकातमें बादशाहने एक अकबरका जन्मवृत्तान्त कहा गया है । इसके फरमान और लिख दिया जिसका अभिप्राय यह है बाद अकबरके रूप, शौर्य, दानशीलता, कि “सिद्धाचल, गिरनार, तारंगा, केशरिया और दयाप्रवणता आदि गुणोंकी प्रशंसा की गई है। आबूके पहाड़ों पर, जो गुजरातमें हैं, तथा राज- ग्रन्थ अकबरको प्रसन्न करनेके लिए रचा गया गृहीके पाँच पहाड़ और सम्मेदशिखर था, इस लिए आश्चर्य नहीं जो इसमें उसकी या पार्श्वनाथ पहाड़, जो बंगालमें है, तथा और अति प्रशंसा की गई हो । एक श्लोक देखिए:भी जैन श्वेताम्बरसम्प्रदायके धर्मस्थान जो कन्ये कासि कृपा कुतोऽसि विधुरा राजा कुमारो गतहमारे अधिकारके देशोंमें हैं वे सभी जैन श्वेता- स्तत्किं हिंसकमानवैरहरहर्गाढं प्रमुष्टास्म्यहम् । म्बर सम्प्रदायके आचार्य हीरविजयसूरिके स्थानाय स्पृहयामि तद्भज शुभे भूभामिनीभोगिर्न स्वाधीन किये जाते हैं, जिससे ये शान्तिपूर्वक संप्रत्येकनृपं चिरादकबरं येनासि न व्याकुला॥११३॥ इन पवित्र स्थानोंमें अपनी ईश्वरभाक्त किया करें। अर्थात्-हे कन्ये, तू कौन है ? मैं दया हूँ। यद्यपि इस समय ये स्थान हीरविजयसूरिको दुखी क्यों है ? इस लिए कि राजा कुमारपाल For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क २ ] संसार से चला गया । उसके चले जानेसे क्या हुआ ? हिंसक मनुष्योंके द्वारा मैं रातदिन सताई जाती हूँ, इस लिए अपने लिए कोई आश्रय चाहती हूँ | तो इस समय के सर्वश्रेष्ठ पृथिवीपति अकबरके पास जा, इससे तेरी व्याकुलता मिट जायगी । पुस्तक- परिचय | 1 काव्यदृष्टि रचना सुन्दर है, पर इतिहासकी ष्ट अतिरंजित है | सम्पादकने काव्यका हिन्दी में आशयानुवाद लिख दिया है और ऐतिहासिक बातों पर प्रकाश डालने के लिए ४२ पृष्ठकी एक भूमिका लिख दी है । इसके लिए बहुत छानबीन की गई है और यथेष्ट परिश्रम किया गया है । पुस्तकके प्रारंभ में बादशाह अकबर और हीरविजयजीकी मुलाकात के समय का एक प्राचीन चित्र दिया गया है, जो बहुत सुन्दर है । बादशाहके उन दो फरमानोंके फोटू भी दे दिये हैं जो खास खास दिनोंमें जीववध न किये जाने के लिए और हीरविजयजीको तीर्थोंके मालिक बनाने के लिए लिखे गये थे । दूसरे फरमानकी शाहीमुहरका चित्र भी एन्लार्ज करा दिया गया है । जहाँ तक हमारा खयाल है, यह दूसरा फरमान उन्हीं में से एक होगा, जिन्हें सम्मेदशिखरके इस हालके मुकद्दमे में हजारीबाग के न्यायाधीशने जाली ठहरा दिया है । हमें भी इस फरमान के सच्चे होनेमें सन्देह होता है। क्योंकि एक तो "बादशाही फरमानोंमें ऊपरके भागों पर वैसे ही चित्र चित्रित किये जाते थे जैसे कि प्रथम नम्बरके फरमानमें हैं; परन्तु इस दूसरे फरमानमें और ही प्रकार के दृश्य दृष्टिगोचर होते हैं । मुख्यकर मध्यका जो चित्र है वह एक देवमंदिरके आकारकासा है । इस बात को इस पुस्तक के सम्पादकने स्वयं इन्हीं शब्दों में लिखा है। दूसरे अकबर और हीरविजयसूरिके सम्बन्धमें जो कई ऐतिहासिक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनमेंसे किसीमें भी इसका उल्लेख नहीं है । यह बहुत बड़े "" ८३ , महत्त्वकी बात थी - तमाम तीर्थों को श्वेताम्बर ठहरा देना और उनको उनका अधिकार दे देना, यह ऐसी बात नहीं थी कि इसका उल्लेख न किया जाता । यह सच होगा कि हीरविजयजीने यह प्रार्थना की होगी कि तीर्थों पर मुगलोंके उपद्रव बहुत होते हैं - वे हिंसादि करते हैं, इस लिए वहाँ ऐसा न होने पावे और इस उचित प्रार्थनाको बादशाहने स्वीकार भी किया होगा, जैसा कि इस कृपारसकोशके कर्ताने १२६ वें श्लोक में ' या चैत्यमुक्तिरपि दुर्दमगलेभ्यः ' वाक्यसे प्रकट किया है । परन्तु सारे जैनतीर्थ श्वेताम्बर करार दिये जायँ और हमारे अधिकारमें दे दिये जायँ, ऐसी इच्छा न तो हीरविजयजी कर सकते थे और न बादशाह उसकी पूर्ति ही कर सकता था । हीरविजयजी तीर्थों पर अधिकार जमानेवाले और अपने मक्तोंको बहका कर दूसरोंसे लड़ानेवाले साधु न थे। अकबर जिस समय उन्हें बहुत से जैनग्रन्थ भेंट करने लगा था, उस समय उन्होंने उनके लेनेसे साफ इंकार कर दिया था और कहा था कि जरूरत से ज्यादा होनेके कारण मैं इन्हें भी परिग्रह समझता हूँ। जो पुरुष जैनग्रन्थों को भी परिग्रह समझकर ग्रहण नहीं करना चाहता है, वह तीर्थोंका अधिकार ग्रहण कर लेगा, यह संभव नहीं है । कभी कोई श्वेताम्बर या दिगम्बर साधु तीर्थोंका अधिकारी रहा भी नहीं है । तीर्थोके प्रबन्ध आदिसे श्रावकों का ही सम्बन्ध रहता है । हीरविजयजीको दिगम्बरयोंके अधिकारसे इतना अधिक द्वेष भी नहीं होगा जितना कि उक्त फरमान से प्रकट होता है । इसी पुस्तकमें लिखा है कि ' उन्होंने मथुरा से लौटते हुए गोपाचल ( ग्वालियर ) की विशालकाय भव्याकृति जिनमूर्तिके जो ' बावनगजा ' के नामसे प्रसिद्ध है, दर्शन किये । ' हमारी समझमें यह विशाल मूर्ति ग्वालियर के किले की For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ दिगम्बर प्रतिमा ही है। अकबरकी प्रकृति भी दुर्गादासका आदर्शचरित्र अङ्कित किया गया है । ऐसी नहीं थी कि वह श्वेताम्बरियोंको प्रसन्न अपूर्व नाटक है । मराठी जाननेवालोंको अवश्य करके दिगम्बरियोंके साथ अन्याय करे । फरमा- पढ़ना चाहिए । अनुवादमें कहीं कहीं शिथिलता नमें यद्यपि कोई शब्द दिगम्बरियोंके विरुद्ध और अस्पष्टता आ गई है। यह न आती तो नहीं है; परन्तु श्वेताम्बरियोंकी ही मालिकीके अच्छा था। पुस्तक लोकमान्य पं० बालगंगाधर ये स्थान हैं, इसका अर्थ ही यह है कि इन पर तिलकको समर्पित की गई है। दिगम्बरोंका अधिकार नहीं है। फरमानके इस ४ महिला-गानमाला-लेखक और अंशको पढ़कर कि “ यद्यपि इस समय ये स्थान प्रकाशक पं० सुखराम चौबे, लार्डगंज, जबलहीरविजयजीको दिये जाते हैं। परन्तु वास्तवमें पूर । डिमाई अठपेजीके २६ पृष्ठ । मूल्य दो हैं ये सब जैन श्वेताम्बर-धर्मवालोंहीके, और आना । विवाहादि संस्कार कार्योंके समय स्त्रियाँ इन्हींकी मालिकीके" यह भान होता है जैसे इस जो भले बुरे गीत गाया करती हैं, उनके रोकनेके जाली फरमान लिखनेवालेको यह भय हो लिए और अच्छे गीतोंके द्वारा स्त्री-समाजमें अच्छे गया हो कि इस फरमानसे हीरविजयके बादके भाव भरनेके लिए यह पुस्तक रची गई है । रचना लोगोंका अधिकार कैसे सिद्ध होगा और इस- स्त्रियोंके लिए सचमुच ही उपयोगी है। लिए उसने उक्त भयको मिटानेके लिए ये पंक्तियाँ ५ ललितविलास-लेखक, मुनि तिलक पीछेसे और बढ़ा दी हों । कुछ भी हो, हम इस- विजय और प्रकाशक, आत्मानन्दजैनसभा, पर सन्देह हो गया है। इतिहासके विद्वानोंको इस 1 अंबाला शहर । रायल सोलह पेजीके ५६ पृष्ठ । विषयमें निष्पक्ष होकर छानबीन करनी चाहिए। ए। मूल्य दो आने । यह मुनि महाराजकी खड़ी हमें इस फरमानको पढ़ते हुए जो जो बातें सूझी बोलीकी कविताओंका संग्रह है । जान पड़ता है इस समय तो हमने केवल उन्हींका उल्लेख , | आपने इन पयोंको श्रीयुत बाबू मैथिलीशरणकी कर दिया है । पुस्तक बड़े महत्त्वकी है । प्रत्येक - 'भारत-भारती' और जयद्रथवध आदिको इतिहासके प्रेमीको इसकी एक एक प्रति मँगा लेना , मगालना सामने रखकर लिखा है । क्योंकि इसमें उनके चाहिए । यह बढ़िया आर्टपेपर पर कई रंगकी का चरणके चरण नकल कर दिये गये हैं । भावोंको - स्याहीसे छपाई गई है और इसकी जिल्द तो भी आपने खूब उड़ाया है । मैथिली बाबूके और भी अधिक नयनाभिराम है। हमारी सम- समर्पण तककी आपने छन्द बदलकर नकल कर झमें एक इतिहासकी पुस्तकमें इतने आडम्बरकी डाली है। देखिए:आवश्यकता नहीं थी। जो मिली आपसे चीज आपको कैसे अर्पण करूँ उसे, ३ राठोड़वीर दुर्गादास-लेखक और मैं होकर तो भी धृष्ट आपके कर कमलोंमें धरूँ इसे । प्रकाशक, तात्या नेमिनाथ पांगल, सरसवाङ्मय- अतएव धृष्टता पर मेरी न ध्यान आप कुछ भी दीजे, प्रसारक मण्डली, गिरगाँव; बम्बई,। पृष्ठसंख्या हे दयानिधे, किंकरकृतिको स्वीकृत कर मम ( ? ) १७५ । मूल्य एक रुपया । यह पुस्तक प्रसिद्ध उपकृत कीजे । नाटककार स्वर्गीय द्विजेन्द्रलाल रायके बंगला इसमें जिसकी नकल की गई है, वह मैथिली नाटकका मराठी अनुवाद है जो हमारे प्रकाशित बाबूका समर्पण इस प्रकार है:किये हुए हिन्दी दुर्गादासके आधारसे किया गया पाई तुम्हीसे वस्तु जो कैसे उसे अर्पण करूँ ? है। इसमें राजपूतानेके सुप्रसिद्ध महापुरुष वीर पर क्या परीक्षारूपमें पुस्तक न यह आगे धरूँ, For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क २ ] अत एव मेरी धृष्टता यह ध्यान में मत दीजिए, कृपया इसे स्वीकार कर उपकृत्य मुझको कीजिए । विविध-प्रसङ्ग । हमारी समझमें यह कार्य मुनिजीके पदके योग्य नहीं । शास्त्रोंमें काव्य-चौर्यकी बहुत निन्दा की है । कविता में छन्दोभंग आदि दोष भी हैं, फिर भी उपदेशकी बातें अच्छी हैं, उनसे पढ़नेवाले कुछ न कुछ लाभ अवश्य उठायँगे । मुनिमहाराज कट्टर श्वेताम्बर जान पढ़ते हैं । आप एक जगह दिगम्बरों और ढूँढ़ियोंको भी चलते चलते दो चार बुरी भली सुना गये हैं । दिगम्बरियोंके लिए आप फरमाते हैं:निकला दिगम्बरपन्थ भी तो है हम्हीं में से यहाँ, गुरु भद्रबाहु से प्रथम था इनका उद्भव ही कहाँ ? "जैसे कि आर्यसमाज निकला देखते सबके यहाँ, पर अल्पसे ही कालमें फैला नहीं है वो कहाँ ? इसी प्रकरणमें आप स्थानकवासियोंके विरुमें भी कुछ कहकर कहते हैं • मतपक्ष करना आज इसको (लोग) मान बैठे धर्म हैं । मुनि महाराज शायद श्वेताम्बर मतके पक्ष करने को 'मतपक्ष ' न मानते होंगे, अत एव आपकी इस मानता के लिए धन्यवाद ! नीचे लिखी पुस्तकें धन्यवादपूर्वक स्वीकार की जाती है: r १ रोजगार, २ घरका वैद्य, ३ स्त्रीशिक्षा, संसारकी आकांक्षा - प्रकाशक, पं० रुद्रदत्त शर्मा, चंदौसी ( यू. पी. ) । ५ काव्योपवन-सुमन पुष्पाञ्जली, ६ भाषाश्रुत-बोध, ७ चतड़ा चौथचातुरी, ८ भाषापिङ्गल, ९ गानेकी चन्द चीजे, द्वितीय तृतीय भाग - लेखक और प्रकाशक, बाबू माँगालील गुप्त छावनी नीमच । १० गिरनारमाहात्म्य ( विधान पूजन ) - सम्पा दक और प्रकाशक, बाबू बशीघर जैन मास्टर, ललितपुर, (झाँसी)। _११ दलजीतसिंह — नाटक — ले०, बाबू कृष्णलाल वर्मा । प्रकाशक, प्रेममाला कार्यालय, गोहाना (रोहतक) १२ आस्तिकप्रकाश–प्र० पं०, कुँवरसेन शर्मा, हनुमान गली, हाथरस ( अलीगढ़ ) । १३ नवतत्त्व ( हिन्दीभाषानुवाद सहित ) - प्र०, आत्मानन्दजनपुस्तक प्रचारक मण्डल, नौघरा, देहली । १४ श्रीपालचरित्र ( द्वितीय संस्करण ) - ले ०. मास्टर दीपचन्दजी और प्रकाशक, मूलचन्द कसनदास कापड़िया, सूरत । १५ श्रावकधर्मदर्पण, १६ शलिरक्षा प्रथम और द्वितीय भाग - प्र०, कुँवर मोतीलाल राँका, जैनज्ञानवर्द्धिनी पाठशाला, व्यवर ( अजमेर) । १६ जैनइतिहास, १७ जैनतत्त्वमीमांसा - प्र०, आत्मानन्द - जैन- ट्रेक्ट-सुसाइटी, अंबाला सिटी । १७ छठवीं वार्षिक रिपोर्ट - जैनसिद्धान्तविद्यालय, मोरेना । १९ बिजनौर | षष्ठ वार्षिक रिपोर्ट — जैनबोर्डिंग हाउस, २० बीसवीं वार्षिकरिपोर्ट — दिगम्बरजैनमहासभा, सहारनपुर । विविध प्रसङ्ग । १ स्याद्वादविद्यालय और जैनमित्र । जैन मित्रके सम्पादक महाशय जैन संस्था 1 'ओंके इतने बड़े शुभचिन्तक हैं कि उस शुभ- चिन्तनामें उन्हें ' चुप्पं कुरु' की नीतिक अत्यधिक पक्षपाती बन जाना पड़ा है । वे चाहते हैं कि किसी भी संस्था के दोष न निकाले जायँ, क्योंकि ऐसा करनेसे लोग सहायता देना बन्द कर देंगे और संस्था को हानि पहुँचेगी । अवश्य ही यह शुभ चिन्तना है, पर इसका परिणाम संस्थाओंके लिए वही होगा जो अधिक लाड़से पाले जानेवाले और सदा अपनेको सर्वगुणसम्पन्न समझनेवाले बालकोंका होता है। जैनहि For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ तैषीके गताङ्कमें प्रकाशित हुए प्रो० निहाल- भरोसे विद्यालयको अच्छा बतला दिया और करण सेठीके लेख पर ब्रह्मचारीजीने जैनमित्रके पण्डितजीकी बातोंसे प्रसन्न होकर यदि उन्होंने १२ वें अंकमें एक लेख प्रकाशित किया उनकी भी प्रशंसा कर दी, तो बस विद्यालयकी है । उस लेखका उद्देश्य यही है कि स्याद्वाद- दशा अच्छी होगई ! भले ही वहाँ खोजने पर भी पाठशालाकी दशा ही लोगोंकी दृष्टिमें विद्यालयके रजिस्टरोंका पता न लगे । परीक्षाबुरी प्रतीत न हो, सेठीजीके आक्षेपोंका समा- लयके रिमार्क और कितने विद्यार्थियोंने सरकारी धान होने न होनेसे कोई मतलब नहीं। पंडित परीक्षायें दीं, यह भी विद्यालयके अच्छे होनेका उमरावसिंहजीके तो आप बहुत ही बड़े भक्त हैं कोई प्रमाण नहीं है, जब तक यह न मालूम हो उनसे आप दबते भी खब हैं। उमरावसिंहजीने कि परीक्षामें बैठनेवाले विद्यार्थियोंकी वह पढ़ाई इस बातको स्वयं स्वीकार किया कि मैंने हड़ताल कितने समयकी है । और क्या केवल पढ़ाईहाँसे कराई है । और अधिष्ठाता पं० गणेशप्रसादजीने हमें अच्छी और बुरी दशाका निर्णय कर लेना कमेटीमें साफ शब्दोंमें कहा कि “ अपराध पं० चाहिए ? चारित्रका क्या कोई मूल्य ही नहीं है ? उमरावसिंहजीका है; किन्तु दूसरा अध्यापक विद्यालयमें पढ़ाई न होनेका कारण ब्रह्मन मिल सकनेके कारण उनकी खुशामद करनी चारीजी यह बतलाते हैं कि कमेटीके जुड़नेमें पड़ेगी। इस समय उन्हें पृथक् नहीं कर सकते; २५ दिन लग गये । पर यह असत्य है। किन्तु जब और कोई प्रबन्ध हो जायगा तो वे कमेटीकी तो इस बीचमें कई बैठकें हो गई थीं; भी पृथक किये जा सकेंगे।" तो भी आप पं० परन्तु कार्यकर्त्ता तो कोई काशीका था नहीं, उमरावसिंहजीको दोषी नहीं समझते और तब प्रबन्ध कौन करता ? और यदि कमेटी उनकी प्रशंसाके गीत गाये जाते हैं । उन्होंने न जुड़ सकी, तो यह किसका दोष है ? मंत्रीका अपमान किया, उन्हें पदच्युत करानेका संस्थाकी इससे बड़ी दुरवस्था और क्या हो प्रयत्न किया, यह तो कोई अपराध ही सकती है कि उसके तमाम कार्यकर्त्ता काशीसे नहीं हुआ; और हड़तालको तो आप कोई बड़ा बाहर रहते हैं । क्या इस त्रुटिको दूर करनेकी दोष ही नहीं समझते हैं। आप इस बातको स्वयं आवश्यकता नहीं है ? सेठीजीने लिखा था कि स्वीकार करते हैं कि बाहरी प्रबन्ध ठीक नहीं २७-२८ छात्रों पर भोजनादिमें ४०० मासिक है, फिर भी कहते जाते हैं कि पढ़ाई में काई त्रुटि व्यय होता है, सो इसमें तो कोई असत्यता नहीं है। हम कहते हैं कि यदि पढ़ाई में कोई नहीं मालूम होती । जैनमित्रके इसी ( १२ वें) त्रुटि नहीं है-जो कि मुख्य है-तो फिर बाहरी अंकमें स्याद्वादविद्यालयका दिसम्बर महीनेका प्रबन्धको सुधारनेकी अवश्यकता ही क्या है ? हिसाब छपा है। उससे मालूम होता है कि इस क्योंकि आपकी समझमें तो प्रबन्धका पढ़ाई महीनेमें ५५३।