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________________ अङ्क १] भाग्यचका ही व्यर्थ है।" घरको बेचनसे पायेहुए धनद्वारा एक कुटी नहीं भेजा जायगा, तो जमींदारको फिर दण्डबनवाली और उसमें रहने लगे। किन्तु अपरि- दिया जायगा, या उनकी जमींदारी निकल जाचित होने के कारण उनके भाग्यसे कोई नौकरी यगी । इस लिए इसकी बड़ी आवश्यकता है कि नहीं मिली। वे जहाँ जाते थे वहीं जमानत किसी आसामीको तैयार करके चालान कर दिया माँगी जाती थी । अजान पुरुषकी जमानत जाय । जो कोई तैयार होगा, उसको भी कुछ कौन दे ? अपने घरको बेचकर जो दाम दमड़े अधिक भयकी बात नहीं है । क्योंकि चोरी लाये थे वे प्रायः सब पूरे हो चुके थे । ऐसी केवल सामान्य वर्तनोंकी है जिसके लिए ज्यादासे दशामें रामेश्वरने एक दिन गाँवके नायबसे ज्यादा महीने भर तककी जेल हो सकती है, अपनी दीनताका हाल कहकर एक सिपहगीरीकी अधिककी नहीं। किसी रोजगारके लिए विनौकरीकी प्रार्थना की । नायब बोला, “ अभी देश जानेहीमें कभी कभी महीने भरसे अधिक कोई जगह तो खाली नहीं हैकिन्तु इस समय समय लग जाता है । यह भी वैसा ही हिसाब है पैसा कमानेकी एक और सूरत है। कल तुम्हारी और फिर विदेश जाकर एक महीनेमें जितना स्त्री मेरे घर गई थी। मैंने उसे भी वह बात बत- धन कमाया जा सकता है, इसमें उससे दसगुनेका लाई थी; किन्तु उसको सुनते ही वह बिगड़ उठी। मीजान है । जमींदारने कहा है कि जो आसामी शायद तुम भी बिगड़ उठोगे और वह काम जानेको तैयार होगा, उसको पचास रुपये मिलेंगे। है भी कठिन । इसलिए तुमको उसका बतलाना इस लिए यह भी धन कमानेकी एक राह है। इसके सिवाय जब तुम जेलसे छूट आओगे, तब __ रामेश्वरने कहा-“पेटकी आगके सामने मेरे तुम्हें कोई सरकारी नौकरी भी दिला दी लिए सब कुछ साध्य है। स्त्रियोंकी समझमें तो जायगी।" सबही कार्य बे-ठीक अँचते हैं । आप मुझसे नायबकी इस बातको सुनते ही रामेश्वर कहें तो मैं उस पर विचार करूँ।" अपनी पहली चोरीको याद करके पीला होगया नायबने कहा, "अच्छा, सुनो। कोई दो महीने और सोचने लगा कि शायद ईश्वरने मेरे भाग्यमें हुए इस गाँवमें एक स्त्री मार डाली गई थी; किन्तु जेलखाना ही लिख रक्खा है; नहीं तो मैं उस इस बातका पता अभी तक नहीं चला कि दिन वे थोड़ेसे पैसे चुराता ही क्यों ? जब उस हत्या करनेवाला कौन है। दारोगाने बड़ी तहकी- पापका प्रायश्चित्त अवश्य ही करना पड़ेगा, कात की और मैंने भी चेष्टा की, किन्तु कुछ भी तब दो दिनके आगे पीछेका विचार क्या सफलता नहीं हुई। पता न लग सकनेके कारण किया जाय ! स्वयं ही जेल जाकर उस पापका माजिस्ट्रेट साहबने रुष्ट होकर हमारी लापरवाही प्रायश्चित्त क्यों न कर डालूं? मैं जब अपने आप समझी और जमींदारको दण्ड दिया। उसके बाद ही प्रायश्चित्त कर लूँगा तब क्या भगवान् प्रसन्न अब इस गावमें एक चोरी होगई है । पर उसका नहीं होंगे ? और यह जो अन्नका दारिद्र्य सिर भी अभीतक कुछ भेद नहीं खुला है। दारोगाको पर चढ़ा हुआ है इसको हटानेका और कोई एक मनुष्य पर सन्देह हुआ था; किन्तु वह भाग दूसरा उपाय भी तो नहीं है। गया । उसका न अबतक कुछ पता लगा है रामेश्वरने कहा, "मैं राजी हूँ, तुम मेरे पचास और न शीघ्र लगनेकी आशा ही है। यदि शीघ्र ही रुपये मुझको दे दो।" नायब उसी समय रुपये किसीको अपराधी ठहराकर मजिस्ट्रेटके पास देकर बोला- “ एक बात यह भी है कि जब Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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