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________________ जैनहितैषी [भाग १३ दिगम्बर प्रतिमा ही है। अकबरकी प्रकृति भी दुर्गादासका आदर्शचरित्र अङ्कित किया गया है । ऐसी नहीं थी कि वह श्वेताम्बरियोंको प्रसन्न अपूर्व नाटक है । मराठी जाननेवालोंको अवश्य करके दिगम्बरियोंके साथ अन्याय करे । फरमा- पढ़ना चाहिए । अनुवादमें कहीं कहीं शिथिलता नमें यद्यपि कोई शब्द दिगम्बरियोंके विरुद्ध और अस्पष्टता आ गई है। यह न आती तो नहीं है; परन्तु श्वेताम्बरियोंकी ही मालिकीके अच्छा था। पुस्तक लोकमान्य पं० बालगंगाधर ये स्थान हैं, इसका अर्थ ही यह है कि इन पर तिलकको समर्पित की गई है। दिगम्बरोंका अधिकार नहीं है। फरमानके इस ४ महिला-गानमाला-लेखक और अंशको पढ़कर कि “ यद्यपि इस समय ये स्थान प्रकाशक पं० सुखराम चौबे, लार्डगंज, जबलहीरविजयजीको दिये जाते हैं। परन्तु वास्तवमें पूर । डिमाई अठपेजीके २६ पृष्ठ । मूल्य दो हैं ये सब जैन श्वेताम्बर-धर्मवालोंहीके, और आना । विवाहादि संस्कार कार्योंके समय स्त्रियाँ इन्हींकी मालिकीके" यह भान होता है जैसे इस जो भले बुरे गीत गाया करती हैं, उनके रोकनेके जाली फरमान लिखनेवालेको यह भय हो लिए और अच्छे गीतोंके द्वारा स्त्री-समाजमें अच्छे गया हो कि इस फरमानसे हीरविजयके बादके भाव भरनेके लिए यह पुस्तक रची गई है । रचना लोगोंका अधिकार कैसे सिद्ध होगा और इस- स्त्रियोंके लिए सचमुच ही उपयोगी है। लिए उसने उक्त भयको मिटानेके लिए ये पंक्तियाँ ५ ललितविलास-लेखक, मुनि तिलक पीछेसे और बढ़ा दी हों । कुछ भी हो, हम इस- विजय और प्रकाशक, आत्मानन्दजैनसभा, पर सन्देह हो गया है। इतिहासके विद्वानोंको इस 1 अंबाला शहर । रायल सोलह पेजीके ५६ पृष्ठ । विषयमें निष्पक्ष होकर छानबीन करनी चाहिए। ए। मूल्य दो आने । यह मुनि महाराजकी खड़ी हमें इस फरमानको पढ़ते हुए जो जो बातें सूझी बोलीकी कविताओंका संग्रह है । जान पड़ता है इस समय तो हमने केवल उन्हींका उल्लेख , | आपने इन पयोंको श्रीयुत बाबू मैथिलीशरणकी कर दिया है । पुस्तक बड़े महत्त्वकी है । प्रत्येक - 'भारत-भारती' और जयद्रथवध आदिको इतिहासके प्रेमीको इसकी एक एक प्रति मँगा लेना , मगालना सामने रखकर लिखा है । क्योंकि इसमें उनके चाहिए । यह बढ़िया आर्टपेपर पर कई रंगकी का चरणके चरण नकल कर दिये गये हैं । भावोंको - स्याहीसे छपाई गई है और इसकी जिल्द तो भी आपने खूब उड़ाया है । मैथिली बाबूके और भी अधिक नयनाभिराम है। हमारी सम- समर्पण तककी आपने छन्द बदलकर नकल कर झमें एक इतिहासकी पुस्तकमें इतने आडम्बरकी डाली है। देखिए:आवश्यकता नहीं थी। जो मिली आपसे चीज आपको कैसे अर्पण करूँ उसे, ३ राठोड़वीर दुर्गादास-लेखक और मैं होकर तो भी धृष्ट आपके कर कमलोंमें धरूँ इसे । प्रकाशक, तात्या नेमिनाथ पांगल, सरसवाङ्मय- अतएव धृष्टता पर मेरी न ध्यान आप कुछ भी दीजे, प्रसारक मण्डली, गिरगाँव; बम्बई,। पृष्ठसंख्या हे दयानिधे, किंकरकृतिको स्वीकृत कर मम ( ? ) १७५ । मूल्य एक रुपया । यह पुस्तक प्रसिद्ध उपकृत कीजे । नाटककार स्वर्गीय द्विजेन्द्रलाल रायके बंगला इसमें जिसकी नकल की गई है, वह मैथिली नाटकका मराठी अनुवाद है जो हमारे प्रकाशित बाबूका समर्पण इस प्रकार है:किये हुए हिन्दी दुर्गादासके आधारसे किया गया पाई तुम्हीसे वस्तु जो कैसे उसे अर्पण करूँ ? है। इसमें राजपूतानेके सुप्रसिद्ध महापुरुष वीर पर क्या परीक्षारूपमें पुस्तक न यह आगे धरूँ, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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