७)॥ खर्च हुआ है। इसमें पर कुछ असर ही नहीं पड़ता है। हड़तालें होने- अध्यापकोंका वेतन केवल १११-)। है । यदि पर भी, पढ़ाई बन्द रहने पर भी और कार्यकर्त्ता- पुस्तकालयका तथा मुतफरिर्क खर्च भी इसमें ओंकी आपसमें न बनने पर भी पढ़ाईमें कोई त्रुटि शामिल कर दिया जाय तो यह खर्च १४०) से नहीं होती है, तो फिर प्रबन्धकी जरूरत ही क्या अधिक नहीं होता है। तब ४१३) मासिक है ! शिखरजीके यात्रियोंने अथवा दूसरे दर्शकोंने खर्च विद्यार्थियोंके भोजनादिका हुआ या नहीं ? आकर यदि दश-बीस मिनिटके निरीक्षणके हाँ छात्रोंकी संख्यामें अवश्य ही थोड़ा For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क २] विविध-प्रसङ्ग। तीनचारका फर्क है । आप कहते हैं कि इससे महाराज! इस विवादको रहने दीजिए और लोग भड़क जायँगे । हम कहते हैं कि संस्थाकी अवस्था सुधारनेका प्रयत्न कीजिए। लोगोंको सच बात कहकर भड़का देना अभी तक हमारी संस्थाओंसे काम अवश्य हुआ अच्छा, पर झूठ कहकर, कुछका कुछ बतलाकर, है, पर वह बहुत ही थोड़ा हुआ है । अब उससे धोखा देना अच्छा नहीं । और सच तो यह है संतोष नहीं होता है । समय अब यह कहता है कि यदि लोग इतनी जल्दी भड़क जाते हैं, तो कि उनकी दशा सुधारो और उनसे थोड़से थोड़े इसके कारण आप ही जैसे सज्जन हैं जिन्होंने समयमें और कमसे कम खर्चमें, अधिकसे संस्थाओंकी भीतरी दशायें छुपा छुपाकर लोगों- अधिक काम करके दिखलाओ। की ऐसी आदतें बना दी हैं कि वे किसी भी . २ मतभिन्नता और जैनसमाज । संस्थाके अप्रबन्धकी बात सुनते ही भड़क उठते हैं और सहायता देना बन्द कर देते हैं। संसारमें मतभिन्नता सदा रहेगी । जब तक कृपया इस पालिसीको बदल दीजिए और संस्था- मनुष्य जातिमें बुद्धि है, सोचने समझनेकी शक्ति ओंकी भीतरी बातोंके प्रकाशित होनेमें रुका- है, अथवा यह कहिए कि उसमें मनुष्यता है, वट न डालकर उन्हें लोगोंको जानने दीजिए तब तक उसकी मतभिन्नता मिट नहीं सकती। जिससे वे स्वयं संस्थाओंके सधार करनेकी एक ही धर्म, एक ही सम्प्रदाय और एक ही पंथके चिन्ता करें और संस्थाओंकी वास्तविक उन्नति अनुयायियोंमें भी मतभिन्नता होती है । यों साधा. हो। आप स्याद्वादपाठशालाके महत्त्वको जान- रणतः तो वे किसी एक सम्प्रदाय या पन्थमें नेके लिए उसकी रिपोर्टोको पढनेकी सलाह रहते हैं; पर यह संभव नहीं कि उस सम्प्रदाय देते हैं। पर यह तो बतलाइए कि उन रिपो- या पन्थके सारे अनुयायियोंसे प्रत्येक ही विषयमें टोंको लिखते तो आप ही या आप उनका मत एक हो जाय । जो जरा बुद्धिमान ही जैसे सज्जन हैं, जो रिपोर्टोंके प्रकाशित हैं, कुछ अधिक पढ़ते लिखते हैं, उनमें तो यह करनेकी सबसे अधिक उपयोगिता चन्दा बटोरना बात बहुत अधिकतासे दिखलाई देती है। और लोगों पर प्रभाव डालना समझते हैं । ये जो मनुष्यके इन मतोंमें परिवर्तन भी खूब होते समाजमें ३०-३५ विद्वान् आप हर किसीको हैं । इन परिवर्तनोंका प्रधान समय युवावस्था है । बतला देते हैं, सो कहिए कि हम इसमें जब तक बुद्धि अपरिपक्व रहती है, तब तक स्यावादविद्यालय, सिद्धान्तविद्यालय, मथुरा- वह बहुत ही अस्थिर रहती है। वह सबेरे एक विद्यालय आदि किस किसका हिस्सा समझें? स्थिर करती है, और शामको उसे छोड़कर इनके नाम सबहीने तो अपनी अपनी रिपोर्टोंमें दूसरा ग्रहण कर लेती है, और दूसरे दिन लिख रक्खे हैं। और इनकी सूची बनाकर यह किसी तीसरेको ही सच समझती है । प्रायः भी तो देखिए कि इनमें सचमुच ही किसी कामके प्रत्येक ही शिक्षितमें यह बात देखी जाती है । विद्वान् कितने हैं और उनमें जो त्रुटियाँ हैं वे पहलेके लोगोंमें भी थी और आजकलके लोगोंमें क्या आपके विद्यालयोंके प्रबन्ध और पढ़ाई आ- भी है। पर आजकल यह लोगोंकी दृष्टिमें अधिक दिके लिए आभारी नहीं हैं ? यदि प्रबन्ध अच्छा आती है। क्योंकि आजकल विचार-स्वातन्त्र्यकिया जाय, कार्यकर्ता अच्छे चुने जाय, तो बढ़ता जा रहा है । अँगरेजी शिक्षाके प्रभावसे क्या और अच्छे विद्वान् नहीं बन सकते हैं ? लोग अपने विचारोंको प्रकट करनेमें हिचकिचाते For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૯૯ कम हैं । वे जो कुछ सोचते हैं, अपने साथियोंके सामने प्रकट भी कर डालते हैं । पर कुछ धर्मात्मा लोगोंको यह बात असह्य है । कमसे कम धार्मिक बातोंमें तो वे सबको ' बगुला-भगत ही बनाये रखना चाहते हैं । जिसे धर्मकी किसी भी बात शंका नहीं होती है, उसे वे शुद्ध सम्यग्दृष्टि और जो तरह तरहकी शंकायें करता है उसे घोर मिथ्यादृष्टि समझते हैं । पर हमारी समझमें पहले प्रकारके मनुष्य या तो बिल्कुल बुद्ध होते हैं या पक्के धूर्त और मायाचारी और दूसरे प्रकारके लोग विचारशील और निष्कपट होते हैं । जैनसमाजमें भी अब इस प्रकारके मनुष्य जहाँ तहाँ दिखलाई देने लगे हैं । जो अपने भिन्न विचारों को निडर होकर औरोंके सामने प्रकट कर देते हैं । बाबा भगीर थजी वर्णीने जैनमित्रके द्वारा इस प्रकारके एक सज्जनका परिचय सर्वसाधारणको कराया है । ये हैं (थे ) ऋषभ - ब्रह्मचर्याश्रम हस्तिनापुर के प्रधान संचालक ब्र० भगवानदीनजी । आपके जो जो विचार वर्तमान जैनधर्मके सिद्धान्तोंसे विरुद्ध हैं और जिन्हें उन्होंने अपने दो चार मित्रोंके समक्ष प्रकट किये होंगे उन्हें वर्णीजीने सर्व साधारणके सामने उपस्थित किये हैं और सबको सचेत किया है कि जब तक इनके विचार शास्त्रानुकूल दिगम्बर जैनधर्मके अनुसार न हों तब तक इनसे उपदेश न कराये जायँ और विद्वानोंको इनके मन्तव्योंका खण्डन करके जैनधर्मकी जाति - हितैषी प्रभावना करनी चाहिए आपने यह भी प्रकट कर देने की कृपा की है कि वे ब्रह्मचर्याश्रम से अलग कर दिये गये हैं। इस लेख पर जैनमित्र के सम्पादक महाशयने भी एक • नोट लगाकर समाजको चौकन्ना कर दिया है । । देखिए, यह एक अच्छे विचारशील, स्वार्थत्यागी और कर्मवीर मनुष्यको गिरा देनेका जैनहितैषी - [ भाग १३ कितना जघन्य प्रयत्न है ! उधर तो ब्रह्मचारीजी यह लिखते हैं कि जैनसमाजमें अच्छा वेतन देने पर भी कार्यकर्ता नहीं मिलते हैं और इधर कार्यकर्ताओं पर इस प्रकारकी कृपा होती है । क्या आप लोगों के द्वारा इसी तरहसे अपनी मट्टी पलीद कराने के लिए लोग आपकी संस्थाओंमें काम करने आयँगे ? याद रखिए, जहाँ इतनी संकीर्णता और क्षुद्रता है, वहाँ कोई भी विचारशील आकर खड़ा न होगा । अफसोस कि जो भगवानदीनजी ब्रह्मचर्याश्रम के प्राण बन रहे थे, जिन्होंने बिना कुछ लिए समाज कल्याण - नेकी इच्छासे छह सात वर्ष तक आश्रमकी अनवरत सेवा की, वे केवल इस लिए कि उनके विचार औरोंसे भिन्न हैं, अलग कर दिये गये और लोगोंको उनसे चौकन्ने रहनेका उपदेश दिया गया । इस विषय में बहुत सन्देह है कि जैनमित्रमें जो मन्तव्य प्रकट किये गये हैं, उन्हें उसी रूपमें भगवानदीनजी मानते होंगे। उनमें बहुतसे मन्तव्य ऐसे भी जान पड़ते हैं जो उनके नहीं, किन्तु डारविन आदि पाश्चात्य तत्त्ववेत्ताओंके हैं; और जिन्हें प्रसंगानुसार किसीके पूछने पर उन्होंने प्रकट किये होंगे । सुननेवालोंने यह समझ लिया होगा कि ये इन्हींके विचार हैं । शुरूके सात मन्तव्य तो डारविनकी थियरीसे बिल्कुल मिलते जुलते हैं । कुछ मन्तव्य ऐसे भी जान पड़ते हैं जो थोड़े ही हेरफेरसे लिखनेके कारण कुछके कुछ हो गये हैं । कहा कुछ गया होगा और समझ कुछ लिया गया होगा । सच तो यह है कि जब तक भगवानदीनजीकी ही कलमसे उनके मन्तव्य प्रकट न हों, तब तक उनका वास्तविक स्वरूप नहीं समझा जा सकता। उनका पिछला १५ वाँ मन्तव्य तो बहुत ही ठीक है और उसे जानकर तो हमें उनसे डरनेका कोई कारण For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क २] विविध-प्रसङ्ग। नहीं है । वह मन्तव्य यह है-" जो बात सत्य आपसे भी अधिक गतानुगतिकताके गुलाम न जान पड़े उसे नहीं मानना, चाहे उसे सर्वज्ञ बने हुए लोग सुन लेंगे ? जैनोंकी ( कहलानेवाले ) ने ही क्यों न कहा हो। जो तमाम जातियोंमें परस्पर बेटी-व्यवहार बात सत्य मालूम हो, उसे मानना चाहे किसीकी होना चाहिए, यह बात जैनधर्मके किसी भी सिभी कही हुई हो।" जैनधर्मके आचार्योंने भी द्धान्तसे विरुद्ध नहीं है, तो भी इन्दौरके मेलेमें तो यही कहा है: ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीसे इसका प्रतिपादन पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । .. सुननेके लिए लोग तैयार न हुए थे । उन्हें अपयुकिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिप्रहः ॥ मानित होकर बैठ जाना पड़ा था। तब यह कैसे . मान लिया जाय कि भगवानदीनजीके जैनधर्मसे अर्थात् ' न मुझे महावीर भगवानसे राग है म सर्वथा विरुद्ध व्याख्यानोंको लोग चुपचाप सुन और न कपिल आदि मत प्रवर्तकोंसे द्वेष है। लेंगे ! अब रही ब्रह्मचारीजीकी यह बात कि वे मेरी समझमें तो जिसका वचन युक्तिपूर्ण हो, १ नवयुवकोंको एकान्तमें ले जाकर उन्हें विचार-भ्रष्ट उसे ग्रहण कर लेना चाहिए।' सच्चा जैनधर्म ' कर देते हैं। सो महाराज, आपके पास नवयुवकोंतो यही है। को सन्दूकमें बन्द कर रखनेका तो कोई साधन है ___ और थोड़ी देरके लिए यदि यह भी मान ही नहीं,उनके विचार भ्रष्ट होनेकी चिन्ता कहाँ कहाँ लिया जाय कि जैनमित्रमें प्रकाशित हुए सभी कीजिएगा।वे आर्यसमाजियोंसे मिलते हैं, ईसाइयोंमन्तव्य भगवानदीनजीके हैं, तो भी क्या से मिलते हैं, स्कूलों और कालेजोंमें डारविन पढ़ते उनके साथ इस प्रकारका वाव होना चाहिए ! हैं, स्पेन्सर पढ़ते हैं, मिल और निदशेके विचार था। क्या आप लोगोंसे किसीको इससे अधिक सनते हैं तब उन्हें अकेले भगवानदीन से ही अच्छे बर्तावकी आशा ही नहीं करनी चाहिए ! बचानेसे क्या होगा? उधर तो आप जनसमाजमें स्थितिकरण अंगको भी तो आप लोग मानते हैं। कालेजकी आवश्यकता बतलाते हैं और उसके उसका मतलब क्या यही है कि जो थोड़ा भी द्वारा उक्त फिलासफरोंके विचार जाननेका मार्ग डगमगाया हो, वह धक्का देकर गिरा दिया सुगम कर देना चाहते हैं और इधर भगवानदीन' जाय ? खण्डन करना और मुँह बन्द करना, जीकी संगति ही आपको नवयुवकोंके लिए महा क्या ये ही शस्त्र स्थितिकरणके लिए उपयोगी अनिष्ट कारक प्रतीत होती है । सच तो यह है हैं ? जब तक भगवानदीनजी आश्रमका काम कि आजकल आपको और आपके ही समान करते थे, लड़कोंको शिक्षा देनेका कार्य करते अन्य कई धमात्माओंको जैनधर्मके डूब जानेका थे, तब तक तो आप लोगोंको उनसे सावधान डर लग गया है। और जहाँ तहाँ आपके सामने रहनेकी आवश्यकता न मालूम पड़ी; किन्तु ज्यों इसी डरका भूत खड़ा रहता है । किसीने एक ही वे अलग हुए, त्यों ही उनसे समाजको साव- भी स्वतंत्र शब्द अपने मुँहसे निकाला कि यह धान रखनेकी आवश्यकता आन पड़ी। क्या भूत आपके कानमें आकर कहता है कि लो आप यह समझते हैं कि मेला-प्रतिष्ठाओंमें अब जैनधर्म जाता है। पर वर्णीजी और ब्रह्मव्याख्यान देनेके लिए जाकर वे डारविनकी चारी महाराज, आप घबड़ाइए नहीं, यदि जैनथियरीका प्रतिपादन करेंगे, या कहेंगे कि स्वर्ग धर्म सत्यकी नींव पर स्थिर है, यदि वह त्रिकालानरक कुछ है ही नहीं, और उस उपदेशको बाधित सत्य है, तो उसके लिए इतनी चिन्ता - For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [ भाग १३ करनेकी जरूरत नहीं है । वह विरुद्ध विचारोंकी आश्चर्य नहीं जो वे अलग ही हो जायें । अन्तमें टक्वारोंसे हित नहीं हिल सकता । हाँ, यदि डर हम फिर भी कहेंगे कि ब्र० भगवानदीनजी जैसे है तो आप लोगोंके शास्त्रानुकूल धर्मके स्वार्थत्यागी और कर्मवीर पुरुषोंको अपने अनुदार स्थिर रहने के विषयमें है। क्योंकि भद्रबाहुसंहि- वर्तावके कारण जो लोग हाथसे खोदेनेका यत्न ता और त्रिवर्णाचार जैसे धूतोंके बनाये हुए शा- कर रहे हैं वे जैनसमाजके भविष्यको बहुत ही स्त्रों की आयु अब पूरी हो चुकी है। अब युत्क्य- अन्धकारमय बनाया चाहते हैं । अप्रत्यक्षरूपसे नुकूल धर्म स्थिर रहेगा और शिक्षा उसीकी वे यही कर रहे हैं कि किसी भी विचारशील ओर लोगोंको लेजा रही है। पुरुषको जैनसंस्थाओंके काममें हाथ न ब्र० भगवानदीनजीके समान विचार रखने- डालना चाहिए । वाले इस समय जैनसमाजमें दो चार नहीं किन्तु सैकड़ों हो गये हैं; पर उनके सुधारनेका __३ सवाल दीगर जवाब दीगर । र यह उपाय नहीं है। न उनके मुँह बन्द किये अभी थोड़े दिन पहले बेलगाँवमें ब्रह्मचारी जा सकते हैं और न इस तरह अपकीर्ति उड़ानेसे नेमिसागरजीका एक व्याख्यान हुआ था जिसमें कुछ लाभ हो सकता है । लोग अपने घर अपने आपने इस बातको स्वीकार किया कि जैनोंकी मित्रोंमें तरह तरहके विचार प्रकट किया करते संख्या बराबर कम हो रही है; पर इसके लिए हैं । यदि उन सबको ही हम इस तरह प्रकट आपने उपाय यह बतलाया कि इतर लोग करने लगेंगे और उन पर समाजको सचेत करने उपदेश देकर जैन बनाये जायें ! हमारे समालगेंगे, तो इसका परिणाम कभी अच्छा न होगा। जके अन्यान्य पण्डित महाशयोंकी दृष्टिमें भी इसके लिए हमें उदार बनना चाहिए और उत्तम यही उपाय अमोघ जंच रहा है । पर वास्तवमें शिक्षापद्धति आदिके इस तरहके साधन तैयार यह कोई उपाय नहीं है । नये जैन तो बना करदेना चाहिए जिससे उनके विचार स्वयं लिए जायेंगे; पर इससे पुराने जैन नष्ट होनेसे ही जैनधर्मके अनुकूल हो जायँ । यदि भगवान- कैसे बच जायेंगे; यह समझमें नहीं आया। वे दीनजी नवयुवकोंको एकान्तमें लेजाकर समझाते तो बराबर कम हो रहे हैं-प्रति दस वर्षमें हैं तो आप लोग भी भगवानदीनजीको और प्रत्येक १०० जैनोंमेंसे ११ नष्ट हो जाते हैं, उन्हें प्रेमसे समझाइए और उनके पूर्व विचारोंको अर्थात् १०० के ८९ रह जाते हैं, उनका कम बदल दीजिए तथा इस प्रकारका साहित्य तैयार होना कैसे बन्द हो जायगा ? यदि यह कहा कराइए जिसे पढ़कर वे जैनधर्ममें स्थिर हो जावें। जाय कि जितने जैन दस वर्षमें कम होंगे, उतने इसके सिवाय उन्हें कुछ समय भी दीजिए । दूसरे धर्मवाले जैन हो जायेंगे, इस तरह उनकी अवस्था ज्यों ज्यों पक्क होती जायगी, जैनोंकी जो संख्या इस समय है वह जितनीकी त्यों त्यों उनके खयाल बदलते जायँगे और वे तितनी बनी रहेगी । पर यह बात कहनेमें धर्मके अनुरागी बन जायँगे । उनको बदनाम जितनी सहज है उतनी करनेमें नहीं होगी। करना, या उनके विषयमें बुरे विचार फैलाना, सन् १९०१ से १९११ तकके दस वर्षोंमें इस प्रकारकी नीति तो बहुत ही भयंकर है। हमारी संख्या लगभग ८६ हजारकी कमी हुई इससे उनका सुधारना तो दूर रहा, वे उलटे है, अर्थात् प्रतिवर्ष लगभग साढ़े आठ हजार चिढ़ जायेंगे और आपके इस संकीर्ण समाजसे मनुष्य हमारी संख्या घटे हैं । ऐसी दशामें For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क २] विविध-प्रसङ्ग। यदि औरोंको जैन बनानेका ही उपाय हम ईसाइयों और आर्यसमाजियोंके लिए यह काममें लायँगे, तो हमें प्रतिवर्ष ८॥ हजार मनु- काम जितना सुकर है उतना जैनोंके लिए है ध्योंको अपने धर्ममें दीक्षित करना पड़ेगा । क्या भी नहीं । जहाँ उनके यहाँ इतनी उदारता है हमारे पण्डित महाशय और उक्त ब्रह्मचारीजी हर कि मनुष्यमात्रको वे अपने धर्ममें ग्रहण करनेमहीने सातसौ मनुष्योंको जैनी बनानेकी बातको को तैयार रहते हैं, वहाँ हमारे यहाँ इतनी अनुसंभव समझते हैं ? दारता है कि उसके कारण जो जैन हैं उनका हमारी समझमें यह सर्वथा असंभव है। आर्य- ही जैन बना रहना कठिन है। खतौलीके दस्सा समाज और सनातनधर्म ये दोनों प्रायः एक अग्रवालोंके मामलेको पाठक भूले न होंगे । उन हीसे धर्म हैं। दोनोंके वेद एक हैं, ईश्वर एक बेचारोंका उनके निजी मन्दिरमें भी जिनपूजा है, सिद्धान्त एक है जाति-पाँति एक है। करनेका अधिकार नहीं मिल रहा है । बीसे थोडीसी आचार आदिकी बातोंमें ही कुछ भेद भाई कहते हैं कि दस्से चाहे ईसाई या है । और इस पर आर्यसमाजमें उद्योगियों मुसलमान तक बन जायँ पर हम उन्हें पूजाका और स्वार्थत्यागियोंकी संख्या हमसे कई गुणी अधिकार देनेको तैयार नहीं। जहाँ पूजाके अधिहै । फिर भी हम देखते हैं कि वे हर महीने कारके सम्बन्धमें ही इतनी अनुदारता है, वहाँ सातसौ आदमियोंको अपने धर्ममें नहीं मिला मोजन-व्यवहार आदिके विषयमें तो अधिक सकते हैं। तब देशके तमाम धर्मोसे जिनके आशा ही क्या की जा सकती है। पण्डित महाशय सिद्धान्त निराले हैं, जो ईश्वरका सष्टिकर्तत्व कहा करते हैं कि किसीको जैन बनानेके बाद स्वीकार नहीं करते, वेदोंसे जिनका कोई सम्बन्ध : यह आवश्यक नहीं है कि उसे हम अपनी जाति ' में भी मिलाले या उसके साथ भोजनादि सम्बन्ध नहीं, और जिनमें काम करनेवालोंका अभाव है, भी करें। उसे जैनधर्म प्यारा हो अपने आत्माका वे लोग हमारी समझमें तो इस समय सातसो कल्याण करना हो तो जैनधर्म ग्रहण करले, तो क्या सात मनुष्योंको भी प्रतिवर्ष जैन नहीं नहीं तो उसकी इच्छा । ठीक है, आपको तो बना सकेंगे। आवश्यकता नहीं है, पर उसे तो आवश्यकता अब वह जमाना नहीं रहा, जब किसी धर्मके पड़ेगी-उसे तो अपने बाल-बच्चोंके विवाहादि करने एक पण्डितको हरा देनेसे उसके सारे अनुयायी होंगे । इधर आप तो उसे अपनेमें शामिल करेंगे दूसरा धर्म ग्रहण कर लेते थे । अथवा विद्वानोंके नहीं और उधर उसकी जातिवाले उसे जातिच्युत उपदेशसे गाँवके गाँव धर्म परिवर्तन कर डालते कर ही देंगे तब उसकी क्या गति होगी ? और थे। धर्मोंने अब समाज और जातिके रूप जब तक यह परिस्थिति है तब तक यह कैसे धारण कर लिये हैं । अब ये विचारकी चीजें आशा की जा सकती है, कि आप हर महीने नहीं रही हैं। इनका अब केवल परलोकसे ही सातसौ मनुष्योंको जैन बना सकेंगे। सम्बन्ध नहीं रहा है-जाति बिरादरी-रिश्तेदार, इस समय जितने नये ईसाई बनते हैं वे प्रायः आदि इस लोकके प्रपंच भी इनके साथ कस दिये नीच जातियोंमेंसे और गोंड भील आदि जंगली गये हैं । इस लिए इस समय धर्म परिवर्तन करना जातियोंमेंसे बनाये जाते हैं । इनका बनाना सहज उतनी सहज बात नहीं है जितनी कि पण्डित भी होता है। क्योंकि इनका पहले कोई ऐसा धर्म लोग समझ रहे हैं। नहीं रहता है जिसका इन पर अधिक प्रभाव हो। For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ हमारे पण्डित लोग चाहें और उद्योग करें तो इनमें जैन भी बहुतसे बन सकते हैं, पर क्या ये उनकी अपने पर छाया पड़ने देना भी पसन्द करेंगे ? यदि बहुत उदारता हुई तो कह देंगे कि जैनधर्म पालो मन्दिरके शिखरों परकी प्रतिमा - ओंके दर्शन करो, हमसे दस हाथ दूर खड़े रहो बस । पर क्या इस समय इन सेब तिरस्कारों को सहन करके भी कोई किसी धर्मको ग्रहण करनेके लिए तत्पर हो सकता है। लोग केवल धर्म ही नहीं चाहते हैं धर्मके साथ प्रेमकी भी उनके हृद आकांक्षा रहती है । एक बात और है । यदि प्रति दस वर्षमें हमारी संख्या में ८६ हजारकी कमी होती गई तो अनुमान ११० वर्षमें इन पुराने जैनोंका तो सर्व नाश हो जायगा, अब रहे नये जैन जो कि जात-पाँतका खयाल रखे बिना चाहे जिस जाति से बनाये जायँगे । सो जब इनकी संख्या काफी हो जायगी, तब इनके लिए जातिबिरादरी की क्या व्यवस्था की जायगी ? यदि इन्हें हमने अपनी जाति न मिलाया, ये मन्दिर पूजा आदिसे दूर ही रक्खे गये तब तो एक सौ दस वर्ष के बाद तमाम मन्दिरोंके ताले लगा देना पड़ेंगे और कहना होगा कि पूजाधिकारी जैन समाजका लोप हो गया । और यदि उनकी भी वर्तमान जातियोंके समान जुदी जुदी जातियाँ बना दीं, एक दूसरेसे उन्हें न मिल जाने दिया, तो फिर वर्तमान जैनोंके ही समान उनकी भी संख्या घटने लगेगी और उनकी भी कालरात्रि शीघ्र आ जायगी । जैनहितैषी - गरज यह कि ये सब बातें अविचारितरम्य हैं । जब तक वर्तमान जैनों की संख्या घटनेके कारण निष्पक्ष होकर न ढूँढ़े जायँगे और उन कारणोंके दूर करनेका प्रयत्न न किया जायगा तब तक जैनसमाजके लुप्त होनेका भयंकर संकट नहीं टलं सकता । [ भाग १३ ४ सम्मेद शिखरजी के मामले की अपील | हमारा विश्वास था कि हजारीबाग के मजिस्ट्रेटने शिखरजीके मुकद्दमेका जो फैसला किया है, उससे हमारे दिगम्बरी भाई सन्तुष्ट हो जायँगे और जो कुछ हक उन्हें मिले हैं, उन्हीं में संतोष करके वे अपील न करेंगे । समाजके दस पाँच अगुओंकी भी राय सुनी गई थी कि अब अपील न करनी चाहिए । जैनगंज के वर्तमान सम्पादक महाशयकी भी राय अपील करनेकी नहीं थी; फिर भी सुनते हैं कि एक दो सज्जनोंके जोर लगाने पर अपील करना निश्चित हो गया है और शायद वह दायर भी हो चुकी है । कहा जाता है कि मुकद्दमेकी केवल नकलों के तैयार कराने में ही लगभग १२-१३ हजार रुपया खर्च होगा ! यदि १०-१२ हजार रुपया ही और लगे, तो कमसे कम २५ हजार रुपया और भी इस मामलेमें खर्च हो जायँगे। जिनके हृदय है और जो देशकी दुर्दशाको जानते हैं, उन्हें इस बातसे अवश्य ही दुःख होगा । ५ आन्दोलन के सम्बन्ध में आक्षेप । तीर्थों के झगड़े मिटाने के लिए जो आन्दोलन शुरू किया गया है, उसके विषयमें अभी अभी सत्यवादी, जैनगजट, आदिमें कई लेख प्रकाशित हुए हैं । इन लेखोंके पढ़ने से यह मालूम होता है कि लेखक महाशय बहुत ही उत्तेजित हो उठे हैं और इस कारण उन्होंने बहुत से ऐसे आक्षेप कर डाले हैं जो भ्रम पैदा करनेवाले हैं । इस आन्दोलनका मुख्य उद्देश्य यह है कि श्वेताम्बरी और दिगम्बरियों के बीच में जो जगह जगह झगड़े होते हैं और मुकद्दमे चलकर लाखों रुपया बरबाद होते हैं वे न होवें और दोनों में For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क २ ] । रहे हों, पंचायत द्वेष-भावकी वृद्धि न होकर प्रेम-भावकी वृद्धि हो । केवल एक शिखरजीके मामले तक ही इस आन्दोलनकी सीमा परिमित नहीं है; किन्तु जितने भी तीर्थ हैं और जहाँ कहीं ये झगड़े खड़े हुए हैं, वे सब शान्त कराये जायँ आन्दोलन करनेवाले अपना कर्तव्य समझते हैं कि दोनों संप्रदायके लोगोंको मुकद्दमे न लड़नेके लिए समझावें और जो मुकद्दमा चल यदि बन सके तो उनको आपस में आदिके द्वारा तै करने के लिए प्रेरणा करें। वे जिस प्रकार दिगम्बरियोंको समझाते हैं उसी प्रकार श्वेताम्बरियोंको भी समझावें । पाठकोंको शायद मालूम होगा जैनहितेच्छुके दिसम्बरके लगभग १०० पृष्ठके अंककी जिसमें कि केवल तीर्थोके झगड़े शान्त करनेके सम्बन्धमें ही सब लेख हैं-साढ़े पाँच हजार कापियाँ निकाली गई हैं और उनका अधिक भागश्वेताम्बर समाजमें ही फैलाया गया है । ऐसी दशा में आन्दोलन करने वालों पर यह आक्षेप करना कि वे दिगम्बरियोंको ही समझाते हैं श्वेताम्बारयों नहीं — अनुचित है । यह हम मानते हैं कि शिखरजीका यह मुकद्दमा श्वेताम्बरियोंकी अनुचित और अन्याय्य आकांक्षा के कारण चला है - उनका यह चाहना कि दिगम्बरियोंको हमारी इजाजतके बिना पूजा करने का हक न मिलना चाहिए सर्वथा अन्याय्य है; परन्तु समझानेवालेके लिए यह कार्य लाभकारी नहीं है कि वह किसी एक पक्षका दोष बतलावे और इस तरह उसे चिढ़ा देवे । उसका काम तो झगकी हानियाँ और आपस में मेल रखनेकी भलाइयाँ बतलाने में ही सफल हो सकता है । आन्दोलनके लेखों में यह भी बतलाया गया है कि धर्म के कार्यों के लिए आपस में लड़ना अधर्म है, पर इसका अर्थ लोगोंको यह समझाया गया कि आन्दोलन करनेवाले सबको स्थानकवासी विविध-प्रसङ्ग | 1 बना देना चाहते हैं । और उनकी दृष्टिमें धर्मतीर्थोंकी रक्षा करना आवश्यक ही नहीं है । लोंगोंको यहाँ तक सुझाया गया है कि श्वेताम्ब - रोंका पक्ष कमजोर है, इस लिए यह आन्दोलन उन्होंने इन लोगोंके द्वारा कराया है । पर वास्तवमें आन्दोलन करनेवालोंके साथ यह बड़ा भारी अन्याय किया जाता है । उनकी बात मानना न मानना, यह हमारे अधिकारमें है, पर कमसे कम उनके सदाशयको तो सदाशय ही समझना चाहिए । तीर्थोंके झगड़े शान्त हों या नहीं, आपसमें मेल होना संभव हो या न हो, शान्त करनेके जो उपाय बतलाये गये हैं वे ठीक हों या न हों पर इसमें तो कोई भी सन्देह नहीं है, झगड़ोंकी शान्तिका आन्दोलन उच्च और पवित्र आशयसे शुरू किया गया है । आन्दोलन करनेवालोंको कुछ अप्रिय सत्य भी लिखना पड़ा है, पर वह केवल उन्हीं लोगोंके लिए जो कि मुकद्दमा लड़नेको धर्म प्रतिपादन करते हैंऔर जिन्होंने झगड़े शान्त करनेके लेखमें सही करनेवालोंको धर्मशून्य, खायाखाद्य- विचार - हीन, भ्रष्ट आदि शब्दों में याद किया था; जो अपनी रक्षाके लिए लाचार होकर मुकद्दमा लड़ते हैं उनके लिए नहीं । इस आन्दोलनको तब तक जारी रखनेकी आवश्यकता है जब तक दिगम्बर और श्वेताम्ब - रोंके बीचमें एक छोटा सा भी मामला या झगड़ा चलता रहे । यदि यह बराबर जारी रक्खा जायगा और समाज इसमें योग देगा तो हमारा विश्वास है कि जैनसमाजका इससे बहुत बड़ा उपकार होगा । ये आपसी झगड़े हमारी शक्तिको धुनकी तरह नष्ट कर रहे हैं । For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ६ भारत- जैनमहामण्डलका अधिवेशन | जैनहितैषी - इस वर्ष महामण्डलका वार्षिक अधिवेशन ता० २७ और ३० दिसम्बरको लखनऊ में हुआ । सभापतिका आसन खण्डवेके वकील बाबू माणिचन्दजी बी. ए. एल एल. बी. ने सुशोभित किया था। हमको आशा थी कि इस वर्ष मण्डलका अधिवेशन बम्बईकी अपेक्षा अधिक सफलता से होगा; परन्तु हमारा यह केवल भ्रभ ही निकला। बहुत ही कम लोग उसमें शामिल हुए और सभापतिके महत्त्वपूर्ण व्याख्या - नके सिवाय वहाँ और कुछ भी न हो सका । इससे मालूम होता है कि मण्डलके साथ लोगों की सहानुभूति बहुत ही कम है । और तो क्या उसके शिक्षित सभासदोंकी भी उसके प्रति प्रीति नहीं साधारण जनताको अपनी ओर 1. आकर्षित करने के लिए वह ओई प्रयत्न नहीं करता है । उसका मुख पत्र अँगरेजीमें है, अत एव जो अँगरेजी नहीं जानते वे उसके उद्देश्योंसें अपरचित हैं, बल्कि मण्डल के विरोधियोंके लेखों को पढ़कर उसके विषय में उनके कुछ विरुद्ध खयाल भी हो रहे हैं जिनके दूर करनेका कोई प्रभावशाली उद्योग नहीं किया जाता । जीवदया ट्रेक्टोंको छोड़कर मण्डल कोई ऐसा बड़ा काम भी नहीं कर रहा है जिससे उसकी और लोगों का चित्त आकर्षित हो। हमारी समझमें मण्डलकी यह शिथिलता जैन समाजके शिक्षित - सम्प्रदाय की शोभाकी चीज नहीं है । यह बतलाती है कि हमारे शिक्षित भाइयोंमें न समाज-सेवा करनेका उत्साह है और न वे काम करना ही जानते हैं । इसे मिटाना चाहिए और कर्मवीर बनानेवाली पाश्चात्य शिक्षाका मुख उज्ज्वल करना चाहिए । I [ भाग १३ मण्डल उद्योगसे कांग्रेसके समय एक काम बहुत अच्छा हो गया । वह यह कि ता० २५ दिसम्बर को उसने एक बड़ी भारी आम सभा कराई, जिसके सभापति ' बाम्बे कानिकल' के सम्पादक मि० हार्निर्मन हुए और उसमें महात्मा गाँधी, मि० पोलक मि० विभाकर बैरिस्टर आदिके जीवदया और अहिंसा पर कई प्रभावशाली व्याख्यान हुए | इस सभा में लगभग ४ हजार श्रोता उपस्थित हुए थे । ता० २६, २८, और २९ को कुँवर दिग्विजयसिंह, बाबू प्रभुरामजी खत्री, और ब्रह्मचारी भगवानदीनजीके जैनधर्म सम्बन्धी व्याख्यान हुए । पं० अर्जुनलालजी सेठी, सम्बन्धमें भी कुछ प्रस्ताव पास हुए । और तीर्थों के झगड़े मिटानेके समाज-सुधार ७ भद्रबाहुसंहिताकी समालोचना । 1 इस अंक में संहिताकी समालोचना समाप्त हो गई । जिन पाठकोंने बड़ी समझकर इसे न पढ़ी हो उनसे हमारी प्रार्थना है कि वे एक बार तीनों लेखों को एकत्र करके अवश्य पढ़ जायँ और फिर विचार करके देखें कि उनके हृदय में संहिता के लिए और कितनी श्रद्धा अवशेष है। सोचना चाहिए कि इस प्रकार के ग्रन्थोंकी इस प्रकार की आलोचनायें प्रकाशित करने की कितनी आवश्यकता है । हम चाहते है कि हमारे पाठक इस आलोचना के सम्बन्धमें अपनी अपनी सम्मति भेजने की कृपा करें, जिन्हें हम प्रकाशित कर सकें और जैनपत्रोंके सम्पादक महाशय अपने पत्रों मे इस विषय की चर्चा करें जिससे कोई भी जैनी इस ग्रन्थकी अप्रमाणिकता से अजान न रहे। इस लेखको हमने स्वतंत्र पुस्तकाकार भी छपाया है । मूल्य लागत मात्र रक्खा गया है । प्रचार करने के लिएजो महाशय चाहें मँगा लेवें । For Personal & Private Use Only 3 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क २] विविध-प्रसङ्ग। ७ कमजोरीकी हद ! लाभ पहुंच सकता है उतना लाभ आपकी वर्तयह कहनेमें हमें कोई इन्कार नहीं है कि ब्रह्म . मान दुरंगी पालिसीसे कभी नहीं पहुंच सकता। चारी शीतलप्रसादजी निःस्वार्थ भावसे समा . बल्कि लोगोंको एक तरहका सन्देह होने लगता हैं; जकी मौलिक सेवा करते आ रहे हैं । बल्कि यों और फिर वे कुछ भी स्थिर नहीं कर पाते । कहना चाहिए कि समाजसेवा ही आपके जीवनका अच्छा, अब आप ही देखिए कि जनहितेच्छुके महावत होगया है । और आपकी इस सेवाका दिसम्बरके अंकमें जो शिखरजीके मामलेका आपहमारे हृदयमें अत्यधिक आदर भी है; पर साथ का पत्र प्रकाशित हुआ है, उसमें तो आपने साफ ही यह देखकर बड़ा ही विस्मय होता है कि आप शब्दोंमें यह कहा है कि इस मुकद्दमेबाजीसे मैं जैसे निस्वार्थ सेवकोंके हृदय इतने दुर्बल-इतने जैनसमाज की बरबादी समझता हूँ; और इधर कमजोर क्यों हैं ! जिसके कारण कि न आप आप दिगम्बरियोंको कितने ही सज्जनोंकी अपील कोई बात स्पष्ट कह सकते हैं और न स्पष्ट लिख करनेकी राय न होने पर भी अपील करही सकते हैं। हमने बीसियों बार देखा है कि नेकी सलाह देते हैं-नहीं आग्रह करते हैं । जब जब आपको लिखने या कहनेका मौका यहाँ यह सवाल नहीं है कि आप अपने आया है तब ही तब आप लिखने और बोलनेमें हकोंकी रक्षा न करें; किन्तु कहना है आपकी अपनी कलम और जबानको दबा गये हैं ।