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अह२]
पतितोंकी पुकार।
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जबलपुरके सिंगई भोलानाथ कस्तूरचन्दजीका जब ऐसे ऐसे कामों में ही इनकी उदारता इस वहाँके हितकारिणी हाईस्कूलको दिया हुआ २५ प्रकार सीमाबद्ध होने लगी है, तब अन्य हजार रुपयोंका दान आदि । परन्तु बुरा माननेकी स्वार्थ-त्यागके कामोंमें वह कितना स्थान पायेगी, बात नहीं; पाठक तनिक विचार देखें, कि उपर्युक्त इस बातकी कल्पना पाठक ही करलें । कार्य जैन-भारतकी रिपोर्टमें कितना स्थान घेरते जैन भाइयो ! अपने आदर्श, विचार, शिक्षा हैं। निदान सत्यके नाते यह मानना ही पड़ेगा कि और उदारताको यों संकुचित रखनेसे कब तक जैन बन्धुओंका भारतके सार्वजनिक कामोंमें बहुत गुजारा होगा ? सुनते नहीं यह बीसवीं शताब्दि थोड़ा-प्रायः नहींके बराबर-भाग है । वे यदि जोरोंसे कह रही है-“ उठो, सुधरो, नहीं तो उन्नतिके स्वप्न देखते हैं तो केवल जैन-समाज- तुम्हारा कल्याण नहीं ! ! जैनभारत, सोच समझ के भीतर और उन्नति करना चाहते हैं तो जैन और देख तेरी गति किधरको है ! तेरा धर्म एक क्षेत्रके अन्दर । मानों, वे एक ऐसी चार दीवा- स्वतंत्र धर्म है, तो क्या वह तुझे हिन्दू शरीरके रीमें सुरक्षित विराजमान हैं, जिसमें बाहरकी साथ हिल-मिलकर कार्य सम्पादन करनेका वायु प्रवेश ही नहीं कर पायगी और उसकी निषेध करता है ? नहीं-होशमें आ, निद्रा त्याग सुगंध या दुर्गन्धकी पहुँच ही उन तक न होगी। और अपने उत्तरदायित्वको पहिचान ।” जैनभाई समझते हैं कि बाहरके सुधार बिगाड़से उनका कुछ बनता बिगड़ता नहीं । उन्हें तीन लोकसे न्यारी केवल अपनी ही जैन 'मथुरा' की पतितोंकी पुकार । चिन्ता है । कैसी दयाजनक स्थिति है कि यदि ये महाशय किसी कर्मवीर या देशभक्तको आभिमान करने योग्य समझ सकते हैं, तो
[ ले०, बाबू मोतीलालजी जैन बी. ए. ।] वह जैन ही होना चाहिए । हिन्दू जातिमें अन्य निशि-दिन हम क्या यों दुःख पाते रहेंगे ? अनेक प्रशंसा पात्रोंका होना न होना
हत दिवस हमारे क्या कभी भी फिरेंगे? . इनके लिए बराबर है। केवल धार्मिक बातोंमें ही
'यह दुख हमसे तो यों सहा है न जाता, नहीं, अन्य विषयोंमें भी ये अपनेको सबसे
अहह ! यह हमारा है कलेजा जलाता ॥१॥
क्षण क्षण कटता है आपदामें हमारा, अलग रखना चाहते हैं । यदि ये काव्यों या
__ अतिशय बहती है नेत्रसे वारिधारा । नाटकोंके आनन्दामृतका पान करना चाहते हैं तो
निशि-दिवस हमें तो काट्ने दौड़ते हैं, कालीदास, भवभूति प्रभृतिके प्रकृति-प्रेमियोंके
बस हम अपनी तो मृत्यु ही चाहते हैं ॥२॥ द्वार इनके लिए बंद हैं । क्यो ? बस इसी लिए
नर अधम हमारे तुल्य कोई न होगा, कि उन्होंने जैनधर्मकी दीक्षा नहीं ली थी । इसी
पद-दलित भला यो धूलि-सा कौन होगा ? प्रकार यदि ये महाशय वैद्यकशास्त्र अध्ययन करना हम सब अपनी जो वेदनायें सुना दें, चाहेंगे,तो सम्भवतः चरक-सुश्रुतके ग्रन्थ तो 'जैन हम सच कहते हैं पत्थरोंको रुला दें ॥ ३ ॥ नहीं' की छाप होनेसे इनके पाठ्यक्रममें ही कुछ सुख हमने तो जन्म लेके न पाया, स्थान न पावेंगे । सुनते हैं इनकी संस्थाओंमें बहु दुख हमने है व्यग्र हो हो उठाया। इतिहास तो पढ़ाया ही नहीं जाता है। क्योंकि प्रति पल हमको है हो रहा कष्ट भारी, जैनइतिहास अभी तक कोई लिखा ही नहीं गया। अब कुमति मला क्या और होगी हमारी ! ॥४॥
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