SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अङ्क] पुस्तक-परिचय। वाया है और उसमें मेघदूतके ढंगपर, उसीकी दिगम्बर सम्प्रदायके भी मन्दिर और गृह अवश्य छाया लेकर १३१ श्लोकोंमें अपनी कवित्व- होंगे। क्योंकि जनरल ए. कनिंगहामके कथनाशक्तिका परिचय दिया है। जोधपुरसे सूरत तक- नुसार बादशाही जमानमें नगर कोटकी दीवानके प्रसिद्ध प्रसिद्ध स्थलोंका और मन्दिर तीर्था- गीरी (मंत्रित्व ) दिगम्बर जैन किया करते दिकोंका इसमें मनोरम वर्णन है। 'मेघदू- थे। विज्ञप्तित्रिवेणीसे यह भी पता लगता है तसमस्यालेख ' नामका एक और विज्ञप्तिपत्र कि १५ वीं शताब्दिमें गुजरात, राजपूताना है, जिसे मेघविजयजीने औरंगाबाद ( दक्षिण ) आदिकी तरह सिन्ध और पंजाबमें भी जैनसे आचार्य विजयप्रभके पास दीव बन्दरको धर्मका अच्छा प्रचार था। वहाँ हजारों जैन भेजा था। यह भी इन्दुदूतके ढंगका है । बसते थे और सैकड़ों जिनालय मौजूद थे। जिन इसमें इतनी विशेषता है कि इसके प्रत्येक श्लोक- . • मरुकोट्ट, नन्दनवन, और कोटिल्लग्राम आदि के तीन चरण ग्रन्थकर्ताके हैं और चौथा मेघदू घ. तीर्थस्थानोंका इसमें उल्लेख है, उनका आज कोई तका है। 'चेतोदूत' नामका एक विज्ञप्तिपत्र नाम भी नहीं जानता है । सर्वसाधारण जनऔर भी है । इस ग्रन्थमें जो विज्ञप्तिपत्र प्रकाशित . ताको और राजादिकोंको भी उस समय जैनधर्मसे किया गया है, उसका नाम विज्ञप्तिनिवेणिः है । इसे विक्रम संवत् १४८४ माघ सुदी १०. " बहुत कुछ सहानुभूति थी । मुनिमहोदय जिनवींके दिन सिन्ध देशके 'मलिकवाहण' नामक विजयजीने इस ग्रन्थका बहुत ही परिश्रमसे र सम्पादन किया है । मूल विज्ञप्तिपत्र कुल ६५ स्थानसे जयसागर उपाध्यायने गुजरातके , गुजरातक पृष्ठोंमें आगया है और १२ पृष्ठोंमें उसका हिन्दी अणहिलपुरपाटणस्थ आचार्य जिनभद्रसूरिके सार है । शेषके लगभग ८० पृष्ठोंमें इसकी पास भेजा था । यह संस्कृत गयपयमय है । भमिका है, जिसमें पचासों ग्रन्थोंकी छानबीन इसकी श्लोकसंख्या १०१२ श्लोक प्रमाण करके विज्ञप्तिपत्रोंका स्वरूप, उनका इतिहास, है । इसकी रचना भी सुन्दर है और खास खास विज्ञप्तिपत्रोंका उल्लेख, विज्ञप्तित्रिवेविषय भी महत्त्वका है । जयसागर उपा - णीके लेखक, उनके सहयोगियों तथा गुरु और ध्यायने पंजाबके नगरकोट नामक तीर्थकीजिसको कि आजकल काँगड़ा या कोट - स्थानोंका परिचय आदि महत्त्वपूर्ण बातोंका ज्ञान कराया है । विशेषता यह है कि जो काँगड़ा कहते हैं-एक बड़े भारी संघके साथ जो यात्रा की थी उसका इसमें सविस्तर वर्णन कुछ - कुछ लिखा है वह अपने सम्प्रदायकी पक्ष या है । इससे उस समयके जैनधर्मके इतिहास पर , - श्रद्धाके वश होकर नहीं किन्तु इतिहास पर । प्रकाश डालनेकी दृष्टि से लिखा है । जैन बहुत प्रकाश पड़ता है । आज जिस नगरकोटमें एक भी जैनी नहीं है, वहाँ पर पाँच सम्प्रदायके इतिहासलेखकोंमें जो पक्षपातिताका 'दोष दिखलाई देता है, उससे लेखक महाशय सौ वर्ष पहले एक बड़ा भारी तीर्थ था और र बचे हुए हैं और इससे आशा होती है कि उनके सैकड़ों धनिक जैनोंका निवास था और वहाँका द्वारा जैन इतिहासकी बहुत अधिक सेवा राजा जैनधर्मसे सहानुभूति रखता था। होगी । ऐसी बहुमूल्य पुस्तक लिखने और पन्द्रहवीं शताब्दिके अन्त तक वहाँ पर श्वेता- प्रकाशित करनेके उपलक्ष्यमें हम लेखक महाम्बरसम्प्रदायके चार बड़े बड़े जैनमंदिर थे । शयकी और आत्मानन्द जैनसभाकी प्रशंसा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy