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________________ अङ्क २] भद्रबाहु-संहिता। विधान है ? यह बतला देना जरूरी है। और एक ही प्रकारका दंड-विधान करना जैनधर्मकी वह इस प्रकार है: दृष्टिके अनुकूल प्रतीत नहीं होता। " रेतोमूत्रपुरीषाणि मद्यमांसमधूनि च । प्रायश्चित्त या अन्याय। अभक्ष्यं भक्षयेत्षष्ठं दर्पतश्च द्विषट् क्षमाः ॥१४७॥ (८) इसी प्रायश्चित्ताध्यायमें गृहस्थों के लिए । इसमें दर्पसे मद्य, मांस और मधुके सेवनका बहुतसा ऐसा दंड-विधान भी पाया जाता है जो प्रायश्चित्त बारह उपवास प्रमाण बतलाया है और आकस्मिक घटनाओंसे होनेवाली मृत्युओंसें प्रमादसे उनका सेवन होनम षष्ठ नामका सम्बंध रखता है। जैसे साँप बिच्छू आदिसे डसा प्रायश्चित्त तजवीज किया है, जो तीन उपवास जाना, व्याघ आदिसे भक्षित होना, वृक्ष या पकान प्रमाण होता है। परसे गिरजाना, मार्गमें जाते हुए ठोकर खाकर सबके लिए एक ही दंड। गिर पड़ना, वज्रपातका होना, सींगवाले पशुका (७) उक्त 'प्रायश्चित्त' नामके अध्याय में सींग लग जाना और स्त्रीके प्रसवका होना ब्रह्महत्या, गोहत्या, स्त्रीहत्या, बालहत्या और आदि । इन सब कारणोंमेंसे किसी भी कारणसे सामान्य मनुष्यहत्या, इन सब हत्याओंमेंसे प्रत्येक जो आकस्मिक मृत्यु होती है उसके लिए यह हत्या करनेवालेके लिए एक ही प्रकारका दंड तज दंड-विधान किया गया है:वीज किया गया है। यथाः __" प्रायश्चित्तं-उपवासाः ५, एकभक्तानि विंशतिः २०, कलशाभिषेकद्वयं २, पंचामृताभिषकाः ५, ल'ब्रह्महत्या-गोहत्या स्त्रीहत्या बालहत्या-सामान्य- ध्वभिषेकाः पंचविंशतिः, आहारदानानि चत्वारिंशत, मनुष्यहत्यादि,-करणे प्रायश्चित्तं उपवासाः त्रिंशत् ३०, गावी द्वे २, गंधपला १०, पुष्पसहस्र १०००, संघ. . एकभक्कानि पंचाशत् ५०, कलशाभिषेको हो। पूजा-गद्याण (?) द्वयं, तीर्थयात्रा-कायोत्सर्गाः परन्तु जैनधर्मकी दृष्टिसे इन सभी अपराधोंके ६, वीटिका ताम्बूल ५० ।” अपराधी एक ही दंडके पात्र नहीं हो सकते। परन्तु इस दंडका पात्र कौन है ? किसको प्रायश्चित्तसमुच्चयकी चूलिकामें भी गोहत्यासे इसका अनुष्ठान करना होगा ? यह सब यहाँ कुछ स्त्रीहत्या,स्त्रीहत्यासे बालहत्या, बालहत्यासे श्रावक- भी नहीं बतलाया गया । जो शख्स मर चुका है. हत्या और श्रावकहत्यासे साधुहत्याका प्रायश्चित्त उसके लिए तो यह दंड-विधान हो नहीं सकता। उत्तरोत्तर आधिक बतलाया है । यथाः- इस लिए . जरूर है कि मृतकके किसी " साधपासकबालस्त्रीधेनूनां घातने क्रमात् । कुटुम्बीके लिए यह सब दंड तजवीज यावद्वादश मासाः स्यात्षष्ठमर्धाधहानियुक् ॥ ११॥+ किया गया है । परन्तु उस बेचाऐसी हालतमें संहिताका सबके लिए उपर्यक्त रेने कोई अपराध नहीं किया और न मृतकका - हि इसमें कोई अपराध था। बिना अपरांधके दंड . x इस पद्यमें मुनियों द्वारा ऐसी हत्या हो जाने पर देना सरासर अन्याय है। इस लिए कहना पड़ता उनके लिए प्रायश्चित्तका विधान किया है। श्रावकोंके ' है कि यह प्रायश्चित्त नहीं बल्कि अन्याय और लिए इससे कमती प्रायश्चित्त है । परन्तु वह भी उत्तरोत्तर इसी क्रमको लिये हुए है। जैसा कि उक्त अधर्म है; श्रुतकेवली जैसे विद्वानोंका यह कर्म चलिकाके इस पद्यसे प्रगट है: नहीं हो सकता। जरूर इसमें किसीका स्वार्थ " श्रमणच्छेदनं यच्च श्रावकानां तदेव हि। छिपा हुआ है । गंध, फूल और पानोंके बीड़ों द्वयोरपि त्रयाणां च षण्णामधिहानितः ॥ १३ ॥ आदिको छोड़कर यहाँ पाठकोंके सन्मुख दो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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