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________________ जैनहितैषी [ भाग १३ और न उसके द्वारा उनकी सद्गति आदि कोई दन्तधावनका फल नरक । दूसरा कल्याण हो सकता है। इस लिए संहिताका यह कथन जैनधर्मके विरुद्ध है। इसी प्रकार (११) संहिताके पहले अध्यायमें, दन्तधाकुल-देवताओंका तर्पण-विषयक कथन भी जैन- वनका वर्णन करते हुए, एक पद्य इस प्रकारसे धर्मके विरुद्ध है, जिसे ग्रंथकर्ताने इसी खंडके दिया हःपहले अध्यायमें दिया हैं। यथाः " सहस्रांशावनुदिते यः कुर्याद्दन्तधावनम् । " वामहस्तपयःपात्राजलमग्नकराजलौ। स पापी नरकं याति सर्वजीवदयातिगः ॥ ३८ ॥ कृत्वान्नममृतीकृत्य तर्पयेत्कुलदेवताः ॥ ९७ ॥ इसमें लिखा है कि 'जो मनुष्य सर्योदयसे 'ॐ ही ॐ वँ हूँ पयः इदमन्नममृतं भवतु स्वाहा। पहले दन्तधावन करता है वह पापी है, सर्व अन्नेन घृतीसक्तेन नमस्कारेण वै भुवि। जीवोंके प्रति निर्दयी है और नरक जायगा । त्रिस्र एवाहुतीदद्याद्भोजनादेः तु दक्षिणे ॥ ९८ ॥ परन्तु उसने पापका कौनसा विशेष कार्य किया ? यह कथन भोजन-समयका है-भोजनके लिए कैसे सर्व जीवोंके प्रति उसका निर्दयत्व प्रमागोबरका चतुष्कोणादि मंडल बनाकर बैठनेके । णित हुआ ? और जैनधर्मके किस सिद्धान्तके बादका यह विधान है-इसमें लिखा है कि अनुसार उसे नरक जाना होगा ? इन सब बातोंभोजनसे पहले, बायें हाथके जलपात्रसे अंजलिमें का उक्त पद्यसे कुछ भी बोध नहीं होता। आगे जल लेकर और उपर्युक्त मंत्र पढ़कर, अन्नका पीछेके पद्य भी इस विषयमें मौन हैं और कुछ अमृतीकरण करे । और फिर उस घृतमिश्रित अन्नसे कुल देवताओंका इस प्रकारसे तर्पण करे उत्तर नहीं देते । जैनसिद्धान्तोंको बहुत कुछ कि उस अन्नसे तीन आहुतियें दक्षिणकी ओर टट टटोला गया । कमफिलासोफीका बहुतेरा मथन पथ्वी पर छोडे ।। इसके बाद आपोऽशनका किया गया । परन्तु ऐसा कोई सिद्धान्त-कर्म विधान है। अस्तु; यह सब कथन भी हिन्दूधर्मका प्रवृत्तिका कोई नियम-मेरे देखनेमें नहीं आया कथन है और उन्हींके धर्मग्रंथोंसे लिया गया जिससे बेचारे प्रातःकाल उठकर दन्तधावन मालूम होता है । जैनसिद्धान्तके अनुसार तर्प के अनुसार तप करनेवालेको नरक भेजा जाय । हाँ, इस ढूँड़ णका अन्नजल पितरों तथा देवताओंको नहीं खोजमें, स्मृतिरत्नाकरसे, हिन्दूधर्मका एक पहुँच सकता और न उससे उनकी कोई तृप्ति होती है । हिन्दूधर्ममें तर्पणका कैसा सिद्धान्त वाक्य जरूर मिला है, जिसमें उपवासके दिन है ? कैसी कैसी विचित्र कल्पनायें हैं ? जैनधर्मके दन्तधावन करनेवालेको नरककी कड़ी सजा सिद्धान्तोंसे उनका कहाँतक मेल है ? वे कितनी दी गई है । और इतने पर भी संतोष नहीं किया असंगत और विभिन्न हैं ? और किस प्रकारसे गया बल्कि उसे चारों युगोंमें व्याघ्रका शिकार कळ कपट-वेषधारी निर्बल आत्माओंने उन्हें भी बनाया गया है । यथाःजैनसमाजमें प्रचलित करना चाहा है ? इन सब " उपवासदिने राजन् दन्तधावनकृन्नरः। . . बातोंका कुछ विशेष परिचय पानेके लिए स घोरं नरकं याति व्याघ्रभक्षश्चतुर्युगम् ।। पाठकोंको 'जिनसेन-त्रिवर्णाचार' की परीक्षाका लेख देखना चाहिए ! -इति नारदः। १ यह लेख जैनहितैषीकी १० वें वर्षकी फायलमें बहुत संभव है कि ग्रंथकर्ताने हिन्दूधर्मके छपा है। किसी ऐसे ही वाक्यका अनुसरण किया हो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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