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________________ . ४६ जैनहितैषी [भाग १३ करा कि लोग तुम्हारे विरुद्ध हैं या तुमसे रुष्ट लगता । चंचल मन जगह जगह दौड़ा फिरता हैं। यदि तुम विचार करके देखोगे तो शायद ही है । जो शक्ति एक काममें लगती, वह तुम्हें कोई ऐसा आदमी मिलेगा जो इरादा करके अब दश कामोंमें · बट जाती है और तुम्हें हानि पहुँचाता होगा। तुम्हें कभी कभी इसी कारणसे सफलता नहीं होती है। दृढ़तासे प्रायः ऐसा ख्याल होता है कि तमाम दुनिया किसी काम करते रहनेसे कठिनसे कठिन काम तुम्हारे रास्तेमें रुकावटें डाल रही है, परन्तु यदि भी सुगम हो जाता है । लोहेके पहाड़ भी मोमके दृष्टि पसार कर देखोगे तो तुम्हें मालूम होगा कि समान कोमल हो जाते हैं। छोटेसे छोटा नाला दुनिया जानबूझकर तुम्हारे रास्तेमें विघ्न नहीं डाल भी दृढ़तासे बराबर बहते रहकर अपने लिए रही है, किंतु बात असलमें यह है कि दुनिया अपने गहरा मार्ग बना लेता है । फिर मनुष्य दृढ़तासे मार्ग पर चल रही है और वह मार्ग है भी तुमसे यदि सफलता प्राप्त करले, तो इसमें आश्चर्य ही बिल्कुल भिन्न; परन्तु कभी कभी वह अपनी धुनमें क्या है ?-(कार्लाइल ।) . ... बेजाने तुम्हें कुचल देती है । पर वह कभी तुम्हें हानि पहुँचानेकी इच्छासे ऐसा नहीं करती और न कभी उसके मनमें ऐसा विचार ही आता है। यह दुनिया नवयुवकोंको उपदेश । एक घुड़दौड़का मैदान है । इसमें हर एक व्यक्ति colta अपने अपने अभीष्ट पर पहुँचनेके लिए दौड़ा चला बालविवाहके कुप्रभाव । जा रहा है । उसे केवल अपनी धुन है । रास्तेमें कौन आ जाता है, इसकी उसे सुध नहीं। अत- लखनऊमें सप्तम भारतीय आर्यकुमारसम्मेएव इससे तुम हतोत्साह और भयभीत मत हो और भयभीत मत होलनके समापति प्रोफे० बालकृष्ण एम० जाओ। यदि तुम देखो कि इस दुनियामें जिसे ए० ने कहाःतुम प्रायः कृतघ्न और निर्दय समझते हो, सज्जनो, व्यायामके अभावका कुप्रभाव उठबहुतसे आदमी तुम्हारे विरुद्ध हैं, तो साथ ही ती जवानीके कारण कभी कभी हमें ज्ञात नहीं इसी दुनियामें तुम्हें बहुतसे आदमी ऐसे भी होता किंतु इतना स्पष्ट है कि यौवनका वह मिलेंगे जो तुम्हें प्रेमकी दृष्टि से देखते हैं और सौन्दर्य नहीं होता जितना कि व्यायामकी अवतुमसे सहानुभूति रखते हैं। उनकी सहायता स्थामें सम्भव है और फिर गृहस्थ में प्रवेश करते तुम्हारे लिए बड़ी बहुमूल्य है। इसी तरह तुम्हें ही क्या रोगोंका तारतम्य हमें और हमारे परिसंसारमें अच्छाई और बुराई दोनों मिलेंगी और वारोंको हैरान नही कर देता ? जवानी में शरीरोंयदि तुम दृढ़तापूर्वक अपने कामको किये जा- को घुन लग जाता है और क्या इसमें संदेह है ओगे, तो तुम्हें एक दिन अवश्य सफलता होगी। कि निर्बल शरीर हमें पापों और कुकर्मों की ओर ले दृढ़ता सब गुणोंकी खानि है । सफलताकी कुंजी जाता है ? उसमें संयमकी शक्ति नहीं होती। है। संसारमें जो लोगोंको इतनी असफलतायें इद्रियनिग्रह उससे कोसों दूर भागता है । पविहोती हैं, उनमें १०० पीछे ९० का कारण दृढ़- त्रात्मा उसके सामने दासकी भाँति झुक जाती ताक्षी कमी है। यद्यपि बहुतोंमें योग्यता होतीहै और है और मनुष्यकी सारी प्रकृतिको वह ऐसा परिव. योग्यताको काममें लानेका संकल्प भी होता है; तन कर देता है कि वह सूरत इन्सान किन्तु परन्तु दृढ़ता नहीं होती । एक काममें जी नहीं शरीर शैतान बन जाता है । राक्षसी वा आसुरी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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