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जैनहितैषी
[भाग १३
अभिषेकादि क्रियाओंका व्याख्यान और अनु- कलशे पानी और अनेक ओषधियोंसे भरे हुए होने ष्ठान भी हुआ करे । जिस दिन आचार्य-पदकी चाहिए । और चार ही सिंहासन होना चाहिए । प्रतिष्ठा की जाय उस दिन एकान्तमें सारस्वत सिंहासन सोना, रूपा, ताम्बा, काष्ठ और पाषाण, युक्त आचारांगकी एक बार संघसहित और इनमेंसे चाहे किसी चीजके बने हुए हों सब दूसरी बार, अपने वर्गसहित, पूजा करनी आचार्य-प्रतिष्ठाके योग्य हैं, बल्कि यदि वे खूब चाहिए । यदि वह मनुष्य (मुनि), जो अच्छी तरहसे सजे हुए और जड़ाऊ भी हों तो भी आचार्य पद पर नियुक्त किया जाय, दूसरे शुद्ध और ग्राह्य हैं । एक सिंहासनके नीचे आउ गणधरका शिष्य हो तो उसका केशलोच पखड़ीका कमल भी चावलोंसे बनाना चाहिए।
और आलोचनापूर्वक नामकरण संस्कार भी ईसके बाद वह भावी आचार्य, यंत्रकी पूजा-प्रद होना चाहिए । बारह दिन तक दीनोंको दान क्षिणा करके; सिंहासन पर कलश डालकर और बाँटा जाय और युवतीजन भक्तिपूर्वक मंगल अपने गुरुसे पूछकर उस सिंहासन पर बैठे । बैठ गीत गावें । आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होनेवाले जाने पर पूर्वाचार्यों के नाम लेकर स्तुति करे । इसके उस मनुष्यको चाहिए कि बारह दिन तक ऐसा बाद एक इन्द्र उस आचार्यके सन्मुख बाँचने के कोई शब्द न कहे जिससे संघमें मत्सर-भाव लिए सिद्धान्तादि शास्त्र रक्खे और फिर संपूर्ण संघ उत्पन्न हो जाय ( काम बन जाने पर पीछेसे उसे वंदना करके इस बातकी घोषणा करे कि भले ही कहले ! ) । मुनियोंके इस उत्सवमें 'यह गुरु जिनेंद्र के समान हमारा स्वामी नाचने-गानेका भी विधान किया गया है, जिसके है। धर्मके लिए यह जो कुछ करायगा लिए बारह पुरुषों और उनकी बारह स्त्रियोंको (चाहे वह कैसा ही अनुचित कार्य क्यों न चाहिए कि वे खूब सजधज कर-इंद्र-इंद्राणियोंका हो?) उसको जो कोई मुनि-आर्यिका या रूप बनाकर-और अपने सिरों पर कलशे रखकर श्रावक नहीं मानेगा वह संघसे बाहिर भावी आचार्यके सन्मुख नाचे, गावें और पाठ समझा जायगा। इस घोषणाके बाद मोतिपढे । इसके बाद वे सब इंद्र-इंद्राणियाँ मंडलको योंकी माला तथा उत्तम वस्त्रादिकसे शास्त्रकी नमस्कार करें और दक्षिण औरके मंगल द्रव्यको और गुरुके चरणोंकी पूजा करनी चाहिए ! प्राप्त होकर तथा सात धान्योंको छूकर एक मंत्रका
७ सीहासणं पसत्थं भम्मारमुरूप्पकठपाहणयं । जाप्य करें । स्नानके लिए चाँदी-सोनेके रंगके चार
आयरियठवणजोगं विसेसदो भुसियं सुद्ध । ३ वासरबारस जावदु दणिजणाणं च दिज्जए दाणं ८ तस्सतले वरपउमं अदलं सालितंदुलोक्किणं । गायइ मंगलगीयं जुबइजणो भत्तिराएण ॥
मज्झे मायापत्ते तलपिंडं चारु सव्वत्थ ।। ४ जण वयणेण संघो समच्छरो होह तं पुणो वयणं । ९ पच्छा पुज्जिवि जंतं तिय पाहिण दहि सिंहपीठस्स। बारसदिवसं जावदु वज्जियदव्वं अपमत्तण ॥
कुंभिय पायाणो स गणं परिपुच्छिय विउसउतं पीठे ॥ ५ बारस इंदा रम्मा तावदिया चेव तेसिमवलाओ। १. तो वंदिऊण संघो विच्छा किरयाए चारुभावेण । ण्हाणादिसुद्धदेहा रत्तंभरमउडकतसोहा ॥
आघोसदि एस गुरू जिणुब्ध अम्हाण सामीय ।। पंडिक्खुदंडहत्था इंदाइंदायणीउ सिरकलसा। जं कारदि एस गुरू धम्मत्थं तं जो ण मण्णोदि। आयरियस्स पुरत्था पढंति णाचंति गायति॥ सो सवणो, अज्जा वा सावय वा संघवाहिरओ ।। ६ कलसाई चारि रूप्पय-हेमय-वण्णाई तोयभरियाई। ११ एवं संघोसित्ता मुत्तामालादिदिव्ववत्थेहिं । दिव्वोसहिजुत्ताई पयोहवणे हांति इत्य जोगाई॥ पोत्थयपूयं किच्चा तदोपरं पायपूया य ॥
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