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जैनहितैषी
[भाग १३
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गाय भी उपस्थित हैं। ये भी दंडमें किसीको दान १-" अस्नातान्न स्पृशेत्सर्वान् स्नातानपि च शूद्रकान् । स्वरूप भेंट की जायगी । यद्यपि जैनधर्ममें कुलालमालिकादिवाकीर्तचक्रिकुविंदकान् ॥ ४५ ॥ गौ-दानकी कोई माहमा नहीं है और न उसके २-मातंगश्वपचादीनां छायापतनमात्रतः। देनेसे किसी पापकी कोई शांतिका होना माना तदा जलाशयं गत्वा सचेलस्नानमाचरेत् ॥ ५६ ॥ जाता है। प्रत्युत अनेक जैनग्रंथोंमें इस दानको ३-उच्छिष्टास्पृश्यकाकादिविण्मूत्रस्पर्शसंशये। निषिद्ध जरूर लिखा है *। तो भी उमास्वामि- अस्पृश्यमृष्टसूर्पादिकटादिस्पर्शने द्विजः ॥ ८२ ॥ श्रावकाचार जैसे जाली ग्रंथों में जिनमदिरके ४-शुद्ध वारिणि पूर्वोक्तयंत्रमंत्रैः सचेलकः । लिए गौ-दान करनेका विधान जरूर कुर्यात्स्नानत्रयं दंतजिह्वाघर्षणपूर्वकम् ॥ ८३ ॥ पाया जाता है, जिससे अर्हद्रद्वारकके लिए ५-मिथ्यादृशां गृहे पात्रे भुंक्ते वा शूद्रसद्मनि । रोजाना शुद्ध पंचामृत तैयार हो सके ।
तदोपवासाः पंच स्युर्जाप्यं तु द्विसहस्रकम् ।। ८६ ॥ आश्चर्य नहीं कि ऐसे ही किसी आशयसे प्रेरित इन पद्योंमेंसे पहले पद्यमें लिखा है कि, चारों होकर, उसकी पूर्तिके लिए, उपर्युक्त दंड-विधानमें वर्णो से किसी भी वर्णका-अथवा मनुष्य मात्र से तथा इसी ग्रंथके अंतर्गत और भी बहतसे दंडप्र- कोई भी क्यों न हो यदि उसने स्नान नहीं किया योगोंमें गो-दानका विधान किया गया हो । अस्त है तो उसे छूना नहीं चाहिए । और शूद्रोंकोइसी प्रकार इस अध्यायमें कुछ दंड-विधान ऐसा कुम्हार, माली, नाई, तेली तथा जुलाहोंको-यदि भी देखनेम आता है जिसमें । अपराधी कोई वे स्नान भी किये हुए हों तो भी नहीं छूना चाऔर दंड किसीको' अथवा 'खता किसीकी हिए । ये सब लोग अस्पृश्य हैं। दूसरे पद्यमें यह सजा किसीको' इस दुर्नीतिका अनुसरण किया बतलाया है कि यदि किसी मातंग-श्वपचादिककी गया है। जैसे आत्महत्या ( खटक
अर्थात् भील, चांडाल, म्लेच्छ, भंगी, और चमार आत्मघातीके किसी कुटुम्बीको, इत्यादि।
आदिककी छाया भी शरीर पर पड़ जाय तो
तुरन्त जलाशयको जाकर वस्त्रसहित स्नान करना संकीर्ण हृदयोद्वार ।
चाहिए ! तीसरे और चौथे पद्यमें यहाँ तक (९) अब इस प्रायश्चित्ताध्यायसे दो चार आज्ञा की है कि, यदि किसी उच्छिष्ट पदार्थसे, नमने ऐसे भी दिखलाये जाते हैं, जो जैनधर्मकी अपय मनष्यादिकसे. काकादिकसे अर्थात उदारनीतिके विरुद्ध हैं । यथाः-.
कौआ, कुत्ता, गधा, ऊँट, पालतू सूअर नामके ___ * जैसा कि निम्न वाक्योंसे प्रगट है:-" यया जानवरोंसे और मलमूत्रसे छूजानेका संदेह मी जीवा हि हन्यन्ते पुच्छरोंगखुरादिभिः ॥ ९-५४॥ हो जाय अथवा किसी ऐसे छाज-छलनी वगैरयस्यां च दह्यमानायां तर्णकः पीज्यते तरं। दका तथा चाई.आसनाटिकका स्पर्श हो जाय तां गां वितरता श्रेयो लभ्यते न मनागपि ॥५५॥" जिसमें कोई अस्पृश्य पदार्थ लगा हुआ हो तो -इति अमितगत्युपासकाचारः । १ यह ग्रंथ परीक्षा द्वारा जाली सिद्ध किया जा
इन दोनों ही अवस्थाओंमें दाँतों तथा जीभको चुका है । देखो जैनहितैषी दसवाँ भाग अंक १-२ ।
रगड़कर यंत्रमंत्रोंके साथ शुद्धजलमें तीन वार * यथा:
१ आदि' शब्दसे इवान (कुत्ता ) आदिका जो "-पुष्पं देयं महाभक्त्या न तु दुष्टजनैधृतम् ॥२-१२९॥ ग्रहण किया गया है वह इससे पहलेके " स्पृष्टे विण्मूत्रपंयोथै गौ जलार्थ वा कूप पुष्पसुहेतवे ।
काकश्च खरोष्ट्र ग्रामशूकरे 'इस वाक्यके आधारपर किया वाटिकां संप्रकुर्वेश्च नाति दोषधरो भवेत् ॥-१३०॥” गया है।
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