SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अङ्क २] विविध-प्रसङ्ग। तीनचारका फर्क है । आप कहते हैं कि इससे महाराज! इस विवादको रहने दीजिए और लोग भड़क जायँगे । हम कहते हैं कि संस्थाकी अवस्था सुधारनेका प्रयत्न कीजिए। लोगोंको सच बात कहकर भड़का देना अभी तक हमारी संस्थाओंसे काम अवश्य हुआ अच्छा, पर झूठ कहकर, कुछका कुछ बतलाकर, है, पर वह बहुत ही थोड़ा हुआ है । अब उससे धोखा देना अच्छा नहीं । और सच तो यह है संतोष नहीं होता है । समय अब यह कहता है कि यदि लोग इतनी जल्दी भड़क जाते हैं, तो कि उनकी दशा सुधारो और उनसे थोड़से थोड़े इसके कारण आप ही जैसे सज्जन हैं जिन्होंने समयमें और कमसे कम खर्चमें, अधिकसे संस्थाओंकी भीतरी दशायें छुपा छुपाकर लोगों- अधिक काम करके दिखलाओ। की ऐसी आदतें बना दी हैं कि वे किसी भी . २ मतभिन्नता और जैनसमाज । संस्थाके अप्रबन्धकी बात सुनते ही भड़क उठते हैं और सहायता देना बन्द कर देते हैं। संसारमें मतभिन्नता सदा रहेगी । जब तक कृपया इस पालिसीको बदल दीजिए और संस्था- मनुष्य जातिमें बुद्धि है, सोचने समझनेकी शक्ति ओंकी भीतरी बातोंके प्रकाशित होनेमें रुका- है, अथवा यह कहिए कि उसमें मनुष्यता है, वट न डालकर उन्हें लोगोंको जानने दीजिए तब तक उसकी मतभिन्नता मिट नहीं सकती। जिससे वे स्वयं संस्थाओंके सधार करनेकी एक ही धर्म, एक ही सम्प्रदाय और एक ही पंथके चिन्ता करें और संस्थाओंकी वास्तविक उन्नति अनुयायियोंमें भी मतभिन्नता होती है । यों साधा. हो। आप स्याद्वादपाठशालाके महत्त्वको जान- रणतः तो वे किसी एक सम्प्रदाय या पन्थमें नेके लिए उसकी रिपोर्टोको पढनेकी सलाह रहते हैं; पर यह संभव नहीं कि उस सम्प्रदाय देते हैं। पर यह तो बतलाइए कि उन रिपो- या पन्थके सारे अनुयायियोंसे प्रत्येक ही विषयमें टोंको लिखते तो आप ही या आप उनका मत एक हो जाय । जो जरा बुद्धिमान ही जैसे सज्जन हैं, जो रिपोर्टोंके प्रकाशित हैं, कुछ अधिक पढ़ते लिखते हैं, उनमें तो यह करनेकी सबसे अधिक उपयोगिता चन्दा बटोरना बात बहुत अधिकतासे दिखलाई देती है। और लोगों पर प्रभाव डालना समझते हैं । ये जो मनुष्यके इन मतोंमें परिवर्तन भी खूब होते समाजमें ३०-३५ विद्वान् आप हर किसीको हैं । इन परिवर्तनोंका प्रधान समय युवावस्था है । बतला देते हैं, सो कहिए कि हम इसमें जब तक बुद्धि अपरिपक्व रहती है, तब तक स्यावादविद्यालय, सिद्धान्तविद्यालय, मथुरा- वह बहुत ही अस्थिर रहती है। वह सबेरे एक विद्यालय आदि किस किसका हिस्सा समझें? स्थिर करती है, और शामको उसे छोड़कर इनके नाम सबहीने तो अपनी अपनी रिपोर्टोंमें दूसरा ग्रहण कर लेती है, और दूसरे दिन लिख रक्खे हैं। और इनकी सूची बनाकर यह किसी तीसरेको ही सच समझती है । प्रायः भी तो देखिए कि इनमें सचमुच ही किसी कामके प्रत्येक ही शिक्षितमें यह बात देखी जाती है । विद्वान् कितने हैं और उनमें जो त्रुटियाँ हैं वे पहलेके लोगोंमें भी थी और आजकलके लोगोंमें क्या आपके विद्यालयोंके प्रबन्ध और पढ़ाई आ- भी है। पर आजकल यह लोगोंकी दृष्टिमें अधिक दिके लिए आभारी नहीं हैं ? यदि प्रबन्ध अच्छा आती है। क्योंकि आजकल विचार-स्वातन्त्र्यकिया जाय, कार्यकर्ता अच्छे चुने जाय, तो बढ़ता जा रहा है । अँगरेजी शिक्षाके प्रभावसे क्या और अच्छे विद्वान् नहीं बन सकते हैं ? लोग अपने विचारोंको प्रकट करनेमें हिचकिचाते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy