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________________ अङ्क २ ] । रहे हों, पंचायत द्वेष-भावकी वृद्धि न होकर प्रेम-भावकी वृद्धि हो । केवल एक शिखरजीके मामले तक ही इस आन्दोलनकी सीमा परिमित नहीं है; किन्तु जितने भी तीर्थ हैं और जहाँ कहीं ये झगड़े खड़े हुए हैं, वे सब शान्त कराये जायँ आन्दोलन करनेवाले अपना कर्तव्य समझते हैं कि दोनों संप्रदायके लोगोंको मुकद्दमे न लड़नेके लिए समझावें और जो मुकद्दमा चल यदि बन सके तो उनको आपस में आदिके द्वारा तै करने के लिए प्रेरणा करें। वे जिस प्रकार दिगम्बरियोंको समझाते हैं उसी प्रकार श्वेताम्बरियोंको भी समझावें । पाठकोंको शायद मालूम होगा जैनहितेच्छुके दिसम्बरके लगभग १०० पृष्ठके अंककी जिसमें कि केवल तीर्थोके झगड़े शान्त करनेके सम्बन्धमें ही सब लेख हैं-साढ़े पाँच हजार कापियाँ निकाली गई हैं और उनका अधिक भागश्वेताम्बर समाजमें ही फैलाया गया है । ऐसी दशा में आन्दोलन करने वालों पर यह आक्षेप करना कि वे दिगम्बरियोंको ही समझाते हैं श्वेताम्बारयों नहीं — अनुचित है । यह हम मानते हैं कि शिखरजीका यह मुकद्दमा श्वेताम्बरियोंकी अनुचित और अन्याय्य आकांक्षा के कारण चला है - उनका यह चाहना कि दिगम्बरियोंको हमारी इजाजतके बिना पूजा करने का हक न मिलना चाहिए सर्वथा अन्याय्य है; परन्तु समझानेवालेके लिए यह कार्य लाभकारी नहीं है कि वह किसी एक पक्षका दोष बतलावे और इस तरह उसे चिढ़ा देवे । उसका काम तो झगकी हानियाँ और आपस में मेल रखनेकी भलाइयाँ बतलाने में ही सफल हो सकता है । आन्दोलनके लेखों में यह भी बतलाया गया है कि धर्म के कार्यों के लिए आपस में लड़ना अधर्म है, पर इसका अर्थ लोगोंको यह समझाया गया कि आन्दोलन करनेवाले सबको स्थानकवासी विविध-प्रसङ्ग | Jain Education International 1 बना देना चाहते हैं । और उनकी दृष्टिमें धर्मतीर्थोंकी रक्षा करना आवश्यक ही नहीं है । लोंगोंको यहाँ तक सुझाया गया है कि श्वेताम्ब - रोंका पक्ष कमजोर है, इस लिए यह आन्दोलन उन्होंने इन लोगोंके द्वारा कराया है । पर वास्तवमें आन्दोलन करनेवालोंके साथ यह बड़ा भारी अन्याय किया जाता है । उनकी बात मानना न मानना, यह हमारे अधिकारमें है, पर कमसे कम उनके सदाशयको तो सदाशय ही समझना चाहिए । तीर्थोंके झगड़े शान्त हों या नहीं, आपसमें मेल होना संभव हो या न हो, शान्त करनेके जो उपाय बतलाये गये हैं वे ठीक हों या न हों पर इसमें तो कोई भी सन्देह नहीं है, झगड़ोंकी शान्तिका आन्दोलन उच्च और पवित्र आशयसे शुरू किया गया है । आन्दोलन करनेवालोंको कुछ अप्रिय सत्य भी लिखना पड़ा है, पर वह केवल उन्हीं लोगोंके लिए जो कि मुकद्दमा लड़नेको धर्म प्रतिपादन करते हैंऔर जिन्होंने झगड़े शान्त करनेके लेखमें सही करनेवालोंको धर्मशून्य, खायाखाद्य- विचार - हीन, भ्रष्ट आदि शब्दों में याद किया था; जो अपनी रक्षाके लिए लाचार होकर मुकद्दमा लड़ते हैं उनके लिए नहीं । इस आन्दोलनको तब तक जारी रखनेकी आवश्यकता है जब तक दिगम्बर और श्वेताम्ब - रोंके बीचमें एक छोटा सा भी मामला या झगड़ा चलता रहे । यदि यह बराबर जारी रक्खा जायगा और समाज इसमें योग देगा तो हमारा विश्वास है कि जैनसमाजका इससे बहुत बड़ा उपकार होगा । ये आपसी झगड़े हमारी शक्तिको धुनकी तरह नष्ट कर रहे हैं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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