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________________ ५४ जैनहितैषी [ भाग १३ बातोंको छोड़कर, दोसो मुनियोंको भोजन साथ ही, दंडक्षेत्र विस्तृत करने के लिए इसमें कुछ करानेकी बात बड़ी ही विलक्षण है। जैनियोंके अधिकार वृद्धि भी पाई जाती है । पाठक देखें चरणानयोग तथा प्राचीन यत्याचार विषयक और सोचें कि, यह सब कथन प्रायश्चित्तसमग्रंथोंसे इसका जरा भी मेल नहीं है । जिन जैन र CL च्चयके कथनसे कितना असंगत और विरुद्ध है। इस प्रकारका और भी बहुतसा कथन इस मुनियोंक विषयमे लिखा है कि व उद्मादिक अध्यायमें पाया जाता है। च्यालीस दोषों तथा ३२ अंतरायोंको टालकर शुद्ध आहार लेते हैं, किसीका निमंत्रण स्वीकार पद्यमें कुछ और गद्यमें कछ । नहीं करते और यह मालूम हो जाने पर, कि भोजन (६) साथ ही, इस अध्यायमें कछ दंडउनके उद्देश्यसे तैयार किया गया है, दातारके विधान ऐसा भी देखने में आता है जो पद्यमें कुछ घरसे वापिस चले जाते हैं उनके लिड स्वरू. है तो गद्यमें कुछ और है । अर्थात एक ही अपरापमें प्रस्तुत किया हुआ और खास उन्हींके उद्दे- धके लिए दोनों भागोंमें भिन्न भिन्न प्रकारका दंड श्यसे तैयार किया हुआ इस प्रकारका भोजन प्रयोग किया गया है। और जो इस बातको कभी विधेय नहीं हो सकता। इस लिए दंड- भी सूचित् करता है कि ये दोनों भाग किसी विधानका यह नियम जैनधर्मकी नीतिके विरुद्ध एक व्यक्तिके बनाये हुए नहीं हैं । इस प्रकारके है । साथ ही, इसका अनुष्ठान भी प्रायः अशक्य , कथनोंका एक नमूना इस प्रकार है: "गर्वान्मांसं च मद्यं च क्षौद्रं सेवितवानसौ । जान पड़ता है । बहुत संभव है कि इस दंड- . एकशः क्षपणं तस्य विंशत्यभ्यधिकं शतम् ।। २२॥ विधानमें उस समयके भट्टारकोंका, जो अपने प्रमादादुपवासाः स्युर्विशतिदोषहानये।" आपको मुनिमुख्य मानते थे और जिनका थोड़ा इस डेढ पद्यमें गर्वसे मय, मांस और मद्य बहत परिचय इस लेखमें आगे चलकर दिया नामक तीन मकारोंके सेवनका प्रायश्चित्त १२१ जायगा, कुछ स्वार्थ छिपा हुआ हो। परन्तु उपवास प्रमाण और प्रमादसे उनके सेवनका कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि, यह कथन प्रायश्चित्त सिर्फ २० उपवास प्रमाण लिखा है। जैनधर्मकी दृष्टिसे विरुद्ध अवश्य है । जैन अब गद्य भागको देखिए:धर्मके प्रायश्चित्त ग्रंथोंमें श्रीनन्दनन्याचार्यके "मकारत्रयसेवितस्य प्रायाश्चत्तं विद्यते-उपवासा द्वादश शिष्य गुरुदासाचार्यका बनाया हुआ 'प्राय- १२, अभिषेकाः पंचाशत् ५०, आहारदानानि पंचश्चित्तसमुच्चय ' नामका एक प्राचीन ग्रंथ है। शत् ५०, कलशाभिषेक एकः १, पुष्पसहस्रचतुर्विइस ग्रंथकी चूलिकामें उक्त प्रकारके अपराधका शतिः २४०००, तीर्थयात्रा द्वे २, गंधं पलचतुष्टयं प्रायश्चित्त सिर्फ ३२ उपवास प्रमाण लिखा , ४, संघपूजा, गद्याण ? त्रय सुवर्ण ३, वीटिका शतमेकं, कायोत्सर्गाश्चतुर्विंशतिः । यदि प्रमादतः मकारत्रय. है । यथाः -- सेविता उपवासषटुं ६, एकभकाष्टकं, पंचविंशत्याहार" सुतामातृभगिन्यादिचाण्डालीरभिगम्य च। दानानि २५, पंचविंशतिरभिषेकाः २५, पुष्पसहस्राणि अनुवीतोपवासानां द्वात्रिंशतमसंशयम् ॥ १५० ॥ पंच ५०००, गंधं पलद्वयं २, पूजा द्वादश १२, ताम्बू- इससे मालूम होता है कि संहिताके उपर्युक्त लवीटक-पंचाशत् ५०, कायोत्सर्गा द्वादश १२॥" दंड-विधानमें उपवासोंको छोड़कर शेष मुंडन, यह कथन पहले कथनसे कितना विलक्षण तीर्थयात्रा, महाभिषेक, पूजनके लिए भूम्यादि है, इसे बतलानेकी जरूरत नहीं है । पाठक एक अर्पण और मुनिभोजनादिका संपूर्ण विधान सिर्फ नजर डालते ही स्वयं मालूम कर सकते हैं। -दो उपवासोंके स्थानमें प्रस्तुत किया गया है। हाँ प्रायश्चित्त-समुच्चयका इस विषयमें क्या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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