या कुछ दुरंगी पालिसीके बाबत । यदि आप अपने हकोंकी लिखा अथवा कहा है तो वह बड़े ही दबे भावोंसे। रक्षा करनेके लिए मुकद्दमेबाजीको ही सत्य और ब्रह्मचारीजीमें अनेक गुणोंको होते हुए भी हम अच्छा समझते हैं तो फिर आपको श्रीयुत उनकी इस नीतिको पसन्द नहीं करते । समाजके बाडीलालजीको उस पत्रके लिखनेकी क्या अवआप निस्वार्थ सेवक हैं-आपको उससे कुछ श्यकता थी ? क्यों आपने बाड़ीलालजीको पत्र लेना देना नहीं-तब फिर आप अपने विचारोंके- लिख कर उनके और-मुकद्दमेबाजीकी सलाह देकर जिनसे आप समाजका हित समझते हैं-कहनेमें दिगम्बरियोंके प्रशंसा-प्रात्र बननेकी महात्वाकांया लिखनेमें क्यों हिचकिचाते हैं ? क्यों क्षा की ? आप समाजके निस्वार्थ सेवक हैं फिर उन्हें साफ साफ नहीं लिखा करते ? यह दुरंगी आपको इस ऐसी गंगा-जमनी बातोंसे मतलब ! पालिसी आप जैसे निस्वार्थ सेवियोंके पदके परन्तु नहीं; इन सब बातोंसे यही निष्कर्ष निकलता योग्य नहीं है। जो विचार आपके पवित्र और है कि आपका मन बहुत ही कमजोर है, बहुत ही निस्वार्थ हृदयकी प्रेरणासे निकलते हैं-फिर वे निःसत्व है, बहुत ही दुर्बल है ! और इसी कारण कैसे ही हों, चाहे उनसे लोग नाराज हों या आपकी हिम्मत नहीं पड़ती कि आप जनताके प्रसन्न-उन्हें निडर और निःसंकोच होकर ही सामने अपने पवित्र हृदयकी प्रेरणासे उत्पन्न हुए आपको लिखना या कहना चाहिए। कारण विचारोंको निर्भय होकर प्रगट कर सकें ! आश्चर्य हमारा विश्वास है कि आपके स्पष्ट और निर्भय- है, नहीं; महा आश्चर्य है कि आत्माकी अनन्त बलताके साथ कहे हुए विचारोंसे समाजको जितना शाली शक्ति पर आप सैकड़ों ही व्याख्यान दे चुके, For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACCECENTRE NAMANA तीनविविधप्रसङ्ग। अनुभवानन्द' और 'स्वसमरानन्द' जैसी पुस्तकें स्थिति हमें कहनेको बाध्य करती है। इसी कारण आपने लिख डालीं-दूसरोंको आपने बलशाली और आज दो शब्द लिखना पड़े हैं । अन्तमें अनन्त जयी बननेका उपदेश अवश्य किया; परन्तु स्वयं बलशाली वीरप्रभुसे हम प्रार्थना करते हैं कि वे आप अपने दुर्बल मन पर विजय न कर सके-अनु- आपके दुर्बल-निस्सत्व हृदयको बल प्रदान कर भवानन्द और स्वसमरानन्द आपके कुछ भी काम न जैनसमाजको एक सच्चे वीर, मनस्वी और 'मनस्येक आ सके ! महाराज, इस धृष्टताको क्षमा कीजिए, वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनां' के रूपमें आपका कारण संसार-पंक-लिप्त हम लोग आपको उपदेश साक्षात् करावे ! करनेके लायक नहीं हैं। पर आपकी दया-जनके ८ सम्मेलनकी परीक्षामें जैन विद्यार्थी। - हिन्दी-साहित्यसम्मेलनकी परीक्षामें नीचे लिखे जैन विद्यार्थी इस वर्ष उत्तीर्ण हुए हैं, जिन्हें जैनग्रन्थरत्नाकरकी ओरसे बीस बीस रुपये ( कुल १४० रु० ) पारितोषिकमें दिये गये हैं: - - । कमसंख्या नाम. पिताका नाम ग्राम श्रेणी बुलाकीरामजी, जोधराजली मदनलाल दौलतराम नानूराम गोविंददास नन्दकिशोर निलप्रसाद मुख्तारसिंह गरौठ ( इन्दौर) महरौनी (झाँसी) - २२२ २२४ २२५ ३३४ बंशीधरजी वृन्दावनजी ज्योतीप्रसादजी वृन्दावनजी प्रथम द्वितीय प्रथम द्वितीय द्वितीय प्रथम द्वितीय सदर, झाँसी महरौनी (झाँसी) उपहारके ग्रन्थ। एक सज्जनकी ओरसे ‘नमिराज' नामका उपपिछले अंकमें हमने 'मणिभद्र' उपन्यास न्यास देनेका भी विचार हुआ; परन्तु वह अब तक को इस वर्षके उपहारमें देनेकी सूचना दी थी; तैयार न हो सका, इस लिए उसके बदले मणिभद्र परन्तु पीछे वह विचार बदल गया और उसे पि- नामका जैन उपन्यास तैयार कराया गया। यह छले वर्षके ग्राहकोंके लिए 'नमिराज' के बद- सचित्र है । पाठक इसे भी पढ़कर प्रसन्न होगे। लेमें रखकर इस वर्षके ग्राहकोंके लिए 'मेवाड़- यह एक ऐसे धर्मात्मा और धनिक सज्जनकी ओरसे पतन' नामक नाटक तैयार कराया गया। दिया जाता है जो जनहितैषीके अतिशय प्रेमी यह नाटक ग्राहकोंकी सेवामें जा ही रहा है, इस हैं और जो आग्रह करने पर भी अपना नाम लिए इसकी प्रशंसा करना व्यर्थ है। पढ़नेसे पाठक प्रकाशित करना उचित नहीं समझते हैं : जैनस्वयं जान लेंगे कि कैसा अपूर्व ग्रन्थ है । पिछले हितैषी उनकी इस कृपाके लिए अतिशय वर्ष एक उपहार दिया जा चुका था। उसके बाद आभारी है। naweleasinue For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीतरागाय नमः । जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय - बम्बईका सूचीपत्र । खासकी छपाई हुई पुस्तकें | अनित्य भावना - श्रीपद्मनन्दि आचार्यका अनिपंचाशतमूल और उसका अनुवाद । अनुवाद बाबू उपमितिभवप्रपचा कथा -- ( दूसरा प्रस्ताव ) इसमें चतुर्गतिरूप संसारका वर्णन बड़ी खूबी के साथ किया गया है । मूल्य पाँच आने । कैशोरजी मुख्तारने हिन्दी कवितामें किया है । शोक दुःखके समय इस पुस्तकके पाठसे बड़ी शान्ति मिलती है । मूल्य डेढ़ आना । कर्नाटक- जैनकवि -- कर्नाटक देशमें जो नामी नामी जैन कवि हुए हैं उनका इसमें ऐतिहासिक अरहंतपासा केवली- पासा डालकर शुभ अशुभ परिचय दिया गया है । सब मिलाकर ७५ कवियोंका. जानने की रीति । मू० डेढ़ आना । इतिहास है । बड़े महत्त्वकी पुस्तक है । मूल्य लागत से भी कम आधा आना हैं । आत्मानुशासन - बड़ा ही उत्तम और उपदेशपूर्ण प्रन्थ है । इसका एक एक उपदेश, एक एक शिक्षा अमूल्य है । उनका हृदयपर बड़ा प्रभाव पड़ता है । यह एकबार पहले भी छपकर बिक चुका है, पर अबकी बार यह नये रूपमें छपाया गया है । पहले इसकी भाषा ढूंढाड़ी थी । पर अब यह नई हिन्दी भाषा में कर दिया गया है । इसे पढ़कर आत्मा बड़ी शान्ति लाभ करता है । बड़ा सुन्दर ग्रन्थ है । अबकी बार कीमत भी कम रक्खी गई है । सादी जिल्द १ ॥ ) पक्की जिल्द मू० दो रुपये । अंजनापवनंजय - खड़ी बोली में हिन्दीका सुन्दर काव्य, बढ़िया कागजपर मनोहर कव्हर सहित बहुत ही सुन्दरता के साथ छपवाया गया है । मूल्य ढाई "आने । इष्टछत्तीसी - अर्थसहित । इसमें पंच परमेष्टीके १४३ मूलगुणों का वर्णन और तीन चौवीसीके नाम 1 मूल्य आध आना । उपमितिभवप्रपंचा कथा - - ( प्रथमप्रस्ताव ) महात्मा सिद्धर्षिके अद्वितीय मूल ग्रन्थका शुद्ध हिन्दी अनुवाद है | अनुवाद बहुत ही अच्छा हुआ है । कठिन से कठिन विषयोंको सरलता से समझानेवाला यह अपूर्व ग्रन्थ है । काव्यका काव्य है, सिद्धान्तका सिद्धान्त है और संसारका एक कथारूप चित्रका चित्र मूल्य बारह आने । चरचाशतक चरचाशतक - - द्यानतरायजीका सरल हिन्दी भाषाटीका सहित । बहुत ही अच्छा छपा है । चार नकशे भी दिये हैं । मूल्य || | ) छहढाला -- दौलतरामकृत बड़े अक्षरों में छहढाला -- बुधजनकृत बड़े अक्षरों में ... छहढाला -- बावनअक्षरी द्यानतरायजी कृत जिनेन्द्र पंचकल्याणक - ( पंचमंगल ) अभिषेकपाठ सहित । मूल्य एक आना । जिनेन्द्र गुणानुवाद पच्चीसी – मूल्य - ) । जैनपदसंग्रह दूसरा भाग - इस दूसरे भाग में स्वर्गीय कविवर भागचंदजी कृत जितने पद हमको मिले वे सब छपे हैं। मूल्य चार आने । जैनपदसंग्रह पाँचवाँ कविवर बुधजनजीके २५० के है । बहुत शुद्धतापूर्वक छपाया है मूल्य छह आने । जैनविवाह विधि -- अबकी बार यह पुस्तक इस ढंगसे छपाई गई है कि मामूली पढ़ा लिखाआदमी इसके जरियेसे जैनविधिके अनुसार विवाह करा सकता है । प्रत्येक गृहस्थको यह पुस्तक मँगाकर रखना चाहिए। मूल्य पहले की अपेक्षा चौथाई अर्थात् सिर्फ तीन आने रक्खा 1 । भाग -- इस भाग में करीब पदोंका संग्रह तत्त्वार्थसूत्रकी बालबोधिनी भाषाटीकायह टीका जैनधर्मके विद्यार्थियों के लिए बनवाई गई For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। यह भादोंम बाँचन के लिए भी बड़े काम की है। गया है । इसमें पुराणों की पोलें एक मजेदार कथाक साधारण भाई भी इससे सूत्रोंके अर्थ बांचकर समझ साथ खोली गई हैं। नामी नामी धूर्तीकी बातें सुनकर सकते हैं । रत्नकरंडके समान इसमें भी पद पदके अर्थ आप चकरावेंगे और कहेंगे कि ये पुराण हैं या किसी किये हैं। मूल्य 12) कपड़ेकी जिल्दका १०)। मसखरेकी लिखी हुई किताबें हैं । छपाई बहुत सुन्दर सूत्र-( मोक्षशास्त्र) मूल शुद्ध पाठ । है। आप पढ़िये और अपने पौराणिक मित्रोंका मूल्य डेढ़ आना। सुनाइये । मूल्य सिर्फ तीन आने । दर्शनकथा-भारामलजीकृत । मूल्य तीन आने । निशिभोजन कथा-मूल्य दो आने । दर्शनपाठ--दौलतराम और बुधजन कृत दर्शन । निर्वाणकाण्ड-मूल गाथा, संस्कृत छाया, भाषा सहित । मूल्य एक आना। कविता और महावीर पूजा सहित । मूल्य एक आना। दानकथा-(चार दानकथा ) बखतावरमल नित्यनियमपूजा संस्कृत तथा भाषा--- रतनलालकृत । मूल्य दो आने । द्रव्यसंग्रह--मूल गाथा, संस्कृत छाया, हिन्दी र इसमें नीचे लिखे पाठ छपे हुए हैं:--लघुभिषेकपाठ अन्वयार्थ और कविवर द्यानतरायजीकृत भाषा कविता संस्कृत, नित्यपूजा संस्कृत प्राकृत, देवगुरशास्त्रकी सहित । चौथी बार छपाया गया है। पहिली वार भाषा पूजा, बीसतीर्थकर पूजा, अकृत्रिमचैत्यालयोंके प्रत्येक गाथाकी संस्कृत छाया नहीं थी वह अबकी अर्घ संस्कृत प्राकृत, सिद्धपूजा संस्कृत, सिद्धपूजाका बार लगा दी गई है। चतुर विद्यार्थी इसे विना भावाष्टक, सोलहकारणादिक अर्घ, पंचपरमेष्टीकी गुरुके भी पढ़ सकता है। इस प्रन्थमें जैनधर्मके जयमाला प्राकृत,शान्तिपाठ संस्कृत, विसर्जन संस्कृत, मूलभूत छह द्रव्य नव पदार्थों का बड़ी उत्तमतासे और भाषास्तु तिपाठ । प्रायः बहुतसे लोग इनके वर्णन किया है। मूल्य चार आने । उलटे सीधे पाठ वा द्रव्य चढ़ाने के मंत्र अशुद्धतासे धानतविलास-( धर्मविलास ) कविवर । पढ़ते थे। इस कारण हमने बहुत शुद्धतासे अनेक द्यानतरायजीकी फुटकर कविताओंका अपूर्व संग्रह। प्राचीन प्रतियोंसे शुधवाकर इसे छपवाई है। मूल्य इसमें मंगलाचरण, उपदेशशतक, सुबोध पंचासिका, चार आने। धर्मपचीसी, तत्त्वसारभाषा, दर्शनदशक, ज्ञानदशक, नियमसार-आचार्य कुन्दकुन्द भगवान् कृत । द्रव्यादि चौबोलपचीसी, व्यसनत्याग षोडश, सरधा यह प्रन्थ अभी तक अलभ्य था। किसीको इसका चालीसी, सुखबत्तीसी, विवेक वीसी, भाक्ति दशक, नाम भी मालूम न था । यह समयसार, प्रवचनसार धर्मरहस्य बावनी, दान बावनी, चार सौ छह जीव- आदिके ही समान अध्यात्मका प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ समास, दशस्थल चौबीसी, व्यौहार पच्चीसी, आरती है। इस पर निग्रन्थ मुनि श्रीपद्मप्रभमलधारीकी दशक, दशबोल पच्चीसी, जिनगुणमाला सप्तमी, संस्कृत टीका है जो साथ ही छपी है और सर्वसाधासमाधिमरण, आलोचनापाठ, एकीभाव स्तोत्र, स्वयं- रणके समझने के लिए जैनमित्रके सम्पादक ब्रह्मचारी भूस्तोत्र, पार्श्वनाथ स्तवन, तिथिषोड़शी, स्तुतिबारसी, शीतलप्रसादजीकी बनाई हुई भाष टीका भी शामिल यतिभावनाष्टक, सज्जनगुण दशक, वर्तमान वीसी- कर दी गई है। मूल्य कपड़ेकी जिल्दका दो रुपया: दशक, अध्यात्मपंचासिका, अक्षरबावनी, नेमिनाथ और सादीका पोने दो रु.। बहत्तरी, वज्रदन्तकथा, आठगण छन्द, धर्मचाहगीत, नेमिचरित-या नेमिदूत काव्य । यह संस्कृतम आदिनाथस्तुति, शिक्षापंचासिका, जुगलआरती,वैराग्य- है और महाकवि कालिदासके मेघदूत के चौथे चर• छत्तीसी, वाणीसंख्या, पल्लपचीसी, षटगुणी हानि वृद्धि णोंकी समस्यापूर्ति करके रचा गया है। बहुत ही लाभ, पूरणपंचासिका इन सबका समावेश किया सुन्दर काव्य है। इसमें भगवान नेमिनाथ और गया है । मूल्य एक रुपया । कपड़ेकी जिल्दका १।)। राजीमतीका पवित्र चरित्र ग्रथित किया गया है । धूर्ताख्यान-धर्भपरीक्षाके ढंगका यह नवीन साथमें भाषाटीका भी है जो बहुत सरल गौर सुन्दर मन्थ एक संस्कृत ग्रन्थके आधारसे हिन्दीमें लिखा भाषामें लिखी गई है । मूल ग्रंथकर्ता कविवर विक For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) मका परिचय बड़ी खोजके साथ लिखा गया हैं । मूल्य साढ़े चार आने । न्यायदीपिका - न्यायका अपूर्व ग्रंथ है । साथमें सरल भाषाटीका भी लगा दी गई है। न्याय सीखनेवालों के लिए बहुत उपयोगी है । मूल्य बारह आने । परमार्थजकड़ी संग्रह - इसमें कविवर दौलतराम, भूधरदास, रूपचंद, जिनदास, रामकृष्ण, दरिगहमल और शाद्दणू रचित वैराग्यकी १५ जकड़ियोंका संग्रह है । मूल्य डेढ़ आना । प्रवचनसार परमागम - श्री कुन्दकुन्दाचार्य के नाटकसमयसारकी कविता करके जिस तरह कविवर बनारसीदासजीने यश प्राप्त किया है, उसी प्रकार से काशीनिवासी कविवर वृंदावनजीने प्रवचनसार परमागम ( कुन्दकुन्दकृत ) की कविता करके नाम कमाया है । इसमें कवित्त सवैया आदि छन्दोंमें अध्यात्मके गूढ़तवा बड़ी सुन्दरतासे वर्णन किया है । कविवरकी खास हाथकी लिखी हुई प्रतिसे संशोधन करके यह ग्रंथ छपाया गया है । मूल्य सिर्फ सवा रुपया । प्राणप्रिय - काव्य- यह सुन्दर और सरस काव्य प्रत्येक सहृदयको पढ़ना चाहिए । भक्तामर के चौथे चरणोंकी समस्यापूर्ति की गई है और उसमें नेमिनाथ और राजीमतीका सरस चरित्र निबद्ध किया गया है। मूल्य दो आने । वृंदावनविलास - इस ग्रंथ में काशीनिवासी कविवर बाबू वृंदावनजीके संकटमोचन, कल्याणकल्पबुम आदि मनोहर स्तोत्रों, अनेक प्रकार के पदों, फुटकर कविताओं, जयपुरके पंडित जयचन्द्रजी, दीवान अमरचन्द्रजी आदि महाशयों के साथ किये हुए प्रश्नोत्तरों और गद्यपद्यबद्ध चिट्टियों का संग्रह है ।