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________________ हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः । तेरहवाँ भाग। अंक २ जैनहितैषी। फाल्गुन, २४४३. फरवरी, १९१७. نقیب न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी। बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी हितैषी ॥ भद्रबाहु-संहिता। किया जा चुका है। इस लिए आज इस ले खमें, फलादेश-सम्बंधी सूक्ष्म विचारोंको छोड़ग्रन्थ-परीक्षा-लेखमालाका चतुर्थ लेख । " ख। कर, बहुत मोटेरूपसे विरुद्ध कथनोंका दिग्द ___ र्शन कराया जाता है। जिससे और भी जैनिले० श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार। योंकी कुछ थोड़ी बहुत आँखें खुलें, उनका (३) साम्प्रदायिक मोह टूटे और उनकी अंधी ___ इस ग्रंथमें निमित्त और ज्योतिष आदि श्रधा दूर होकर उनमें सदसद्विवेकवती बुद्धिका संबंधी फलादेशका जो कुछ वर्णन है यदि उस विकास हो सके:सब पर बारीकीके साथ-सूक्ष्म-दृष्टिसे-विचार पूर्वापर विरुद्ध। किया जाय और उसे सिद्धान्तसे मीलान करके (१) पहले खंडके तीसरे अध्यायमें, दंडके दिखलाया जाय, तो इसमें संदेह नहीं, कि स्वरूपका वर्णन करते हुए, लिखा है कि:विरुद्ध कथनोंके ढेरके ढेर लग जाय । परन्तु "हा-मा-धिक्कारभेदश्च वाग्दंडः प्रथमो मतः। जैन समाज अभी इतने बारीक तथा सूक्ष्म द्वितीयो धनदंडश्च देहदंडस्तृतीयकः ॥ २४२॥ विचारोंको सुनने और समझनेके लिए तैयार र तुरीयो ज्ञातिदंडश्च देयाः कृत्यानुसारतः। नहीं है, और न एक ऐसे ग्रंथके लिए इतना दोषानुसारतश्चैव चतुर्वर्णेभ्य एव च ॥ २४३॥ अधिक प्रयास और परिश्रम करनेकी कोई जरू- आप्तश्रीआदिदेवेन प्रथमो दंड उध्दतः। रत है, जो पिछले लेखों द्वारा बहुत स्पष्ट शब्दोंमें वासुपूज्यो द्वितीयं च तृतीयं षोडशस्तथा ॥२४४॥ विक्रम संवत् १६५७ और १६६५ के मध्य- तुरीयं वर्धमानस्तु प्रोक्तवानद्य पंचमे । वर्ती समयका बना हुआ ही नहीं बल्कि इधर काले दोषानुसारेण दीयते सर्वभूमिपैः ॥२४५ ॥ उधरके प्रकरणोंका एक बढंगा संग्रह भी सिद्ध अर्थात्-दंड चार प्रकारका होता है । पहला ७-८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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