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________________ ૯૯ कम हैं । वे जो कुछ सोचते हैं, अपने साथियोंके सामने प्रकट भी कर डालते हैं । पर कुछ धर्मात्मा लोगोंको यह बात असह्य है । कमसे कम धार्मिक बातोंमें तो वे सबको ' बगुला-भगत ही बनाये रखना चाहते हैं । जिसे धर्मकी किसी भी बात शंका नहीं होती है, उसे वे शुद्ध सम्यग्दृष्टि और जो तरह तरहकी शंकायें करता है उसे घोर मिथ्यादृष्टि समझते हैं । पर हमारी समझमें पहले प्रकारके मनुष्य या तो बिल्कुल बुद्ध होते हैं या पक्के धूर्त और मायाचारी और दूसरे प्रकारके लोग विचारशील और निष्कपट होते हैं । जैनसमाजमें भी अब इस प्रकारके मनुष्य जहाँ तहाँ दिखलाई देने लगे हैं । जो अपने भिन्न विचारों को निडर होकर औरोंके सामने प्रकट कर देते हैं । बाबा भगीर थजी वर्णीने जैनमित्रके द्वारा इस प्रकारके एक सज्जनका परिचय सर्वसाधारणको कराया है । ये हैं (थे ) ऋषभ - ब्रह्मचर्याश्रम हस्तिनापुर के प्रधान संचालक ब्र० भगवानदीनजी । आपके जो जो विचार वर्तमान जैनधर्मके सिद्धान्तोंसे विरुद्ध हैं और जिन्हें उन्होंने अपने दो चार मित्रोंके समक्ष प्रकट किये होंगे उन्हें वर्णीजीने सर्व साधारणके सामने उपस्थित किये हैं और सबको सचेत किया है कि जब तक इनके विचार शास्त्रानुकूल दिगम्बर जैनधर्मके अनुसार न हों तब तक इनसे उपदेश न कराये जायँ और विद्वानोंको इनके मन्तव्योंका खण्डन करके जैनधर्मकी जाति - हितैषी प्रभावना करनी चाहिए आपने यह भी प्रकट कर देने की कृपा की है कि वे ब्रह्मचर्याश्रम से अलग कर दिये गये हैं। इस लेख पर जैनमित्र के सम्पादक महाशयने भी एक • नोट लगाकर समाजको चौकन्ना कर दिया है । । देखिए, यह एक अच्छे विचारशील, स्वार्थत्यागी और कर्मवीर मनुष्यको गिरा देनेका Jain Education International जैनहितैषी - [ भाग १३ कितना जघन्य प्रयत्न है ! उधर तो ब्रह्मचारीजी यह लिखते हैं कि जैनसमाजमें अच्छा वेतन देने पर भी कार्यकर्ता नहीं मिलते हैं और इधर कार्यकर्ताओं पर इस प्रकारकी कृपा होती है । क्या आप लोगों के द्वारा इसी तरहसे अपनी मट्टी पलीद कराने के लिए लोग आपकी संस्थाओंमें काम करने आयँगे ? याद रखिए, जहाँ इतनी संकीर्णता और क्षुद्रता है, वहाँ कोई भी विचारशील आकर खड़ा न होगा । अफसोस कि जो भगवानदीनजी ब्रह्मचर्याश्रम के प्राण बन रहे थे, जिन्होंने बिना कुछ लिए समाज कल्याण - नेकी इच्छासे छह सात वर्ष तक आश्रमकी अनवरत सेवा की, वे केवल इस लिए कि उनके विचार औरोंसे भिन्न हैं, अलग कर दिये गये और लोगोंको उनसे चौकन्ने रहनेका उपदेश दिया गया । इस विषय में बहुत सन्देह है कि जैनमित्रमें जो मन्तव्य प्रकट किये गये हैं, उन्हें उसी रूपमें भगवानदीनजी मानते होंगे। उनमें बहुतसे मन्तव्य ऐसे भी जान पड़ते हैं जो उनके नहीं, किन्तु डारविन आदि पाश्चात्य तत्त्ववेत्ताओंके हैं; और जिन्हें प्रसंगानुसार किसीके पूछने पर उन्होंने प्रकट किये होंगे । सुननेवालोंने यह समझ लिया होगा कि ये इन्हींके विचार हैं । शुरूके सात मन्तव्य तो डारविनकी थियरीसे बिल्कुल मिलते जुलते हैं । कुछ मन्तव्य ऐसे भी जान पड़ते हैं जो थोड़े ही हेरफेरसे लिखनेके कारण कुछके कुछ हो गये हैं । कहा कुछ गया होगा और समझ कुछ लिया गया होगा । सच तो यह है कि जब तक भगवानदीनजीकी ही कलमसे उनके मन्तव्य प्रकट न हों, तब तक उनका वास्तविक स्वरूप नहीं समझा जा सकता। उनका पिछला १५ वाँ मन्तव्य तो बहुत ही ठीक है और उसे जानकर तो हमें उनसे डरनेका कोई कारण For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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