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________________ जैनहितैषी [ भाग १३ करनेकी जरूरत नहीं है । वह विरुद्ध विचारोंकी आश्चर्य नहीं जो वे अलग ही हो जायें । अन्तमें टक्वारोंसे हित नहीं हिल सकता । हाँ, यदि डर हम फिर भी कहेंगे कि ब्र० भगवानदीनजी जैसे है तो आप लोगोंके शास्त्रानुकूल धर्मके स्वार्थत्यागी और कर्मवीर पुरुषोंको अपने अनुदार स्थिर रहने के विषयमें है। क्योंकि भद्रबाहुसंहि- वर्तावके कारण जो लोग हाथसे खोदेनेका यत्न ता और त्रिवर्णाचार जैसे धूतोंके बनाये हुए शा- कर रहे हैं वे जैनसमाजके भविष्यको बहुत ही स्त्रों की आयु अब पूरी हो चुकी है। अब युत्क्य- अन्धकारमय बनाया चाहते हैं । अप्रत्यक्षरूपसे नुकूल धर्म स्थिर रहेगा और शिक्षा उसीकी वे यही कर रहे हैं कि किसी भी विचारशील ओर लोगोंको लेजा रही है। पुरुषको जैनसंस्थाओंके काममें हाथ न ब्र० भगवानदीनजीके समान विचार रखने- डालना चाहिए । वाले इस समय जैनसमाजमें दो चार नहीं किन्तु सैकड़ों हो गये हैं; पर उनके सुधारनेका __३ सवाल दीगर जवाब दीगर । र यह उपाय नहीं है। न उनके मुँह बन्द किये अभी थोड़े दिन पहले बेलगाँवमें ब्रह्मचारी जा सकते हैं और न इस तरह अपकीर्ति उड़ानेसे नेमिसागरजीका एक व्याख्यान हुआ था जिसमें कुछ लाभ हो सकता है । लोग अपने घर अपने आपने इस बातको स्वीकार किया कि जैनोंकी मित्रोंमें तरह तरहके विचार प्रकट किया करते संख्या बराबर कम हो रही है; पर इसके लिए हैं । यदि उन सबको ही हम इस तरह प्रकट आपने उपाय यह बतलाया कि इतर लोग करने लगेंगे और उन पर समाजको सचेत करने उपदेश देकर जैन बनाये जायें ! हमारे समालगेंगे, तो इसका परिणाम कभी अच्छा न होगा। जके अन्यान्य पण्डित महाशयोंकी दृष्टिमें भी इसके लिए हमें उदार बनना चाहिए और उत्तम यही उपाय अमोघ जंच रहा है । पर वास्तवमें शिक्षापद्धति आदिके इस तरहके साधन तैयार यह कोई उपाय नहीं है । नये जैन तो बना करदेना चाहिए जिससे उनके विचार स्वयं लिए जायेंगे; पर इससे पुराने जैन नष्ट होनेसे ही जैनधर्मके अनुकूल हो जायँ । यदि भगवान- कैसे बच जायेंगे; यह समझमें नहीं आया। वे दीनजी नवयुवकोंको एकान्तमें लेजाकर समझाते तो बराबर कम हो रहे हैं-प्रति दस वर्षमें हैं तो आप लोग भी भगवानदीनजीको और प्रत्येक १०० जैनोंमेंसे ११ नष्ट हो जाते हैं, उन्हें प्रेमसे समझाइए और उनके पूर्व विचारोंको अर्थात् १०० के ८९ रह जाते हैं, उनका कम बदल दीजिए तथा इस प्रकारका साहित्य तैयार होना कैसे बन्द हो जायगा ? यदि यह कहा कराइए जिसे पढ़कर वे जैनधर्ममें स्थिर हो जावें। जाय कि जितने जैन दस वर्षमें कम होंगे, उतने इसके सिवाय उन्हें कुछ समय भी दीजिए । दूसरे धर्मवाले जैन हो जायेंगे, इस तरह उनकी अवस्था ज्यों ज्यों पक्क होती जायगी, जैनोंकी जो संख्या इस समय है वह जितनीकी त्यों त्यों उनके खयाल बदलते जायँगे और वे तितनी बनी रहेगी । पर यह बात कहनेमें धर्मके अनुरागी बन जायँगे । उनको बदनाम जितनी सहज है उतनी करनेमें नहीं होगी। करना, या उनके विषयमें बुरे विचार फैलाना, सन् १९०१ से १९११ तकके दस वर्षोंमें इस प्रकारकी नीति तो बहुत ही भयंकर है। हमारी संख्या लगभग ८६ हजारकी कमी हुई इससे उनका सुधारना तो दूर रहा, वे उलटे है, अर्थात् प्रतिवर्ष लगभग साढ़े आठ हजार चिढ़ जायेंगे और आपके इस संकीर्ण समाजसे मनुष्य हमारी संख्या घटे हैं । ऐसी दशामें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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