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________________ अङ्क २] भद्रबाहु-संहिता। ६७ तं कृत्स्नमपि सोत्साहो बुधः सप्त दिनानि वा। इस शांतिविधानका इतना महच्च क्यों वर्णन यद्वैकविंशतिं कुर्याद्यावदिष्टप्रसिद्धिता ।। १०३ ॥ किया गया ? क्यों इसके अनुष्ठानकी इतनी साध्यः सप्त गुणोपेतः समस्तगुणशालिनः। अधिक प्रेरणा की गई ! आडम्बरके सिवाय इसमें शांतिहोमदिनेष्वेषु सर्वेष्वप्यतिथीन् यतीन् ॥ १०४॥ मोबास कोई वास्तविक गुण है भी या कि नहीं ? इन क्षीरेण सर्पिषा दना सूपखंडसितागुडैः । संब बातोंको तो ग्रंथकर्ता महाशय या केवली व्यंजनैर्विविधैर्भक्ष्यैः लड्डुकापूरिकादिभिः ॥ १०५ ॥ भगवान ही जानें ! परन्तु सहृदय पाठकोंको, इस स्वादुभिश्वोचमोचाम्रफनसादिफलैरपि। उपेतं भोजयेन्मृष्टं शुद्धं शाल्यन्नमादरात् ॥ १०६ ॥ संपूर्ण कथनसे, इतना जरूर मालूम हो जायगा क्षान्तिभ्यः श्रावकेभ्यश्च श्राविकाभ्यश्च सादरः। कि इस विधानमें, जैनधर्मकी शिक्षाके विरुद्ध वितरेदोदनं योग्यं विदद्याच्चाम्बरादिकं ।। १०७ ॥ कथनोंको छोड़कर, कपटी और लोभी गुरुओंकी कुमाराँश्च कुमारीश्च चतुर्विशतिसम्मितान्। स्वार्थ-साधनाका बहुत कुछ तत्त्व छिपा हुआ है। भोजयेदनुवर्तेत दीनानथजनानपि ॥ १०८॥" आचार्यपद-प्रतिष्ठा। ___ इनमें लिखा है कि:- इस प्रकार तीनों संध्याओं और अर्धरात्रिके समयकी, स्नानसे (१९) इस ग्रंथके तीसरे खंड सम्बन्धी लेकर होम पर्यंतकी, जो यह विधि कही सातवें अध्यायमें, दीक्षा-लग्नका निरूपण करनेके गई है वह उत्साह पूर्वक सात दिन तक बाद, आचार्य-पदकी प्रतिष्ठा-विधिका जो वर्णन या २१ दिन तक अथवा जब तक साध्यकी दिया है उसका सार इस प्रकार है । फुट नोटसिद्धि न हो तब तक करनी चाहिए । और समें कुछ पोंका नमूना भी दिया जाता है:इन संपूर्ण दिवसोंमें शांति करानेवालेको “जिस नगर या ग्राममें आचार्य पदकी चाहिए कि अतिथियों तथा मुनियोंको केला प्रतिष्ठा-विधि की जाय वह सिर्फ निर्मल और साफ आम्रादि अनेक रसीले फलोंके सिवाय दूध, ही नहीं बल्कि राजाके संघसे भी युक्त होना दही, घी, मिठाई तथा लड्डू, पूरी आदि खूब चाहिए । इस विधानके लिए प्रासुक भूमि पर स्वादिष्ट और तर माल खिलावे । मुनि-आर्यिका- सौ हाथ परिमाणका एक क्षेत्र मण्डपके लिए ठीक ओं, श्रावक-श्राविकाओंको चावल वितरण करे करना चाहिए और उसमें दो वेदी बनानी चाहितथा वस्त्रादिक देवे। और २४ कुमार-कुमा- ये। पहली वेदीमें पाँच रंगोंके चूर्णसे 'गणधर. रियोंको जिमानेके बाद दीनों तथा दूसरे मनु- वलय' नामका मंडल बनाया जाय; और ष्योंको भी भोजन करावे।' इस तरह पर यह दूसरी वेदीमें शांतिमंडलकी महिमा सब शांतिहोमका विधान है जिसकी महिमाका करके चक्रको ' नाना प्रकारके धृत-दुग्धादिऊपर उल्लेख किया गया है। विपुल धन-साध्य होने मिश्रित भोजनोंसे संतुष्ट किया जाय । संतुष्ट पर भी ग्रंथकर्ताने छोटे छोटे कार्योंके लिए भी करनेकी यह क्रिया उत्कृष्ट १२ दिन तक जारी इसका प्रयोग करना बतलाया है । बल्कि यहाँ रहनी चाहिए । और उस समय तक वहाँ प्रति तक लिखा दिया है कि जो कोई भी अशुभ हो दिन कोई योगीजन शास्त्र वाँचा करे । साथ ही नहारका सूचक चिह्न दिखलाई दे उस सबकी १ कायव्वं तत्थ पुणो गणहरवलयस्स पंचक्ण्पेण । शांतिके लिए यह विधान करना चाहिए। यथाः- चुण्णेणय कायव्वं उद्धरणं चाह सोहिलं ।। “यो यो भूद्रापको (?) हेतुरशुभस्य भविष्यतः। २ दुइजम्मि संति मंडलमाहमा काऊण पुप्फधूवेहिं । शांतिहोमममुं कुर्यात्तत्र तत्र यथाविधि ॥ ११४ ॥ गणाविभक्खेहिं य करिज्जपरितोनियं चकं ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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