साथ ही हिन्दी के एक अद्वितीय पिंगल ग्रन्थका संग्रह है, जो कि छन्दशतक के नामसे प्रसिद्ध है । ग्रन्थके प्रारंभ में कोई ३२ पृष्ठों में कविवरका जीवनचरित्र और उनके ग्रन्थों का परिचय दिया है । मूल्य बारह आने । भक्तामर स्तोत्र - - अन्वय, हिन्दी अर्थ, भावार्थ और नवीन भाषापद्यानुवाद सहित । इसमें रत्नकरंडके समान पहले प्रत्येक श्लोकका अन्ययानुगत पदार्थ. लिखकर फिर प्रत्येकका भावार्थ लिखा है । पश्चात् हरिगीतिका और नरेन्द्रछन्द में उसकी सुन्दर कविता बनाई गई है। मूल्य चार आने । भक्तामर स्तोत्र - हेमराजजीकृत कविता और मूल सहित । मूल्य एक आना । भाषापूजासंग्रह - - अबकी बार इसमें जितनी पूजायें और शान्ति विसर्जन अभिषेक आदि पाठ हैं, वे केवल भाषामें ही रक्खे हैं । संस्कृत प्राकृतका कोई भी पाठ नहीं है । विशेष खूबी यह है कि, प्रत्येक स्थान में स्थापना आव्हानादिके मंत्र शुद्धतापूर्वक लिख दिये गये हैं। क्योंकि पूजाका सच्चा तब ही मिलता है, जब वह शुद्ध मंत्रोच्चारण सहित की जावे । नीचे लिखे भाषापाठ हैं- अभिषेकपाठ, पंचामृताभिषेक पाठ, देवशास्त्रगुरुपूजासमुच्चय, वीसविहरमानपूजा, देवपूजा, सरस्वतीपूजा, गुरुपूजा, कृअत्रिमचैत्यालयपूजा, सिद्धचक्रपूजा, पंचमेरुपूजा, नन्दीश्वर, सोलहकारण, दशलक्षण, रत्नत्रय और निर्वाणक्षेत्रपूजा, समुच्चय चौवीसीपूजा, स्वयंभूस्तोत्र, सप्तर्षिपूजा, शान्तिपाठ विसर्जनपाठ, स्तुतिपाठ आदि सब भाषा के पाठ हैं । मूल्य आठ आने । पंचेन्द्रिय सम्बाद - इस पुस्तक में पाँचों इन्द्रियोंने अपनी अपनी श्रेष्ठता अच्छी अच्छी युक्तियोंसे सिद्ध की है । मूल्य एक आना । बनारसीविलास- इसमें आगरानिवासीस्वर्गीय कविवर बनारसीदासजीके ज्ञानबावनी, सूक्तमुक्तावली आदि अनेक ग्रंथरत्नोंका संग्रह है । इसके प्रारंभ में ११३ पृष्ठों में ग्रंथकर्ता कविवर बनारसीदासजीका सविस्तर जीवनचरित्र भी दिया गया है। हिन्दी में इतना सच्चा और बड़ा जीवनचरित्र आजतक किसी भी कविका प्रकाशित नहीं हुआ है । मूल्य १॥ ) भूधरजैनशतक - कविवर भूधरदासजी के यों तो रुपया | रेशमी जिल्दका दो रुपया । सब ही ग्रन्थ उत्तम हैं, परन्तु इस जैनशतक में तो बालबोध जैन धर्म चौथा भाग- मूल्य पाँच उन्होंने कमाल कर दिया है । इसका एक एक कवित्त आने । सवैया अमूल्य और प्रत्येक पुरुष के कंठ करने योग्य है। विनंती संग्रह- इसमें छोटी बड़ी २४ विनतियोंका टीकाके स्थान में कठिन २ शब्दों की टिप्पणी दी हैं। ह है। मूल्य तीन आने । मूल्य ढ़ाई आने । I For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) मनोरमा उपन्यास-हिंदीके प्रसिद्ध लेखक शीलकथा--भारामल्ल कृत । मूल्य चार आने। आरानिवासी बाबू जैनेन्द्रकिशोरजीने शीलकथाके श्रावकधर्म संग्रह-अनेक श्रावकाचारोंका आधारसे उपन्यासकी सुन्दर रसीली भाषामें यह विचार और मनन करके श्रीयुत मास्टर दरयावसिंह पुस्तक लिखी है। प्रत्येक स्त्रीपुरुष, और बालकके सोधियाने इस ग्रन्थको नये ढंगपर लिखा है। अनेक पढ़ने योग्य है । मू० आठ आने । पुराने और नये विषयोंपर बड़े परिश्रमके साथ इसमें मुनिशदीपिका-नयनसुखजीकृत प्राचीन विचार किया गया है । इसका स्वाध्याय करनेसे श्राआचार्योंका चरित।मू०)॥ वकाचारकी जानने योग्य अनेक बातें ज्ञात हो सकेंगी। मृत्युमहोत्सव-सदासुखजी कृत वचनिका कीमत कपड़ेकी पक्की जिल्दका सवा दो रुपये । और दो तरहके समाधिमरण सहित । मू० दो आने। सप्तव्यसन चरित्र--यह २२५ पृष्ठका ग्रन्थ मोक्षमार्गप्रकाश-भाषा वचनिकामें अभी तक है। इसमें सातों व्यसनों की सात कथायें हैं और ऐसी जैनधर्मके जितने प्रन्थ बने हैं, उनमें मोक्षमार्गप्रकाश सरल हिन्दी भाषामें लिखी हैं कि, साधारण पढ़े लिखे सर्वोपरि है। यह किसी मलग्रन्थका अनुवाद अथवा स्त्रीपुरुष अच्छी तरहसे समझ सकते हैं। कथायें खूब टीका नहीं है, किन्तु एक आचार्यतुल्य विद्वानकी विस्तारसे हैं । पांडवचरित्र, चारुदत्तचरित्र, रामचरित्र, स्वतंत्र रचना है। गहनसे गहन विषयोंका इसमें और कृष्णचरित्र तो एक प्रकारसे चार जुदे २ पुराण बड़ी ही मार्मिकता और सरलतासे निरूपण किया हैं । छपाई बहुत ही अच्छी है । मूल्य केवल चौदह है। काँका स्वरूप और उनका परिणाम, संसार आने । अवस्थाके दुःख, रत्नत्रय तथा मिथ्यादर्शन, मिथ्या- समाधिमरण-दो तरह का। मूल्य एक आना। ज्ञान, मिथ्याचरित्रका स्वरूप, अद्वैतवादी, कर्तावादी, सज्जनचित्तवल्लभ---यह ग्रन्थ कई वर्ष पहले नैयायिक आदि जुदा २ मतोंका खंडन, कुगुरु. कदेव. छपा था, किन्तु अब कई वर्षों से नहीं मिलने के कारण कुधमका स्वरूप और निषेध, तीन प्रकारके जैनाभा- फिरसे छपाया गया है। इसमें मूल पद्य उसके नीचे सोंका स्वरूप, चारों अनुयोगोंका एक विलक्षण ही स्वर्गीय पं० मिहरचन्दजीका पद्यानुवाद, और सरल प्रकारका निरूपण, और मोक्षमार्गका स्वरूप आदि अर्थ हैं । अन्तम यती नयनसुखजीका बनाया हआ विषयोंका इसमें खूब ही विस्तारसे वर्णन किया है। पद्यानुवाद भी लगाया गया है। वैराग्यका मनोहर ५०० पृष्ठका बहुत ही सुन्दरतासे छपा हआ ग्रन्थ प्रन्थ है । मूल्य दो आने मात्र। है। संशोधन बहुत ही बारीकासे किया गया है। सामायिक पाठ और आलोचना पाठपहली बार छपा था, उसमें भाषामें बहुत कुछ फेरफार मूल्य एक आना। कर दिया था, परन्तु अबकी बार ज्योंका त्यों पुरानी सामायिकपाठ-आचार्य अमितगतिकृत मूल भाषामें ही छपाया गया है। मूल्य पहले तीन रुपये श्लोक और ब्रह्मचारी शीतलप्रसादकृत भा. टी. रक्खा गया था । अबकी बार सिर्फ १॥1) और सहित । मूल्य एक आना। कपड़ेकी जिल्दका २) रुपये है। सूक्तमुक्तावली--श्रीसोमप्रभाचार्यकी सूक्तमुक्तारत्नकरंडश्रावकाचार सान्वयार्थ-प्रत्येक वली जिसका प्रत्येक श्लोक कंठ करने लायक है, और जैनी विद्यार्थीको सबसे पहले यही धर्मशास्त्र पढ़ाया जो सचमुच ही मोतियों की माला है, फिरसे छपकर जाता है। इस ग्रन्थके सिर्फ १५० मूल श्लोक हैं। तैयार है । अबकी बार यह पाठशालाके विद्यार्थियोंके पहले मूल श्लोक, पीछे अन्वयपूर्वक संस्कृत पदोंको बहुत ही कामकी बन गई है । क्योंकि इस संस्करणमें कोष्टकमें रखकर भाषामें अर्थ किया है। कठिन पहले मूल श्लोक, फिर कविवर बनारसीदास और श्लोकोंका भावार्थ भी दिया है। मूल्य चार आने। कवरपालजीका पद्यानुवाद और अन्तमें अन्वयानुगत शिखरमाहात्म--भाषा वचनिकामें । मूल्य हिन्दी भाषाटीका ( रत्नकरंडके समान) तथा भावार्थ छपाया गया है। मूल्य छह आने । एक आना। . ***For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शानसूर्योदयनाटक-श्रीवादिचन्द्रसूरिके संस्कृत अंजनासुन्दरी नाटक--बाबू कन्हैयालाल ग्रन्थका सुन्दर सरल हिन्दी अनुवाद जैनाहेतीके श्रीमाल कृत । मूल्य आठ आने । सम्पादक श्रीनाथूराम प्रेमीने गद्यका गद्यमें और इन्द्रियपराजयशतक--मूल प्राकृत गाथायें पद्यका पद्यमें किया है। यह अध्यात्मका नाटक है। और उसके नीचे भाषा कविता है । बड़ा ही उपदेश इसमें पुरुषके सुमति और कुमति स्त्रियोंसे उत्पन्न हुए, पूर्ण और वैराग्यमय ग्रन्थ है । इंद्रियोंपर विजय प्राप्त प्रबोध, विवेक, संतोष, तथा मोह, क्रोध, लोभ आदि करनेके लिए प्रत्येक व्यक्तिको पढ़ना चाहिए। हिन्दी पुत्रोंकी लड़ाई हुई है और अन्तमें प्रबोधकी विजय कविता कंठ करने योग्य है । मूल्य दो आने । होकर आत्मा मुक्त हो गया है। मूल्य आठ आने । ऋषिमंडलयंत्रपूजन--(मंत्रयंत्रसहित )-- ज्ञानदर्पण-पं० दीपचन्दजी शाह एक अच्छे मंत्रशास्त्रका यह अपूर्व ग्रन्थ है । प्रसिद्ध “ विद्याआध्यात्मिक पंडित और कवि हो गये हैं । यह ग्रंथ नुशासन ” नामक ग्रन्थका साररूप श्रीगुणनंदि उन्हींका बनाया हुआ है । कविता बनारसीदासजाँके आचार्यने इसे रचा है । साथमें "कापमंडल यंत्र" नाटक समयसारके ढंगकी है। शुद्धनयका कथन है। का नकशा भी है । मूल्य पाँच आना। प्रत्येक अध्यात्मप्रेमीको मगाँना चाहिए। अभी तक कल्याणमन्दिर--अन्वय, हिन्दी अर्थ, भावार्थ यह प्रन्थ बिलकुल अप्रसिद्ध था । मूल्य चार आने। और नवीन भाषापद्यानुवाद सहित । इसमें भक्तामरके समान पहले प्रत्येक श्लोकका अन्वयानुगत पदार्थ अकलंकचरित्र-अकलंकस्तोत्र और अकलंक. लिखकर फिर प्रत्येकका भावार्थ लिखा है । मूल्य चार आने । देवका जीवनचरित्र और हिंदी पद्यानुवाद भी साथमें क्या ईश्वर जगत कर्ता है ? मूल्य )॥ . लगा हुआ है, जो कि खड़ी बोल की कवितामें । खंडेलवाल इतिहास-खंडेलवाल जातिकी - हराएकके समझमें आने योग्य और सुन्दर है । मूल्य र जातियोंकी उत्पत्ति आदिका वर्णन है । मूल्य तीन आने । ढ़ाई आने । अठारहनाते-यति नयनसुखदासजीकी फड़कती गोमहसार--कर्मकाण्ड मूल गाथा संस्कृत छाया हुई कवितामें दुराचारसे एक ही भवमें होनेवाले और पं. मनोहरलाल शास्त्रीकृत भाषा टीका सहित । अठारहनातांका वर्णन है । मूल्य एक आना। . मल्य दो रुपये। . अनुभवप्रकाश--यह पंडित दीपचन्द शाहका गृहस्थधर्म-ब्रह्मचारी शतिल प्रसादजी कृत। बनाया हुआ है । यह वचनिकामय है । इसमें शुद्धा. प्रत्येक गृहस्थके बड़े कामकी पुस्तक है। मूल्य १०)। त्मानुभवका विवेचन है। इसके स्वाध्यायसे आत्माको चन्द्रप्रभचरित-महाकवि श्रीवीरनान्द आचाय बड़ी ही शान्ति मिलती है। एक दक्षिणी धर्मात्माने कृत-इसमें आठवें तीर्थकर श्रीचंद्रप्रभु भगवान्का प्रकाशित कराया है । मूल्य प्रायः लागतके लगभगका " है । मूल्य प्रायः लागतक लगभगका विस्तृत चरित लिखा गया है और प्रसंगानुसार अर्थात् छह आने है। वैराग्य, श्रृंगार वार आदि सभी रसोंका वर्णन किया , ... आराधनाकथाकोश-छन्दोबद्ध । इसमें कई है। अनुवाद बहुत सुन्दर हुआ है । पाठक पढ़कर आचार्यों और राजाओंकी कथायें हैं । मूल्य ३॥ रुपया। खुश होंगे। कीमत सादी जिल्दका एक रुपया और आराधनाकथाकोश--ब्रह्मचारी नेमिदत्त कृत पक्की जिल्दका सवा रुपया। मूल और पं. उदयलाल काशलीवाल कृत हिन्दी जिनशतक-श्रीमत्समंतभद्राचार्य विरचित मूल भाषाटीका सहित । मूल्य पहला भाग ११) दूसरा और नरसिंहभदृ कृत संस्कृत टीका तथा पं० लालाभाग १०), तीसरा भाग १॥) । रामजी कृत भा० टी० सहित । मूल्य बारह आने । आप्तपरीक्षा-मूल और भाषाटीका सहित । जिनेन्द्र पंचकल्याणक--(पंचमंगल) जैनपाठमूल्य पाँच आने । शालाओं में पढ़ाये जानेके लिए यह पुस्तक तैयार की आलोचना पाठ-अर्थसहित । मूल्य -)। मात्र। गई है। पहले मंगलपाठ फिर कठिन कठिन शब्दोंका : For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ, फिर सरल भावार्थ, इसके बाद प्रश्नावली है। जैननियम पोथीप्रत्येक मंगलके अन्तमें उसका सार भाग भी दे दिया जैन जगदुत्पत्ति-- है । अर्थ कई विद्वानों की सम्मतिसे लिखा गया है। जैनजागरफी-स्यादवाद वारिधि पं० गोपालमूल्य तीन आने। दासजी कृत जैन मतानुसार भूगोलका वर्णन । मूल्य जिनेन्द्रगणगायन-अनेक कवियोंक नई तर्जके दा आन। ८० पद और भजनोंका संग्रह । मूल्य दो आने । " जंबूस्वामी चरित-मास्टर दीपचंदली उपदेशक जिनेन्टमतदर्पण-जैन धर्मकी प्राचीनताको राचत हिन्दा भाषाम । मूल्य चार आन । सिद्ध कर दिखानेवाली इस छोटीसी पुस्तकका मूल्य दशलक्षणधर्म--पं० सदासुखदासजी कृत सवा आना । दूसरा भाग मूल्य चार आने । रत्नकरंड श्रावकाचारमें जो दशलक्षण धर्मका वर्णन जैनाण-नित्य पाठ करने योग्य एक सौ वर्णन किया गया है । मूल्य पाँच आने ।। किया गया है । उन्हीं दशलक्षण धर्मोंका इस पुस्तकमें पाठोंका उत्तम संग्रह । मूल्य सादीका १) कपड़ेकी दशलक्षणधर्मसंग्रह-दशलक्षणी पूजा, उसकी जिल्दका सवा रुपया। जयमाल और सदासुखजीकृत विस्तृत दशलक्षण जैननित्यपाठ संग्रह-संस्कृतके नित्य पाठ धर्मके वर्णन सहित। मूल्य छह आने । करने योग्य १६ स्तोत्रोंका संग्रह । रेशमी जिल्द । दिगम्बर जैन डाइरेक्टरी-समस्त भारतमूल्य छह आने। वर्षके दिगम्बर जैन भाइयोंकी गणना, प्रत्येक प्रामके जैनतीर्थयात्राविवरण-इसमें सर्व ही तीर्थ- जैन मुखियोंके नाम,गृहसंख्या, मंदिर आदिका विवरण क्षेत्रोंके मार्ग आदि तथा अन्य आवश्यकीय बातोंका बहत खोज और धनव्यय करके लिखा गया है । पूरा खुलासा दिया गया है । साथमें भारतवर्षका का १५००पृष्ठकी महत्त्व पूर्ण पुस्तकका मूल्य आठ रुपये। नकशा और श्रीसम्मेदशिखरजी तथा गिरनारजीकी ' का द्वादशानुप्रेक्षा--बारह भावना । श्रीयुत बाबू -फोटो भी हैं। मूल्य छह आने । दयाचंदजीने श्रीस्वामी समन्तभद्राचार्य कृत रत्नकरजैनतीर्थयात्रादर्पण-इसमें समस्त जैनतीर्थोंका डश्रावकाचारकी भाषा वचनिकाके आधारसे लिखा कुल हाल, और हिन्दुस्थान भरके जैन तीर्थीका एक है। संसारभोगोंसे विरक्त करनेवाली कुंजियाँ यह नकशा भी दिया गया है । इसके सिवा प्रसिद्ध बारह भावनायें हैं । मूल्य छह आने । नगरोंका विवरण और रेल्वे मार्गों का खुलासा वर्णन है । द्रव्यानुयोगतर्कणा--इस ग्रंथमें शास्त्रकार श्री. मूल्य दो रुपये। मद्भोजसागरजीने सुगमतासे मन्दबुद्धिजीवोंको द्रव्य- जैनस्तोत्ररत्नाकर--इसमे श्वेताम्बर भाइयोंके ज्ञान होनेके लिए अथ, “ गुणपर्ययवद्रव्यम्" इस नित्यपाठ करने योग्य ९ स्मरण और ५ स्तोत्र हैं । महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्रके अनुकूल द्रव्य--गुण तथा मूल्य चार आने। अन्य पदार्थोंका भी विशेष वर्णन किया है और जैनसम्प्रदायशिक्षा--श्वेताम्बर धर्मोपदेष्टा प्रसंगवश ‘स्यादस्ति' आदि सप्तभंगोंका और यति श्रीपालचन्द्र रचित। यह बड़े महत्त्वका ग्रन्थ दिगंबराचार्यवयं श्रीदेवसेनस्वामी विरचित नयचक्रा समें स्वीपरुषोंके धर्म, संस्कार, आरोग्य रक्षाके आधारसे नय. उपनय तथा मलनयोंका भी विस्तारसे नियम, देशी और अंगरेजी रीतिसे रोगोंके निदान वर्णन किया है । मूल्य दो रु.। और चिकित्सा, फल, तरकारी, कन्द और समस्त धन्यकुमारचरित्र--श्रीसकल कीर्ति आचार्यके भोज्य पदार्थोंके गुण दोष और सैकड़ो जानने योग्य बनाये हुए संस्कृत धन्यकुमारचरित्रका यह हिन्दी उत्तम उत्तम विषयोंका समावेश किया गया है। अनुवाद पं० उदयलालजी काशलीवालने किया है । ८०० पृष्ठोंके उत्तम कपड़ेकी जिल्द बंधे हुए ग्रंथका कथा बहुत रोचक है । इसमें दानकी महिमा दिखलाई मूल्य केवल ३॥) । है। भाषा सबकी समझे आने योग्य है । मूल्य जैनधर्मका.महत्व-- ...