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________________ भद्रबाहु -संहिता । अङ्क २ ] ६९ 1 दूसरे दिन संघके सुखके लिए शांतिविधानपूर्वक (वही विधान जिसका पहले उल्लेख किया है) 'महामह' नामका बड़ा पूजन करना चाहिए । इसके बाद • बाहर से आये हुए दूसरे आचार्योंको अपने अपने गणसहित इस नये आचार्यको ( मंडलाचार्य या आचार्य चक्रवर्तीको ! ) वन्दना करके स्वदेशको चले जाना चाहिए । संघके किसी भी व्यक्तिको - इस नव प्रतिष्ठित आचार्यकी कभी निन्दा नहीं करनी चाहिए और न उससे नाराज ही होना चाहिए ( चाहे वह कैसा ही निन्दनीय और नाराजीका काम क्यों न करे ! ) । " * ! लिए ऐसे कृत्योंकी कोई विधि हो सकती है ? कभी नहीं । जिन लोगों को जैनधर्मके स्वरूपका कुछ भी परिचय है और जिन्होंने जैनधर्मके मूलाचार आदि यत्याचार विषयक ग्रंथोंका कुछ अध्ययन किया है वे ऊपर के इस विधि - विधानको देखकर एकदम कह उठेंगे कि 'यह कदापि जैनधर्मके निर्ग्रथ आचार्योंकी प्रतिष्ठाविधि नहीं हो सकती' - निर्ग्रथ मुनियोंका इस विधानसे कोई सम्बंध नहीं हो सकता - वास्तवमें यह सब उन महात्माओंकी लीला है जिन्हें हम आज कल आधुनिक भट्टारक, शिथिलाचारी साधु या श्रमणा भास आदि नामों से पुकार हैं। ऐसे लोगोंने समाजमें अपना सिक्का चलानेके लिए, अपनेको तीर्थकरके तुल्य पूज्य मनानेके लिए और अपनी स्वार्थसाधना के लिए जैनधर्मकी कीर्तिको बहुत कुछ कलंक और मलिन किया है; उसके वास्तविक स्वरूपको छिपाकर उस पर मनमाने तरह तरहके रंगों के खोल चढ़ाये हैं; वही सब खोल बाह्य दृष्टिसे देखनेवाले साधारण जगत्‌को दिखलाई देते हैं और उन्हींको साधारण जनता जैनधर्मका वास्तविक रूप समझकर धोखा खा रही है । । इसी लिए आज जैनसमाजमें भी घोर अंधकार फैला हुआ है, जिसके दूर करनेके लिए सातिशय प्रयत्नकी जरूरत है । पाठक, देखा, कैसा विचित्र विधान है 'स्वार्थ साधनाका कैसा प्रबल अनुष्ठान है ! जैनधर्मकी शिक्षासे इसका कहाँ तक सम्बंध है जैनमहामुनियोंकी - आरंभ और परिग्रहके त्यागी महाव्रतियोंकी— पैसा तक पास न रखनेवाले तपस्वियोंकी—कैसी मिट्टी पलीद की गई है !! क्या जौनयोंके आचारांग-सूत्रों में निर्ग्रथ साधुओंके ! । १२ तत्तो विर्दिए दिवसे महामहं संतिवायणाजुत्तं । .. भूयवलिं गहसंति करिजए संघसोखत्थं ॥ १३ सगसगगणेण जुत्ता,आयरिया जह कमेण वंदित्ता लहुवा जंति सदेसं परिकलिय सूरिसूरेण ॥ १४ सो पठदि सव्वसत्थं दिक्खा विज्जाइ धम्म बहत्थं • गहु दिदि गहु रूसदि संघो सव्त्रो विसव्वत्थ ॥ * जिस अध्यायका यह सब कथन है उसके आदि और अन्तमें दोनों ही जगह भद्रबाहुका नाम भी लगा हुआ है । शुरूके पद्यमें यह सूचित किया है कि — गुप्तिगुप्त' नामके मुनिराज के प्रश्न पर भद्रबाहु स्वामीजीने इस अध्यायका प्रणयन किया है । और अन्तिम पद्य में लिखा है कि ' इस प्रकार परमार्थके प्ररूपणमें महा तेजस्वी भद्रबाहु जिनके सहायक होते हैं वे धन्य हैं और पूरे पुण्याधिकारी हैं । यथाः— <c सिरिभद्रबाहुसा मिं णमसित्ता गुप्तिगुत्तमुणिणाहिं । परिपुच्छियं पत्थं अहं पइलावणं जइणो ॥ ३ ॥ इय भद्रबाहुसूरी परमत्थपरूवणे महातेओ । जेर्सि होइ समत्थो ते धण्णा पुण्णपुण्णा य ॥ ८० ॥ " "" Jain Education International दिगम्बर मुनियों पर कोप । यमें दो पद्य इस प्रकारसे दिये हैं:( २० ) तीसरे खंडके इसी सातवें अध्या (c भरहे दूसमसमये संघकमं मेल्लिऊण जो मूढो । सवणो संघवाहिरओ ॥ ५ ॥ * परिवहइ दिगविरओ * इस पद्यकी संस्कृतटीका इस प्रकार दी हैः' भरते दुःषमसमये पंचमकाले संघक्रमं मेलयित्वा यो मूढः परिवर्तते परिभ्रमति चतुर्दिक्षु विरतः विरतः सन् दिगम्बरः सन् स्वेच्छया भ्रमति स श्रमणः संघबाह्यः । "" For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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