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________________ जैनहितैषी [भाग १३ बहुत तड़के स्नान करना सबके लिए अच्छा निज पूर्वजोंके कीर्ति-कड़खे एक स्वरसे गाइए। नहीं है । उससे सर्दी लग जाने और खाँसी हो हे कर्मवीरो ! धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए । जानेका डर रहता है। स्नान करनेका समय (३) सबसे अच्छा ९ बजेसे १२ बजे तकका है। जो दुर्गुणोंसे हैं भरे उनकी नकल मत कीजिए, आज-कल साबुन आदिका व्यवहार बहुत बढ़ वे बक मरें पर ध्यान उनकी बात पर मत दीजिए। गया है । हमारी समझमें स्नान करते समय उसका परसे कभी अपना भला होता नहीं, सच मानिए, व्यवहार अच्छा नहीं। क्योंकि, उससे फायदा तो जो आपके हैं बस उन्हें अपना हितैषी जानिए ॥ कुछ नहीं, उलटा नुकसान है । कारण, साबुनसे , र वर विज्ञ होकर चापलूसोंसे न धोखा खाइए। हे कर्मवीरो ! धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए। शरीरका ताप नष्ट हो जाता है । इस लिए सर्दी लग जानेका डर रहता है । तौलियासे शरीरको (४) साफ करना ही अच्छा है । स्नान करनेके । . जिससे समुन्नत देश हो उस मन्त्रको पढ़िए सदा, . चलकर कभी रुकिए नहीं कुछ साम्हने बढ़िए सदा । पश्चात् सूखे कपड़ेसे शरीरको ढक लेना बहुत त जिस भाँति हो अपने चरितको गौरवान्वित कीजिए, लाभदायक है । इसी कारण हमारे देशके जगमें यशःसम्भूत-अमृतको सुखी हो पीजिए ॥ अधिकांश मनुष्य स्नानके पीछे आधी धोती गणवान होकरके स्वयं गण औरको सिखलाइए। ओढ़ लेते हैं। स्नान करनेसे शरीरका जो तेज हे कर्मवीरो ! धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए ॥ उत्तेजित होता है, कपड़ेसे ढके जाने पर वह रक्षित हो जाता है । नहीं तो, ठंड लग जानेसे समझे हुएको और समझाना वृथा है, है सही, . सर्दी हो जानेका संशय रहता है । पर क्या दिनेश्वरको दिवसमें दीप दिखलाते नहीं। सन्ताप सहते हैं सुजन सन्तप्त जीवोंके लिए, रखता सदा है छाहमें तरु आश्रितोंको देखिए । अनुरोध । निज शीश दुखियोंके लिए कुछ और दुःख उठाइए। हे कर्मवीरो! धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए॥ (६) गिरिए न मतके गर्तमें, डरिए नहीं संसारमें, लोहा चबाना ही पड़ेगा, देशके उपकारमें। है मृत्यु ही उसकी भली जिसका यहाँ अपयश हुआ, सरवस उसीका खोगया जो मोहसे परवश हुआ । होकर कनौड़े आप ही अपना न नाम हँसाइए। हे कर्मवीरो ! धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए॥ [ ले०, श्रीयुत पं० रामचरित उपाध्याय ।] (१) आलस्य-सरमें व्यर्थ गिरकर दुःखको सहिए नहीं, निजमूल मन्त्रोंको खलोंसे भूलकर कहिए नहीं। अपने भरोसे कार्यका आरम्भ दृढ़ हो कीजए, निज देशका उद्धार कर जगमें सुयशको लीजिए ॥ प्रणसे न अपने खप्नमें भी भीत हो हट जाइए। हे कर्मवीरो । धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए ॥ (२) निज भीरुताको दूरकर दृढ़ता बढ़ाते जाइए, निज उच्चताको और भी ऊँचे चढ़ाते जाइए। निज रूपको पहिचानिए पर-पंचमें फँसिए नहीं, परदेशको गुरु मानकर निज देशको हँसिए नहीं ॥ दुष्कर्म करके जो स्वयं परको सिखाते धर्म है, उनकी न चर्चा कीजिए, उनको नहीं कुछ शर्म है । मनमें, वचनमें, कर्ममें मत भेद पड़ने दीजिए, निज काज करिए, द्रोहियोंको खेद करने दीजिए ॥ पढ़ नीति, प्रीति, प्रतीति अपनी आप और बढ़ाइए। हे कर्मवीरो ! धर्मसे निज कर्मको दिखलाइए । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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