मूल्य 1) बारह आने । For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसंग्रहश्रावकाचार--अनुमान चार सौ पद्मनन्दीपञ्चीसी-यह बड़ा सुन्दर अन्ध है । वर्ष पहले मेधावी नामके एक बड़े भारी विद्वान् हो इसमें-धर्मोपदेशामृत, दानोपदेश, श्रावकधर्म, एकत्वगये हैं। उन्होंने अपने समय तकके विविध आचाकि भावना, आलोचना, ब्रह्मचर्य, क्रियाकाण्ड, परमार्थरचे हुए श्रावकाचार ग्रन्थोंका अध्ययन एवं मनन विंशति, पूजाष्टक, जिनदर्शन-आदि कोई पच्चीस करके और वर्तमानदेशकालके अनुसार आचारविषयक अधिकार हैं। सबमें वर्णन बड़ा ही मर्मस्पर्शी है । अनुभव संपादन करके विस्तारके साथ इस ग्रन्थकी कीमत चार रुपये। रचना की है । भा० टी० उदयलालजी काशलीवालने पुरुषार्थसिद्धथुपाय भाषाटीका-यह श्रीकी है। मूल्य दो रुपये। अमृतचन्द्रस्वामी विरचित प्रसिद्ध शास्त्र है । इसमें धर्मरत्नोद्योत-आरा निवासी बाबू जगमो- आचारसंबन्धी बड़े २ गूढ रहस्य हैं,विशेष कर हिंसाका हनदासजी कृत यह कविता ग्रन्थ है। इसमें उपासना, स्वरूप बहुत खूबीके साथ दरसाया गया है, यह एक प्रमाण, प्रमेय, भेदविज्ञान, उद्यमोपदेश, सुव्रतक्रिया, बार छपकर बिक गया था इस कारण फिरसे संशोधन द्वादशानुप्रेक्षा, समाधिभावना और आराधना इस कराके दूसरीवार छपाया गया है। मूल्य एक रु० । प्रकार नौ अधिकार हैं । मूल्य एक रुपया। पुरुषार्थसिद्धयुपाय-मूल और सांक्षप्त भाषा. धर्मप्रश्नोत्तरश्रावकाचार-प्रश्नोत्तर रूपसे टीका । मूल्य चार आने । श्रावकाचारका वर्णन बहुत उत्तम तरहसे किया गया प्रवचनसार--श्रीअमृतचन्द्रसूरिकृत तत्त्वप्रदीहै । मूल्य दो रुपया। पिका संस्कृत टीका जो कि यूनिवर्सिटीके कोर्समें धनंजयनाममाला-मूल मात्र । मूल्य सवा दाखिल है तथा श्रीजयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति संकृत आना। टीका और बालबोधिनी भाषाटीका इन तीन टीकाओं नागकुमार-चरित-नागकुमार कैसा कर्तव्य- सहित छपाया गया है । इसके मूलकर्ता श्रीकुन्द्रकुपरायण पुरुषरत्न था । कैसा परोपकारी और शूरवीरन्दाचार्य हैं । यह आध्यात्मिक ग्रन्थ है। मूल्य तीन रु. था, इस बातका बड़ी अच्छी तरहसे इस पुस्तकमें प्रदानचरित-(सार ) बाबू दयाचंद गोयलीय वर्णन है । कीमत छह आने । कृत। मूल्य छह आने । परमात्मप्रकाश--यह ग्रन्थ योगीन्द्रदेव कृत पंचस्तोत्रभाषा-इसमें भक्तामर, कल्याणमंदिर, प्राकृत दोहाओंमें है । उसके नीचे संस्कृत छाया है एकीभाव, विषापहार और भूपालचौवीसी ये पांच और उसके नीचे ब्रह्मदेव कृत संस्कृत टीका है और भाषा स्तोत्र हैं। म. दो आने । संस्कृत टीकाके अनुसार हिन्दी भाषा टीका की गई पंचास्तिकायसमयसार-अबकी बार यह है। अध्यात्मका अपूर्व ग्रन्थ है। मूल्य तीन रु०। ग्रन्थ बड़ी सुन्दरतासे छपा है। पहले इसमें संस्कृत .. परमात्मप्रकाश-मूल प्राकृत दोहा ओर उसका टीका एक ही थी, पर अबकी बार एक और सरल सरल हिंदी अर्थ । मूल्य ।।) आने । टीका लगा दी गई है। दोनों टीकाके नीच स्व.पंडित पवनदूतकाव्य-उज्जैनके राजा विजयनरेशकी हेमराजजीकृत हिन्दी टीकाका वर्तमानकी हिन्दीस्त्री सुताराको एक विद्याधर हरकर ले गया था । भाषामें परिवर्तित रूपान्तर है । यह भगवान् सीके आधार पर यह ग्रन्थ रचा गया है। कीम। कुन्दकुन्दाचार्यका आध्यात्मिक विषयका सबसे उत्तम चार आने । और महत्वका ग्रन्थ है। कीमत दो रुपये। परीक्षामुख-जैनन्यायमें प्रवेश करने के लिए पंचकल्याणकविधान-पं० वख्तावरलालकृत सबसे पहले यही ग्रन्थ पढ़ाया जाता है। पहले इस २४ तीर्थंकरोंकी पंचकल्याणक पूजाका संग्रह । मूल्य ग्रन्थको केवल संस्कृतमें छपा हुआ होनेसे बहुत कम छह आन । लोग इससे लाभ उठाते थे। पर अब श्रीयुत पं० बालबोध जैनधर्म-पहला भाग ... ) घनश्यामदासजीने इसका हिन्दी अनुवाद भी कर " . दूसरा भाग ... ) दिया है। प्रन्थ बड़ा उपयोगी है। कीमत छह आने। , , तीसरा भाग ... ) For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्रव्यसंग्रह-सरल हिन्दी भाषाटीका तथा विद्वान्का बनाया हुआ सबसे पहला यही कोश है। संस्कृतटीका सहित । छोटा द्रव्यसंग्रह जो छप चुका बहुत ही अच्छा और बड़ा कोश है । अमरकोश आदि है, उसीकी यह संस्कृत और बड़ी भाषाटीका है। प्रचलित कोशोंसे यह बहुत ही बड़ा और विलक्षण मूलगाथाके नीचे उसकी संस्कृत छाया, और फिर है। यह मेदिनीके ढंगका नानार्थ कोष है । कवियों श्रीब्रह्मदेवसूरिकृत संस्कृतटीका, तत्पश्चात् पं. जवाह. तथा विद्वानोंके बड़े कामका है। सरस्वतीप्रचारक रलालजीकृत भाषाटीका इस क्रमसे यह ग्रन्थ छपा है। सेठ नाथारंगजी गांधीने केवल ग्रन्थप्रचारकी बुद्धिसे मूल्य दो रुपये। इसको प्रकाशित किया है और मूल्य भी स्वल्प भगवतीआराधनासार-यह ग्रन्थ पं० रक्खा है । मूल्य एक रुपया सात आने । सदासुखदासजीकृत वचनिका सहित ज्योंका त्यों खुले शील और भावना--मुन्शीलाल एम. ए. पत्रोंपर छपा है। इसमें अन्तिम सल्लेखनाका अपूर्व कृत । मुल्य डेढ आना। शान्तिदायक वर्णन है । मूल्य चार रुपये। श्रेणिक चरित-इसकी कथा बड़ी हो सुन्दर भक्तामरकथा-(मंत्रयंत्र सहित ) इसमें पहले है। आजकलकी भाषामें संस्कृतपरसे अनुवाद हुआ भक्कामरके मूलश्लोक फिर हिन्दी पद्यानुवाद, बाद है। कपडेकी बहत सन्दर जिल्द । की है। मलका खुलासा भावार्थ, फिर भक्तामरके मंत्रोंको सिद्ध श्रेणिकचरितसार--मूल्य तीन आने । करनेवालोंकी ३३ सुन्दर कथायें, इसके बाद अन्तमें षटपाहड..-श्रीकुन्दकुन्दाचार्य के बनाये हुए मंत्र, ऋद्धि और उनकी साधनविधि तथा अड़तालीस दर्शन, सूत्र, चरित्र, वोध, भाव और भावलिंग इन ही श्लोकोंके अड़तालीस यंत्र, इस प्रकार योजना छह पाहुडोंकी मूल गाथा और संस्कृतछाया सहित करके सर्वसाधारणके लाभार्थ यह ग्रन्थ छपाया गया भाषाटीका है । मूल्य एक रु० । है। थोडीसी प्रतियें रही हैं । मूल्य सवा रु.। .. सर्वार्थसिद्धि भाषावचनिका-तत्त्वार्थसूत्रकी · महेन्द्रकुमार नाटक-इसकी उत्तमता और पूज्यपादस्वामीकृत सर्वार्थसिद्धिटीका बहुत प्राचीन उपयोगिता बांचकर ही जानी जा सकती है। छपाईकी और प्रामाणिक टीका है । यह उसीकी पं० जयचन्दजी सुन्दरता देखने योग्य है । मूल्य छह आने । कृत भाषावचनिका है। प्रत्येक सूत्रका खूब विस्तारके महावीरचरित-ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी साथ अर्थ किया है । बड़े टाईपमें खुले पत्रोंपर छपी रचित। मूल्य एक आना। है। सब पृष्ठ ९०० के लगभग हैं, तो भी मूल्य ४) । माणिक विलास-माणिकचंदजीके १२५ पदोंका सम्यक्त्व-कौमुदी--यह जैन कथा-साहित्यका संग्रह । मूल्य चार आने। सुन्दर प्रन्थ है । इसमें सम्यक्त्व प्राप्त करनेवालोंकी यशोधर चरित--इसमें यशोधर महाराजका आठ मनोहर और धार्मिक कथायें हैं। यह हिन्दी चरित बड़ी सुन्दरतासे लिखा गया है । इसके पढ़नेसे भाषामें अनुवाद होकर अभी ही प्रकाशित हुआ है । हृदयमें करुणारसका प्रवाह बह उठता है । कीमत चार आना । इसकी सरल और सुन्दर बोलचालकी संस्कृत भाषा - यशोधरचरित--मूल प्राकृत और हिन्दी अर्थ द्वारा विद्यार्थीगण भी लाभ उठा सकें, इसलिए इसे सहित। मूल्य दो रुपये। . संस्कृत सहित छपाया है। कीमत सादी जिल्द १०), लघु अभिषेक-मूल्य ढाई आने। कपड़ेकी पकी जिल्दका एक रुपया छह आने । वसुनन्दि श्रावकाचार-हिन्दी अर्थ सहित। सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र--इसका दूसरा सभाज्यतर मूल्य आठ आने। नाम तत्त्वार्थाधिगम मोक्षशास्त्र भी है। जैनियोंका यह वर्ष प्रबोध--जैनाचार्य रचित ज्योतिष ग्रन्थ। परममान्य और मुख्य ग्रन्थ है । इसमें जैनधर्मक मूल्य बारह आने । संपूर्णसिद्धान्त आचार्यवय श्रीउमास्वाति (मी) जीने विश्वलोचनकोश-श्रीश्रीधरसेन कविपंडितका बड़े लाघवसे संग्रह किया हैं । ऐसा कोई भी जैनअपूर्व कोश हिन्दी भाषाटीका सहित । एक जैन सिद्धान्त नहीं है जो इसके सूत्रोंमें गर्भित न हो। For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९ ) सिद्धान्तसागरको एक अत्यन्त छोटेसे तत्त्वार्थरूपी घटमें भरदेना यह कार्य अनुपम सामर्थ्य वाले इसके रचयिताका ही था । तत्वार्थके छोटे २ सूत्रों के अर्थगांभी को देखकर विद्वानोंको विस्मित होना पड़ता है । मूल्य २ ) । स्याद्वादमंजरी संस्कृत और भाषाटीका - इसमें छहों मर्तोंका विवेचन करके टीकाकर्ता विद्वद्वर्य श्रीमलिषेणसूरिने स्याद्वादको पूर्णरूप से सिद्ध किया है । मूल्य ४) । समयसार नाटक - बनारसीदासजीका प्रसिद्ध अन्य भाषा वचनिका सहित । खुले पत्रोंपर छपा है । मूल्य २॥) । समयसार नाटक - कवित्त सवैयों में । मूल्य छह आने । समयसार—प्रसिद्ध अध्यात्मका ग्रन्थ । संस्कृत आत्मख्याति टीकाकी पं० जयचन्दजी कृत वचनिका । इसमें शुद्ध निश्चयनयका वर्णन है । मूल्य चार रुपये । समयसार नाटक - ( बालबोध आत्मख्याति ) स्वामी कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थका अनुवाद | मूल्य १ | सप्तभंगीतरंगिणी भाषाटीका - यह न्यायका अपूर्व ग्रन्थ है । इसमें ग्रन्थकर्ता श्रीविमलदासजीने स्यादस्ति, स्यान्नास्ति आदि सप्तभंगी नयका विवेचन नव्यन्यायकी रीतिसे किया है । स्याद्वादमत क्या है यह जानने के लिए यह ग्रन्थ अवश्य पढ़ना चाहिए । मूल्य एक रु० । सत्यार्थयज्ञ – मनरंगलालजी कृत चौवीस तीर्थ करोंकी पूजा | मूल्य ॥)। सम्मेदशिखर पूजा - मूल्य चार आने । सागारधर्मामृत पूर्वार्ध - हिन्दी भाषाटीका सहित। श्रावकाचारका बहुत प्रसिद्ध ग्रन्थ है । पण्डितप्रवर आशाधरका बनाया हुआ है । भाषा सरल है मूल्य १ ॥ ) । । श्रीसिद्धक्षेत्र पूजासंग्रह - इस संग्रह में श्रीसम्मेदशिखर विधान, पावापुरपूजा, चंपापुर पूजा, पटना पूजा जंबूस्वामी पूजा, सोनागिरि, नयनागिरि, द्रोणागिरि, मुक्तागिरि, सिद्धवरकूट, चूलगिरि, बड़वानी, गिरनार, शत्रुंजय, पावागढ़, तारंगा, गजपंथ, मांगीतुंगी, कन्थल गिरि, गोम्मट्टस्वामीकी पूजा, और चतुर्विंशति निर्वाणक्षेत्र पूजा है । मोटे अक्षरों में सुन्दरता पूर्वक छपा है । तीर्थयात्राके समय यह पुस्तक बड़े काम की है। मूल्य आठ आने । सीताचरित - बाबू दयाचन्द गोयलीय लिखित | मूल्य तीन आने । जरूरत नहीं । दूसरी बार सुन्दरतासे छपा है । इसमें सुशीला उपन्यास - इस उपन्यासकी प्रशंसाकी मनोरंजन के साथ जैनधर्मका सार भर दिया गया है। पक्की कपड़ेकी जिल्द | मू० १| ) | सुकुमालचरितसार - सुकुमाल कुँवरका चरित बड़ा ही सुन्दर है, यह चरित पहले दो बार छपकर बिक चुका । सर्वसाधारणको यह चरित सुलभता से पढ़ने को मिल सके इस लिये स्व० ब्रह्मचारी नेमिदत्त के सुकुमाल चरितसारका यह नया अनुवाद है । मूल्य डेढ़ आना । सुखानंद मनोरमा नाटक - - शीलकथाके आधार पर इस नाटककी रचना की गई है । स्टेजपर खेलने लायक है । मूल्य ॥ ॥ ) । सोमासती नाटक - बाबू जैनेन्द्रकिशोर कृत मूल्य - ) ॥ संशय तिमिरप्रदीप तेरह पैंथका खंडन और वीस पंथका मंडन । मूल्य बारह आने । हिन्दी कल्याणमन्दिर – पं० गिरिधर शर्मा कृत खड़ी हिन्दीकी कवितामें मूल्य एक आना । हिन्दी भक्तामर -- पं० गिरिधर शर्मा कृत खड़ी हिन्दी कविता | मू० ) 1 हनुमानचरित - सुखचंद पद्मशाह पोरवाड़ लिखित । मूल्य ।-) त्रैवर्णिकाचार -- सोमसेनाचार्य कृत मूल और मराठी टीकासहित । मू० ३) ज्ञानार्णव भाषा टीका सहित -इसके कर्ता श्रीशुभचन्द्रस्वामीने ध्यानका वर्णन बहुत ही उत्तमतासे किया है । प्रकरणवश ब्रह्मचर्यव्रतका वर्णन भी बहुत दिखलाया है । यह एकबार छपकर बिक गया था । अब द्वितीयबार संशोधन कराके छपाया गया है । मूल्य चार रु० । For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) संस्कृतके ग्रंथ । अमरकोष-मूल गुटका । मूल्य चार आने। जैनेन्द्रप्रक्रिया--प्राचीन जैनाचार्यकृत व्याकअमरकोष-मूल श्लोक और शब्दानुक्रमणिका रण । मूल्य १॥) सहित मूल्य ।) नीतिवाक्यामृत-सोमदेव सूरि कृत नीतिका अष्टसहस्री--विद्यानंद स्वामी रचित न्यायका अपूर्व ग्रन्थ । मूल्य १) अपूर्व ग्रंथ । मू० २॥) नेमिनिर्वाणकाव्य-यह काव्य महाकवि अलंकार चिन्तामणि-अजित सेनाचार्य कृत वाग्भट्टकृत है । इसमें नेमिनाथ राजुलका चरित्र है। अलंकारका ग्रन्थ । मूल्य ॥) आने । . इसकी काव्यशैली बहुत अच्छी है । मूल्य ॥2) आप्तपरीक्षा--मूल पाठ मात्र । मूल्य एक आना परीक्षामुख--प्रमेयरत्नमाला टीकासहित-मूल आप्तमीमांसा-मूल्य एक आना। ग्रन्थ श्रीमाणिक्यनन्दिकृत और टीका श्रीअनन्तवीर्य कात्रंतपंचसंधि--भाषा टीका सहित । मूल्य आचार्यकृत । मूल्य ॥) दो आने। __ पाश्र्वाभ्युदयकाव्य सटीक--आदिपुराणके काव्यानुशासन--सटीक । महाकवि वाग्भट्ट कर्ता भगवज्जिनसेनने इस अपूर्व ग्रन्थकी रचना की कृत अलंकार ग्रंथ । मूल्य सात आने । है। इसमें कालिदासकविका बनाया हुआ मेघदूत. काव्यानुशासन--आचार्य हेमचन्द्र विरचित । काव्य सबका सब वेष्टित है । अर्थात् मेघदूतके चोपलालकार चडामणि संज्ञक वृत्ति सहित मूल्य २) श्लोकोंके प्रत्येक पादकी समस्यापूर्ति करके यह ग्रन्थ काव्यमाला सप्तम गुच्छक-इसमें भक्तामर, बनाया है। मूल्य बारह आने । कल्याणमंदिर, सिंदूरप्रकरण आदि २३ स्तोत्र हैं। पार्श्वनाथ चरितकाव्य-महाकवि वादिमूल्य एक रुपया। राजसूरि कृत । मूल्य लागतका आठ आने । काव्यमाला तेरहवाँ गुच्छक-वादिचन्द्र . २. पंचपरमेष्ठी पूजा-यशोनन्दि आचार्य कृत । सूरिकृत पवनदूत काव्य और धन्यराज कृत शंगार, , मूल्य चार आने नीति और वैराग्यशतक तथा अन्यान्य वैष्णव पंचस्तोत्र-भक्तामर, कल्याणमंदिर, एकीकवियोंके काव्य भी शामिल हैं । मू. एक रुपया ।। भाव, विषापहार और भूपाल चतुर्विशतिका इन गणरत्नमहोदधि--श्रीवर्धमान नामके एक . ५ स्तोत्रोंका संग्रह । मूल्य दो आने। जैन विद्वानका बनाया हुआ व्याकरणका अपूर्व ग्रन्थ । प्रमेयकमलमाता-श्रीप्रभाचन्द्राचार्य विर मूल्य दो रुपया । गोमहसार--( जीवकांड ) उत्थानिका मूल. चित जैन दर्शनका यह बहुत ही उच्चकोटिका न्याय - प्रन्थ है । जैनधर्मके मान्य सिद्धान्तोंका इसमें बड़े गाथा और संस्कृत छाया सहित । मूल्य ।)