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________________ ९४ ६ भारत- जैनमहामण्डलका अधिवेशन | जैनहितैषी - इस वर्ष महामण्डलका वार्षिक अधिवेशन ता० २७ और ३० दिसम्बरको लखनऊ में हुआ । सभापतिका आसन खण्डवेके वकील बाबू माणिचन्दजी बी. ए. एल एल. बी. ने सुशोभित किया था। हमको आशा थी कि इस वर्ष मण्डलका अधिवेशन बम्बईकी अपेक्षा अधिक सफलता से होगा; परन्तु हमारा यह केवल भ्रभ ही निकला। बहुत ही कम लोग उसमें शामिल हुए और सभापतिके महत्त्वपूर्ण व्याख्या - नके सिवाय वहाँ और कुछ भी न हो सका । इससे मालूम होता है कि मण्डलके साथ लोगों की सहानुभूति बहुत ही कम है । और तो क्या उसके शिक्षित सभासदोंकी भी उसके प्रति प्रीति नहीं साधारण जनताको अपनी ओर 1. आकर्षित करने के लिए वह ओई प्रयत्न नहीं करता है । उसका मुख पत्र अँगरेजीमें है, अत एव जो अँगरेजी नहीं जानते वे उसके उद्देश्योंसें अपरचित हैं, बल्कि मण्डल के विरोधियोंके लेखों को पढ़कर उसके विषय में उनके कुछ विरुद्ध खयाल भी हो रहे हैं जिनके दूर करनेका कोई प्रभावशाली उद्योग नहीं किया जाता । जीवदया ट्रेक्टोंको छोड़कर मण्डल कोई ऐसा बड़ा काम भी नहीं कर रहा है जिससे उसकी और लोगों का चित्त आकर्षित हो। हमारी समझमें मण्डलकी यह शिथिलता जैन समाजके शिक्षित - सम्प्रदाय की शोभाकी चीज नहीं है । यह बतलाती है कि हमारे शिक्षित भाइयोंमें न समाज-सेवा करनेका उत्साह है और न वे काम करना ही जानते हैं । इसे मिटाना चाहिए और कर्मवीर बनानेवाली पाश्चात्य शिक्षाका मुख उज्ज्वल करना चाहिए । I Jain Education International [ भाग १३ मण्डल उद्योगसे कांग्रेसके समय एक काम बहुत अच्छा हो गया । वह यह कि ता० २५ दिसम्बर को उसने एक बड़ी भारी आम सभा कराई, जिसके सभापति ' बाम्बे कानिकल' के सम्पादक मि० हार्निर्मन हुए और उसमें महात्मा गाँधी, मि० पोलक मि० विभाकर बैरिस्टर आदिके जीवदया और अहिंसा पर कई प्रभावशाली व्याख्यान हुए | इस सभा में लगभग ४ हजार श्रोता उपस्थित हुए थे । ता० २६, २८, और २९ को कुँवर दिग्विजयसिंह, बाबू प्रभुरामजी खत्री, और ब्रह्मचारी भगवानदीनजीके जैनधर्म सम्बन्धी व्याख्यान हुए । पं० अर्जुनलालजी सेठी, सम्बन्धमें भी कुछ प्रस्ताव पास हुए । और तीर्थों के झगड़े मिटानेके समाज-सुधार ७ भद्रबाहुसंहिताकी समालोचना । 1 इस अंक में संहिताकी समालोचना समाप्त हो गई । जिन पाठकोंने बड़ी समझकर इसे न पढ़ी हो उनसे हमारी प्रार्थना है कि वे एक बार तीनों लेखों को एकत्र करके अवश्य पढ़ जायँ और फिर विचार करके देखें कि उनके हृदय में संहिता के लिए और कितनी श्रद्धा अवशेष है। सोचना चाहिए कि इस प्रकार के ग्रन्थोंकी इस प्रकार की आलोचनायें प्रकाशित करने की कितनी आवश्यकता है । हम चाहते है कि हमारे पाठक इस आलोचना के सम्बन्धमें अपनी अपनी सम्मति भेजने की कृपा करें, जिन्हें हम प्रकाशित कर सकें और जैनपत्रोंके सम्पादक महाशय अपने पत्रों मे इस विषय की चर्चा करें जिससे कोई भी जैनी इस ग्रन्थकी अप्रमाणिकता से अजान न रहे। इस लेखको हमने स्वतंत्र पुस्तकाकार भी छपाया है । मूल्य लागत मात्र रक्खा गया है । प्रचार करने के लिएजो महाशय चाहें मँगा लेवें । For Personal & Private Use Only 3 www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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