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________________ ८ विचित्र व्याह । ( खण्ड काव्य । ) जैनहितैषी - ( ले०, पं० रामचरितं उपाध्याय । ) प्रथम सर्ग } अति सुशील बे-नाम नगरमें रामदेव रहते थे, निर्धन होने के कारण वे विविध दुःख सहते थे । धर्मभीरु थे, कर्मवीर थे किसी भाँति श्रम करके, हाथ दबाकर काम चलाते थे वे अपने घरके ॥ १ ॥ उनकी स्त्रीका नाम सुशीला था, वह पतिव्रता थी, रामदेवकी छाया सी वह निशदिन अनुव्रता थी । मनो माधवीलता किसी सुन्दरतरुसे लपटी हो, धिक् उस नारीको जिसका मन पतिसे भी कपटी हो २ जलदागमसे सुख पाते हैं मनमें जलचर जैसे, शस्य वृद्धिसे भी आह्लादित होते स्थलचर जैसे । जगको देख निरामय जैसे सुख पाते हैं योगी, वैद्य सुखी होते हैं तैसे खूब बढ़ें जब रोगी ॥ १२ ॥ । रामदेवकी बड़ी चिकित्सा होती है, पर कैसे रोग बढ़ा जाता है, आहुति पाकर पावक जैसे । प्राण बेचेंगे नहीं, माल भी नहीं रहा अब घरमें, रामदेव अब लगे डूबने घोर शोक -सागरमें ॥ १३॥ रामदेव तब बड़े धैर्य्यसे बोले सुनो सुशीला, कैसे कौन समझ सकता है अद्भुत जगकी लीला ॥ जो जैसा करता है उसको वैसा फल मिलता है, क्यों गुलाबका फूल मनोहर, काँटोंमें खिलता है ? १४ स्त्रीके लिए स्वपतिसे बढ़कर प्रेमी और नहीं है, धनसे हीन कभी बिजली क्या देखी गई कहीं है । विना चन्द्रके कभी चंद्रिका कहीं नहीं रहती है, पति-वञ्चक स्त्री उभयलोकमै दुख ही दुख सहती है । ३ जिस दम्पतिमें प्रेम परस्पर रहता है, वह जगमेंसदा सुखी है, विघ्न न पड़ते उसके जीवन-मगमे । सत्यवान सावित्रीकी ज्यों जगमें प्रथित कथा है, ' उसी भाँति दम्पतिका रहना सच्ची सुखदप्रथा है ॥ ४ ॥ यद्यपि पति सेवामें तत्पर रहती सदा सुशीला, सुत-हीनाको किन्तु शून्य लगती थी जगकी लीला । सचमुच ही सुत-हीन व्यक्तिको निज जीवन खलता है, क्यों उदास वह रहे नही तरु, जो न कभी फलता है २ बिना शशीके निशा कृशा ज्यों सुखद नही होती है, बिना सलिलके क्या सरिता भी दुखद नही होती है । पुत्र दीपके बिना अंधेरा रहता है त्यों घरमें, क्या शोभित हो सकता है यदि सरसिज खिलेन सरमें। तनय-प्रणयके लिए न किसका मन लोभित होता है ? अब्धि इन्दुको देख उमँगकर क्यों क्षोमित होता है । शिशुकी बोली मधुर तोतली किसे न वश करती है ठुमक ठुमक करके उसकी गति मतिकी गति हरती है७ काल-क्रमसे धन्य सुशीलाने भी सुत सुख-पाया, रामदेवने उसे गोद में लेकर खूब खेलाया ! ? Jain Education International [ भाग १३ तनय-अंगके रजसे जिसका अंग मलिन होजावे, तो उसके सब दुःख दूर हों भाग्यवान् कहलावे ॥ ८ ॥ "जेस रामदेव थे वैसा, उनको भोला भालाबालक मिला, मिटी अब उनकी प्रबल हृदयकी ज्वाला । नाम पड़ा उसका हरिसेवक विज्ञोंकी अनुमतिसे, होनहारपन लक्षित है उसका, उसकी ही गतिसे ॥ ९ ॥ पर सुख सदा नहीं रहता है अद्भुत जग रचना है, पाकर जन्म दुःख-दानवसे बड़ा कठिन बचना है । कठिन रोगसे अब पीड़ित हो रामदेव रोते हैं, दीन क्षीण हो एक खाट पर बिना नींद सोते हैं ॥ १०॥ erter वैद्य हकीम forय ही उनके घर आते हैं, नाड़ी देख, दवा देकरके, रुपये ले जाते हैं । दुखियों को भी देख, सुखी नर होजाते हैं कैसे, जलता देख अन्य घरको मूढ़ तापते जैसे ॥ ११ ॥ कर्मविवश हो दुख सुख दोनों मिलते काल-कमसे, दोष दूसरेको पर नाहक जग देता है भ्रमसे । कौन बचा सकता है उसको जो मरनेवाला है, गिरते हुए सूर्यको कोई स्थिर करनेवाला है ॥ १५ ॥ है परिणाम वियोग योगका, व्यर्थ शोक करना है, सबकी गति है एक, बता दो किसे नहीं मरना है । सोचो तो क्या तुम्हें मरणका दुःख न सहना होगा, जिस विधि रक्खे ईश उसी विधि जगमें रहना होगा १६ पञ्चतत्त्व हैं नित्य सुशीले ! जीव नहीं मरता है, तो भी सुनकर नाम मृत्युका व्यर्थ मनुज बरता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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