। . पाण्डित्यके साथ निरूपण किया गया है । मूल्य चार चन्द्रप्रभचरित--इसमें चन्द्रप्रभतीर्थकरका प रुपये। वित्र चरित्र है । महाकवि वीरनन्दि विरचित देखने मोक्षशास्त्र-मूल । मूल्य) योग्य महाकाव्य है। इसकी रचना रघुवंशके ढंगकी है । मूल्य ।) यशोधरचरित-वादिराजसूरि कृत। मूल्य जैनस्तोत्रसंग्रह-इसमें भक्तामर. कल्याण- आठ आने । मंदिर, विषापहार, एकीभाव और जिनचतुर्विशतिका यशस्तिलकचम्पूकाव्य-यह नीतिवाक्याये ५ मूलस्तोत्र हैं । मूल्य चार आने । मृतके कर्ता श्रीसोमदेवसूरि विरचित महाकाव्य है । - जैननित्यपाठसंग्रह--इसमें पंचस्तोत्र, सहस्र- इसमें यशोधर महाराजका पवित्र चरित्र है । मूल्य . नाम, तत्त्वार्थसूत्रादि १६ पाठ दिगम्बरी श्वेताम्बरी प्रथम खंडका ३।।) उत्तरखंडका २॥) दोनों प्रकारके जैनी भाइयोंके हितार्थ संग्रह किये हैं। लघीयस्त्रयादि संग्रह- इसमें चार अन्ध हैं। रेशमी जिल्दका बहुत ही सुंदर गुटका है । मूल्य पहला भट्टाकलंकदेव कृत लघीयत्रय अनन्तकीर्ति छह आने । .. रचित तात्पर्यवृत्ति सहित, दूसरा भट्टाकलंकदेव कृत For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरूपसम्बोधन और तीसरा चौथा अनंतकीर्ति चाहता है। उपदेशकोंके बड़े ही कामका है । मूल्य रचित लघु वृहत् सर्वशसिद्धि। मूल्य लागत- ॥) आने । का छह आने । हितोपदेश-मूल । मूल्य आठ आने । विक्रान्त कौरवीय नाटक-श्रीहस्तिमल्ल- (जैनमत दिग्दर्शन) कविकृत । मूल्य लागतका छह आना। An Insight into jainism सागारधर्मामृत--सोपज्ञ भव्यकुमुदचन्द्रिका यह पुस्तक अंग्रेजी भाषामें है । इसमें जैन धर्मक टीका सहित । मूल्य लागतका ।) महत्व, जैनमत नास्तिक मत नहीं है, जैनी किसको सुभाषितरत्नसंदोह-यह ग्रंथ धर्मपरीक्षाके पूजते हैं, कर्म फिलोसफी, धर्म, अहिंसा, संसार कर्ता अमितगत्याचार्यकृत मूल संस्कृत है । इसमें सां- और मोक्ष इन सात महत्त्वपूर्ण निबंधोंका संग्रह है। सारिकविषयनिराकरण, कोपनिराकरण, मायाहंकार प्रत्येक अंग्रेजीदा जैनी भाईको इसे अवश्य पढ़ना आदि ३३ विषय हैं । प्रत्येक विषयका निरूपण ऐसा चाहिए । अजैनोंको दिखलानेके लिए भी यह पुस्तक विस्तृत किया है कि प्रत्येक श्लोक कण्ठ रखनेको जी बड़ी अच्छी है। मूल्य केवल ।)। हिन्दी-ग्रन्थरत्नाकर कार्यालयकी सर्वसाधारणोपयोगी हिन्दीकी उत्तम पुस्तकें । अच्छी आदतें डालनेकी शिक्षा-विद्यार्थि- हैं, उनके उदाहरण और चित्र भी इसमें दिये गये योंके बड़े कामकी पुस्तक है । इसे पढ़नेसे खराबसे हैं। हिन्दीमें इस विषयका यह सबसे पहला ग्रन्थ है। खराब आदतें छूट जाती हैं । मूल्य ढाई आने। रोगियों, वैद्यों, और निरोगों-सबको पढ़ना चाहिए। __ अन्नपूर्णाका मंदिर-पवित्र, शिक्षाप्रद, करु- मूल्य कपड़ेकी जिल्दका १.), सादी जिल्दका ) णारसपूर्ण सामाजिक उपन्यास । यह उपन्यास इतना कठिनाई में विद्याभ्यास-बड़ी बड़ी कठिनाइ अच्छा है कि थोड़े ही समयम अंगरेजी, मराठी आदि योंके रहते हए भी जिनके हृदय में विद्याके प्रति भक्ति भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है । मूल्य चादह आने। होती है वे किस तरह विद्वान् बन जाते हैं, मोची, आँखकी किरकिरी-एशियाके सर्वश्रेष्ठ कवि कुम्हार, खेतिहर, बढ़ई, मल्लाहों जैसे नौच कुलोंमें रवीन्द्रनाथ ठाकुरके 'चोखेरवाली' नामक प्रसिद्ध भी जन्म लेकर,दरिद्रताके दुखोंमें पड़े रहकर भी उद्योगा उपन्यासका अनुवाद । बहुत ऊँचे दरजेका उपन्यास पुरुष कैसे बड़े बड़े विद्वान् बन गये हैं, अन्धों और है। मनुष्यके आंतरिकभाव-चित्रोंका, उनके उत्थान पतितोंने भी अपनी विद्यावृद्धि किस तरह की है, इन पतन वा घात-प्रतिघातोंका इसमें बड़ा सुन्दर वर्णन सब बातोंके ऐतिहासिक उदाहरण इस पुस्तकमें दिये है । मूल्य १॥), सादी जिल्दका १॥)। हुए हैं । पढ़कर तबीयत फड़क उठती है । विद्याभि- उपवासचिकित्सा-जैनधर्ममें व्रत करने और रुचि उत्पन्न करने और उद्योगसे प्रेम करना सिखाउपवास करनेका बहुत महत्त्व बतलाया है। परन्तु नेके लिए यह पुस्तक जादूका काम करती है। प्रत्येक अभीतक लोग व्रत या उपवासको केवल 'धर्म' या भारतवासीके कानों तक इसके शब्द पहुँचना चाहिए। . 'स्वर्ग जानेकी सीढ़ी' समझते हैं । इस पुस्तकमें विद्यार्थियों को तो अवश्य पढ़ना चाहिए। अँगरेजीमें बतलाया गया है कि उपवास करनेसे केवल धर्म ही इसकी लाखों प्रतियाँ बिक चुकी हैं । भाषा सुगम है। नहीं होता है; किन्तु यह नीरोग होनेकी सबसे अच्छी मूल्य ॥) दवाई है । सारे दुनियाके भयंकरसे भयंकर रोग उप- चरित्रगठन और मनोबल-इस पुस्तकमें वाससे आराम हो सकते हैं । क्यों हो सकते हैं, और बतलाया गया है कि अपनी चालचलनका बनाना कैस.हो. सकते हैं? इन प्रश्नोंका उत्तर इसमें विस्तारसे अपने हाथमें है। अपने मानसिक बलसे चाहे जो दिया गया है। जिन लोगोंने उपवाससे रोग अच्छे किये अपनी चालचलन सुधार सकता है। पुस्तक बड़े ही For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) . कामकी है। विद्यार्थियों और नवयुवकोंको अवश्य चित्र इसमें लगाये गये हैं। छपाई बहुत ही सुन्दर पढ़ना चाहिए। मूल्य ढाई आने। है । मूल्य छह आने । चौबेका चिट्ठा-स्वर्गीय बाबू बंकिमचन्द्र बंकिमनिबंधावली-स्वर्गीय बंकिमबाबूके चुने चट्टोपाध्यायके 'कमलाकान्तेर दफ्तर' का अनुवाद । हुए बंगला निबन्धोंका अनुवाद । इसमें धार्मिक, हँसी-दिल्लगीकी बातोंमें सामाजिक, राजनैतिक आदि राजनीतिक, मनोरंजक और साहित्यसम्बन्धी बहुत विषयोंका बड़ी मार्मिकतासे वर्णन किया है। मूल्य उच्चश्रेणीके निबन्ध जो अभी तक हिन्दीमें प्रकाशित ग्यारह आने। नहीं हए थे शामिल किये गये हैं। मूल्य १), सादीका दियातले अंधेरा-छोटीसी शिक्षाप्रद गल्प । बारह आने । पढ़कर आप बहुत प्रसन्न होंगे और यदि अपनी ब्याही बह--ससुराल जानेवाली बहओंके पढस्त्रीको पढ़ाने में लापरवाही करते होंगे तो चिन्तापूर्वक नेके लिए बहुत ही अच्छी, एक अनुभवी विद्वानकी पढ़ाने लगेंगे । मूल्य डेढ़ आना । लिखी हुई शिक्षाप्रद पुस्तक । मूल्य तीन आने । दुर्गादास नाटक-बंग साहित्यमें जो प्रतिष्टा मितव्ययिता-यह यूरोपके प्रसिद्ध लेखक डा0 कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर की है, वही स्वर्गीय द्विजे सेमुएल स्माइल्स साहबकी अंगरेजी पुस्तक 'थिरिफ्ट' न्द्रलालरायकी है; बाल्कि नाटक लिखनेमें तो वे सर्व श्रेष्ठ समझे जाते थे। उन्हींके सर्वश्रेष्ठ नाटक दुगा का हिन्दी अनुवाद है । इस फिजूलखर्ची और विलासिताके जमाने में यह पुस्तक प्रत्येक भारतवासी दासका यह हिन्दी अनुवाद है। अनुवादक हैं प० बालक, युवा, वृद्ध और स्त्रीके नित्य स्वाध्याय करने रूपनारायणजी पाण्डेय। हिन्दीमें अब तक इसकी योग्य है । इसके पढ़नेस आप चाहे जितने अपव्ययी जोड़का एक भी नाटक नहीं है। स्टेज पर अच्छी हों, मितव्ययी संयमी और धर्मात्मा बन जावेंगे। तरह खेला जा सकता है। देशभक्ति और वीरताके . मूल्य ) भाव कूट कूट कर भरे हैं। जोधपुर नरेश जसवंत युवाओंको उपदेश । इस पुस्तकमें जो अभी सिंहके प्रसिद्ध प्रभुभक्त सेनापति राठौर दुर्गादासक अभी युवा अवस्थाको प्राप्त हुए हैं, जो पढ़ रहे हैं, आदर्शचरित्रको लेकर इसकी रचना की गई है। जो विवाह करनेवाले हैं, जिनका विवाह हो चुका है, मूल्य कपड़ेकी जिल्दका सवा रुपया, सादीका ॥)। जिनकी स्त्री आ चुकी है, जो पिता बननेवाले हैं . प्रतिभा-यह उपन्यास मानव-चरितको उदार, अथवा बन चुके हैं, उन सब युवाओंके लिए इतने उन्नत बनानेवाला, आदर्श धर्मवीर कर्मवीर बनाने अच्छे उपदश दिये गये हैं कि उनके अनुसार चलवाला और देशकी वर्तमान आवश्यकताओंको पूर्ण नेसे वर्तमान और आगामी जीवन बहुत ही सुखमय करनेवाला है। मूल्य ११) सादीका १)। __ बन सकता है। प्रत्येक नवयुवकके हाथमें यह पुस्तक पिताके उपदेश-एक आदर्श पिताने अपने जाना चाहिए। इसके प्रभावसे सैकड़ों कुमार्गपर पत्रको जो शिक्षाप्रद चिट्ठियाँ लिखी थीं यह उनका जानेले सम्मख हए युवकोंके जीवन सुधर गये हैं, वे संग्रह है। प्रत्येक विद्यार्थीके पढ़ने योग्य है । मूल्य धर्मात्मा, सदाचारी और देश तथा समाजके सेवक डेढ़ आना। __ फूलोंका गुच्छा-ग्यारह चुनी हुई सुन्दर , बन गये हैं। मूल्य दस आने । सुन्दर गल्पोंका संग्रह । इसकी कहानियाँ मनोरंजक, लन्दनके पत्र-विलायतसे एक भारतवासी सज्जन यहाँके समाचारपत्रों में अपने देशवासियोंके रोचक, चित्ताकर्षक और शिक्षाप्रद हैं। मूल्य नौ आने, कपड़ेकी जिल्दका बारह आने । नाम पत्र छपाया करते थे। उन पत्रोंमेसे कुछ कामके बूढेका ब्याह-एक लोभीने अपनी लड़कीकी पत्रोंका इस पुस्तकमें संग्रह किया गया है । पत्र बड़े शादी एक बूढ़े सेठके साथ कर दी थी, इससे उस ही जोशीले, देशभक्तिपूर्ण और सच्चे हृदयसे लिखे लड़कीकी अंत में कैसी दुर्दशा हुई और सेठकी कैसी हुए हैं । पढ़ते ही देशभक्तिकी बिजली दौड जाती मिट्टीपलीद हुई, इसका हृदयग्राही वर्णन इस खड़ी है। नवयुवकों विद्यार्थियों और लेखकोंको यह पुस्तक बोलाके सुन्दर काव्यमें किया गया है। पाँच बढ़िया अवश्य पढ़ना चाहिए । मूल्य तीन आने । For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यार्थीक जीवनका उद्देश्य-एक छोटासा वीर प्रसादजी द्विवेदी । इसके साथ ६० फेजकी मिलकी निबन्ध है । एक नामी विद्वान् के उर्दू निबन्धका अनु- जीवनी और दो चित्र भी हैं । मूल्य दो रुपया। वाद है । विद्यार्थीमात्रको पढ़ना चाहिए। पूल्य एक सूमके घर धूम-यह एक छोटासा नाटक या आना। प्रहसन है । इसमें एक सूम-मक्खीचूसकी दुर्दशा पढ़' व्यापार-शिक्षा व्यापारप्रधान जैन जाति के लिए कर आप लोटपोट हो जायँगे । हँसते हँसते पेट फूल यह पुस्तक बहुत ही अच्छी और अपूर्व है। प्रत्येक जायगा । स्टेजपर अच्छी तरह खेला जासकता है। जैनपाठशालामें पढ़ाये जाने योग्य है । इसमें व्यापा- मूल्य तीन आने । रका महत्त्व, धंदा, पूँजी, सिक्का, वेंक, हुंछी, बही- स्वदेश-डॉ. रवीन्द्रनाथ ठाकुरके आठ निबंखाता, साख, व्यापारी के गुण, लाभ-हानिके कारण, धोंका संग्रह । मनन करने योग्य विषय । मूल =) ग्राहकी, विज्ञापन, साँझा, तेजी-मंदी, उधारका सन्तान कल्पद्रम-बुद्धिमान्, बलवान्, रूपव्यापार, बीमा, जकात, अर्थशास्त्र आदि विषयोंके वान् , निरोगी, सद्गुणी सन्तान उत्पन्न करनेके विषयमें बहुत ही सरल और उपयोगी पाठ हैं। जिन्हें पढ़कर देशी और विदेशी विद्वानों के सिद्धांत और अनुभव लोग व्यापारके नवीन और प्राचीन तत्वोंको अच्छी इस पुस्तकमें लिखे गये हैं। इसमें बतलाया गया है तरह समझ सकते हैं। हिन्दीमें अपने ढंगकी यह कि लड़का या लड़को उत्पन्न करना, बुरी या भली पहली पुस्तक है । मूल्य आठ आना। शान्तिवैभव-यह पुस्तक विलियम जार्ज गार्ड- सन्तान पैदा करना, माता-पिताके हाथमे है और नका 'मजष्टी आफ कामनेस' नामक अंग्रेजी पुस्तकके देशका उद्धार अच्छी सन्तानसे हो सकता है। मल्य आधारसे लिखी गई है। इसमें इतने विषय हैं-१ कपड़ेकी जिल्दका एक रुपया और सादीका बारह शान्ति, २ उतावली नाशका कारण है, ३ असफलतामें आने। सफलता, ४ सदा उद्योग करी, ५ आनन्दका मार्ग चम्पा- श्रीयुत बाबू कृष्णलालजी वर्मा इसके और ६ सुख और शान्ति । पुस्तक वहत ही अच्छी लेखक है । इसमें नायिकाकी सच्चरित्रता, सहिष्णुता, और विशेषकर विद्यार्थियों के लिए बहुत उपयोगी है। और मातृ पितृ भक्तिका अच्छा चित्र खींचा गया है। मूल्य चार आने । मूत्य सात आने। विवाहका उद्देश्य-बाबू जुगलकिशोर मुख्तार बाल विवाहका एक हृदयद्रावक दृश्यलिखित । इस पुस्तकमें विवाहका बहुत ही मार्मिक यह ट्रेक्ट है । विषय नामहीसे प्रगट है। लेखकने और तात्त्विक वर्णन लिखा है । मूल्य) इसे विशेषकर विद्यार्थियों के लिए लिखा है। मूल्य एक सदाचारी बालक-यह एक छोटीसी सुन्दर आना। गल्प है। बालकों विद्यार्थियों के कामकी है । मूल्य जननीजीवन-आज कलकी स्त्रियाँ माता तो दो आने । बन जाती हैं, पर यह नहीं जानती कि माताके क्या __ सफलता और उसकी साधनाके उपाय- कर्तव्य हैं और सन्तानका पालनपोषण किस तरह संसारके सभी कार्यों में सब लोग सफलता चाहते हैं। किया जाता है. बीमारियोंसे, सर्दी गर्मीसे उनकी कैसे सफलताकी इच्छा रखनेवालोंको अवश्य पढ़ना चाहिए। सभा की जाती है, उनका स्वभाव कैसे सुधारा जा, मूल्य ॥) सादीका =) र सकता है, वे पढ़ाये लिखाये कैसे जा सकते हैं, और: स्वावलम्बन-(सेल्फ हेल्प ) अपने पैरों खड़े होने और अपनी बुद्धिसे काम करनेकी शिक्षा इससे स्वयं अपने शरीरकी सावधानी किस तरह रखनी मिलती है । इसमें सैकड़ों देशी विदेशी उदाहरण भी चाहिए। प्रत्येक माता या माता बननेवाली जननीको दिये गये हैं। मू० १॥). सादीका ११) यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए । मूल्य नौ आने। __ स्वाधीनता-जान स्टुअर्ट मिलकी लिवर्टीका शारदा-इस पुस्तककी नायिको एक आदर्श स्त्री अनुवाद । अनुवादक, सरस्वतीसम्पादक पं० महा- है। उसके चरितसे दिखाया गया है कि पढ़ी लीखी For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रियाँ - प्रतिकूल अवस्था में अपने पति, स्वजन और घरकी कहाँतक सेवा और भलाई कर सकती हैं । यह पुस्तक क्या स्त्री क्या पुरुष सभीके पढ़ने योग्य है । मूल्य छः आना । Life of Mahabir - बाबू माणिक चन्द्रजी बी. ए. एलएल. बी. खण्डवा द्वारा लिखित मूल्य एक रु० । १४ नाम माला—यह कविवर धनंजय कृत नानार्थ कोश है । पं० घनश्यामदासजीने इसकी भाषाटीका की है । अन्तमें शब्द सूची भी लगी हुई है। मूल्य खात आने । बालबोध जैन धर्म शिक्षक प्रथम भाग, बालबोध जैन धर्म रक्षक द्वितीय भागदोनों पुस्तकें पहले पहल जैन धर्मकी शिक्षा ग्रहण करनेवालों और उन्हें पढ़ाने वाले अध्यापकोंके बड़ी कामकी है । बाबू दयाचन्दजी रचित प्रथम भाग और द्वितीय भाग अच्छी तरह पढ़ सकने की रीति नये ढंग से इनमें लिखी गई । इन पुस्तकों का विषय वा अध्यापकके ही समझमें आसकता है और बुद्धि भी बलवान होती है। मूल्य प्रथम भाग 7)| और द्वितीय भाग का ) | है ! "भाषा दर्शन पाठ अर्थ सहित – इसमें पंडित दौलतरामजी कृत स्तुतिका अर्थ और भावार्थ है । मानो यह जैन मतकी सारभूत पुस्तक हिन्दी भावा जाननेवालोंके लिए बनाई है। मूल्य एक थाना । अर्थ प्रकाशिका-यह पं० सदासुखजी कृत तत्त्वार्थं सूत्र के दशों अध्यायोंका सरल अर्थ है । अर्थ बहुत विस्तारपूर्वक है, और बड़ी सरलतासे समझाया गया है । हरएक आदमीके समझ में आसकती है । भाषा पुरानी जैपुरकी है । इस ग्रन्थकी पहले ४ ) कीमत थी । किन्तु अब साढ़े तीन रु० दाम है और पहले की अपेक्षा छपाई बहुत