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________________ जैनहितैषी [भाग १३ करते हुए, लिखा है कि जिस कन्याका नाम कूटोपदेश और मायाजाल । किसी नदी-देवी-कुल-आम्नाय-तीर्थ या वृक्षके (१४ ) तीसरे खंडके 'प्रतिष्ठा-क्रम' नामक नाम पर होवे उसका मुख नहीं देखना चाहिए। दूसरे अध्यायमें, गुरुके उपदेशानुसार कार्य करनेयथाः का विधान करते हुए, लिखा है कि:--- .. " नदीदेवीकुलाम्नायतीर्थवृक्षसुनामतः “ यो न मन्यत तद्वाक्यं सो मन्येत न चाहतम् । एतन्नामा च या कन्या तन्मुखं नावलोकयेत्॥१२०॥" जैनधर्मबहिर्भतः प्राप्नयान्नारकी गति ॥ ८८॥" यह वचन कितना निष्ठुर है ! कितना धर्म अर्थात्-जो गुरुके वचनको नहीं मानता वह शन्य है ! और इसके द्वारा कन्याओं पर कितनी अर्हन्तके वचनोंको नहीं मानता । उसे जैनधर्मसे आपत्ति डालनेका आयोजन किया गया है, बहिर्भत समझना चाहिए और वह मरकर नरक इसका विचार पाठक स्वयं कर सकते हैं । सम- गतिको प्राप्त होगा। नरक गतिका यह फर्मान भी झमें नहीं आता कि किस आधार पर यह आज्ञा बडा ही विलक्षण है! इसके अनुसार जो प्रचारित की गई है ? और लक्षण-शास्त्रसे इस लोग जैनधर्मसे बहिर्भूत है अर्थात् अजैनी. कथनका क्या सम्बंध है ! क्या पैदा होते समय हैं उन सबको नरक जाना पडेगा ! कन्याके मस्तकादिक किसी अंग विशेष साथ ही, जो जैनी है और जैनगरुके-पदवीधारी पर उसका कोई नाम खुदा हुआ होता है जिससे गुरुके-उलटे सीधे सभी वचनोंको नहीं मानतेअशुभ या शुभ नामके कारण वह भयं- किसीको मान लेते हैं और किसीको अमान्य करी समझली जाय ? और लोगोंको उससे अपना कर देते हैं-उन सबको भी नरक जाना होगा! मुँह छिपाने, आँखें बन्द करने या उसे कहीं कैसा कूटोपदेश है! स्वार्थ-रक्षाकी कैसी विचित्र प्रवासित करनेकी जरूरत पैदा हो ? जब ऐसा युक्ति है ! समाजमें कितनी अन्धश्रद्धा फैलानेकुछ भी न होकर स्वयं मातापिताओंके द्वारा वाला है ! धर्मगुरुओं-स्वार्थसाधुओं-कपट वेष अपनी इच्छानुसार कन्याओंका नाम रक्खा जाता धारियों के अन्याय और अत्याचारका कितना है तो फिर उसमें उन बेचारी अबलाओंका क्या उत्पादक और पोषक है। साथ ही, जैनियोंके दोष है जिससे वे अदर्शनीय और अनवलोकनीय तत्त्वार्थसत्र में दिये हुए नरकायुके कारण विषसमझी जायँ ? जिन पाठकोंको उस कपटी यक सूत्रसे-'बहारंभपरिग्रहत्वं नारकस्यासाधुका उपाख्यान याद है, जिसने अपनी स्वार्थ- युषः' इस वाक्यसे-इसका कहाँ तक सम्बंध है? सिद्धिके लिए-अपनी पाशविक इच्छाको पूरा इन सब बातोंको विज्ञ-पाठक विचार सकते हैं। करनेके आभिप्रायसे-एक सर्वांग सुन्दरी कन्याको समझमें नहीं आता कि जैनगुरुके किसी वचनको कुलक्षणा और अदर्शनीया कह कर उसे उसके न माननेसे ही किस प्रकार कोई जैनी अर्हन्तके पिता द्वारा मंजूषमें बन्द कराकर नदीमें बहाया वचनोंको माननेवाला नहीं रहता? क्या सभी था, वे इस बातका अनुभव कर सकते हैं कि समय जैनगुरु पूर्णज्ञानी और वीतराग होते हैं! क्या समय पर इस प्रकारके निराधार और निर्हेतुक उनमें कोई स्वार्थसाधु, कपट-वेषधारी, निर्बवचन ऐसे ही स्वार्थसाधुओं द्वारा भूमंडल पर लात्मा और कदाचारी नहीं होता ? और क्या प्रचारित हुए हैं। मनुष्योंको विवेकसे काम लेना जिन गुरुओंके कृत्योंकी यह समालोचना (परीक्षा) चाहिए और किसीके कहने सुनने या धोखेमें हो रही है वे जैनगुरु नहीं थे ? यदि ऐसा कोई नहीं आना चाहिए। नियम नहीं है बल्कि वे अल्पज्ञानी, रागी, देषी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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