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________________ १२ जैनहितैषी [ भाग १३ __ पद । २ भूधरदास । आप भी आगरेके रहनेवाले . कहा परदेशीको पतियारो; (टेक ) थे। जातिके आप खण्डेलवाल थे । अठारहवीं मनमानै तब चलै पंथकौं, शताब्दीके अन्तमें आप विद्यमान थे। आपके ___साँझ गिनै न सकारो। सबै कुटंब छांडि इतही पुनि, विषयमें इससे आधिक कुछ ज्ञात नहीं हुआ । ___ त्यागि चलै तन प्यारो॥१॥ आपके बनाये हुए तीन ग्रन्थ हैं-१ जैनशतक, दूर दिसावर चलत आपही, २पार्श्वपुराण और ३ पदसंग्रह । ये तीनों ही छप कोउ न राखनहारो। चुके हैं । जैनशतकमें १०७ कवित्त, सवैया, दोहा कोऊ प्रीति करौ किन कोटिक, और छप्पय हैं । प्रत्येक पद्य अपने अपने विषयको अंत होयगौ न्यारो॥२॥ कहनेवाला है । इसे एक प्रकारका 'सुभाषितधनसौं राचि धरमसौं भूलत, संग्रह' कहना चाहिए । इसका प्रचार भी बहुत झूलत मोह मँझारो। है । हजारों आदमी ऐसे हैं जिन्हें यह कण्ठाग्र इहिविध काल अनंत गमायौ, हो रहा है । कुछ उदाहरणः पायौ नहिं भवपारो॥३॥ सांचे सुखसौं विमुख होत है, बालपैन न सँभार सक्यौ कछु, भ्रम मदिरा मतवारो। ___ जानत नाहिं हिताहितहीको। चेतहु चेत सुनहु रे 'भैया,' यौवन वैस बसी वनिता उर, __ कै नित राग रह्यो लछमीको ॥ आप ही आप सँभारो॥४॥ आपकी सारी रचना धार्मिक भावोंसे भरी हुई यौं पन दोइ विगोइ दये नर, ___ डा क्यौं नरकै निज जीको। है। शृंगाररससे आपको प्रेम नहीं था। इसी आये हैं 'सेत' अजौं सठ चेत, कारण आपने कविवर केशवदासकी · रसिक- __ गई सु गई अब राख रहीको ॥ प्रिया' को पढ़कर उन्हें उलहना दिया है:- काननमैं बसै ऐसौ आन न गरीब जीव, . बड़ी नीत लघु नीत करत है, प्राननसौं प्यारी प्रान पूँजी मिस यहै है। बाय सरत बदबोय भरी। कायर सुभाव धरै काइसौं न द्रोह करै, फोड़ा आदि फुनगनी मंडित, सबहीसौं डरै दाँत लि3 'तिन' रहै है ॥ __ सकल देह मनो रोग-दरी॥ काहूसौं न रोष पुनि काहूपै न पोष चहै, शोणित-हाड़-मांसमय मूरत, काहूके परोष परदोष नाहिं कहै है। . तापर रीझत घरी घरी। नेकु स्वाद सारिवेकौं ऐसे मृग मारिवेकौं, ऐसी नारि निरख करि केशव, हा हा रे कठोर ! तेरौ कैसे कर बहै है॥५५॥ 'रसिकप्रिया' तुम कहा करी ॥ यह विक्रम संवत् १७८१में बनकर समाप्त इस ग्रन्थकी बहुतसी रचनायें साम्प्रदायिक हुआ है। दूसरा ग्रन्थ पार्श्वपुराप्प संवत् १७८९ हैं जिनका आनन्द जैनेतर सज्जनोंको नहीं समाप्त हुआ है। इस ग्रन्थकी जैनसमाजमें बड़ी आसकता; परन्तु बहुतसी रचनायें ऐसी भी हैं प्रतिष्ठा है। हिन्दीके जैनसाहित्यमें यही एक जिनके स्वादका अनुभव सभीको हो सकता है। चरितग्रन्थ है जिसकी रचना उच्चश्रेणीकी है कोई कोई रचना बहुत ही हृदयग्राहिणी है। और जो वास्तवमें पढ़ने योग्य है । यों तो भगवतीदासजी इस शताब्दिके नामी कवियोंमें सैकड़ों ही चरितग्रन्थ पद्यमें बनाये गये हैं, अमिन जाने योग्य हैं। परन्तु उन्हें प्रायः तुकबन्दकेि सिवाय और कुछ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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