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________________ अङ्क २] भद्रबाहु-संहिता। ५९ अथवा जरूरत बिना जरूरत उसे कुछ परिवर्तन बातोंको छोड़िए, और खास पहले पद्य नं. २४८ करके रक्खा हो। परन्तु कुछ भी हो इसमें संदेह के 'कुटुम्बयुक् ' पद पर ध्यान दीजिए, नहीं कि संहिताका उक्त वाक्य सैद्धान्तिक जिसका अर्थ होता है कि वह राजा कुटुम्बदृष्टिसे जैनधर्मके बिल्कुल विरुद्ध है। सहित नरक जाता है । क्यों ? कुटुम्बियोंने क्या कोई अपराध किया है जिसके लिए उन्हें अद्भुत न्याय। नरक भेजा जाय ? चाहे उन बेचारोंको राजाके (१२) पहले खंडके तीसरे अध्यायमें एक कृत्योंकी खबर तक भी न हो, वे उसके उन स्थान पर ये दो पद्य पाये जाते हैं: कार्यों में सहायक और अनुमोदक भी न हों और दंडोऽदंड्येषु देयस्तु यशोघ्नो दुरिताकरः । चाहे राजाके उस आचरणको बुरा ही समझते हों; परत्र नरकं याति दाता भूपः कुटुम्बयुक् ॥ २४८ ॥ परन्त फिर भी उन सबको नरक जाना होगा ! अदड्यदंडनं राजा कुर्वन्दंड्यानदंडयन् । यह कहाँका न्याय और इन्साफ है ! ! जैनधर्मकी लोके निन्दामवाप्नोति परत्र नरकं व्रजेत् ॥ २४९ ॥ कर्मफिलासोफीके अनुसार कुटुम्बका प्रत्येक ___ इन दोनों पद्योंमें निरपराधीको दंड देनेवाले व्यक्ति अपने ही कृत्योंका उत्तरदायी और राजाको और दूसरे पयमें अपराधीको छोड़ देने- अपने ही उपार्जन किये हए कर्मोंके फलका भोक्ता वाले-क्षमा कर देनेवाले-राजाको भी नरकका है। ऐसी हालतमें ऊपरका सिद्धान्त कदापि पात्र ठहराया है। लिखा है कि इस लोकमें जैनधर्मका सिद्धान्त नहीं हो सकता । अस्तु: उसकी निन्दा होती है-जो प्रायः सत्य है- इसी प्रकारका एक कथन दायभाग नामके और मरकर परलोकमें वह नरक गतिको जाता है अध्यायमें भी पाया जाता है । यथाः- . नरक गतिका यह फर्मान इस विषयका कोई " दत्तं चतुर्विधं द्रव्यं नैव गृह्णति चोत्तमाः। फाइनल आर्डर ( अन्तिम फैसला ) हो सकता है। अन्यथा सकुटुम्बास्ते प्रयान्ति नरकं ततः ॥७१ ॥ या नहीं ? अथवा यों कहिए कि वह नियमसे नरक गति जायगा या नहीं ? यह बात अभी इसमें लिखा है कि 'उत्तम पुरुष दिये हुए विवादास्पद है। जैनसिद्धान्तकी दृष्टिसे याद चार प्रकारके द्रव्यको वापिस नहीं लेते । और किसी निरपराधीको दंड मिल जाय अथवा कोई हो, यदि ऐसा करते हैं तो वे उसके कारण कुटुम्ब सहित नरकमें जाते हैं। ऐसे अटकलपच्चू और अपराधी दंडसे छूट जाय या छोड़ दिया जाय। तो सिर्फ इतने कृत्यसे ही कोई राजा नरकका - अव्यवस्थित वाक्य कदापि केवली या श्रुतकेवली. के वचन नहीं हो सकते । उनके वाक्य बहुत ही पात्र नहीं बन जाता । उसके लिए और भी अनेक बातोंकी जरूरत रहती है । परन्तु मनुका ऊँचे और तुले होने चाहिए । परन्तु ग्रन्थकर्ता ' इन्हें 'उपासकाध्ययन' से उद्धृत करके ऐसा विधान जरूर पाया जाता है । यथाः लिखना बयान करता है, जो द्वादशांगश्रुतका " अदंड्यान्दंडयन् राजा दंड्यांश्चैवाप्यदंडयन् । ... सातवाँ अंग कहलाता है ! पाठक सोचें,कि ग्रंथअयशो महदाप्नोति नरकं चैव गच्छति ॥ ८-१२८ ॥ कती महाशय कितने सत्यवक्ता है ! यह पद्य ऊपरके दूसरे पद्य नं २४९ से बहुत कुछ मिलता जुलता है; और दोनोंका विषय भी एक कन्याओं पर आपत्ति। है । आश्चर्य नहीं कि ऊपरका वह पद्य इसी पद्य (१३) दूसरे खंडके 'लक्षण' नामक परसे बनाया गया हो । परंतु इन सब प्रासंगिक ३७ वें अध्यायमें, स्त्रियोंके कुलक्षणोंका वर्णन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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