ही उत्तम है। कागज भी मोटा • और चिकना लगाया गया है मंगाने वालोंको शीघ्रता करनी चाहिए । महावीर पुराण - अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीरका अपूर्वं चरित । जिसके देखने के लिए संस्कृत न जाननेवाले भाई बहुत दिनोंसे आशा लगाये हुए थे, वह अब छंपकर तैयार है । मूल्य खुले पत्रोंका १ | ) और कपड़े की सुनहरी जिल्दका दाम १ || ) है | संस्कृत प्रवेशिनी -- ( प्रथम भाग ) संस्कृत सीखनेवाले विद्यार्थियोंके बड़े काम की चीज है । इसके पढ़ने में व्याकरणके कठिन सूत्र और नियमादि नहीं रटने पड़ते हैं। व्याकरण संबंधी समस्त ग्रंथोंका मंथन करके इसकी रचना की गई है। इसमें आये हुए शब्द व धातुओं का मनन करनेसे संस्कृत काव्योंका पठन पाठन संस्कृत में वार्तालाप करना और संस्कृत में अनुवाद करना सुगम हो जाता है । मू० एक रु० । परीक्षामुख - आचार्यवर्य श्रीमाणिक्यनंदि विरचित | जैनन्यायमें प्रवेश करनेके लिए सबसे पहले यही ग्रंथ पढ़ाया जाता है । इसमें मूलके साथ हिन्दी और बंगला टीका भी लगा दी गई है, जिससे इसकी उपयोगित। बहुत बढ़ गई है । मूल्य छह आने । जैनबालबोधक - प्रथम भाग | पं० पन्नालालजी वाकलीवालकृत । यह पुस्तक बहुत दिनोंसे अप्राप्य थी। अब पुनः छपकर तैयार हुई है । मूल्य चार आने । नेमिपुराण - ब्रह्मचारी नेमिदत्तके संस्कृत ग्रन्थका पं० उदयलालजी काशलीवाल द्वारा किया गया अनुवाद | इसमें भगवान् नेमिनाथका चरित्र विस्तार के साथ सरल भाषामें लिखा गया है । मूल्य दो रुपया । कपड़ेकी जिल्दका सवा दो रुपया । सुदर्शन चरित्र - भारक सकलकीर्तिके संस्कृत ग्रन्थका सरल हिन्दी अनुवाद । सुदर्शनस्ठका पवित्र चरित्र सभीके पढ़ने योग्य है । मूल्य नी आने । नोट - सब जगहकी छपी हुई सब तरहकी जैन पुस्तकें यहाँ हरसमय मिलती हैं। किसी भी जैन ग्रन्थकी आवश्यकता हुआ करे, हमको पत्र लिखा कीजिए । पता - जैनग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, गिरगांव - बंबई । For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नये नये जैन ग्रन्थ | आदिपुराण भाषाकासहित । यह बड़ा भारी ग्रन्थ ४-५ वर्षसे छप रहा था । अब पूरा छपकर तैयार हुआ है । जैनधर्मका इतना बड़ा ग्रन्थ' अब तक कोई भी नहीं छपा । इसके सब मिलाकर लगभग १८०० पृष्ठ । खुले पत्रोंपर छपा । मन्दिरों में जो सब जगह भाषावचनिका मिलती है, उससे इसमें विशेषता है । वचनिका के साथमें मूल श्लोक नहीं हैं, पर इसमें मूल श्लोक भी साथ ही साथ दिये हैं । इसकी भाषा भी सबकी समझमें आने योग्य और मूलके अनुसार है । प्रत्येक मन्दिर में, भण्डारमें भगवजिनसेनाचार्य और गुणभद्राचार्य के इस विशाल ग्रन्थकी एक एक प्रति रहना चाहिये । जो लोग ग्रन्थ मँगाना चाहे वे चिट्ठी के साथ १|| ) डेड़ रूपयाका मनीआर्डर भी पेशगी भेज देवें । क्योंकि इसका ae ad se aपयाके करीब लगता है । लोग . अक्सर बी. पी. वापस कर देते हैं । इस कारण डाँक खर्च पेशगी आये बिना हम वी. पी. नहीं भेजेंगे | ग्रन्थकी न्योछावर डॉक खर्चके सिवाय १६) सोलह रुपया है । हरिवंश पुराण. पं० गजाधर लालजी न्यायतीर्थकृत हिन्दी अनुवाद । मोटा कागज, मोटेसाफ अक्षर, कपड़े की मजबूत सुन्दर जिल्द बंधा हुआ । सुन्दरतासे छपा "हुआ है। मूल्य छह रु० । रत्नकरण्ड श्रावकाचार | हिन्दी पद्यानुवाद | अनुवादक, सुकवि पं० गिरिधर शर्मा । जो विद्यार्थी संस्कृत नहीं जानते हैं उन्हें मूल रत्नकरण्ड अर्थसहित रटा दिया जाता है । पर इससे लाभ कुछ नहीं होता है । विद्यार्थी मर्म नहीं समझते और थोड़े ही दिनोंमें भूल जाते हैं । इस लिए बहुत दिनोंसे यह आवश्यकता बतलाई जा रही थी कि बालबोध-कक्षाओंके लिए रत्नकरण्ड छन्दोबद्ध बना दिया जाय । परीक्षालय में छन्दबद्ध रत्नकरण्ड नियत भी कर दिया गया था; पर छन्दोबद्ध रत्नकरंड कोई था ही नहीं, इस कारण हमने सुकवि श्रीगिरिधर शर्मासे इसे हाल ही बनवाकर प्रकाशित किया है । कविता बोलचालकी हिन्दी भाषा में है जो सहज ही समझमें आ जाती है । इस बात की कोशिशकी गई है कि मूलका कोई भाव रह नहीं जाय और संशोधन में इसका ध्यान रक्खा गया है कि कोई शास्त्रविरुद्ध बात न लिखी जाय । पाठशालाओंके संचालकोंको नमूने के तौर पर एक प्रति मँगा देखना चाहिए । मुल्य तीन आने । गोम्मटसार जीवकांड — भाषाटीका । लीजिए.. अब पूरा गोम्मसार भाषाटीका सहित तयार हो गया। पहले सिर्फ इसका कर्मकाण्ड भाषाटीकासहित छपा था । अब जीवकांडकी भी भाषा तैयार होगई है । इसे पं० खूबचन्दजी शास्त्री सम्पा दक सत्यवादीने लिखा है । निर्णयसागर प्रेसमें बहुत शुद्धतासे छपा है । मूल्य २ || ) है | लब्धिसार- (क्षपणासार गर्भित ) प्राकृत गाथा, संस्कृत छाया, और संक्षिप्त हिन्दी भाषा सहित छपा है । इस ग्रंथ में कर्मों से छूटनेका उपाय विस्तार सहित दिखलाया है । इसमें मिथ्यात्वकर्म छुड़ाने के लिये पाँच लब्धियोंका वर्णन है । पाँचों में मुख्यता करण लब्धिका स्वरूप अच्छी तरह दिखलाया गया । इसी से मिथ्यात्व कर्मसे छूटकर सम्यक्त्व गुणकी प्राप्ति होती है । यही गुण मोक्षका मूल कारण है। निर्णयसागर में बहुत शुद्धतासे छपा हैं । मूल्य १|| ) 1 जैनव्रत कथासंग्रह - इसमें ऋषिपंचमी, सुगंधदशमी, अनंतपंचमी, रत्नत्रय, दशलक्षण, मुक्तावली, रविव्रत, पुष्पाञ्जलि और नंदीश्वर इस प्रकार ९ व्रत विधि उद्यापन उनका माहात्म्य और फल पानेवाले पुरुषोंके चरित्र छंदोबद्ध हैं । मूल्य । ) प्रभंजनचरित-प्रभंजन नामक मुनिका चरित्र । इसकी कथा बहुत ही दिलचस्प है । त्रियाचरित्र खूब ही दिखलाया है । मूल्य चार आने । पुण्याश्रव - इसमें छोटी बड़ी ५६ कथायें हैं । कथायें सत्रु धार्मिक भावोंसे परिपूर्ण हैं । जैनसमा - जमें इस सुन्दर कथा -ग्रंथ स्वाध्याय का खूब प्रचार For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। पहलो आवृत्ति बिक जानेपर दूसरी बार छपा इसे बड़े परिश्रमसे लिखी है। इसमें सम्पूर्ण तीर्थोके है। कीमत तीन रुपया। रास्ते धर्मशाला वहाँके देखने योग्य स्थानोंका बहुत धनंजय नाममाला-मूल मात्र मूल्य सवा आना। अच्छा वर्णन है । १०८ पृष्ठकी पुस्तकका मूल्य धनंजय नाममाला भाषाटीका-इसमें एक सिर्फ चार आना है। शब्दके अनेक अर्थ बतलाये गये हैं, बड़ा उपयोगी विद्वद्रत्नमाला-इसमें श्रीजिनसेन, गुणभद्र', ग्रंथ है। प्रत्येक जैनपाठशालाओंमें पढाने योग्य है। पं० आशाधर, श्रीअमितिगति, श्रीवादिराज, श्रीमअंतमें शब्दोंकी सूची भी दी है। मूल्य सात आने। ल्लिषेण और समन्तभद्राचार्य आदि संस्कृतके सात बालगणित-बाब दयाचंदजी गोयलीय बी.ए. ग्रंथकताओंका और उनके बनाये हुए ग्रंथोंका कृत। गणित सीखनेवाले विद्यार्थियों के लिए यह परिचय है । मूल्य दश आना। --पुस्तक बड़ी लाभदायक है। मूल्य तीन आने। छहढाला सार्थ-इसका हिन्दी भासार्थ श्रीयुत । जैनबालबोधक प्रथम भाग-५० पन्नाला- व. शीतल प्रसादजीने किया है । छोटीसी पुस्तकम लजी बाकलीवालकृत। फिरसे संशोधित होकर छपा जैनधर्मका मर्म बड़ी खूबोके साथ लिया गया है। विद्यार्थियोंके लिये बड़ी उपयोगी पुस्तक है। है। मूल्य ।) मूल्य तीन आना। र तत्त्वमाला दूसरा भाग-व्र० शीतल प्रसा'दजो कृत । इसमें जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संबर, संस्कृत प्रवेशिनी- अनेक महानाय प्राचीन व्याकरणोंकी पद्धतिको क्लिष्ट व रटंतविद्या समनिर्जरा और मोक्ष आदि सात तत्त्वों और पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत चारों ध्यानोंका वर्णन झकर संस्कृत पढ़नेसे डरते है। इस लिये है। विद्यार्थियोंके बड़े कामकी पुस्तक है । पृष्ठ संस्कृतमें सुगमतासे प्रवेश करने के लिये यह पुस्तक बड़ी उपयोगी है। अनेक व्याकरण संबंधों ग्रंथोका संख्या १०४ मूल्य.।) पटन करके इसकी रचना हुई है। इसके पहनेस पूजाविधानसंग्रह-इसमें पंचकल्याणक, पंच व्याकरण के कठिन सूत्र व नियमादि रटने नहीं परमेष्ठी, अष्टकमदहन, शिखरमाहात्म्य और निवाण पडते। इसमें आये हए कछ शब्द व धातुओका इन पाँचों विधानोंका संग्रह है। पुस्तक माट अर्थ मनन करने मात्र ही संस्कृतमें अनुवाद करना अक्षरों में सुन्दरता शुद्धतापूर्वक छपी है। अंतमे वार्तालाप करना व पुस्तकों का अर्थ लगाना बहुत शान्तिपाठ और विसर्जन भी है । मूल्य छह आने। सुगम हो जाता है। मूल्य एक रुपया । कर्म-दहन पूजा विधान-स्व. पं० टेकचंदजी आत्मशुद्धि-नामसे ही समझ लीजिये । लेखक कृत । उपवासविधि, जाप्यविधिसहित बहुत शुद्धता हैं लाला भुन्शीलालजी एम. ए. गवर्नमेंट पेन्शनर । पूर्वकं छपा है । मूल्य पाँच आने । मूल्य साढ़े तीन आने । गिरनारमाहात्म्य पूजाविधान-स्व. पं० प्राचीन जैन इतिहास ----'द ला भाग। बमभ हजारीमल्लजी कृत। यह बात सर्वमान्य है कि नाथ भगवानसे लेकर वासुपूज्य तीर्थकर तकका भक्तिके विना किसीपर किसीके वचनोंका असर नई पद्धतिले लिखा हुआ इतिहास । कई नकशे भी नहीं पड़ता और असर विना कोई भी किसीके दिये हैं । जैनपाठशालाओंमें पढ़ाये जानेके लिए अनुसार चलनेको तैयार नहीं होता। यह ग्रंथ बाबू सूरजमलजी सम्पादक जैन प्रभातो लिखा भक्तिका साधन है । कविता इसकी बहुत सुन्दर है । मूल्य बारह आने। है। मूल्य नौ आने। प्रातःस्मरणपाठ-ज्योतिपरत्न पं. जियालालजी कैलाशयात्रा-व० लामचीदासजीका कैलाशका कृत । मूल्य एक आना । आँखों देखा अद्भुत वर्णन है । दूसरी बार छपी है। मिलनेका पता- .. मूल्य एक आना। जैनतीर्थयात्रादीपक-दिल्लीके लाला फतेह पर जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, चन्दजीने सम्पूर्ण जैनतीर्थोंकी बन्दना करके हीराबाग, पो. गिरगाँव-बम्बई । For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितैषी-औषधालय-इटावहकी पवित्र-सस्ती-औषधियाँ। Rekh नमक सुलेमानी। दवा सफेद दागोंकी। जगत्प्रसिद्ध असली २० वर्षका आजमूदा हा- इससे शरीरमें जो सफेद २ दाग पड़जाते जमेकी अक्सीर दवा । की० ॥) तीन हैं वह दूर हो जाते हैं । की० १) सी०१८) स्वास-कुठार। - यह स्वांस दमें की शर्तिया दवा है । की. १) धातु संजीवन। गोली दस्तबंदकी। - संपूर्ण धातु विकारको नष्ट कर नया वीर्य रक्त, आम, आदि अतिसार तथा संग्रहणी पैदा होकर शरीर हृष्ट-पुष्ट होजाता है । की० १) आदिको शीघ्र दूर करती है। की० ॥) प्रदरान्तक-चूर्ण। दवा खांसीकी । स्त्रियों के श्वेत, लाल आदि प्रदरोंको शर्तिया सूखी या तर खांसीको और कफको दूर ककर ताकत बढ़ाता और गर्भस्थिति करता है रने वाली आजमूदा दवा है । की० ॥) अर्क कपूर । नयनामृत-सुरमा। हैजेकी अक्सीर दवा । की० ।) सम्पूर्ण विकारोंको दूरकर नेत्रोंकी ज्योति चंद्रकला। बढ़ाता और तरावट पैदा करता है । की० १) यह गोरे व खूबसूरतीकी दवा है। की० ॥) दन्त-कुसुमाकर। नैन-सुधा-अञ्जन। दाँतोंके सब रोग दूर होकर दांतोंकी चमक. इससे आँखका जाला धुन्ध फली माड़ा आदि बढ़ाता और मजबूत करता है। की। सब अच्छे होते हैं । की० ॥) दद्रु-दमन । दवा पेटके दर्दकी। '' यह खुशबूदार मरहम विना कष्टके दादके चाहे कैसा पेट दर्द हो फौरन दूर होता है . दादाको तगादाकर भगाती है । की।) की० ॥) - केश-बिहार-तैल। ताम्बूल रंजन। अत्यन्त सुगन्धिसे चित्त प्रसन्न कर केश और पानके साथ खानेका बढ़िया मसाला । की०।) मस्तकके रोगोंको दूर करता है । की० ॥) शिरदर्द-हर तैल । की।) .:: नारायण-तैल। कर्ण-रोग-हर तैल की०।) शरदी आदिसे उत्पन्न हुए दर्द, गठिया, प- खुजली-नाशक तैल । की।) क्षाघात आदि सर्व वात रोगोंकी शर्तिया दवा बाल उड़ानेका साबुन । की० ।) है। की० १) कोकिल-कण्ठ-बटिका । की०।) पता-चन्द्रसेन जैन वैद्य, चन्द्रश्रिम, इटावह UP. For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . The Jain Gazette. . A monthly organ of THE ALL INDIA JAIN ASSOCIATION. ( THE BHARAT JAIN MAHAMANDAL. ) Edited and published by Mr. AJIT PRASAD, M. A., LL. B., Vakil, High Court, at Ajitashram, Lucknow. -:0: It is the only journal in the Jain community which is edited in English, and has a circulation in foreign countries. It deals with all current topics affecting the Jain Society and Jail religion. It contains philosophical, literary, scientific and religious articles by eminent scholars. 'It is conducted on a basis of wide and libosal tole ration. It was no party politics to serve, and is not subsidized by a is not subsidized by any Sothy Self-help and upgrudginy service is its motto. Therefore it is, that every English knowing Jaini must recognise it religious duty to subscribe to the Jain Gazette, to induce his friends i bscribe and to remember the Jaia Gazette on occasions of domesti Welebrations. Annual subscription Rupees 2. Apply for a sample copy at least: if you have not as yet made up you mind to subscribe to TILE MANAGER, JAIN GAZETTE, Ajitushram, Lucknov. मुनि। हिन्दी-जैन साहित्यका इस नामका एक मासिक पत्र श्रीयुक्त ब्र० विश्वम्भरदासजी गाय द्वारा सम्पादित होकर प्रत्येक इतिहास / मासकी पूर्णिमाको प्रकाशित होने लगा है / लेख सम यानुकूल और उपयोगी विषयोंके गंभीरताके साथ जोकि जैन हितैषीके इसी अंकमें समा लिखे हुए तात्त्विक और हृदय प्राही होते हैं / मनो- हो गया है / उसे पुस्तकाकार छपा लिया गर रजक लेख, उपन्यास, आख्यायिका और कविताएँ भी है। यह लेख सप्तम हिन्दी साहित्य सम्मेल प्रत्येक अङ्कमें रहती हैं। यह सर्व प्रिय है। यदि आपको सामाजिक उन्नतिके मार्मिक लेख देखने हों। जबलपुरके अधिवेशनमें पढ़ने के लिए लिखा गर तो 2). भेजकर इस भव्यपत्रके ग्राहक हो जाइये। था। इसमें हिन्दी साहित्यके शरूसे आजतक मिलने कापता-मैनेजर माने कवियों लेखकोंका विस्तृत वर्णन है / मूल बोदवड़ (खानदेश) छह आने / Printed by Chintaman Sak haram Deole, at the Bombay Vaibhav Press, Servants of India Society's Building, Sandh'irst Road, Girgaon, Bombay. Published by Nathuram Premi, Proprietor, Jain-Granth-Ratnakar Karyalaya, Hirabag, Bombay. For Personal & Private Use Only